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Tuesday 21 February 2012

मुस्लिम कोटे पर फंस गई है कांग्रेस



मुस्लिम कोटे पर फंस गई है कांग्रेस


उपेन्द्र प्रसाद
मुस्लिम आरक्षण पर कांग्रेस पार्टी के नेता जो रवैया अपना रहे है, उससे यही लगता है कि वे अल्पसंख्यकों को पिछड़े वर्गों के अंदर अलग से साढ़े 4 फीसदी का कोटा देकर बुरी तरह फंस गए हैं। कोटे के उस फैसले के पहले वे मुसलमानों को आरक्षण देने की बातें कर रहे थे।
मुस्लिम समुदाय के लोगों को लग रहा था कि रंगनाथ मिश्र आयोग की अनुशंसा के अनुरूप पूरे समुदाय को ही कोटा मिलेगा, लेकिन जो मिला वह अल्पसंख्यक कोटा था, जिसमें मुसलमानों की अगड़े वर्गों के लोग शामिल ही नहीं थे और पिछड़े वर्गों के जिन मुसलमानों को साढ़े 4 फीसदी अल्पसंख्यक कोटे के अंदर सुविधा मिली, उन्हें महसूस हुआ कि वे मारे गए, क्योंकि 27 फीसदी कोटे के अंदर जो कुछ उन्हें हासिल हो पाता था, अब वे भी नहीं हो पाएगा। इसका कारण है कि अब मुसलमानों को शैक्षिक रूप से अपने से यादा पिछड़े वर्गों के ईसाइयों, सिक्खों और जैनों के साथ प्रतिस्पर्धा सिर्फ साढ़े 4 फीसदी के लिए करनी होगी।
लगता है कि पहले तीन चरणों के मतदान में कांग्रेस को मुस्लिम मत नहीं मिल पाए हैं। इसके कारण उनके नेताओं में हताशा है। वे नेता खासकर हताश हैं, जिनके हाथों में उत्तर प्रदेश चुनाव अभियान की बागडोर है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह उत्तर प्रदेश के कांग्रेस के मुख्य रणनीतिकार के रूप में उभरे हैं, तो सलमान खुर्शीद मुस्लिम चेहरे के रूप में उभरे हैं। मुस्लिम आरक्षण का तानाबाना भी सलमान ने ही बुना है। अब यदि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की दुर्गति होती है, तो कोई कांग्रेसी इसके लिए राहुल गांधी को तो जिम्मेदार बताएगा नहीं, वह मुस्लिम कोटे की गलत रणनीति को ही इसके लिए जिम्मेदार मानेगा और नपेंगे दिग्विजय सिंह और सलमान खुर्शीद। यही कारण है कि दोनों नेता मुसलमानों का 9 फीसदी कोटा देने की बार-बार बातें कर रहे हैं। 9 फीसदी की बात करके वे बाकी बचे मतदान में मुसलमानों को अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रहे हैं।
सलमान जिस इलाके से चुनाव जीतते हैं, वहां अभी मतदान नहीं हुआ है। उत्तर प्रदेश का रोहिलखंड इलाका जहां मुसलमानों की आबादी सबसे यादा है, वहां अभी मतदान होना बाकी है। यदि उन इलाकों में कांग्रेस को अच्छी खासी सीटें नहीं मिलीं, तो सलमान खुर्शीद का राजनैतिक पतन भी हो सकता है। उनकी अपनी पत्नी भी विधानसभा का चुनाव लड़ रही है। यदि वह भी चुनाव हार गईं, तो कांग्रेस का मुस्लिम चेहरा बनने की ताक रख रहे, सलमान खुर्शीद अपना राजनैतिक चेहरा भी नहीं बचा पाएंगे। यही कारण है कि 9 फीसदी मुस्लिम कोटे की बात करते करते वे निर्वाचन आयोग से भी भिड़ गए। प्रधानमंत्री से बातचीत करने के बाद उन्होंने खेद जाहिर करते हुए निर्वाचन आयोग को एक पत्र भी लिख डाला, लेकिन उसके बाद इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने निर्वाचन आयोग को चुनौती डाली और दिग्विजय सिंह ने भी मुस्लिम कोटे से संबंधित बयानबाजी को उचित बताते हुए कह दिया कि कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र में जो कहा गया है, उसे चुनावी भाषण के दौरान दुहराना गलत नहीं है। यानी दिग्विजय सिंह भी निर्वाचन आयोग से भिड़ने के मूड में हैं।
कांग्रेस नेताओं का यह कहना ही गलत है कि उसने मुसलमानों को 9 फीसदी कोटा देने का वादा अपने चुनाव घोषणा पत्र में किया। 9 फीसदी को उसमें कोई उल्लेख नहीं है। साढ़े चार फीसदी कोटे की वाहवाही घोषणा पत्र में ली गई है और कहा गया है कि उत्तर प्रदेश में जीत के बाद अल्पसंख्यकाें को उनकी आबादी के अनुपात में कोटा दिया जाएगा। सच तो यह है कि उन्हें उनकी आबादी के अनुपात में कोटा दे दिया गया है। साढ़े 8 फीसदी अल्पसंख्यकों को यदि उनकी आबादी के अनुपात मे 27 फीसदी से कोटा दिया जाय, तो उनका हिस्सा साढ़े 4 फीसदी ही बनता है, क्योंकि 52 फीसदी पिछड़ों के लिए 27 फीसदी मिल रहा है। इसलिए कांग्रेस नेताओं का यह कहना गलत है कि मुसलमानों के लिए 9 फीसदी के कोटे का वायदा उनके चुनाव घोषणा पत्र में है।
अल्पसंख्यकों का यह उपकोटा हिंदू पिछड़े वर्गों को रास नहीं आ रहा है और बेनी प्रसाद वर्मा एक उन्नत पिछड़े वर्ग से हैं। वे जिस भाषा और तेवर में पिछड़े वर्गों के 27 फीसदी से मुसलमानों को 9 फीसदी कोटा देने की बात कर रहे हैं, वह इस मायने में आश्चर्यजनक लगता है कि कोई हिंदू पिछड़े वर्ग का नेता इस तरह की बयानबाजी करके अपनी ही जाति में अपना आधार खो देगा। तो सवाल उठता है कि बेनी प्रसाद वर्मा इस तरह की बयानबाजी क्यों कर रहे हैं? इसका जवाब जानने के लिए यह जानना जरूरी है कि 2007 विधानसभा चुनाव के पहले श्री वर्मा ने समाजवादी ांति दल नाम की एक पार्टी बनाई थी और पार्टी के अनेक उम्मीदवार भी उस चुनाव में खड़े किए थे। उनके सारे उम्मीदवार चुनाव हार गए। उनका बेटा राकेश वर्मा दो सीटों से चुनाव लड़ रहे थे, वे दोनों सीटों से चुनाव हार गए। इस्पात मंत्री वर्मा खुद अयोध्या से उम्मीदवार थे। उस चुनाव में उनकी जमानत जब्त हो गई थी। उन्हें 5 हजार से भी कम वोट मिले थे, जो कुल पड़े मतों का 3 फीसदी था। जाहिर है अपनी जाति का वोट भी वह नहीं पा सके थे। यानी उनका अपना कोई जनाधार ही नहीं है, तो फिर मुस्लिम कोटे की बात करके अपना जनाधार खोने का उन्हें डर ही क्यों? इसके अलावा उनके अपने इलाके में मतदान हो चुके हैं, इसलिए अपने बेटे और अपने समर्थकाें के लिए अब वहां वोट मांगने भी उन्हें नहीं जाना है। गौरतलब है कि राहुल गांधी की सभा के दौरान उन्हें मंच से भागने के लिए कांग्रेस समर्थकों ने मजबूर कर दिया था और सोनिया की सभा के दौरान भी उन्हें बोलने नहीं दिया गया था।
बेनी प्रसाद वर्मा की चिंता कांग्रेस की जीत से यादा समाजवादी पार्टी की हार है। मुसलमान यादातर मुलायम सिंह के साथ खड़े हैं। श्री वर्मा को पता है कि यदि मुसलमानों का एक हिस्सा कांग्रेस की ओर आया, तो कांग्रेस जीते या न जीते सपा के उम्मीदवार हारेंगे। और वे यही चाहते हैं। अपने पूर्व नेता मुलायम सिंह का यादा से यादा नुकसान हो, इसके लिए ही वे मुसलमानों के 9 फीसदी कोटे के मामले को तूल दे रहे हैं और निर्वाचन आयोग को चुनौती तक दे रहे हैं। मुलायम सिंह यादव से उनकी खुन्नस उस समय की है, जब वे सपा में थे। कांग्रेस में उनके आने के बाद भी मुलायम ने 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले कांग्रेस के साथ सीटों पर तालमेल की बातचीत के दौर में बेनी प्रसाद वर्मा को कांग्रेस उम्मीदवार बनाने का विरोध किया था। इसे भी बेनी भूले नहीं हैं।
पर सवाल उठता है कि क्या मुस्लिम कोटे की बात को कांग्रेस नेताओं द्वारा बार-बार दुहराने से उसका फायदा उन्हें मिलेगा? इसकी संभावना बहुत ही कम है, क्योंकि इसके कारण हिंदू पिछड़े वर्गों के लोग कांग्रेस के खिलाफ होते जाएंगे और चुनाव जीतने के लिए सभी वर्गों के समर्थन की जरूरत पड़ती है।


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