मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी और मार्क्सवाद को विकृत करने का गन्दा, नंगा और बेशर्म संशोधनवादी दस्तावेज़
मज़दूर बिगुल, मई 2012
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माकपा की बीसवीं कांग्रेस में पेश विचारधारात्मक प्रस्ताव
अभिनव
हाल ही में देश की दो सबसे बड़ी संसदीय
वामपन्थी पार्टियों ने अपनी कांग्रेस आयोजित की। हालाँकि, मज़दूर वर्ग से
ग़द्दारी कर चुकी इन पार्टियों की कांग्रेस पर चर्चा करने का कोई ख़ास मतलब
नहीं बनता है, मगर फिर भी हम कुछ कारणों से इन पार्टियों की कांग्रेस की
चर्चा करेंगे। इसका एक कारण यह है कि संगठित मज़दूर वर्ग का एक हिस्सा अभी
भी इनके प्रभाव में है। हालाँकि, संगठित मज़दूर वर्ग का एक हिस्सा पूँजीवादी
व्यवस्था द्वारा सहयोजित किया जा चुका है, मगर फिर भी एक विचारणीय हिस्से
ने अभी भी अपने सर्वहारा वर्ग चरित्र की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु को नहीं
खोया है। दूसरा कारण यह है कि असंगठित मज़दूरों की विशाल बहुसंख्या में भी
तमाम मज़दूर साथी ऐसे हैं जो इन संसदीय वामपन्थियों को लेकर भ्रम में हैं,
या उन्हें औरों से बेहतर मानते हैं। हम उनके सामने भी इन संसदीय
वामपन्थियों और विशेषकर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के असली
चरित्र को साफ़ करना चाहते हैं। तीसरा कारण यह है कि देश के करोड़ों-करोड़
मज़दूरों के पास एक व्यापक क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन के रूप में कोई विकल्प
मौजूद नहीं है और इसलिए किसी भी औद्योगिक विवाद के पैदा होने पर वे माकपा
की सीटू या भाकपा की एटक की शरण में जाने को मजबूर हो जाते हैं। वैसे तो ये
संशोधनवादियों की ये ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के संघर्ष के साथ बार-बार
ग़द्दारी करती हैं, या फिर मज़दूरों को दो-चार आना दिलाकर कुछ कमीशन वसूलती
हैं और अपनी कमाई करती हैं, लेकिन यह सब जानते हुए भी चूँकि मज़दूरों के पास
और कोई विकल्प नहीं होता इसलिए वे इन्हीं ट्रेड यूनियनों के पास जाने को
मजबूर होते हैं। विकल्पहीनता की इस स्थिति के कारण सीटू और एटक जैसी
धन्धेबाज़ ट्रेड यूनियनों ने भारत के ट्रेड यूनियन आन्दोलन में अभी भी अपनी
विचारणीय पकड़ बना रखी है। इस विकल्पहीनता का एक कारण यह भी है कि तमाम
मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठनों के पास मज़दूर वर्ग के आन्दोलन की कोई
स्पष्ट कार्यदिशा ही मौजूद नहीं है और उनकी ज्यादा ताक़त धनी और मँझोले
किसानों की माँगों के लिए लड़ने में ख़र्च हो जाती है। अगर कहीं मज़दूरों के
बीच उनकी थोड़ी-बहुत मौजूदगी है भी तो वे उसी अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद पर
ज्यादा गर्म, जुझारू और समझौताविहीन तरीक़े से अमल करते हैं, जिस पर कोई भी
बुर्जुआ या संशोधनवादी यूनियन करती है। ऐसे में, हम मज़दूरों के बीच माकपा
की बीसवीं पार्टी कांग्रेस में पास किये गये विचारधारात्मक प्रस्ताव के
आलोचनात्मक विवेचन के जरिये उसके असली ग़द्दार चरित्र को बेनक़ाब करेंगे।
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भाकपा ने मार्च में बिहार की राजधानी पटना
में और माकपा ने अप्रैल में केरल के कोझिकोड में अपनी बीसवीं कांग्रेस
आयोजित की। केरल और पश्चिम बंगाल में माकपा-नीत वाम मोर्चे की हार के बाद
यह इन पार्टियों की पहली कांग्रेस थी। भाकपा राष्ट्रीय बुर्जुआ राजनीति में
माकपा का हाथ पकड़कर ही चल रही है इसलिए हम यहाँ भाकपा की कांग्रेस में पेश
दस्तावेज़ों का विवेचन करने के बजाय सीधे माकपा की कांग्रेस के दस्तावेज़ों
का विवेचन करेंगे, जो ज्यादा बारीक़ और ख़तरनाक़ तरीक़े और भाषा में उसी
संशोधनवादी उद्देश्य को आगे बढ़ाने का काम करते हैं, जिनपर आने वाले समय में
भाकपा को भी अमल करना है। माकपा की बीसवीं कांग्रेस में पेश दस्तावेज़ों को
पढ़कर जो बात सबसे पहले दिमाग़ में आती है वह यह है कि पश्चिम बंगाल और केरल
में वाम मोर्चे की हार को बस एक तथ्य के रूप में पेश कर दिया गया है। कहीं
पर भी इन हारों के कारणों का कोई विस्तृत विश्लेषण नहीं पेश किया गया है।
माकपा के पश्चिम बंगाल के चुनावों में हार और उसके 34 वर्ष के शासन के अन्त
का प्रमुख कारण था बंगाल के मँझोले और निचले मँझोले किसानों के विशालकाय
वर्ग का माकपा से अलग हो जाना। यह वर्ग माकपा की भूमि नीति और विस्थापन के
मुद्दे पर नाराज़ था। सिंगूर और नन्दीग्राम में माकपा की सरकार ने जिस तरह
से खुलेआम कॉरपोरेट पूँजी के पक्ष में भूमि अधिग्रहण करने के लिए किसानों
और ग्रामीण ग़रीबों का बर्बर दमन किया, उससे पूरे राज्य में मँझोले, निचले
मँझोले और ग़रीब किसानों, भूमिहीन मज़दूरों और ग्रामीण ग़रीबों के वर्ग माकपा
की सरकार से अलग हो गये। ग़ौरतलब है कि माकपा ने अपना शासन आने के बाद
ऑपरेशन बरगा के तहत बरगादारों (काश्तकार किसानों) के पूरे वर्ग को बड़े
ज़मींदारों द्वारा ज़मीन से बेदख़ल किये जाने से बचाया और उन्हें उत्पाद के
उपयुक्त हिस्से का स्वामी बनाया। 1978 में शुरू हुआ यह भूमि सुधार 1980 के
दशक के मध्य में समाप्त हुआ। इसके समाप्त होने तक मँझोले और निचले मँझोले
किसानों का एक पूरा वर्ग तैयार हुआ जो पिछले चुनावों में हार तक माकपा का
परम्परागत सामाजिक आधार बना रहा। इनमें से कुछ किसान समय के साथ धनी
किसानों में तब्दील हो गये जो अभी भी माकपा का समर्थन करते हैं। लेकिन जो
नीचे रह गये या और नीचे चले गये वे भूतपूर्व माकपा सरकार की नवउदारवादी
नीतियों, कॉरपोरेट पूँजी के हाथ बिक जाने और भूमि अधिग्रहण के लिए
दमन-उत्पीड़न का सहारा लेने के चलते उससे कट गये। इसी पूरे वर्ग को तृणमूल
कांग्रेस ने नन्दीग्राम और सिंगूर के आन्दोलन के दौरान समेटा, जिसमें कि
भाकपा (माओवादी) ने भी एक समर्थनकारी भूमिका निभायी। बहरहाल, बीते चुनावों
में माकपा की हार का सबसे बड़ा कारण इस विशालकाय वर्ग का उससे कटना और
नन्दीग्राम और सिंगूर के आन्दोलनों के कारण शहरी मध्यवर्ग और बुद्धिजीवियों
के एक हिस्से में उसका अलग-थलग पड़ जाना था। पश्चिम बंगाल में माकपा
मज़दूरों के बीच भी लम्बे समय से अलग-थलग पड़ने की प्रक्रिया में थी। यह पूरी
प्रक्रिया बुद्धदेव भट्टाचार्य के मुख्यमन्त्रित्व काल में असाधारण तेज़ी
से बढ़ी। बुद्धदेव का हड़ताल-विरोधी, मज़दूर-विरोधी रवैया माकपा को संगठित
मज़दूरों के भी एक अच्छे-ख़ासे हिस्से में हिक़ारत का पात्र बना रहा था।
असंगठित मज़दूरों के प्रति तो बुद्धदेव की सरकार का रवैया शुरू से अन्त तक
दमनकारी रहा ही था। ज्योति बसु के काल में भी यह प्रक्रिया जारी थी, लेकिन
बुद्धदेव ने इसे निपट नंगई के साथ आगे बढ़ाया। बुद्धदेव ने अपने शासन के
दौरान ही एक बार यहाँ तक कह दिया कि मज़दूरों को हड़ताल नहीं करनी चाहिए
क्योंकि इससे आर्थिक विकास और वृद्धि प्रभावित होती है! आगे उन्होंने कहा
कि वर्ग संघर्ष का ज़माना अब लद गया है और मज़दूर वर्ग को अब वर्ग सहयोग की
नीति पर अमल करना चाहिए! हालाँकि, अभी हाल ही में पश्चिम बंगाल में माकपा
के राज्य सम्मेलन में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपने इन कथनों पर गोलमाल करने
की कोशिश की, लेकिन इसके बावजूद इतिहास संशोधनवाद के असली चरित्र और मज़दूर
वर्ग से उसकी घृणित ग़द्दारी के तौर पर बुद्धदेव के इन कथनों को हमेशा याद
रखेगा।
कुल मिलाकर, कॉरपोरेट पूँजी की लूट को
सुचारू बनाने के लिए भूतपूर्व माकपा सरकार पश्चिम बंगाल में जिस तरह से
नंगे तौर पर अपने पूँजीवादी चरित्र को उजागर कर रही थी, उससे बहुसंख्यक
मज़दूर और ग़रीब और निम्न मध्यम किसान आबादी में उसका अलग-थलग पड़ना लाज़िमी था
और इसी के फलस्वरूप उसकी विधानसभा चुनावों में शर्मनाक पराजय हुई। लेकिन
ताज्जुब की बात यह है कि माकपा कांग्रेस में पास विचारधारात्मक मुद्दों पर
प्रस्ताव और राजनीतिक मुद्दों पर प्रस्ताव में इस हार के कारणों का कहीं
कोई विस्तृत मूल्यांकन नहीं है। बस तथ्यत: इस बात को कह दिया गया है कि ये
हारें पार्टी के लिए एक झटका थीं और इनसे उबरने के लिए एक वाम जनवादी
विकल्प के निर्माण के लिए पार्टी को काम करना होगा!
कांग्रेस के पहले माकपा के सचिव प्रकाश
करात ने एक बुर्जुआ इतिहासकार रामचन्द्र गुहा के एक लेख का जवाब देते हुए
कहा था कि नन्दीग्राम और सिंगूर में ग़लती पार्टी की भूमि नीति आदि की नहीं
थी, बल्कि ग़लती बस यह थी कि पार्टी ने एक ग़लत जगह का चुनाव कर लिया था।
”कॉमरेड” करात ने जनता के ज्ञानचक्षु खोलते हुए यह खुलासा किया कि स्थानीय
प्रतिनिधि निकायों के स्तर पर इन सभी जगहों पर तृणमूल के लोग सत्तासीन थे।
इसलिए नन्दीग्राम और सिंगूर में जो कुछ हुआ वह वास्तव में ममता बनर्जी की
साज़िश थी! इस तरह के विश्लेषण के बारे कुछ कहना अपना मज़ाक़ उड़वाने जैसा ही
होगा! वैसे, करात महोदय को यह भी बताना चाहिए कि अगर नन्दीग्राम और सिंगूर
में माकपा ने बस जगह का चुनाव ग़लत किया था और उसकी नीति बिल्कुल दुरुस्त थी
तो नन्दीग्राम और सिंगूर के मुद्दे के बाद पार्टी ने इस मुद्दे पर माफ़ी
क्यों माँगी थी और ग़लती का स्वीकार क्यों किया था? माकपा ने तो पश्चिम
बंगाल में पंचायत चुनावों के पहले नाराज़ किसानों को मनाने के लिए यहाँ तक
ऐलान कर दिया था कि वह जल्दी ही ऑपरेशन बरगा-2 शुरू करेगी! लेकिन ज़ाहिर है
कि ऐसे फ़रेबों के चक्कर में जनता नहीं पड़ने वाली थी। नतीजतन, उसने पहले
माकपा को पंचायत चुनावों में धूल चटायी और उसके बाद विधानसभा चुनावों में
भी उसकी तबीयत हरी कर दी! अब ज़ाहिर है कि माकपा अपने कांग्रेस में इस पूरे
अपमानजनक प्रकरण पर विश्लेषण रखती भी तो क्या? अगर ऐसा करने का वह प्रयास
भी करती तो प्रकाश करात, सीताराम येचुरी आदि को अपने ही मुँह पर इतने तमाचे
जड़ने पड़ते कि माकपा के काडर गिनती भूल जाते! इसलिए ज़ाहिर है कि मूल और ठोस
मुद्दों का विश्लेषण करने के बजाय माकपा के नेतृत्व ने कांग्रेस में पेश
किये गये अपने विचारधारात्मक प्रस्ताव में बड़ी-बड़ी विचारधारात्मक तोपें
दागी हैं! पूरे प्रस्ताव की भाषा को ख़ूब गर्म रखा गया है, और
मार्क्सवाद-लेनिनवाद, लेनिन, माओ आदि का इतना नाम लिया गया कि माकपा के
ईमानदार काडरों को लगे कि पार्टी नेतृत्व शायद क्रान्तिकारी मार्क्सवाद की
तरफ़ लौट रहा है! लेकिन प्रस्ताव का अन्त होते-होते, ऐसी सभी महान आशाओं का
भी दुखद अन्त हो जाता है। प्रस्ताव का अन्त होते-होते माकपा अपनी
संशोधनवादी काऊत्स्कीपन्थी ग़द्दारी की भाषा पर वापस लौट आती है। यह देखना
दिलचस्प होगा कि माकपा ने अपने प्रस्तावों में किस कलात्मक चतुराई के साथ
ढोंग-पाखण्ड किया है और मज़दूर वर्ग से अपनी ग़द्दारी को सारी कारीगरी के
बावजूद वह ढँकने में कामयाब नहीं हो पायी है।
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माकपा ने कोझिकोड कांग्रेस में जो
विचारधारात्मक प्रस्ताव पेश किया है वह क़रीब 54 पेज लम्बा है! इसकी
प्रस्तावना के दूसरे बिन्दु में ही माकपा ने समाजवाद की अपनी समझदारी को
नंगा कर दिया है। प्रस्तावना के बिन्दु 1.2 में माकपा की 1992 में हुई
चौदहवीं कांग्रेस की याद दिलायी गयी है और बताया गया है कि 1990 में सोवियत
संघ में समाजवाद के पतन के बाद विश्व भर में वर्ग शक्ति सन्तुलन
साम्राज्यवाद के पक्ष में झुक गया! इसका अर्थ है कि माकपा 1953 में स्तालिन
की मृत्यु और 1956 में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की संशोधनवादी
बीसवीं कांग्रेस के बाद के पूरे दौर को भी समाजवाद का दौर मानती है। इस
पूरे दौर में सोवियत संघ को वह साम्राज्यवादी देश के रूप में नहीं देखती
है! जबकि 1956 से 1990 के पूरे दौर में सोवियत संघ संयुक्त राज्य अमेरिका
के साथ साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा में उलझा हुआ था। पूर्वी यूरोप से
लेकर अफ़गानिस्तान और अफ़्रीका के कई देशों में सामाजिक साम्राज्यवादी सोवियत
संघ ने दर्ज़नों बार नग्न रूप में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप किया। स्तालिन
के बाद के दौर में सोवियत संघ में पूँजीवाद के वापस लौट आने की सच्चाई को
माकपा नज़रन्दाज़ कर देती है। 1956 के बाद ख़्रुश्चेव ने शान्तिपूर्ण
सहअस्तित्व (यानी, दुनिया भर में सोवियत संघ के ”समाजवाद” और संयुक्त राज्य
अमेरिका की चौधाराहट में पूँजीवाद के शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व),
शान्तिपूर्ण संक्रमण (यानी, सर्वहारा क्रान्ति के बिना ही शान्तिपूर्ण और
संसदीय रास्ते से समाजवाद के स्थापित होने) और शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता का
संशोधनवादी सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इसके साथ ही सोवियत संघ की
संशोधनवादी पार्टी ने मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धान्तों से अपना नाता
तोड़ लिया, लेनिन के राज्य और क्रान्ति की थीसिस को नकार दिया और मज़दूर वर्ग
के साथ ऐतिहासिक ग़द्दारी को सैद्धान्तिक जामा पहना दिया। माओ के नेतृत्व
में चीन की पार्टी ने सोवियत संघ की संशोधनवादी पार्टी के साथ ‘महान बहस’
के दौरान सोवियत पार्टी की ग़द्दारी और मार्क्सवाद से उसके प्रस्थान को
उजागर किया और दिखलाया कि सोवियत संघ की पार्टी अब एक पूँजीवादी पार्टी बन
चुकी है। लेकिन माकपा को इस पूरे प्रकरण के बारे में अपने पूरे
विचारधारात्मक दस्तावेज़ में कुछ भी नहीं कहना है। और कहे भी क्यों! माकपा
तो शुरू से ही ख़्रुश्चेवपन्थी ही रही है। इसलिए मार्क्सवादी शब्दावली में
की गयी अपनी तमाम लफ्फ़ाजी के बावजूद उसका मज़दूर वर्ग-विरोधी चरित्र उजागर
हो ही जाता है। लेकिन बेशर्मी की इन्तहाँ तो तब हो जाती है जब माकपा इस
दस्तावेज़ में यह दावा करती है कि वह भाकपा के संशोधनवाद से संघर्ष करते हुए
ही पैदा हुई थी! अगर वह 1990 तक सोवियत संघ को समाजवादी मानती है, तो कोई
भी यह सोचने को मजबूर हो जाता है कि आख़िर भाकपा किस तरह से संशोधनवादी है,
और माकपा क्यों संशोधनवादी नहीं है!
इसके बाद बिन्दु 1.5 में माकपा नेतृत्व
कहता है कि 1968 में उसने वामपन्थी दुस्साहसवाद का सामना किया। निश्चित रूप
से, यहाँ इशारा नक्सलबाड़ी विद्रोह की तरफ़ है। निश्चित रूप से, नक्सलबाड़ी
विद्रोह वामपन्थी दुस्साहसवाद का शिकार हो गया। लेकिन माकपा नेतृत्व यह बात
गोल कर जाता है कि नक्सलबाड़ी विद्रोह वास्तव में एक क्रान्तिकारी किसान
विद्रोह के रूप में शुरू हुआ था! माकपा नेतृत्व यह सच्चाई भी छिपा जाता है
कि इस आन्दोलन के वामपन्थी दुस्साहसवाद के गड्ढे में जाने के बावजूद इसका
एक प्रमुख मुद्दा माकपा के संशोधनवाद का नकार करना था। माकपा का नेतृत्व यह
सच्चाई भी निगल जाता है कि माकपा के भीतर ही एक अन्तर्पार्टी संशोधनवाद
विरोधी समिति अस्तित्व में आयी थी और देश के अन्य हिस्सों में भी माकपा के
भीतर से ही ऐसी क्रान्तिकारी राजनीतिक धाराएँ पैदा हुईं जो चारू मजुमदार के
वामपन्थी दुस्साहसवाद के पक्ष में नहीं खड़ी हुईं, लेकिन उन्होंने माकपा के
संशोधनवाद को भी नकार दिया। इन धाराओं की भारतीय क्रान्ति की मंज़िल की
समझदारी पर हम सवाल खड़ा कर सकते हैं, लेकिन कोई यह नहीं कह सकता कि
उन्होंने माकपा की ग़द्दारी से अपने आपको अलग नहीं किया। यह सारे तथ्य
छिपाते हुए माकपा नेतृत्व इस दस्तावेज़ में भाकपा के रूप में संशोधनवाद और
नक्सलबाड़ी आन्दोलन के रूप में ”वामपन्थी” दुस्साहसवाद के ख़िलाफ़ ”संघर्ष”
करने के लिए नंगई भरे पाखण्ड के साथ अपना गाल बजाता है और यह दावा करता है
(बिन्दु 1.7) कि अपनी सही लाइन के कारण ही माकपा देश की सबसे बड़ी वामपन्थी
पार्टी बन गयी! यानी कि बड़े होने को सही होने के प्रमाण के रूप में पेश
किया गया है। अगर बड़ा होना सही होने की निशानी है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ को सही क्यों न मान लिया जाये? अगर बड़ा होना ही सही होना है तो
काऊत्स्की के नेतृत्व में जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी को भी माकपा को खुले
तौर पर सही मानना चाहिए, जो कि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के पैदा
होने के बाद भी सबसे बड़ी ”वामपन्थी” पार्टी बनी रही! माकपा का टुच्चा तर्क
आपके सामने है!
इसके बाद अगले खण्ड (‘विश्वीकरण के दौर
में साम्राज्यवाद की कार्यप्रणाली’) में यह दस्तावेज़ संशोधनवादी दोगलेपन के
सारे कीर्तिमान धवस्त करते हुए यह दावा करता है कि साम्राज्यवाद के बारे
में लेनिन का सिद्धान्त अभी भी सही है (बिन्दु 2.4)! लेकिन इसके बाद वह जो
सिद्धान्त प्रतिपादित करता है वह वास्तव में काऊत्स्की का अतिसाम्राज्यवाद
का लेनिनवाद-विरोधी सिद्धान्त है! माकपा नेतृत्व बिन्दु 2.6 में कहता है कि
आज के दौर में वैश्विक वित्तीय पूँजी ने प्रतिस्पर्द्धा को कम कर दिया है
और वह किसी एक राष्ट्र-राज्य के हितों के लिए नहीं बल्कि अन्तरराष्ट्रीय
साम्राज्यवाद के लिए काम करती है। यानी कि साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा और
विश्व के पुनर्विभाजन के लिए साम्राज्यवादी युद्ध की स्थिति नहीं है;
ज़ाहिर है, इसलिए लेनिन ने जिस रूप में क्रान्तिकारी परिस्थिति पैदा होने की
उम्मीद की थी, वह अब नहीं हो सकता है; इससे क्या नतीजा निकलता है? इससे यह
नतीजा निकलता है कि अब बल प्रयोग के साथ सर्वहारा क्रान्ति सफल नहीं हो
सकती और शान्तिपूर्ण तरीक़े से ही समाजवाद की स्थापना के बारे में सोचा जा
सकता है! यही तो काऊत्स्की की थीसिस थी! लेकिन इसे लेनिन के मत्थे मढ़ दिया
गया है! अन्त में, बिन्दु 2.10 में बस इतना जोड़ दिया गया है कि
साम्राज्यवादी विश्व फिर से प्रतिस्पर्द्धा में पड़ सकता है, लेकिन यह भी कह
दिया गया है कि यह प्रतिस्पर्द्धा सिर्फ़ मुद्रा युद्धों का रूप लेगी। यह
सच है कि साम्राज्यवाद के भूमण्डलीकरण की मंज़िल में विश्व युद्ध जैसी
स्थिति के पैदा होने की उम्मीद कम है। लेकिन यह भी सच है, और इसके समकालीन
विश्व में ही प्रमाण मौजूद हैं, कि साम्राज्यवाद के मुद्रा युद्ध क्षेत्रीय
और महाद्वीपीय साम्राज्यवादी युद्धों का रूप लेंगे! क्या माकपा नेतृत्व
भूल गया है कि सद्दाम हुसैन पर अमेरिका के हमले का कारण जनसंहार के हथियार
नहीं थे, बल्कि सद्दाम हुसैन द्वारा अपने विदेशी मुद्रा भण्डार का
वैविध्यीकरण था? क्या हम भूल गये कि इराक़ को जिस बात की सज़ा दी गयी वह यह
थी कि उसने अमेरिका की डावाँडोल अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़ एक क़दम उठा लिया था?
क्या प्रकाश करात को याद नहीं कि इराक़ में जो साम्राज्यवादी हमला हुआ उसका
वास्तविक कारण मुद्रा युद्ध ही था? लेकिन माकपा को तो किसी भी तरह
काऊत्स्की की अतिसाम्राज्यवादी थीसिस पर लेनिन का नाम चिपकाकर अपने
संशोधनवाद को सही साबित करना है। इसलिए, इस क़िस्म की राजनीतिक नटगीरी करना
उसकी मजबूरी है!
इसके बाद माकपा का विचारधारात्मक दस्तावेज़
मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की एक पैरोडी तैयार करता है! बिन्दु
2.13 में हमें बताया जाता है कि नवउदारवादी नीतियों से विकासशील देशों में
छोटे और मँझोले उद्योग-धन्धे तबाह होते हैं और विकसित देशों में भी
आउटसोर्सिंग के ज़रिये विऔद्योगिकीकरण होता है! अब यह तो प्रकाश करात ही बता
सकते हैं कि औद्योगिक उत्पादन हो कहाँ रहा है! विकसित देशों में भी उद्योग
तबाह हो रहे हैं और विकासशील देशों में भी उद्योग तबाह हो रहे हैं। आख़िर
विकसित देश आउटसोर्सिंग करके उद्योग को भेज कहाँ रहे हैं? करात महोदय के
अनुसार शायद चाँद पर! विकासशील देशों का पूँजीपति वर्ग अपनी स्वायत्तता
खोकर लगातार विश्व साम्राज्यवाद का पार्टनर बनता जा रहा है (बिन्दु 2.15)!
इसका माकपाई विकल्प क्या है? नेहरू के दौर में जिस तरह से देश के पूँजीपति
वर्ग ने अपनी ”स्वायत्तता” बरक़रार रखी थी, वैसे ही अभी भी रखी जानी चाहिए!
माकपा उस दौर को लेकर भावुक हो जाती है! साफ़ है, माकपा की समझदारी यहाँ पर
एक राज्य इज़ारेदार पूँजीवाद और कल्याणवाद की हिमायत करने की है। लेकिन
अफ़सोस कि वह दौर अब लौट नहीं सकता; वह भारतीय पूँजीवाद के विकास का एक ख़ास
दौर था, और उस प्रकार की सापेक्षिक ”स्वायत्तता” की भारत के पूँजीपति वर्ग
को भूमण्डलीकरण के दौर में ज़रूरत नहीं है। बल्कि कहना चाहिए कि पूरे विश्व
में किसी भी देश के पूँजीपति वर्ग को अब इसकी ज़रूरत नहीं है। लेकिन माकपा
उस दौर के बीत जाने पर अपने आँसुओं को रोक नहीं पा रही है!
इसके बाद बिन्दु 2.16 में माकपा कहती है
कि भूमण्डलीकरण के इस दौर में साम्राज्यवादी पूँजी ने ”आदिम” संचय की
प्रक्रिया नये सिरे से शुरू कर दी है जिसके तहत 1950 से लेकर 1990 के बीच
आज़ाद हुए देशों में किसानों, जनजातियों और ग़रीब मेहनतकश आबादी को उसकी
जगह-ज़मीन से उजाड़ा जा रहा है। साम्राज्यवादी पूँजी देशी पूँजीपति वर्ग के
साथ मिलकर दुनिया के उन कोनों में प्रविष्ट हो रही है, जहाँ अभी तक उसकी
मौजूदगी नहीं थी, या कम थी। यह बात तो सच है! लेकिन ऐसे में माकपा से पूछना
होगा कि यही काम तो वह भी नन्दीग्राम और सिंगूर में कर रही थी! इसके बारे
में उसका क्या ख्याल है? अगर वह काम कांग्रेस और भाजपा की सरकारें करें तो
ग़लत है, लेकिन अगर माकपा की सरकार करे तो सही है! ज़ाहिर है, कि माकपा का
दोगलापन उसके विचारधारात्मक दस्तावेज़ में ही बार-बार निकलकर सामने आ जा रहा
है! माकपा नेतृत्व आगे हमारा ज्ञानवर्द्धन करते हुए कहता है कि आदिम संचय
की इस प्रक्रिया के कारण पूँजीवादी राज्य ज्यादा से ज्यादा ग़ैर-जनवादी होता
जा रहा है; कानून बनाने की पूरी जनवादी प्रक्रिया को कमज़ोर किया जा रहा है
और उस पर से जनता का नियन्त्रण ख़त्म हो गया है! क्या माकपा का यह विश्वास
है कि भारत के संसद के सुअरबाड़े में जो क़ानून बनाने की प्रक्रिया चलती है,
उस पर जनता का कोई नियन्त्रण है? क्या माकपा यह मानती है कि सिंगूर और
नन्दीग्राम के दौरान माकपा की सरकार ने जो कुछ किया वह दमनकारी,
उत्पीड़नकारी और ग़ैर-जनवादी नहीं था? क्या उस पूरी प्रक्रिया में माकपा की
सरकार जनता की आकांक्षाओं के अनुसार चल रही थी? क्या जनता का उस पर कोई
नियन्त्रण था? स्पष्ट है, कि यहाँ भी माकपा नेतृत्व एक सैद्धान्तिक लफ्फ़ाजी
कर रहा है। एक जगह तो यह लफ्फ़ाजी यहाँ तक पहुँच जाती है जिसमें माकपा
नेतृत्व ग़लती से यह मान बैठता है कि बुर्जुआ राज्य वास्तव में बुर्जुआ वर्ग
की तानाशाही हो सकता है! लेकिन फिर भी माकपा का मानना है कि संसद में
बहुमत के जरिये इस राज्यसत्ता पर सर्वहारा वर्ग काबिज़ हो सकता है! ऐसा
विचारधारात्मक द्रविड़ प्राणायाम तो प्रकाश करात और सीताराम येचुरी जैसे लोग
ही कर सकते हैं!
अगले खण्ड (‘नवउदारवादी विश्वीकरण की
अवहनीयता और पूँजीवादी संकट’) में माकपा नेतृत्व फरमाता है कि पूँजीवाद को
सुधारा नहीं जा सकता क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था की वास्तविक बुराई
पूँजीवादी उत्पादन के तरीक़े में ही मौजूद होती है! लेकिन साथ ही माकपा के
अनुसार जनवादी कार्यभार और समाजवाद की स्थापना शान्तिपूर्ण तरीक़े से ही
होनी चाहिए! अब आप ख़ुद फ़ैसला करें कि ऐसा कैसे हो सकता है! लेनिन ने बताया
था कि सर्वहारा वर्ग बुर्जुआ सत्ता पर क़ब्ज़ा नहीं करता बल्कि उसका ध्वंस
करता है। बुर्जुआ सत्ता पर संसद में बहुमत के जरिये कब्ज़ा करके कभी भी
सर्वहारा सत्ता की स्थापना नहीं हो सकती, क्योंकि बुर्जुआ राज्यसत्ता को
सुधारा नहीं जा सकता और उसका वर्ग चरित्र सर्वहारा नहीं बनाया जा सकता।
यहाँ आप माकपा की कलाबाज़ी को देख सकते हैं! तर्क को स्वीकार किया गया है कि
पूँजीवाद को सुधारा नहीं जा सकता, लेकिन उसके नतीजे को नकार दिया गया है,
यानी कि, इस असुधारणीयता के चलते ही सर्वहारा वर्ग को पूँजीपति वर्ग की
राज्यसत्ता को चकनाचूर कर अपनी क्रान्तिकारी सर्वहारा सत्ता की स्थापना
करनी होगी! माकपा नेतृत्व की ”बहादुरी” की उस समय दाद देनी पड़ती है जब
बिन्दु 3.1 में वह कहता है कि हमें इस सामाजिक जनवादी झूठ को नकार देना
चाहिए कि पूँजीवाद को सुधारा जा सकता है! लेकिन तब दिमाग़ में यह भी सवाल
पैदा होता है कि माकपा स्वयं हमेशा इसी बात का नुस्ख़ा तो सुझाती है कि
पूँजीवादी राज्य अगर कल्याणकारी नीतियों अपना ले, अगर वह घरेलू माँग को
बढ़ाकर रोज़गार पैदा करे, और अगर वह अल्पउपभोग को समाप्त कर दे तो सबकुछ ठीक
हो जायेगा! अब इसे सुधारवाद न कहा जाय तो क्या कहा जाय? इसका जवाब भी करात व
येचुरी जैसे नट ही दे सकते हैं! बिन्दु 3.4 व 3.5 में अपने सुधारवाद को
माकपा खोलकर रख देती है। हमें बताया जाता है कि पूँजीवाद मानव संसाधनों में
निवेश न करके तकनोलॉजी में निवेश करता है जिससे कि बेरोज़गारी पैदा होती
है, अल्पउपभोग होता है, जनता की क्रय क्षमता घटती है और संकट पैदा होता है।
यानी कि सवाल निवेश के स्थान का है न कि उत्पादन के साधनों के सामूहिक
मालिकाने का। ऐसा पूँजीवाद जिसमें राज्य के हाथ में बड़े पैमाने के उद्योग
हों और वह कल्याणकारी नीतियों में निवेश करता हो और जनता के लिए रोज़गार
पैदा करके क्रय क्षमता का व्यापक विस्तार करता हो, वह अगर उत्पादन के
साधनों के मालिकाने को सामूहिक न करे, राजनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रिया
मज़दूर वर्ग के हाथ न सौंपे, वह अगर उत्पादन से लेकर वितरण तक मज़दूर वर्ग का
नियंत्रण न भी स्थापित करे तो वह स्वीकार्य है! पर यह मार्क्सवाद तो नहीं
है! यह तो हॉब्सन के अल्पउपभोगवाद और काउत्स्की के सामाजिक-जनवाद की लस्सी
है! माकपा बताती है कि अगर इस लस्सी को पिया जाय तो पूँजीवाद अपने संकट से
मुक्त हो सकता है! इसलिए वास्तव में माकपा जो कर रही है, वह एक सर्वहारा
क्रान्ति की रणनीति सुझाना नहीं है, बल्कि एक बेहतर, सुधारे हुए,
कल्याणकारी और राज्य इज़ारेदार पूँजीवाद का मॉडल सुझाना है, जिसे माकपा जैसा
मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी करने वाले सामाजिक जनवादियों, काऊत्स्कीपन्थियों का
गिरोह ही लागू करवा सकता है! हालाँकि, पूँजीवाद की नैसर्गिक गति का दबाव
कुछ ऐसा होता है कि ऐसा कोई मॉडल कभी लागू हो ही नहीं सकता। यही तो कारण था
कि माकपा को भी पश्चिम बंगाल में अपने शासन के दौरान कल्याणवाद छोड़कर
नवउदारवाद की शरण में जाना पड़ा!
इसके बाद माकपा नेतृत्व इस मज़ाक़िया
विचारधारात्मक प्रस्ताव के बिन्दु 3.10 से 3.16 में हमारा ज्ञानवर्द्धन
करते हुए बताता है कि पूँजीवाद संकटग्रस्त होने के बावजूद अपने आप नहीं पलट
सकता और उसे पलटने के लिए मज़दूर वर्ग को राजनीतिक रूप से संगठित होकर एक
मज़बूत आत्मगत शक्ति का निर्माण करना होगा! सही बात है! लेकिन कैसे? माकपा
इतिहास द्वारा सौंपी गयी इस महती ज़िम्मेदारी को कैसे निभा रही है? संसदवाद,
अर्थवाद, ट्रेडयूनियनवाद और सुधारवाद से! संगठित मज़दूरों के बीच आर्थिक
संघर्ष के गोल चक्कर में घूमते हुए, और असंगठित मज़दूर वर्ग को राम भरोसे
छोड़कर! और जब माकपा पूँजीवाद को ”पलटने” की बात करती है, तो आप मुश्क़िल से
अपनी हँसी रोक पाते हैं! अभी तो हमें बताया गया था कि पूँजीवाद को बदल
जनवाद और समाजवाद की स्थापना के लिए शान्तिपूर्ण तरीक़े अपनाये जाएँगे! फिर
से उलटना-पलटना कहाँ से आ गया! बाद में बात समझ में आयी! वह इसलिए कि माकपा
के काडरों में जो ईमानदार बचे हैं, उन्हें भी भ्रम में बनाए रखना है!
विश्वविद्यालय कैम्पसों आदि में जो परिवर्तनकामी नौजवान और छात्र पकड़ में
आते हैं, उन्हें भी तो बेवकूफ़ बनाना है! अगर मज़दूर मार्क्सवाद के सम्पर्क
में आकर पार्टी के संशोधनवाद पर सवाल खड़े करने लगें, तो उन्हें चुप कराने
के लिए भी तो कुछ शब्द चाहिए! इसीलिए इस विचारधारात्मक प्रस्ताव में
मार्क्स, लेनिन, माओ आदि का नाम लेकर काफ़ी तोपें छोड़ी गयी हैं! लेकिन, अगर
आप पूरा दस्तावेज़ पढ़ें तो पता चलता है कि ये सब नौटंकी था!
बिन्दु 4.1 से 4.4 तक हमें साम्राज्यवाद
के हौव्वे से डराया जाता है। बताया जाता है कि आज साम्राज्यवाद बेहद
आक्रामक हो गया है। हर संकट के बाद कोई विकल्प न होने के कारण यह और अधिक
शक्तिशाली होकर उभरता है और अपने शोषण को और अधिक सघन बना देता है।
साम्राज्यवाद आज हर जगह हस्तक्षेप कर रहा है। जिन देशों ने नवउदारवाद को और
वाशिंगटन सहमति को ठुकरा दिया उन्हें जनवाद का दुश्मन बता दिया जाता है और
फिर वहाँ जनवाद स्थापित करने के नाम पर साम्राज्यवाद हस्तक्षेप करता है और
मनमुआफ़िक़ तरीक़े से सत्ता परिवर्तन कर देता है। यह सच है कि आज
साम्राज्यवाद अपने हितों पर ख़तरा पैदा होने पर हस्तक्षेप करता है। लेकिन
साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा के तीख़े होने के साथ विश्व साम्राज्यवाद के
चौधरी अमेरिका को जगह-जगह समझौते करने पड़ रहे हैं, सत्ता में हिस्सेदारी
देनी पड़ रही है और अब वह उतने मनमुआफ़िक़ तरीक़े से सत्ता परिवर्तन भी नहीं कर
पा रहा है। इराक़ और अफ़गानिस्तान के विनाशकारी अनुभव के बाद कहीं भी
हस्तक्षेप करने से पहले अमेरिका को बीस बार सोचना पड़ रहा है। यह हस्तक्षेप
करने की ज़िम्मेदारी भी वह अन्य ताक़तों के साथ साझा करना चाहता है। मिसाल के
तौर पर, लीबिया में हस्तक्षेप करने और फिर लूट का माल लपेटने में यूरोपीय
ताक़तों का हाथ ऊपर रहा। उसी तरह सीरिया में हस्तक्षेप करने की भी अमेरिका
हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। अरब जनउभार के दौरान जब जनविद्रोह के कारण
अमेरिका-समर्थित सत्ताएँ पलट दी गयीं तो भी अमेरिका ने हस्तक्षेप करने का
ख़तरा उठाने की बजाय नयी सत्ताओं को अपने हितों के अनुसार सहयोजित करने का
प्रयास किया। स्पष्ट है कि साम्राज्यवाद हमेशा से ज्यादा कमज़ोर और डावाँडोल
स्थिति में है। आगे माकपा स्वयं यह बात मानती है और बिन्दु 4.5 में कहती
है कि कई क्षेत्रीय शक्तियों जैसे कि तुर्की और सीरिया के उभार के कारण
साम्राज्यवादी अन्तरविरोध बढ़े हैं। आप देख सकते हैं कि माकपा नेतृत्व
बुनियादी मार्क्सवादी विश्लेषण भी भूल गया है। वह कहीं कुछ कहता है, तो
कहीं कुछ! ऐसे अन्तरविरोधों से पूरा दस्तावेज़ भरा हुआ है।
पाँचवा खण्ड (‘संक्रमण का दौर और आज का
पूँजीवाद’) में भी माकपा ने अपने संशोधनवादी कचरे को नायाब तरीक़े से फैलाने
की कोशिशें की हैं। बिन्दु 5.1 और 5.2 में हमारे ज्ञानचक्षु खोलते हुए
करात-येचुरी एण्ड कम्पनी कहती है कि 1992 में उनकी पार्टी ने कहा था कि
1990 में सोवियत संघ में समाजवाद का पतन समाजवाद की विचारधारा का पतन नहीं
है। आगे हमें समाजवाद के शुरुआती प्रयोगों की समस्या बतायी जाती है! यह
समस्या माकपा के मुताबिक़ इस तथ्य में निहित थी कि शुरुआती दौर में सर्वहारा
क्रान्तियाँ उन देशों में हुईं जहाँ उत्पादक शक्तियाँ ज्यादा उन्नत नहीं
थीं! और ये क्रान्तियाँ उन्नत पूँजीवादी देशों में नहीं हुई थीं इसलिए इनसे
पूँजीवाद की सेहत पर ज्यादा असर नहीं पड़ा और पूँजीवाद विज्ञान और तकनोलॉजी
में विकास करते हुए अपना विस्तार करता रहा! यह भी विचित्र तर्क है! यह
त्रात्स्की के तर्क से मेल खाता है, जिसके अनुसार पिछड़े हुए देशों में यदि
क्रान्तियाँ होंगी तो भी उनमें समाजवाद का निर्माण तब तक नहीं किया जा
सकेगा, जब तक कि उन्नत देशों में क्रान्तियाँ न हो जायें। इसलिए माकपा के
अनुसार सोवियत संघ में समाजवाद के असफल होने का एक कारण यह भी था कि वहाँ
उत्पादक शक्तियों का पर्याप्त विकास नहीं हुआ था। एक तो यह बात तार्किक तौर
पर ग़लत है और दूसरी बात यह कि यह तथ्यत: भी ग़लत है। सोवियत संघ 1950 के
दशक तक दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी औद्योगिक शक्ति बन चुका था और सैन्य और
वैज्ञानिक मामलों में वह कई अर्थों में अमेरिका से भी आगे था। बिन्दु 5.3
और 5.4 में हमें बताया जाता है कि सोवियत समाजवादी प्रयोग में यह ग़लती हो
गयी कि लेनिन की इस चेतावनी को नज़रअन्दाज़ कर दिया गया कि पूँजीवाद की
पुनर्स्थापना हो सकती है। 1960 में चीनी पार्टी द्वारा साम्राज्यवाद के
तत्काल ध्वंस की थीसिस को भी समाजवाद के पतन का एक कारण बताया गया है।
लेकिन यह नहीं बताया गया है कि पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हुई कब थी? लेकिन
पूरे मामले का सार माकपा यह बताती है कि समाजवाद के पतन का सबसे बड़ा कारण
था कि वह पर्याप्त तेज़ी के साथ उत्पादक शक्तियों का विकास नहीं कर पाया।
इसलिए बिन्दु 5.10 में माकपा नेतृत्व यह सिद्धान्त प्रतिपादित करता है कि
21वीं सदी के समाजवाद को उत्पादक शक्तियों के विकास की गति के मामले में
पूँजीवाद को पीछे छोड़ना पड़ेगा। इस बात से माकपा कहाँ जाना चाहती है, यह आगे
स्पष्ट हो जायेगा। लेकिन पहले यह स्पष्ट कर दिया जाये कि यह भी एक क़िस्म
का अर्थवाद है जो समाजवाद का अर्थ सिर्फ़ उत्पादक शक्तियों का विकास समझता
है। इस सिद्धान्त के अनुसार समाजवाद की पूँजीवाद पर श्रेष्ठता इस वजह से
नहीं है कि समाजवाद एक समानतामूलक, न्यायपूर्ण और अधिक मानवीय व्यवस्था है।
इस संशोधनवादी अर्थवाद के अनुसार समाजवाद की श्रेष्ठता केवल उत्पादक
शक्तियों के पूँजीवाद से अधिक तेज़ विकास के द्वारा ही सिद्ध हो सकती है।
सोवियत संघ में समाजवाद ने जनता को बेहतर जीवन, रोज़गार, शिक्षा और
स्वास्थ्य मुहैया कराया और यही वह प्रधान कारण था जिसके कारण सोवियत संघ ने
पूँजीवादी विश्व पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की। निश्चित रूप से सोवियत संघ
ने दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा तेज़ रफ्तार से उत्पादक शक्तियों का
विकास किया। लेकिन सोवियत संघ की श्रेष्ठता का प्रमुख कारण यह नहीं था।
उल्टे सोवियत संघ में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना की पृष्ठभूमि तैयार करने
में सोवियत पार्टी की इस भूल की एक भूमिका थी कि उसने भी एक ग़लत समझदारी के
चलते उत्पादक शक्तियों के विकास पर ज्यादा और उत्पादन सम्बन्धों के
क्रान्तिकारी रूपान्तरण को जारी रखने पर कम ज़ोर दिया। इसलिए माकपा का पूरा
तर्क ही वास्तव में संशोधनवादी अर्थवाद का एक जीता-जागता उदाहरण है। वास्तव
में, माकपा अपने इस तर्क से चीन के देङपन्थी ‘बाज़ार समाजवाद’ को सही
ठहराना चाहती है। यह पवित्र काम माकपा अगले खण्ड में अंजाम देती है। लेकिन
दस्तावेज़ के पाँचवे खण्ड के आख़िरी हिस्से में माकपा समाजवाद की अपनी
समझदारी पेश करती है और कहती है कि समाजवाद के तहत सम्पत्ति के विभिन्न
रूपों (जिसमें निजी सम्पत्ति भी शामिल है) को जारी रखा जाना चाहिए। राजकीय
सम्पत्ति के साथ निजी सम्पत्ति को जारी रखना चाहिए। स्पष्ट है कि माकपा
यहाँ सामूहिक सम्पत्ति पर बल नहीं देती। आज हम जानते हैं कि पूँजीपति वर्ग
बिना निजी सम्पत्ति के भी अस्तित्वमान रह सकता है। वह राज्य के अधिकारियों
के रूप में राजकीय सम्पत्ति का न्यासी बन सकता है। इस राजकीय सम्पत्ति पर
जनता का कोई नियन्त्रण नहीं होता है। वह राजकीय पूँजीपति वर्ग के नियन्त्रण
में होती है। पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध केवल पूँजी और सम्पत्ति के
मालिकाने में निहित नहीं होते हैं बल्कि सामाजिक अधिशेष नियोजन की पूरी
प्रक्रिया पर नियन्त्रण और श्रम विभाजन के रूप में भी अस्तित्वमान रहते
हैं। इसका अर्थ यह है कि अगर क़ानूनी तौर पर निजी सम्पत्ति का ख़ात्मा कर भी
दिया जाये तो पूँजीपति वर्ग राज्य और सत्ताधारी पार्टी में कुंजीभूत
स्थानों पर आसीन होकर शासन चला सकता है, वह भी बिना निजी सम्पत्ति के। जैसा
कि आज चीन में हो रहा है। अर्थव्यवस्था का करीब 60 फ़ीसदी हिस्सा अभी भी
राज्य के नियन्त्रण में है। 77 फ़ीसदी सकल घरेलू उत्पाद के लिए अभी भी
राजकीय उद्यम ज़िम्मेदार हैं। लेकिन यह राज्य सर्वहारा वर्ग के हाथ में नहीं
है, बल्कि कम्युनिस्ट-नामधारी पूँजीवादी पार्टी के हाथ में है और उसके
अधिकारी, पदधारी पूँजीपति वर्ग की सेवा करते हैं। अब तो चीन की संशोधनवादी
पार्टी ने पूँजीपतियों को पार्टी की सदस्यता भी देनी शुरू कर दी है। ज़ाहिर
है कि राज्य से लेकर पार्टी तक में निजी पूँजीपतियों की पहुँच बढ़ती जा रही
है। तो एक तरफ़ मज़दूर वर्ग पर सामाजिक फ़ासीवादी नियन्त्रण और विज्ञान और
तकनोलॉजी में नवोन्मेष के जरिये चीन अपनी वृद्धि दर को लगातार 7-8 प्रतिशत
के ऊपर रखने में सफ़ल हुआ है; अमेरिका के लिए चीन एक साम्राज्यवादी चुनौती
के रूप में उभरा है और विश्व चौधराहट में अमेरिका उसे कुछ हिस्सेदारी देने
के लिए विवश भी हुआ है, लेकिन यह सारी तरक्की चीन में समाजवादी संस्थाओं,
सम्बन्धों और मूल्यों के ध्वंस और मज़दूर वर्ग को फिर से, और पहले से भी
ज्यादा भयंकर रूप में उजरती ग़ुलाम बनाने की क़ीमत पर हुआ है। तो उत्पादक
शक्तियों का तो विकास हो रहा है लेकिन समाजवाद को नष्ट करके! लेकिन माकपा
के लिए यह 21वीं सदी के समाजवाद का एक सम्भावित मॉडल है! हो भी क्यों नहीं!
पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव अपने चीनी गुरुओं के देङपन्थ पर ही तो अमल करने
की कोशिश कर रहा था!
छठवें खण्ड (‘समाजवादी देशों में घटना
विकास’) में माकपा ने खुलकर चीन के ‘बाज़ार समाजवाद’ का समर्थन किया है।
माकपा ने एक बार फिर संशोधनवादियों के पाप को लेनिन और माओ के सिर मढ़ने का
प्रयास किया है। पहले तो दस्तावेज़ में हमें बताया जाता है कि भूमण्डलीकरण
के दौर में विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ समेकन समाजवादी देशों की
मजबूरी है! यह भी बताया गया है कि इस समेकन के कारण मौजूदा समाजवादी देशों
में (यानी कि नामधारी समाजवादी देशों में) असमानता, ग़रीबी, बेरोज़गारी और
भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। माकपा आगे बताती है कि इन देशों की उसकी सहोदरा
ग़द्दार संशोधनवादी पार्टियों ने इन पहलुओं पर ग़ौर किया है और ज़रूरी क़दम भी
उठाये हैं। माकपा इन क़दमों को सही ठहराने के लिए बताती है कि 21वीं सदी में
अलग-अलग देशों की ठोस परिस्थितियों के मुताबिक़ अलग-अलग तरीक़े से समाजवाद
का निर्माण होगा। लेकिन माकपा 21वीं सदी की ”भिन्न” परिस्थितियों में जिस
”भिन्न” प्रकार का ”समाजवाद” बनाना चाहती है, उसमें कुछ भी समाजवादी बचा ही
नहीं है। वह बिना पूँजीवादी जनवाद के बर्बर और नंगे क़िस्म का पूँजीवाद
होगा, जैसा कि चीन में है! माकपा बिन्दु 6.4 में बताती है आज चीन में जो
चीज़ लागू हो रही है वह लेनिन के नेतृत्व में सोवितय संघ में लागू हुई ‘नई
आर्थिक नीतियों’ जैसा है जिसमें लेनिन ने निजी सम्पत्ति को बरक़रार रखा था,
बाज़ार को अपेक्षाकृत खुला हाथ दिया था, निजी व्यापारियों को खुला हाथ दिया
था और पूँजीवादी नीतियों को लागू करते हुए पहले उत्पादक शक्तियों का उस हद
तक विकास करने की नीति अपनायी थी जिसके बाद समाजवाद का निर्माण शुरू किया
जा सके! एक तो माकपा सोवियत संघ में 1921 में लागू की गयी नयी आर्थिक
नीतियों के बारे में झूठ बोल रही है और लोगों को बेवकूफ़ बनाने की कोशिश कर
रही है, ताकि वे चीन में जो कुछ हो रहा है उसे समाजवाद समझें। 1921 में जब
रूस में क्रान्ति के बाद से जारी गृह युद्ध समाप्त हुआ तो लेनिन ने इस बात
का अहसास किया कि सोवियत संघ में अगर क्रान्ति की रक्षा करनी है तो
मज़दूर-किसान संश्रय को बचाना होगा, जिसे लेनिन स्मिच्का कहते थे। लेनिन का
स्पष्ट मानना था कि सोवियत संघ में मज़दूर अल्पसंख्या में हैं और मज़दूर
सत्ता ग़रीब और मँझोले किसानों के सहयोग के बिना टिक नहीं सकती है। सर्वहारा
सत्ता के व्यापक सामाजिक आधार के लिए फिलहाल किसानों को ज़मीन का निजी
मालिकाना देना पड़ेगा, उन्हें अपने माल के अधिशेष को बाज़ार में व्यापारियों
के हाथ बेचने की आज़ादी देनी होगी, बाज़ार की ताक़तों को थोड़ा खुला हाथ देना
पड़ेगा। लेकिन यह लेनिन के लिए चयन का मसला नहीं था, बल्कि मजबूरी थी। लेनिन
ने कहा था कि देश की 87 फ़ीसदी आबादी ग्रामीण है और मुख्य रूप से कृषि में
संलग्न है। सर्वहारा सत्ता तुरन्त जबरन खेती का सामूहिकीकरण नहीं शुरू कर
सकती। इसलिए हमें सबसे पहले भूमिहीन और ग़रीब किसानों को सामूहिकीकरण पर
सहमत करना होगा, वे इसके लिए सबसे जल्दी तैयार होंगे। उसके बाद मँझोले
किसानों को भी ज़ोर-ज़बर्दस्ती से बचते हुए समझाना होगा और सामूहिकीकरण पर
लाना होगा। अगर ऐसा न किया गया तो कुलक उन्हें अपने पक्ष में कर लेंगे और
सोवियत सत्ता के लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जायेगा। लेनिन ने कहा कि नयी
आर्थिक नीतियाँ वास्तव में रणनीतिक तौर पर कदम पीछे हटाने जैसा है, और आने
वाले चार-पाँच वर्षों तक हमें उन्हें जारी रखना होगा। यह सोवियत सत्ता को
मोहलत देगा कि वह गाँव की बहुसंख्यक आबादी को जीत ले और फिर कुलकों से
ज़मीनें ज़ब्त करते हुए सामूहिक खेती की स्थापना करे। इस तरह हम देख सकते हैं
कि जिस नयी आर्थिक नीति की माकपा बात कर रही है, वह रूसी पार्टी ने विशेष
परिस्थिति में मजबूरी के चलते लागू की थी और उस समय भी सभी उद्योगों का
सामूहिकीकरण या राजकीयकरण कर दिया गया था। उसका मक़सद उत्पादक शक्तियों के
विकास के लिए पूँजीवादी तौर-तरीक़ों का तब तक इस्तेमाल करना नहीं था, जब तक
कि समाजवाद के निर्माण योग्य उत्पादक शक्तियाँ विकसित न हो जायें; बल्कि
उसका मकसद था तब तक भूमि के निजी मालिकाने और बाज़ार की ताक़तों को छूट देना
जब तक कि सोवियत सत्ता अपने सामाजिक आधार का गाँवों में विस्तार न कर ले।
ऊपर से माकपा तथ्यों के साथ बलात्कार करते हुए यह सिद्ध करने की कोशिश कर
रही है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी इस समय वही नीतियाँ लागू कर रही है जो
लेनिन के नेतृत्व में नयी आर्थिक नीतियों के तहत 1921 से लागू की गयी थीं!
चीन की संशोधनवादी पार्टी इस समय सामाजिक फ़ासीवादी नियन्त्रण का इस्तेमाल
करके बर्बर और नग्न तरीक़े से किसानों को तबाहो-बरबाद कर रही है, मज़दूरों का
दमन कर रही है और पूरी मेहनतकश आबादी को उसने पूँजी की नंगी तानाशाही के
नीचे दबा दिया है। न तो उसने किसानों के भले के लिए कुछ किया है और न ही
उसने सभी उद्योगों का राजकीयकरण या सामूहिकीकरण किया है। उल्टे जितने
उद्योग माओ के समय में मज़दूरों के कम्यूनों के हाथ थे, देङपन्थी
संशोधनवादियों ने उन सभी कम्यूनों को भंग कर उन्हें निजी या राजकीय
पूँजीपतियों के हाथों सौंप दिया है, और मज़दूरों से इन उद्योगों में
फ़ासीवादी आतंक स्थापित करके काम कराया जाता है। अब माकपा इन दोनों विपरीत
चीज़ों में क्यों समान्तर स्थापित कर रही है, इसका कारण समझा जा सकता है।
माकपा का मानना है कि चीनी पार्टी भी पूँजीवादी तौर-तरीक़ों का इस्तेमाल कर
उत्पादक शक्तियों का विकास उस हद तक कर रही है कि फिर समाजवाद का निर्माण
किया जा सके! चीनी पार्टी के दस्तावेज़ को उद्धृत करते हुए माकपा बताती है
कि चीन अभी आने वाले 100 साल तक इसी मंज़िल में रहेगा! वाह! यानी, 100 सालों
तक चीनी पार्टी ने अपने पूँजीवादी तौर-तरीक़ों को लागू कराने का बीमा करा
लिया है! और माकपा इसे एकदम सही मानती है! यह है माकपा का असली पूँजीवादी
चरित्र! यानी, जपते रहो ‘समाजवाद-समाजवाद’ और लागू करो नंगे क़िस्म का
पूँजीवाद! गज़ब तो तब हो जाता है जब माकपा इस पूरी नीति को मार्क्स और
एंगेल्स की नीति बताती है, जिन्होंने कहा था कि समाजवाद का विकास नीचे से
होता है! अब मार्क्स और एंगेल्स ने सपने में भी नहीं सोचा होगा, कि उनके
कथन की ऐसी व्याख्या भी हो सकती है! लेकिन अभी मानवता ने प्रकाश करात और
सीताराम येचुरी जैसे बेशर्म और घाघ संशोधनवादी नहीं पैदा किये थे!
बिन्दु 6.8 में माकपा बताती है कि चीनी
कम्युनिस्ट पार्टी का ‘बाज़ार समाजवाद’ बिल्कुल सही है क्योंकि समाजवाद के
तहत तो माल उत्पादन होगा ही, और अगर माल उत्पादन होगा तो बाज़ार भी रहेगा
ही! यह भी मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों के साथ बेहूदी
क़िस्म की ज़ोर-ज़बर्दस्ती है। निश्चित रूप से, समाजवाद के दौरान पूँजीवादी
श्रम विभाजन मौजूद रहता है और इसलिए वस्तुओं का विनिमय होता है। चूँकि
वस्तुओं का विनिमय होता है इसलिए उनका अस्तित्व महज़ वस्तुओं के रूप में
नहीं बल्कि माल के रूप में होता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि माल
उत्पादन को बढ़ावा दिया जाता है और बाज़ार को प्रोत्साहित किया जाता है।
उल्टे सर्वहारा सत्ता लगातार मानसिक और शारीरिक श्रम, शहर और गाँव और
उद्योग और कृषि के बीच के अन्तर को ख़त्म करते हुए पूँजीवादी श्रम विभाजन और
बुर्जुआ अधिकारों का ख़ात्मा करती है और माल उत्पादन को नियन्त्रित करते
हुए, समाजवादी उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों को बढ़ावा देते हुए
लगातार साम्यवाद की ओर संक्रमण को सम्भव बनाती है। दूसरी बात, समाजवादी
समाज के ही उन्नत मंज़िलों में विनिमय को चलाने के लिए बाज़ार और मुद्रा की
ज़रूरत समाप्त हो जाती है। विनिमय की पूरी प्रक्रिया को राज्य चलाता है और
बाज़ार की ज़रूरत ही समाप्त हो जाती है। इसलिए यहाँ भी माकपा का घाघ नेतृत्व
जानबूझकर समझदारी दिखलाने की कोशिश कर रहा है। त्रासदी यह है कि हमारे देश
में बहुतेरे मार्क्सवादी भी मार्क्सवाद नहीं पढ़ते और कई संशोधनवादी उनसे
ज्यादा मार्क्सवाद पढ़े हुए हैं। नतीजा यह होता है कि माकपा जैसी ग़द्दार और
घाघ पार्टियों की ग़द्दारी को वे पकड़ ही नहीं पाते। वास्तव में, जब
नन्दीग्राम और सिंगूर के समय किसान प्रश्न पर एक बहस शुरू हुई थी तो माकपा
के बुद्धिजीवी मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टियों के अधकचरे बुद्धिजीवियों
पर हावी हो गये थे, और वह भी मार्क्सवाद को विकृत करके और ग़लत-सलत तर्क और
तथ्य देते हुए!
आगे इसी खण्ड में माकपा हमें बताती है कि
चीन में एक विशेष क़िस्म का समाजवाद निर्मित हो रहा है। इसकी सफलता के लिए
हमें जीडीपी, जीएनपी और प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोत्तरी के आँकड़े बताये जाते
हैं। लेकिन इन पैमानों पर तो भारत भी अपनी तरक्की दिखला सकता है! लेकिन उस
तरक्की की चीर-फाड़ माकपा के टट्टू बुद्धिजीवी दहाड़-दहाड़कर करते हैं। लेकिन
चीन में अमीर-ग़रीब के बीच की बढ़ती खाई (ऊपर के 10 प्रतिशत और नीचे के 10
प्रतिशत के बीच में आय का फ़र्क़ 22 गुना है!), बेरोज़गारी, ग़रीबी,
वेश्यावृत्ति के आधार पर वे चीन के विकास के पूँजीवादी असमान विकास होने की
कभी बात नहीं करते! जबकि भारत इस मामले में तो चीन का चेला है! यहाँ पर
नवउदारवादी नीतियों को लागू करने में जिस मॉडल की बार-बार बात की जाती है,
वह चीनी मॉडल है! लेकिन माकपा इन सब चीज़ों को नज़रअन्दाज़ करते हुए, अपने
मनमुआफ़िक़ नतीजे निकालती है ताकि उसके संशोधनवाद को तुष्ट और पुष्ट किया जा
सके! माकपा बस अन्त में इतना कह देती है कि चीन में कुछ दिक्क़तें हैं और
चीन की पार्टी में पूँजीपतियों की भर्ती से भी दिक्क़तें बढ़ रही हैं। लेकिन
माकपा का चीन के संशोधनवादी गुरुओं पर पूरा भरोसा है और उसका मानना है कि
चीन की पार्टी अन्तत: ‘चीनी क़िस्म का समाजवाद’ बनाकर ही मानेगी! निश्चित
रूप से! माकपा एक अच्छे शिष्य की तरह खड़िया और स्लेट लेकर चीन की तरफ देखती
हुई खड़ी है! बस बात यह है कि इन संशोधनवादी, मज़दूर वर्ग की पीठ में छुरा
भोंकने वाले, ग़द्दार गुरू-चेला से मज़दूर वर्ग को कुछ नहीं मिलने वाला और
उसे इन ढोंगियों-पाखण्डियों से बचकर रहना होगा।
आगे वियतनाम, क्यूबा और उत्तर कोरिया के
”समाजवाद” का उदाहरण देते हुए माकपा नेतृत्व इस बात को कष्ट करने का प्रयास
करता है कि 21वीं सदी में समाजवाद को विशेष तरीक़े से ही बनाना होगा,
जिसमें निजी सम्पत्ति, बाज़ार, शोषण, दमन, उत्पीड़न सबकुछ होगा! अब ऐसे
समाजवाद का सपना तो मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन या माओ किसी ने भी
नहीं देखा था! इस समाजवाद में समाजवादी बचा क्या है? इसमें मज़दूर वर्ग का
बचा क्या है? ज़ाहिर है कुछ नहीं! क्यों? क्योंकि माकपा का लक्ष्य समाजवाद
तक जाना है ही नहीं! उसका मकसद समाजवाद का नाम लेते हुए पूँजीवाद की ही
रक्षा करना, उसे बरक़रार रखना और उसकी उम्र बढ़ाना है! यही तो संशोधनवाद की
भूमिका होती है!
सातवें खण्ड में माकपा ने लातिन अमेरिका
में जारी बोलिवारियन विकल्प के प्रयोगों का गुणगान किया है। माकपा का मानना
है कि वेनेजुएला में शावेज़, बोलीविया में इवो मोरालेस आदि की सत्ताएँ
पूँजीवाद के भीतर रहते हुए ही साम्राज्यवाद और नवउदारवाद का एक विकल्प दे
रही हैं! इस विकल्प पर माकपा नेतृत्व फिदा है! क्योंकि इनमें कुछ भी
समाजवादी नहीं है। इन प्रयोगों को जनता का समर्थन प्राप्त है जिसके दो कारण
हैं। एक है साम्राज्यवाद से लातिनी जनता की नफ़रत और दूसरा कारण है कि इन
सत्ताओं द्वारा फिलहाल आपसी सहयोग और तेल अधिशेष के बूते कल्याणकारी
नीतियाँ लागू करना जिसके कारण पहले की सैन्य जुण्टाओं के शासन की तुलना में
जनता की शिक्षा, चिकित्सा, रिहायश आदि तक पहुँच बहुत बढ़ गयी है। लेकिन ऐसी
सत्ताएँ हमेशा नहीं टिकी रह सकतीं। या तो वहाँ चीज़ें समाजवाद की ओर
जाएँगी, या फिर खुले, नंगे नवउदारवादी पूँजीवाद की तरफ़। अगर उन्हें समाजवाद
की तरफ़ जाना होगा तो उन्हें बलपूर्वक सम्पन्न की गयीं और मज़दूर वर्ग
द्वारा मज़दूर वर्ग की पार्टी के नेतृत्व में सम्पन्न की गयीं मज़दूर
क्रान्तियों के जरिये ही जाना होगा! कोई प्रबुद्ध जनवादी शासक, जैसे कि
शावेज़, अपने सुधारों के जरिये समाजवाद की स्थापना नहीं कर सकता! क्रान्ति
का प्रश्न पूरी राज्य सत्ता का प्रश्न है, और सर्वहारा क्रान्ति बुर्जुआ
राज्यसत्ता के ध्वंस के जरिये ही सम्पन्न हो सकती है। संसदीय रास्ते से अगर
कोई प्रगतिशील ताक़त सत्ता में आती है और समाजवादी नीतियाँ लागू करने की
प्रक्रिया को एक हद से आगे बढ़ाती है तो उसका वही हश्र होता है जो चिली में
1973 में सल्वादोर अयेन्दे का हुआ था, जहाँ साम्राज्यवादी सहयोग से सेना ने
अयेन्दे का तख्ता पलट कर दिया था। और शावेज़ तो मार्क्सवादी भी नहीं है।
लेकिन माकपा इन संक्रमणकालीन सत्ताओं को एक विकल्प के तौर पर पेश करती है
क्योंकि इनमें वे सभी गुण हैं जो समाजवादी क्रान्ति से बचने के लिए
संशोधनवादी सुझाते हैं — यानी, राज्य कल्याणवाद और राज्य इज़ारेदार
पूँजीवाद!
आठवें खण्ड (‘भारतीय परिस्थितियों में
समाजवाद’) में माकपा नेतृत्व हमें बताता है कि भारत में अभी जनता की जनवादी
क्रान्ति के कार्यभार को मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में सम्पन्न किया जाना है;
इसके लिए मज़दूर वर्ग को संगठित होना होगा। इसके बाद माकपा बताती है कि यह
काम संसदीय और संसदेतर जरियों से किया जायेगा! मज़दूर और किसान वर्ग का
संश्रय स्थापित किया जायेगा! ये सारी बकवास करने बाद हमें भारतीय समाजवाद
की ख़ासियत बताई जाती है, जो माकपा शान्तिपूर्ण तरीक़े से संसद के जरिये
स्थापित करने के बाद लागू करेगी। इसमें पहली चीज़ है खाद्य सुरक्षा, पूर्ण
रोज़गार, शिक्षा, रिहायश और स्वास्थ्य सुविधाओं तक सार्वभौमिक पहुँच। इन
सबसे जनता के जीवन स्तर में बढ़ोत्तरी की जायेगी और समाज के परिधिगत हिस्सों
को आगे लाया जायेगा। दूसरी बात जो माकपा कहती है, वह उसके ख़्रुश्चेवपन्थ
को नंगा कर देती है। इस समाजवाद में मज़दूर वर्ग की तानाशाही नहीं होगी; यह
पूरी जनता की सत्ता होगी, जो नागरिकों को वास्तविक नागरिक व जनवादी अधिकार
देगी! यानी, पूरी जनता खुद को ही अधिकार देगी! इसी से इस धोखाधाड़ी का
पर्दाफाश हो जाता है। निश्चित रूप से, अगर इसमें मज़दूर वर्ग की तानाशाही
नहीं होगी, तो वह पूँजीपति वर्ग की तानाशाही होगी! इसके बाद, माकपा एक सूची
पेश करती है जिसके अनुसार उसकी समाजवादी व्यवस्था में जातिवाद,
साम्प्रदायिकता का अन्त हो जायेगा, वगैरह-वगैरह! और अन्त में, माकपा बताती
है कि भारतीय समाजवाद में कई प्रकार की सम्पत्तियाँ होंगी, जिसमें कि निजी
सम्पत्ति भी शामिल है, और इसके बाद माकपा वही बकवास करती है जो वह चीनी
क़िस्म के समाजवाद को सही ठहराने के लिए कर चुकी थी! इस तरह से ‘चीनी’,
‘भारतीय’, ‘लातिन अमेरिकी’ क़िस्मों के समाजवाद के नाम पर समाजवाद की
क्रान्तिकारी सारवस्तु का ही अपहरण कर लिया जाता है। माकपा एक ऐसे क़िस्म के
समाजवाद की बात करती है, जिसमें से समाज ग़ायब है और पूँजी का बोलबाला है!
दस्तावेज़ के अन्त में माकपा ने फिर से कुछ
”विचारधारात्मक तोपें” छोड़ी हैं, जैसे कि मार्क्सवाद प्रासंगिक है,
उत्तरआधुनिकतावाद ग़लत है, सामाजिक जनवाद ग़लत है (!?) वगैरह! लेकिन आप भी अब
तक इस पूरे दस्तावेज़ का असली इरादा समझ गये होंगे। इसका मक़सद था
मार्क्सवाद और समाजवाद का नाम लेते हुए मार्क्सवाद और समाजवाद के
सिद्धान्त को विकृत कर डालना, उसकी क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु को नष्ट कर
डालना, और नंगे और बेशर्म क़िस्म के संशोधनवाद को मार्क्सवाद का नाम देना!
लेकिन इन सभी प्रयासों के बावजूद अगर माकपा के इस दस्तावेज़ को कोई आम
व्यक्ति भी पंक्तियों के बीच ध्यान देते हुए पढ़े तो माकपा की मज़दूर वर्ग से
ग़द्दारी, उसका पूँजीपति वर्ग के हाथों बिकना, उसका बेहूदे क़िस्म का
संशोधनवाद और ‘भारतीय क़िस्म के समाजवाद’ के नाम पर भारतीय क़िस्म के
पूँजीवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने का उसका शर्मनाक इरादा निपट नंगा हो
जाता है! इस दस्तावेज़ में माकपा के घाघ संशोधनवादी सड़क पर निपट नंगे भाग
चले हैं। मज़दूर वर्ग के इन ग़द्दारों की असलियत को हमें हर जगह बेनक़ाब करना
होगा! ये हमारे सबसे ख़तरनाक दुश्मन हैं। इन्हें नेस्तनाबूत किये बग़ैर देश
में मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी राजनीतिक आन्दोलन आगे नहीं बढ़ पायेगा!
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