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Wednesday, 16 May 2012

क्षेत्रीय दलों की सत्ताप्रेमी धर्म निरपेक्षता


क्षेत्रीय दलों की सत्ताप्रेमी धर्म निरपेक्षता



राम विलास पासवान के नेतृत्व में चलने वाली लोकजन शक्ति पार्टी को ही ले लीजिए. पासवान जी कभी धर्म निरपेक्षता के ध्वजावाहक बनते दिखाई देते हैं तो कभी भारतीय जनता पार्टी  में धर्मनिरपेक्षता  तलाशने लग जाते हैं...
निर्मल रानी 
यदि हम भारतीय जनता पार्टी तथा शिवसेना के अतिरिक्त देश के अन्य राजनैतिक दलों की बात करें तो लगभग सभी ने अपने अपने संगठनों को स्वयं  ही धर्म निरपेक्ष राजनैतिक दलों की उपाधि दे डाली है. इन दलों द्वारा अपने को धर्मनिरपेक्ष साबित करने के लिए ही समय-समय पर विभिन्न राजनैतिक अखाड़ों में तरह तरह के प्रयोग किए जाते रहे हैं. 
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उदाहरण के तौर पर वी.पी. सिंह, भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से देश के  प्रधानमंत्री बने. बोफोर्स तोप सौदा मामले में  भ्रष्टाचार में  डूबी कांग्रेस  को सत्ता से हटा कर एक धर्म निरपेक्ष मोर्चा (वी.पी.सिंह के नेतृत्व में) ने कथित रूप से साम्प्रदायिक माने जाने वाली भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाकर गैर कांग्रेस वादी गठबन्धन सरकार की बुनियाद डाली. धर्म निरपेक्षता के ही एक और अलमबरदार जार्ज फर्नांडिस ने तो भाजपा के साथ दोस्ती  का ऐसा हाथ बढ़ाया कि वह दोस्ती आज भी बिहार में बरकरार  है. 
समता पार्टी  अथवा वर्तमान जनता दल यूनाईटेड रूपी इस कथित धर्म निरपेक्ष संगठन का मकसद भी कांग्रेस को हटाकर सत्ता हासिल करना ही था और अब भी वही है. चाहे वह भाजपा जैसी कथित साम्प्रदायिक पार्टी से हाथ मिलाकर सत्ता तक पहुंचना ही क्यों न रहा हो. देश के लगभग 2 दर्जन ऐसी पार्टियाँ हैं जोकि स्वयं को धर्म निरपेक्ष कहते हुए  भारतीय जनता पार्टी को अपना समर्थन दे चुकी हैं. इन में से कुछ दल ऐसे भी हैं जो वर्तमान समय में कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार में भी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन से नाता तोडक़र शामिल हो चुके हैं. 
प्रश्र यह है कि देश के विभिन्न राज्यों में अपनी सीमित राजनीति चलाने वाले राजनैतिक संगठनों  के आकाओं की अपनी कोई सोच या विचारधारा है अथवा नहीं? लगभग पूरे देश में यदि इन छोटे राजनैतिक दलों के कार्य  करने तथा इनके संगठन विस्तार के लिए उठाए जाने वाले कदमों पर गौर करें तो बड़ी आसानी से यह समझा जा सकता है कि  इन सब का मकसद  राज्य की सत्ता को अपने हाथों में रखना है. दूसरा यह कि सत्ता के साधनों का भरपूर उपयोग करते हुए  अपने संगठनात्मक संसाधनों को इतना विकसित किया जाए कि वे लोकसभा में अधिक से अधिक सांसदों के साथ अपने दल की उपस्थिति दर्ज करवा सकें. 
इन दलों के लिए केन्द्र व राज्य के मध्य सौदेबाजी व ब्लैकमेलिंग जैसी राजनीति तथा समय-समय पर समर्थन देने न देने की घुड़कियां देना आदि तो पूरे कार्यकाल तक चलने वाली बातें होती हैं. इस प्रकार यह राजनीतिक दल राज्य व केन्द्र  की सत्ता में  अपनी पकड़ मजबूत रखते हुए अपने अपने राजनैतिक संगठनों का  राज्य से बाहर  विस्तार किए जाने की दिशा में सक्रिय हो जाते हैं. 
समाजवादी पार्टी, इण्डियन नेशनल लोकदल, लोकजन शक्ति पार्टी, राष्ट्रीय  जनता दल, जनता दल यूनाइटेड, तृणमूल कांग्रेस जैसे  संगठनों  को इसी सूची में शामिल किया जा सकता है. समाजवादी पार्टी का जन्म उत्तर प्रदेश राज्य का है. परन्तु वह देश के हर उन क्षेत्रों में अपने पैर जमाने की सम्भावनाएं तलाशती रहती है जहां उसे धर्म निरपेक्ष अथवा मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र नजर आते हैं. यही हाल राष्ट्रीय  जनता दल का भी है. 
बिहार व झारखंड राज्य विधान सभा चुनावों में टिकट कोटे को लेकर कांग्रेस पार्टी व लालू यादव के मध्य कई बार इन्हीं कारणों के चलते विवाद पैदा हो चुका है.  लालू यादव  राष्ट्रीय जनता दल का बिहार से बाहर निकल कर साथ लगते झारखण्ड राज्य में भी विस्तार करना चाहते हैं. आखिरकार  वे भी तो उन सभी नेताओं की तरह ही भारतीय राजनैतिक व्यवस्था का ही एक प्रमुख अंग हैं जोकि हर समय अपने राजनैतिक विस्तार के लिए ही हर राजनैतिक कदम उठाते चले आ रहे हैं. यह और बात है कि अब उन्हें झारखंड तो क्या बिहार की जनता ने बिहार का भी नहीं रखा. 
हरियाणा में कभी सत्तारूढ़ रही क्षेत्रीय पार्टी इण्डियन नेशनल लोकदल का आधार मात्र हरियाणा राज्य में ही था. इस संगठन के मुखिया ओम प्रकाश चौटाला कभी पश्चिमी उत्तर प्रदेश को हरित प्रदेश बनाए जाने का शगूफा लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दस बारह जिलों  में अपनी पार्टी का झण्डा लिए संगठन के विस्तार में जुटे दिखाई देते थे. यह अलग बात है कि उत्तर प्रदेश की जनता ने उनके एक भी सदस्य को विजयी न बनाकर उन्हें साफ चेतावनी ही क्यों न दे दी हो कि 'चौटाला साहब इनेलो के नेतृत्व में हरित प्रदेश बनाए जाने का आप का फार्मूला हम खारिज करते हैं.
परन्तु जुझारू एवं मंझा हुआ राजनीति का खिलाड़ी हरित प्रदेश में  मिली अपमानजनक हार से कभी मायूस नहीं होता. चौटाला ने उत्तर प्रदेश की पराजय के बाद अपने झण्डे का रूख राजस्थान की ओर मोड़ा. 2003 में वहां हुए विधान सभा चुनावों में उन्होंने अपनी पार्टी के लगभग 50 उम्मीदवार खड़े किए जिन में से चार उम्मीदवार आखिर  जीतकर आ ही गए. इससे पूर्व भी उनके बेटे राजस्थान विधान सभा के सदस्य रह चुके हैं. विस्तारवाद की राजनीति अन्य छोटे राजनैतिक दलों की तरह करने में इनेलो भी पीछे नहीं रही है. 
हरियाणा में अपनी पकड़ को हरगिज ढीली न होने देने के परिणाम स्वरूप ही इनेलो ने भारतीय जनता पार्टी से अपने मधुर सम्बन्ध खराब करने में भी देर नहीं लगाई. यह भी अलग बात है कि आज चौटाला साहब भी उत्तरप्रदेश और राजस्थान में सत्ता विस्तार करना तो दूर हरियाणा की सत्ता से भी बाहर हो चुके हैं. ऐसी सभी राजनैतिक पैंतरों  का केवल और केवल एक ही मकसद होता है, अपनी सत्ता का जिस हद तक हो सके विस्तार किया जाए.
राम विलास पासवान के नेतृत्व में चलने वाली लोकजन शक्ति पार्टी को ही ले लीजिए. पासवान जी कभी धर्म निरपेक्षता के ध्वजावाहक बनते दिखाई देते हैं तो कभी भारतीय जनता पार्टी के गले में बांहे डालकर भाजपा में ही 'धर्मनिरपेक्षता  तलाशने लग जाते हैं. कभी दलितों के पैरोकार के रूप में नजर आते हैं तो कभी वे देश में  'दलित मुस्लिम गठबन्धन  की अत्याधिक आवश्यकता महसूस करने लगते  हैं. उनके साथ भी यही कहानी है. वे जब और जैसा भी महसूस करते हैं या जब जिधर जाते हैं वही उनके लिए वक्त की मजबूरी होती है. इन सभी नेताओं  का साफ सोचना है कि सत्ता से संगठन म$जबूत होता है तथा संगठन की मजबूती ही उनके अपने राजनैतिक अस्तित्व का एक मात्र साधन है.
देश में राष्ट्रीय  स्तर पर गांधीवाद, हिन्दुत्ववाद तथा साम्यवाद जैसी तीन मुख्य धाराएँ  हैं तथा कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी तथा तमाम साम्यवादी दल इन विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. लेकिन  अन्य तमाम छोटे राजनैतिक दलों  में अपने सत्ता विस्तार, परिवार वाद वंशवाद को बढ़ाने तथा अपनी राजनैतिक पकड़ को और व्यापक बनाए जाने के सिवा विचारधारा नाम की कोई भी चीज नजर नहीं आती. ऐसे छोटे राजनैतिक दलों के मंसूबों तथा उनके प्रत्येक राजनैतिक कदमों के प्रति देश की जनता को पूरी तरह चौकस व जागरूक रहने की जरूरत है.
nirmal-raniनिर्मल रानी राजनीतिक टिप्पणीकार और उपभोक्ता मामलों की जानकर हैं.


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