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Sunday, 8 April 2012

बेटी घर आएगी तो आंख कैसे मिलायेंगे!


बेटी घर आएगी तो आंख कैसे मिलायेंगे!

SUNDAY, 08 APRIL 2012 13:29

http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-00-20/25-politics/2534-arti-manjhi-odisa-behrampurjail-dandpani-mohanti

बेटी घर आएगी तो आंख कैसे मिलायेंगे!

SUNDAY, 08 APRIL 2012 13:29

ये क्या भयानक हालात है .मैं खुद हैरान हूं कि आज मैं इस देश के संविधान को ना मानने वालों की जीत की कामना कर रहा हूं ? आश्चर्य है कि मैं सरकार के हार जाने पर खुश हूं .इसके लिये कौन ज़िम्मेदार है .वो जंगल में रहने वाले बागी...
हिमांशु कुमार 
अपहृत विधायक  और एक विदेशी सैलानी को छोडने के बदले माओवादियों ने जिन लोगों की सरकार से रिहाई की मांग की है उनमें आरती मांझी भी शामिल् हैं. आरती मांझी पिछले तीन वर्षों फरवरी 2010 से ओड़िसा बेरहामपुर जेल में बंद हैं. आरती को माओवादी होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और स्पेशल  ओपरेशन ग्रुप के जवानों ने उनका सामूहिक बलात्कार किया था. आरती मांझी की गिरफ़्तारी के बाद और जेल में बंद रहने के दौरान कई दफा पुलिसकर्मी उनका बलात्कार कर चुके हैं. बावजूद  इसके उन्हें अदालत में नहीं पेश किया जा रहा है. 
tribals-adivasis-of-india
सरकार और माओवादियों के बीच चल रही मौजूदा वार्ता की मध्यस्थता करने वालों में शामिल मानवाधिकार कार्यकर्ता दण्डपाणी मोहंती ने आरती मांझी के परिवार के लिये सबसे पहले न्याय की  गुहार  3 जुलाई 2011 को लगायी थी. प्रेस विज्ञप्ति जारी कर उन्होंने सरकार से मांग की थी कि आरती मांझी और जुलाई  2011 में गजपति जिले से गिरफ्तार किये गए उसके पिता दकासा मांझी, भाई लालू मांझी, रीता पत्रों और विक्रम पत्रों की तत्काल रिहाई की जाये. मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की ओर से इस मामले में हुई फैक्ट फाइंडिंग का हवाला देते हुए दण्डपाणी ने बलात्कार और बंदियों पर किये अत्याचार के लिए जिम्मेदार पुलिसकर्मियों पर कारवाई की भी मांग की थी.  
प्रेस विज्ञप्ति में दंपनी ने लिखा था कि पुलिस ने सामूहिक बलात्कार कर आरती का मुंह बंद करने के लिये उसे जेल में डाल दिया गया. अब पुलिस अधिकारी आरती मांझी के पिता दशरथ मांझी और भाइयों को मार पीट रहे हैं और उनसे थाने में कोरे कागजों पर दस्तखत कराये गये हैं.
दंडपानी मोहन्ती की इस करुण पुकार पर इस देश के क़ानून की इज्जत करने वाले हम जैसे लोग कुछ भी नहीं कर पाए थे. बस फेसबुक पर लिख दिया गया. एक दो लोगों ने ई मेल को आगे बढ़ा दिया, लेकिन उससे थाने के पुलिस वालों पर या आदेश देने वाले तंत्र के शीर्ष पर बैठे मुख्यमंत्री पर न कोई फर्क पड़ना था और न पड़ा. निर्दोष होने के बावजूद आरती मांझी सरकार की सारी बदमाशियों को चुपचाप सहते हुए जेल में पड़ी रही.  हम सभी लोग भी हार कर चुपचाप बैठ गये और  दण्डपाणी मोहन्ती का नाम गुम हो गया.
लेकिन अचानक दण्डपाणी मोहन्ती का नाम  मीडिया में चमकने लगा. वो अचानक महत्वपूर्ण हो गये. फिर आरती मांझी का नाम भी में आने लगा. फिर खबर आयी कि सरकार आरती मांझी को रिहा कर रही है. पता चला कि जंगलों में रहने वाले और इस देश के पवित्र संविधान को न मानने वाले कुछ देशद्रोहियों को इस आदिवासी लड़की की परवाह है. उन लोगों ने सरकार चला रही पार्टी के एक एम्एलए को और नहाती हुई आदिवासी औरतों के फोटो खींच रहे दो विदेशियों को पकड लिया है.
फिर पता चला कि जिस  दण्डपाणी मोहन्ती की चीख कोई नहीं सुन रहा था, उन्हें सरकार ने सादर घर से बुलाया है और उन्हें इस एमएलए और विदेशियों को छुड़ाने के लिये सरकार और नक्सलियों के बीच मध्यस्थता करने के लिये कहा गया है. आज खबर आ रही है कि सरकार आरती मांझी को छोड़ देगी. हम सब खुश हैं बच्ची अपने घर पहुँच जायेगी.
हम दुखी भी हैं कि अब देश में क़ानून खत्म हुआ. पुलिस हमारी बेटियों से बलात्कार करती है. हम कुछ नहीं कर पाते. हम दुखी हैं अदालतों का इकबाल खत्म हुआ. मामला अदालत में था फिर भी पुलिस आरती के पिता और भाई को घर से उठा कर ले गयी और थाने में ले जाकर पीटा और अदालत कुछ नहीं कर पायी. हम उदास हैं की हम अपनी बेटी को बचाने लायक नहीं रहे. हमें  डर है कि अब अपनी बेटी के घर आ जाने के बाद उससे नज़र कैसे मिला पायेंगे? वो हमसे पूछेगी कि हमारी राष्ट्रभक्ति, कानून को पवित्र मानने की हमारी आस्था किस काम की, अगर वो उसे उस नरक से और गैरकानूनी हिरासत से मुक्त नहीं करा सकती? 
हम शर्मिंदा हैं, लेकिन हम मन ही में अपने  नालायक बेटों को आशीर्वाद दे रहे हैं. हम मन ही मन में अपनी पुलिस और सरकार के हार जाने की खुशी मना रहे हैं. हम क्या कर सकते हैं इस हालत में इसके अलावा? आजादी के बाद ये हालत इतनी जल्दी आ जायेगी, हमने कभी सोचा भी नहीं था. अभी कल तक ही तो मैं इस तिरंगे को और अपनी संसद को प्राणों से भी अधिक प्यारा मानता था. अपने पिता से आज़ादी की लड़ाई के किस्से सुनते ही बचपन बीता. गांधी की जीवनी पढते हुए गाँव को पूर्ण स्वराज्य की इकाई बनाने की पुलक के साथ जवानी में भारत को आदर्श राष्ट्र बनाने का सपना लेकर अपना घर छोड़ कर गावों में चला गया था.
ये क्या भयानक हालत है. मैं खुद हैरान हूं कि आज मैं इस देश के संविधान को न मानने वालों की जीत की कामना कर रहा हूं? आश्चर्य है कि मैं सरकार के हार जाने पर खुश हूं. इसके लिये कौन ज़िम्मेदार है. वो जंगल में रहने वाले बागी इस हालत के ज़िम्मेदार हैं या सरकार में बैठे लोग ज़िम्मेदार हैं. या हमारा समाज हार गया है अपने लालच के सामने. हमने कुछ सामान्य से सुखों के लिये धनपतियों को सब कुछ बेच दिया.
अपनी आज़ादी, अपना संविधान, अपनी संसद, अपनी सरकार, अपनी पुलिस - सब रख दिया धन के चरणों में. अब जिसके पास धन उसके चाकर सब कुछ. अब क्या राष्ट्र, क्या राष्ट्र का गर्व? सब नष्ट हुआ. सारे हसीं सपने चूर चूर हुए. अब आँख के आंसू सूखेंगे तो आगे देखूँगा किधर जाना है. अभी तो नजर डबडबाई हुई है.
himanshu-kumar
 गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार वनवासी चेतना आश्रम के प्रमुख है और उनका संघर्ष एक उदाहरण है. 
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ये क्या भयानक हालात है .मैं खुद हैरान हूं कि आज मैं इस देश के संविधान को ना मानने वालों की जीत की कामना कर रहा हूं ? आश्चर्य है कि मैं सरकार के हार जाने पर खुश हूं .इसके लिये कौन ज़िम्मेदार है .वो जंगल में रहने वाले बागी...
हिमांशु कुमार 
अपहृत विधायक  और एक विदेशी सैलानी को छोडने के बदले माओवादियों ने जिन लोगों की सरकार से रिहाई की मांग की है उनमें आरती मांझी भी शामिल् हैं. आरती मांझी पिछले तीन वर्षों फरवरी 2010 से ओड़िसा बेरहामपुर जेल में बंद हैं. आरती को माओवादी होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और स्पेशल  ओपरेशन ग्रुप के जवानों ने उनका सामूहिक बलात्कार किया था. आरती मांझी की गिरफ़्तारी के बाद और जेल में बंद रहने के दौरान कई दफा पुलिसकर्मी उनका बलात्कार कर चुके हैं. बावजूद  इसके उन्हें अदालत में नहीं पेश किया जा रहा है. 
tribals-adivasis-of-india
सरकार और माओवादियों के बीच चल रही मौजूदा वार्ता की मध्यस्थता करने वालों में शामिल मानवाधिकार कार्यकर्ता दण्डपाणी मोहंती ने आरती मांझी के परिवार के लिये सबसे पहले न्याय की  गुहार  3 जुलाई 2011 को लगायी थी. प्रेस विज्ञप्ति जारी कर उन्होंने सरकार से मांग की थी कि आरती मांझी और जुलाई  2011 में गजपति जिले से गिरफ्तार किये गए उसके पिता दकासा मांझी, भाई लालू मांझी, रीता पत्रों और विक्रम पत्रों की तत्काल रिहाई की जाये. मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की ओर से इस मामले में हुई फैक्ट फाइंडिंग का हवाला देते हुए दण्डपाणी ने बलात्कार और बंदियों पर किये अत्याचार के लिए जिम्मेदार पुलिसकर्मियों पर कारवाई की भी मांग की थी.  
प्रेस विज्ञप्ति में दंपनी ने लिखा था कि पुलिस ने सामूहिक बलात्कार कर आरती का मुंह बंद करने के लिये उसे जेल में डाल दिया गया. अब पुलिस अधिकारी आरती मांझी के पिता दशरथ मांझी और भाइयों को मार पीट रहे हैं और उनसे थाने में कोरे कागजों पर दस्तखत कराये गये हैं.
दंडपानी मोहन्ती की इस करुण पुकार पर इस देश के क़ानून की इज्जत करने वाले हम जैसे लोग कुछ भी नहीं कर पाए थे. बस फेसबुक पर लिख दिया गया. एक दो लोगों ने ई मेल को आगे बढ़ा दिया, लेकिन उससे थाने के पुलिस वालों पर या आदेश देने वाले तंत्र के शीर्ष पर बैठे मुख्यमंत्री पर न कोई फर्क पड़ना था और न पड़ा. निर्दोष होने के बावजूद आरती मांझी सरकार की सारी बदमाशियों को चुपचाप सहते हुए जेल में पड़ी रही.  हम सभी लोग भी हार कर चुपचाप बैठ गये और  दण्डपाणी मोहन्ती का नाम गुम हो गया.
लेकिन अचानक दण्डपाणी मोहन्ती का नाम  मीडिया में चमकने लगा. वो अचानक महत्वपूर्ण हो गये. फिर आरती मांझी का नाम भी में आने लगा. फिर खबर आयी कि सरकार आरती मांझी को रिहा कर रही है. पता चला कि जंगलों में रहने वाले और इस देश के पवित्र संविधान को न मानने वाले कुछ देशद्रोहियों को इस आदिवासी लड़की की परवाह है. उन लोगों ने सरकार चला रही पार्टी के एक एम्एलए को और नहाती हुई आदिवासी औरतों के फोटो खींच रहे दो विदेशियों को पकड लिया है.
फिर पता चला कि जिस  दण्डपाणी मोहन्ती की चीख कोई नहीं सुन रहा था, उन्हें सरकार ने सादर घर से बुलाया है और उन्हें इस एमएलए और विदेशियों को छुड़ाने के लिये सरकार और नक्सलियों के बीच मध्यस्थता करने के लिये कहा गया है. आज खबर आ रही है कि सरकार आरती मांझी को छोड़ देगी. हम सब खुश हैं बच्ची अपने घर पहुँच जायेगी.
हम दुखी भी हैं कि अब देश में क़ानून खत्म हुआ. पुलिस हमारी बेटियों से बलात्कार करती है. हम कुछ नहीं कर पाते. हम दुखी हैं अदालतों का इकबाल खत्म हुआ. मामला अदालत में था फिर भी पुलिस आरती के पिता और भाई को घर से उठा कर ले गयी और थाने में ले जाकर पीटा और अदालत कुछ नहीं कर पायी. हम उदास हैं की हम अपनी बेटी को बचाने लायक नहीं रहे. हमें  डर है कि अब अपनी बेटी के घर आ जाने के बाद उससे नज़र कैसे मिला पायेंगे? वो हमसे पूछेगी कि हमारी राष्ट्रभक्ति, कानून को पवित्र मानने की हमारी आस्था किस काम की, अगर वो उसे उस नरक से और गैरकानूनी हिरासत से मुक्त नहीं करा सकती? 
हम शर्मिंदा हैं, लेकिन हम मन ही में अपने  नालायक बेटों को आशीर्वाद दे रहे हैं. हम मन ही मन में अपनी पुलिस और सरकार के हार जाने की खुशी मना रहे हैं. हम क्या कर सकते हैं इस हालत में इसके अलावा? आजादी के बाद ये हालत इतनी जल्दी आ जायेगी, हमने कभी सोचा भी नहीं था. अभी कल तक ही तो मैं इस तिरंगे को और अपनी संसद को प्राणों से भी अधिक प्यारा मानता था. अपने पिता से आज़ादी की लड़ाई के किस्से सुनते ही बचपन बीता. गांधी की जीवनी पढते हुए गाँव को पूर्ण स्वराज्य की इकाई बनाने की पुलक के साथ जवानी में भारत को आदर्श राष्ट्र बनाने का सपना लेकर अपना घर छोड़ कर गावों में चला गया था.
ये क्या भयानक हालत है. मैं खुद हैरान हूं कि आज मैं इस देश के संविधान को न मानने वालों की जीत की कामना कर रहा हूं? आश्चर्य है कि मैं सरकार के हार जाने पर खुश हूं. इसके लिये कौन ज़िम्मेदार है. वो जंगल में रहने वाले बागी इस हालत के ज़िम्मेदार हैं या सरकार में बैठे लोग ज़िम्मेदार हैं. या हमारा समाज हार गया है अपने लालच के सामने. हमने कुछ सामान्य से सुखों के लिये धनपतियों को सब कुछ बेच दिया.
अपनी आज़ादी, अपना संविधान, अपनी संसद, अपनी सरकार, अपनी पुलिस - सब रख दिया धन के चरणों में. अब जिसके पास धन उसके चाकर सब कुछ. अब क्या राष्ट्र, क्या राष्ट्र का गर्व? सब नष्ट हुआ. सारे हसीं सपने चूर चूर हुए. अब आँख के आंसू सूखेंगे तो आगे देखूँगा किधर जाना है. अभी तो नजर डबडबाई हुई है.
himanshu-kumar
 गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार वनवासी चेतना आश्रम के प्रमुख है और उनका संघर्ष एक उदाहरण है. 


चिकित्सक सुरक्षा अधिनियम लागू करने की अपील,जब हमने हंसी खुशी बाजार में जीना मान लिया है तो चोटों​​ पर रोना क्या?


चिकित्सक सुरक्षा अधिनियम लागू करने की अपील,जब हमने हंसी खुशी बाजार में जीना मान लिया है तो चोटों​​ पर रोना क्या?

मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

देश अब खुला बाजार है। सारी सेवाएं कारोबार है। कारोबार के हितों के लिए हर क्षेत्र माफियागिरि के हवाले हैं। जहां किसी को भी सुरक्षा नहीं​ ​ मिल सकती। जहां कोई समर्पित नहीं है। सिर्फ पैसे का लेन देन है। बुनियादी सवाल क्रयशक्ति से जुड़ा है। पैसे हैं तो कोई समस्या नहीं कोई तनाव​​ नहीं। पर कमाई के रास्ते में जोखिम भी होते हैं। यही बाजार का शाश्वत नियम है। जब हमने हंसी खुशी बाजार में जीना मान लिया है तो चोटों​​ पर रोना क्या?


पहली अप्रैल को छपी  अखबारी खबर के मुताबिक उत्तर प्रदेश के चिकित्सकों ने प्रदेश सरकार से चिकित्सक सुरक्षा अधिनियम लागू करने की अपील की है। उनकी मांग है कि आये दिन चिकित्सकों के साथ तीमारदारों द्वारा किये जाने वाले दुर्व्यवहार के खिलाफ इस अधिनियम को पारित कर उन्हें सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिये। वे इसके लिए प्रदेश सरकार को  ज्ञापन भी सौंपेगे। आइ एम ए अध्यक्ष डा ए एम खान व डा शरद अग्रवाल का कहना है कि यदि चिकित्सकों को नुकसान पहुँचाने वालों को भी सजा मिलने का कानून प्रदेश में लागू हो जाये तो कोई भी ऐसा करने से पहले डरेगा।

अब सवाल यह है कि सुरक्षा अधिनियम की असल में जरूरत किसे है? यहां यक्ष प्रश्न है कि सुरक्षा अधिनियम की असल जरूरत किसे है तीमारदारों को, मरीजों को या चिकित्सकों को?मान लेते हैं कि ऐसा कानून पास हो ही गया, तो क्या किसी की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकेगी?

अस्पतालों में मरीजों के साथ क्या सलूक होता है, देश भर में छपने वाले किसी भी अखबार को उठाकर देख लें। बंगाल के अस्पतालों में थोक भाव में शिशुओं की मौत रोज की दिनचर्या है। देश के किसी न किसा हिस्से में अस्पताल में महिला मरीजों के साथ बलात्कार की खबरें होती है। अंग प्रत्यंग निकाल लेने की खबरें बी कम नहीं होतीं। छिकित्सकों पर हमले भी सर्वत्र होते हैं, सिर्फ उत्तर प्रदेश में नहीं। अस्पतालों में दवा और डाक्टर न होना , मरीज के इलाज में लापरवाही आम बातें हैं।अभी हाल में कोलकाता के आमरी अस्पताल में अग्निकांड में बेमौत लोग मर गये।​
​​
​कुल मिलाकर चिकित्सा क्षेत्र में घनघोर अविश्वास और असुरक्षा का माहौल है और इसकी प्रतिक्रिया में हिंसा की वारदातें होती हैं। ऐसा नही है कि​ ​ हिंसा सिर्फ मरीज पक्ष की ओर से होता है। अस्पतालों में चिकित्सकों और दूसरे कर्मचारियों की गिरोहबंदी अक्सर इतनी पुख्ता होती है कि कोई चूं भी करें तो उसकी हड्डी पसली की खैर नहीं। बंगाल के अस्पतालों से ऐसी खबरें अक्सर मिलती हैं। चिकित्सकों की आफत तब आ जाती है , जब उनका ​​बाहुबलियों या फिर राजनीतिक ताकत से सामना होता है। तब उनकी पिटाई होती है। इस देश में हाल यह है कि बाहुबलियों या राजनीतिक​ ​ ताकत से बचने के लिहाज से कोई भी कानून सुरक्षा की गारंटी नहीं है।​
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​दरअसल हिंसा और सुरक्षा के मसले मूल बीमारी नहीं है। बल्कि यह बीमारी से पैदा होने वाली विकृतियां हैं। परंपरागत तौर पर इस देश में चिकित्सकों और शिक्षकों पर जनता का सबसे ज्यादा विश्वास रहा है। जनता उन्हींका सबसे ज्यादा सम्मान करती रही है। पर आज परिस्थितियां उलट है। क्या कोई भी कानून इन परिस्थितियों को बदल सकती है?शिक्षा और चिकित्सा के साथ सेवा और समर्पण, प्रतिबद्धता और सरोकार जुड़े होने से इन क्षेत्रों को पवित्रतम माना जाता रहा है। सदियों से हमारे नायक चिकित्सक और शिक्षक रहे हैं। विडम्बना है कि आज दोनों की पिटाई होरही है और दोनों क्षेत्रों में घनघोर असुरक्षा का माहौल है। हिंसा की वारदातें उत्तर प्रदेश में बंगाल के मुकाबले कम ही होती होंगी। महानगरों में मरीजों के साथ जो सलूक होता है, उसका उत्तर प्रदेश में शायद अंदाजा लगाना ही ​​मुश्किल हो। क्या महाराष्ट्र , गुजरात या दक्षिण भारत में हालात अलग हैं?क्या कानून बनाने से हालात बदल जायेंगे?




तूल पकड़ने लगा एनसीआरटी के पाठ्य पुस्तक में अंबेडकर के अपमान का मामला


तूल पकड़ने लगा एनसीआरटी के पाठ्य पुस्तक में अंबेडकर के अपमान का मामला

मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

सत्तावर्ग भारतीय संविधान के निर्माता बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के अपमान का कोई मौका नहीं चूकती। हालांकि अछूतों के वोटबैंक की​ ​खातिर सभी दलों की मजबूरी है कि बाबा साहेब का गुणगान किया जाये। अन्ना ब्रिगेड बाकायदा संविधान बदलने की मांग करता है तो खुद नेहरु ने संविधान की समीक्षा के लिए कमिटी बनायी। इंदिरा गांधी ने भी स्वर्म सिंह कमिटी बनायी। अब संविधान समीक्षा की बात नहीं होती। ​​आर्थिक सुधार के बहाने सारे कानून बदले जा रहे हैं। बाबा साहेब का रचा मूल संविधान तो वजूद में ही नहीं है। नागरिकता संविधान ​​संशोधन विधेयक तो संविधान में शरणार्थियों को पुनर्वास और नागरिकता दिये जाने के प्रावधान को बदले बगैर पास हो गया। अंबेडकरवादी दलों ने कभी इसका विरोध नहीं किया। कोटा और आरक्षण के जरिए एमएलए, एमपी, मंत्री और मुख्यमंत्री बनने वालों का न बाबा साहेब से कोई सरोकार रहा और न उनके बनाये संविधान से। लेकिन अछूतों की भावनाओं की एटीएस मशीन से वोट निकालने खातिर जब तब बाबा साहेब के अपमान का मुद्दा जरूर उठता है।ताजा विवाद एनसीआरटी की गायरहवीं कक्षा में पाठ्य राजनीति विज्ञान की पुसत्क में प्रकाशित संकर के कार्टून को लेकर​ ​ है, जिसमें बाबासाहेब को शंख पर सवार और उन्हें हांकते हुए जवाहरलाल नेहरु दिखाये गये हैं। 1947 में देश को आजादी मिली. एक स्वतंत्र नये देश को चलाने के लिए एक नये संविधान की आवश्यकता महसूस की गई। नया संविधान बनाने के लिए प्रतिभावान कानूनविद, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, दार्शनिक के तौर पर गांधी जी और पंडित नेहरू को देश में डॉ अम्बेडकर के समतुल्य कोई योग्य व्यक्ति नजर नही आ रहा था। मजबूरन उन्होने डॉ अम्बेडकर को भारत का प्रथम कानून मंत्री बनाया तथा संविधान बनाने कि जिम्मेदारी दी।

महाराष्ट्र में भीम शक्ति शिव शक्ति महायुति के नेता रामदास अठावले जो बाबा साहेब की बनायी पार्टी रिपब्लिकन के एक धड़े के नेता हैं, इसपर सख्त एतराज जताया है। इससे यह मामला ​​तूल पकड़ने लगा है। लेकिन लगता है कि उत्तर भारत में यह खबर अभी फैली नहीं, इसलिए फिलहाल वहां से प्रितक्रिया, जैसी कि ऐसे मामलों में अमूमन दीखती है, की खबर नहीं है। आरपीआई (ए) के अध्यक्ष रामदास अठावले ने भगवा ब्रिगेड का दामन थाम लिया है।

महाराष्ट्र में अछूतों के अलावा दूसरे समुदायों में भी भारी संख्या में दूसरे समुदायों के लोग हैं, जिनमें इसे लेकर तीव्र प्रतिक्रिया हो रही है। इसके मद्देनजर नालेज इकानामी वाले मानव संसाधन मंत्रालय अब हरकत में आया है और लीपापोती में लग ​​गया है।

मंत्रालय अब एनसीआरटी से इस प्रकरण की समीक्षा के लिए कहेगी। कहा नहीं है। इस पर तुर्रा यह कि सफाई यह दी जा रही है कि ​अंबेडकर कच्छप चाल से संविधान लिख रहे थे। उनके लेखन में गति लाने के लिए पंडित नेहरु हांका लगा रहे थे।यानी सरकार इस कार्टून में कोई बुराई नहीं देखती। वैसे भी यह कार्टून कोई नया नहीं है। यह सरकारी संस्था नेशनल बुकट्रस्ट की संपत्ति है, जिसका एनसीआरटी ने इस्तेमाल किया है।प्रकाशित कार्टून को सरकारी सफाई के नजरिये से देखें तो संविधान रचने के लिए पूरे तीन साल लगाने के दोषी थे बाबा साहेब।

बहरहाल एनसीआरटी को इसका पछतावा नहीं है और इससे जुड़े अफसरान इसे निहायत अकादमिक मामला बताते हुए  अपनी गरदन​ ​ बचा रहे हैं। लेकिन महाराष्ट्र में हो रहे हंगामे से लगता नहीं कि मामला इतनी जल्दी शांत होनेवाला है।


जेल में बीबी जागीर कौर बनी मास्टरनी जी



जेल में बीबी जागीर कौर बनी मास्टरनी जी

Saturday, 07 April 2012 11:22
अंजू अग्निहोत्री छाबा 
जलंधर, 7 अप्रैल। एक पुरानी मसल है कि तारीख खुद को दोहराती है। आज के दुनियादार जमाने में भी यह पूरी तरह मौजूं है। खास तौर पर जेल में बंद बीबी जागीर कौर पर तो यह कहावत एकदम चरितार्थ होती है। पंथ और सियासत से जुड़ने से पहले वे बच्चों को पढ़ाती थीं। अब जेल में उन्होंने फिर पढ़ाने का जिम्मा संभाल लिया है।
जागीर कौर ने गणित की शिक्षिका के तौर पर अपना करिअर शुरू किया था। दो दशक पहले राजनीति में आने के बाद उन्होंने शिक्षण का काम छोड़ दिया। बुधवार से वे कपूरथला जेल की महिला कैदियों को तालीम दे रही हैं। हालांकि यह काम उन्होंने चुना नहीं है। जेल प्रशासन ने एक कैदी के तौर पर उनकी 'काबिलियत'  को देखते हुए उन्हें मास्टरनी का काम सौंपा है। जेल में वे बी श्रेणी की संवासिनी हैं, जिन्हें कठोर श्रम से मुक्त रखा जाता है। मंगलवार को उन्हें जेल प्रशासन ने महिला साथिनों को पढ़ाने-लिखाने का जिम्मा सौंपा।
हालांकि बीबी गुणा-भाग सिखाती रही हैं। लेकिन इस समय वे साथी कैदियों को धार्मिकपाठ पढ़ा रही हैं। एक जेल अधिकारी ने बताया कि जेल में बीबी जागीर कौर से मिलने के लिए उनके नातेदार और अन्यराजनीतिक आते रहते हैं, इसलिए अभी वे कक्षा के लिए पूरा समय नहीं दे पा रही हैं।

बहरहाल जब से बीबी कपूरथला जेल में आई हैं, कोई न कोई खबर निकल कर आ रही है। इससे पहले जेल में उनकी खातिरदारी और मंत्रियों से मिलाई ने विवाद खड़ा कर दिया था। बीबी पर जेल प्रशासन इस कदर निहाल हुआ कि उनके लिए  एलसीडी टीवी और तमाम सुख-सुविधाएं मुहैया कराई गर्इं। पर जेल वालों की इस बेकायदे कृपा का राज खुलने के बाद सरकार ने इस मामले की जांच के आदेश दे दिए और बीबी को आम कैदी जैसी सुविधा देने की बात कही गई। इसके बावजूद उनके रुतबे में कोई कमी नहीं आई है। अब भी उनसे मिलने वालों का तांता लगा रहता है।
बीबी जागीर कौर ने 1978 में शिक्षिका के तौर पर अपना काम शुरू किया था। 1988 तक वे गणित पढ़ाती रहीं। लेकिन धार्मिक और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा उन्हें काफी आगे ले गई। एक दशक पहले अपनी ब्याहता बेटी हरप्रीत कौर के जबरन गर्भपात और साजिश के आरोप में हाल में अदालत ने उन्हें दोषी ठहराते हुए पांच साल कैद की सजा सुनाई है। पंद्रह अक्तूबर 1954 को जन्मी बीबी जागीर कौर ने चंडीगढ़ के राजकीय महिला कॉलेज से से स्नातक किया और बाद में जलंधर के एमजीएन कॉलेज से शिक्षाशास्त्र में डिग्री हासिल की। उन्हें बेगोवाल के सेकेंडरी स्कूल में नियुक्ति मिली। राजनीति में आने से पहले वे बेगोवाल में संत प्रेम सिंह मुरलीवाले डेरा की प्रमुख भी रहीं।


बुखारी और मुलायम में बढ़ी दरारें


बुखारी और मुलायम में बढ़ी दरारें

Saturday, 07 April 2012 17:19
नयी दिल्ली, सात अप्रैल (एजेंसी) जामा मस्जिद इमाम बुखारी ने अब सपा सुप्रीमो के सामने शर्त रखी है कि तीन मुसलमानों को विधान परिषद भेजने पर ही वह मानेंगे।
समाजवादी पार्टी :सपा: पर मुसलमानों की अनदेखी करने का आरोप लगाकर अपने दामाद उमर अली खान की विधान परिषद की उम्मीदवारी को मना करने वाले जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी ने अब सपा सुप्रीमो के सामने शर्त रखी है कि तीन मुसलमानों को विधान परिषद भेजने पर ही वह मानेंगे।
सपा आलाकमान के सामने यह शर्त रखने के साथ ही बुखारी ने पार्टी के मुस्लिम चेहरा और अखिलेश यादव सरकार के वरिष्ठ मंत्री आजम खान पर जमकर निशाना साधा है।
शाही इमाम ने आज 'भाषा' के साथ बातचीत में कहा, ''मैंने अपने दामाद की उम्मीदवारी वापस की है क्योंकि मुसलमानों को उनका वाजिब हक सपा ने नहीं दिया है। मुलायम सिंह का फोन आया था और मैंने उनसे कह दिया है कि विधान परिषद के सात उम्मीदवारों में तीन मुसलमान होने चाहिए और इसके बाद मैं झुकूंगा।''
बुखारी ने कल मुलायम को पत्र लिखकर उमर की उम्मीदवारी को वापस करने की जानकारी दी थी। सपा की ओर से विधान परिषद की सात नामों का एलान किया गया है, उनमें एक नाम उमर अली खान का भी था। वैसे विधानसभा चुनाव में उमर सहारनपुर की बेहट सीट से सपा के टिकट पर चुनाव लड़े थे, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।
बुखारी ने कहा, ''मैं मुलायम सिंह यादव का सम्मान करता हूं, लेकिन उन्होंने मुसलमानों के लिए जो वादे किए थे, वो पूरे होने चाहिए। मंत्रिमंडल के गठन, राज्यसभा और अब विधान परिषद में मुसलमानों को वाजिब हिस्सेदारी नहीं दी गई। अगर सपा तीन मुसलमानों को विधान परिषद नहीं भेजती है तो मेरा दामाद किसी भी सूरत में नामांकन दाखिल नहीं करेगा।''
अटकलें थी कि बुखारी की नाराजगी की असल वजह उनके भाई याहया बुखारी को राज्यसभा नहीं भेजा जाना है। इस पर बुखारी ने कहा, ''ये बातें पूरी तरह बेबुनियाद हैं। मैंने कभी अपने परिवार के लोगों के लिए राज्यसभा की सीट नहीं मांगी। राज्यसभा के उम्मीदवारों के चयन से पहले मुलायम ने मुझसे कहा था कि आप कोई नाम सुझाना चाहते हैं तो मैंने मना कर दिया।''
मुलायम का सम्मान करने की बात करने वाले बुखारी ने आजम खान पर जमकर निशाना साधा। उन्होंने कहा, ''यह शख्स :आजम: खुद का दुश्मन है और मुसलमानों का भी दुश्मन है। आप पार्टी के भीतर पता कर लीजिए, ज्यादातर विधायक और नेता उनसे खुश नहीं हैं। इससे मुसलमानों का नुकसान हो रहा है।''
यह पूछे जाने पर कि अगर सपा उनकी शर्त नहीं मानती तो वह इस पार्टी से नाता तोड़ लेंगे तो उन्होंने कहा, ''अभी उनको फैसला करने दीजिए। अगर वे नहीं मानते हैं तो आगे फैसला मैं जरूर सुनाउच्च्ंगा।''
इस बीच दिल्ली में सपा का कोई नेता इस मामले पर खुलकर बोलने को तैयार नहीं है, क्योंकि यह मसला सीधे सपा सुप्रीमो और बुखारी के बीच का है।
सपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, ''बुखारी साहब को कोई शिकायत है तो उन्हें सीधे नेताजी से बात करनी चाहिए। आजम खान पर निशाना साधना दुर्भाग्यपूर्ण है।''


महिला अपराधों के खिलाफ भोपाल में प्रदर्शन



महिला अपराधों के खिलाफ भोपाल में प्रदर्शन


SATURDAY, 07 APRIL 2012 15:04
http://www.janjwar.com/2011-06-03-11-27-02/71-movement/2533-women-harassment-cases-in-madhy-prdesh-janjwar
भाजपा सरकार की दूसरी पारी और आठवें वर्ष तक प्रदेश में महिलाओं और किशोरियों के साथ हिंसा में बढ़ोत्तरी हुई है। लगातार होते गैंग रेप, छेड़छाड की बढ़ती घटनाओं की वजह से प्रदेश महिलाओं और किशोरियों के लिए असुरक्षित होता जा रहा है...
मध्य प्रदेश  में महिलाओं और किशोरियों के विरुद्ध लगातार बढती हिंसा और अपराध को लेकर 6 अप्रैल को भोपाल के एम.पी. नगर में विभिन्न संगठनों द्वारा प्रदर्शन  किया गया। इसमें कार्यकत्ताओं द्वारा हस्ताक्षर अभियान चलाया गया और पर्चे बांटे गये।
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प्रदर्शन के अंत में एक सभा का आयोजन किया गया जिसे लज्जा शंकर हरदेनिया, डॉ. रिजवानुल हक, उपासना बेहार, अरधा तिवारी, दीपा, रोली, दीपेन्द्र बधेल, जावेद अनीस, मधुकर, जय भीम आदि वक्ताओं द्वारा संबोधित किया गया।
वक्ताओं  ने कहा कि भाजपा सरकार की दूसरी पारी और आठवें वर्ष तक प्रदेश में महिलाओं और किशोरियों के साथ हिंसा में बढ़ोत्तरी हुई है। लगातार होते गैंग रेप, छेड़छाड की बढ़ती घटनाओं की वजह से प्रदेश महिलाओं और किशोरियों के लिए असुरक्षित होता जा रहा है।
खुद को प्रदेश की महिलाओं का भाई और लड़कियों के मामा कहलवाना पसंद करने वाले मुख्यमंत्री से महिलाएं और किशोरियां उनके द्वारा किये गये वायदे को लेकर हिसाब मांग रही हैं।
प्रदर्शन से पहले दिन पांच अप्रैल 2012 को युवा संवाद और नागरिक अधिकार मंच द्वारा मध्य प्रदेश में महिलाओं के प्रति बढती हिंसा को लेकर प्रेस वार्ता कर श्वेत पत्र जारी किया गया। साथ ही इस श्वेत पत्र को ज्ञापन के साथ मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री, गृहमंत्री, मध्य प्रदेश राज्य महिला आयोग, मध्य प्रदेश राज्य मानव अधिकार आयोग, संचनालय महिला और बाल विकास मध्य प्रदेश, महिला और बाल विकास विभाग मध्य प्रदेश शासन को सौंपा गया। विभिन्न संगठनों द्वारा इसको लेकर हस्ताक्षर अभियान तथा आनलाइन पीटीशन चलाया जा रहा है, जिसे ज्ञापन सहित मध्य प्रदेश के राज्यपाल को सौपा जायेगा।
प्रदर्शन के दौरान संगठनों ने मध्य प्रदेश सरकार से मांग की कि जिम्मेदार विभाग को संवेदनशील एवं जवाबदेह बनाया जाये। महिला के लिये बने कानूनों का कठोरता से क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाये। बलाल्कार से सबंधित केस के लिए फास्ट ट्रेक बनाया जाये। बलात्कार से सबंधित केसों में एफआईआर की प्रक्रिया को सरल बनाया जाये और बलात्कार पीडि़त महिला का मेडिकल टेस्ट न किया जाए। महिलाओं की सहायता के लिए बनाई गए हेल्पलाइन नम्बर 1091 सभी टेलीफोन आपरेटरों द्वारा निशुल्क उपलब्ध करने की मांग भी की गयी।
प्रदर्शन में मांग की गयी कि प्रदेश में घरेलू  हिंसा संरक्षण कानून के सही क्रियावयन के लिए पृथक संरक्षण अधिकारी नियुक्त किया जाये। साथ ही विशाखा गाइड़ लाइन को गम्भीरता से लागू करते हुए सभी सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं एवं संगठनों में कार्यस्थल पर यौन उत्पीडन निवारण के लिए एक सक्रिय समीति का गठन किया जाये। मध्य प्रदेश में खासकर आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों से लड़कियां लगातार लापता हो रही हैं। गौरतलब है कि 2004 से 2011 तक प्रदेश में से 35 हजार 395 बच्चियां लापता हुई हैं। इसके लिये सरकार ठोस कदम उठाये।
समाज में प्रचलित टोनही कुप्रथा को समाप्त करने की मांग भी जोर- शोर से उठाई गयी और कहा गया कि मध्यप्रदेश स्तर पर इसके लिए कानून बनाया जाये। राज्य में महिलाओं की स्थिति पर राज्यस्तरीय प्रतिवेदन जारी करने, सभी थानों में आवश्यक महिला पुलिसकर्मी की नियुक्ति सुनिश्चित करने, छात्राओं की सुरक्षा के लिए प्रदेश के सभी विश्वविद्यालयों और कालेजों में महिला सेल के गठन ,सभी जिलों में आश्रयगृहों  एवं प्रशिक्षित परामर्श दाता नियुक्त करने की मांग भी प्रदर्शन के दौरान उठाई गयी। मध्य प्रदेश दिनोंदिन महिलाओं के विरुद्ध हिंसा और अपराध का गढ़ बनता जा रहा। पिछले कुछ सालों से प्रदेश में महिलाओं और किशोरियों के साथ हिंसा में बड़ी तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। लगातार होते गैंग रेप, छेड़छाड की बढ़ती घटनाओं की वजह से प्रदेश महिलाओं और किशोरियों के लिए असुरक्षित होता जा रहा है। 
पिछले कुछ महीनों से तो महिलाओं और किशोरियों के प्रति हिंसा में यहाँ बहुत तेजी देखी जा रही है। लगता है प्रदेश में कानून का राज नही है और प्रशासन आँखों में पटटी बांधे मात्र मूकदर्शक बना हुआ है। पिछले दो माह के दरम्यान हुई ''बेटमा रेप केस'', देवालपुरा (लिम्बांदापार गाँव) में मुक बधिर के साथ रेप, मुलतई में दलित छात्रा के साथ गैगरेप, बैतुल में आदिवासी समुदाय की नाबालिक लड़की के साथ रेप और शिकायत करने पर उसकी मां का कत्ल, बैरसिया गैंगरेप, राजगढ़ गैंगरेप, छिदवाड़ा में नाबालिक लड़की के साथ रेप, शिवपुरी (मनपुरा गाँव) में गैगरेप आदि जैसी बड़ी घटनाएं प्रदेश में महिलाओं और किशोरियों के असुरक्षित होने की कहानी बयां करती हैं। 
गौरतलब है कि प्रदेश में बलात्कार और छेड़छाड़ के सबसे अधिक मामले सामने आए हैं। यहां सबसे अधिक बलात्कार (संख्या 3135/14.1 फीसदी) और छेड़छाड़  (संख्या 6646/16.4 फीसदी) की रिपोर्ट दर्ज की गई हैं, जो देश में सबसे अधिक हैं। दलित और आदिवासी महिला उत्पीडन की घटनाओं में भी हमारे प्रदेश दूसरे राज्यों से आगे है। वर्ष 2011 में भोपाल जिले में 382, इंदौर में 287, ग्वालियर जिले में 327 और जबलपुर में 152 बलात्कार के मामले दर्ज किये गए।
वर्ष 2011 में यहाँ महिलाओं के साथ रेप, लूट, अपहरण, चोरी, हत्या का प्रयास इत्यादि के कुल 54418 मामले दर्ज हुए हैं, जिसमें इदौर में सबसे ज्यादा 18915 तथा दूसरे नंबर पर भोपाल 14287 है। इसके बाद ग्वालियर और जबलपुर है। बच्चों के खिलाफ अपराध के मामलों में मध्य प्रदेश (18.4 फीसदी) का पहला नंबर है। 
मध्य प्रदेश में 2010 में महिलाओं के साथ 16468  आपराधिक घटनाएँ हुयीं, जो कि पूरे देश में 5वें स्थान में था। इतना ही नहीं प्रदेश में 2004 से 2011 तक 35 हजार 395 बच्चियां लापता हो चुकी हैं।


Saturday, 7 April 2012

विधवा बनकर सुहाग की रक्षा FRIDAY, 06 APRIL 2012 08:52



विधवा बनकर सुहाग की रक्षा


http://www.janjwar.com/society/1-society/2529-vidhva-bankar-suhag-ki-raksha-ashish-vashishth
तरकुलारिष्ट यानि ताड़ी के परंपरागत पेशे से जुड़े लोगों की पत्नियां वर्ष में कुछ माह न तो मांग में सुहाग की निशानी सिंदूर भरती हैं और न ही श्रृंगार करती हैं। यानी विधवा जैसा जीवन जीती हैं। इतना ही नहीं इस दौरान ये महिलाएं सिर पर तेल तक नहीं लगाती हैं......
आशीष वशिष्ट
पति की लंबी उम्र के लिए पूजा, व्रत रखने और श्रृंगार करने की परंपरा हमारे देश में प्राचीन समय से है। मगर यह जानकर अचरज होता है कि हमारे देश में ही ऐेसी महिलाएं भी हैं, जो अपने पति की लंबी आयु की कामना और प्राण रक्षा के लिए वर्ष के कुछ महीने विधवा की भांति जीवन व्यतीत करती हैं। सुनने में ये चाहे अजीब और अटपटा लगता हो, मगर ये सत्य है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और देवरिया जिले में ये परंपरा सदियों से जारी है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और देवरिया जिले में तरकुलारिष्ट यानि ताड़ी के परंपरागत पेशे से जुड़े लोगों की पत्नियां वर्ष में कुछ माह न तो मांग में सुहाग की निशानी सिंदूर भरती हैं और न ही श्रृंगार करती हैं। यानी विधवा जैसा जीवन जीती हैं। इतना ही नहीं इस दौरान ये महिलाएं सिर पर तेल तक नहीं लगाती हैं।
taad-tree
ताड़ एक वृक्ष होता है, जिसकी औसत लंबाई 80-100 फीट तक होती है। इसके शिखर पर फल लगता है और बालियां निकलती हैं, जिसमें से मादक द्रव्य निकलता है। उसी नशीले द्रव्य को पेड़ से उतारना जोखिम भरा काम होता है। इस कार्य को करने वाले को 'गछवाह' कहते हैं। गरीबी, अशिक्षा और अंधविश्वास के चलते इस कार्य में पीढि़यों से लगे लोगों में अनेक मान्यताएं प्रचलित हैं।
ताड़ के पेड़ों से ताड़ी निकालने का काम चैत्र से सावन माह तक चलता है, इसलिए इस दौरान ताड़ी निकालने वाले पुरुषों की पत्नियां भयातुर रहती हैं कि काम को अंजाम देते समय उनके पति की कहीं मौत न हो जाय। इसी भय में वे रामनवमी से नागपंचमी तक न तो सुहागिनों-सा श्रृंगार करती हैं और न ही मांग में सिंदूर लगाती हैं। इस दौरान ये 'तरकुलहा माता' (आकाश कामिनी माता) से मन्नत मांगती हैं कि उनके पति सही सलामत अपने कार्य को अंजाम दे देंगे तो पूजा करेंगी और उसके बाद ही अपनी मांग में सिंदूर भरेंगी।
तरकुलहा माता का मंदिर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र के गोररखपुर-देवरिया जिले की सीमा पर अवस्थित है। यहां पूजा में बकरा, भेड़ और सुअर की बलि भी चढ़ाई जाती है। कुछ लोग खीर-पूरी भी चढ़ाते हैं।
यहां यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और आज भी बदस्तूर जारी है। गोरखपुर जनपद के रूपेश बताते हैं कि पेड़ की ताड़ी पकने तक अर्थात चैत्र से सावन तक ताड़ी तोड़ने का काम करने वालों की पत्नियां सुहागिनों की तरह नहीं रहती हैं, बल्कि विधवा जैसा जीवन व्यतीत करती हैं।