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साठ साल की संसद पर हंसिए मत, उसे गंभीरता से लीजिए!
13 MAY 2012
राजनीति में एक मानवीय वैमर्शिक वातावरण की दरकार
♦ शशि कुमार झा
राजनीति की संकल्पनाओं, संस्थाओं और आदर्शों को विभिन्न दृष्टिकोणों या विचारधाराओं में बांट कर पढ़ने-पढ़ाने, समझने और विश्लेषण करने के हमारे प्रचलित तरीके को हम अपनी-अपनी प्रतिबद्धताओं से जोड़ते रहे हैं। राजनीतिक प्रश्नों पर उदारवादी, मार्क्सवादी, नारीवादी, राष्ट्रवादी और सबल्टर्न जैसे परिप्रेक्ष्य में अपनी बात कहना हमें एक सुसंगत और सुरक्षित अभिव्यक्ति भी देता है। इसी तरह कई और समुदायपरक मूल्य और मापदंड हैं, जिसके आधार पर हम जाति, संप्रदाय, वर्ग, लिंग, भाषा और क्षेत्र जैसे स्थापित और सत्याभासी श्रेणियों नजरिये से अपने जटिल राजनीतिक प्रश्नों को भी आसानी से समझ लेने और उस पर अपनी राय कायम करने का प्रयास करते रहते हैं। एक लंबे समय से राजनीतिक ज्ञान और विश्लेषण की क्रिटिकल धाराओं में उपरोक्त दोनों ही गुण मौजूद रहे हैं। ऐसा नहीं है कि विश्लेषण के ये प्रचलित तरीके उपयोगी और अर्थपूर्ण नहीं हैं। किसी भी राजनीतिक परिघटना को तात्कालिक रूप से समझने के लिहाज से ये उपयोगी हो भी सकते हैं।
लेकिन समस्या तब आती है जब हमारी ही राजनीतिक परिकल्पनाएं हमारे सामने तथ्य के रूप में प्रस्तुत होकर हमें भ्रमित करने लगती हैं। ऐसे ही कई बार कठोर लोकतांत्रिक आदर्शों को भी हम व्यावहारिक प्रक्रियाओं और सुप्राप्य समाधानों के रूप में अपनाने का जतन करने लग जाते हैं। भारतीय संसद के साठ साल जैसे विषय पर विचार करते हुए लोकतांत्रिक जिम्मेदारियों वाले क्रियाशील नागरिकों को उपरोक्त दोनों ही फ्रेमवर्कों से आगे जाना होगा, भले ही हमारे पारंपरिक सहजज्ञान को नजर आने वाले सारे राजनीतिक घटनाक्रम, साक्ष्य, तथ्य और आंकड़े हमें घोर नकारात्मक और निराशाजनक लग रहे हों। इस कसौटी पर एक राजनीतिक विश्लेषक के तौर पर लिखे गये अब तक के मेरे स्वयं के ज्यादातर लेख खरे नहीं उतरते हैं।
इस देश में संसदीय व्यवस्था के राजनीतिक इतिहास और उसकी उपलब्धियों और खामियों पर सुविज्ञ जनों ने बहुत कुछ लिखा है। संसद आवश्यक रूप से एक सर्वोच्च प्रतिनिधिक संस्था है इसलिए प्रतिनिधित्व की प्रचलित व्यवस्था और जन-प्रतिनिधियों का व्यक्तिगत रवैया दोनों ही इस बहस के केंद्र में हैं। भारत की मौजूदा राजनीति और यहां के राजनेता दोनों ही विश्वसनीयता के गंभीर संकट से गुजर रहे हैं। राजनीतिक सुधारों की लंबे समय से चल रही चर्चाओं में धनबल-बाहुबल, व्यक्तिवाद-परिवारवाद, अपराधीकरण, कार्यान्वयन और निगरानी में प्रशासनिक निष्क्रियता, राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव, दलीय सुधार, चुनाव सुधार और लोकपाल जैसे कठोर भ्रष्टाचार निरोधी कानून इत्यादि मुद्दे हावी रहे हैं।
इन सभी चर्चाओं की अग्रभूमि में हम एक आदर्श और वांछनीय राजनीति की तस्वीर अपने समक्ष रखते हैं, और फिर उसे हासिल करने के लिए कानूनी और दंडात्मक प्रावधानों को पहली प्राथमिकता दे देते हैं। ऐसा करते हुए जाने-अनजाने हम एक विशेष प्रकार की व्यक्तिगत नीतिपरायणता और सदाचारिता की अहंभावना का शिकार हुए रहते हैं। इसके मूल में ही प्रायः राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं के चोर, भ्रष्ट, अन्यायी, शोषणकारी और सत्तालोलुप इत्यादि होने की भावना कार्य करने लगती है। इस प्रकार चाहे वह कोई भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हो, मीडिया का मंच हो या न्यू मीडिया पर चल रही चर्चाएं हों, उसमें व्यक्तिगत आरोपों, चरित्र हनन की रचनात्मक अभिव्यक्तियों, विभिन्न श्रोतों से जुटाये गये नकारात्मक तथ्यों और साक्ष्यों की भरमार होती है।
पिछले कुछ समय से राजनीति के प्रति मोहभंग अपने चरम पर है और लोगों के आपसी बातचीत और व्यापक वैमर्शिक वातावरण में भी निराशावाद और 'कुछ नहीं हो सकता' की स्वीकारोक्ति गुंजायमान होती रहती है। ऐसा लगता है मानो धीरे-धीरे हम एक पॉलिटिकल जेनोफोबिया या राजनीतिक अन्य-द्वेषिता की जद में आते जा रहे हैं। मानो रोजाना मनाये जा रहे एक लोक उत्सव में हमने सार्वजनिक जीवन को अपना चुके लोगों के पुतले पीटने का कार्यक्रम रखा है। इस उत्सव में हमें अपनी सारी समस्याओं के लिए इन्हें कोसने का मंत्र पढ़ते हुए इनपर ताबड़तोड़ प्रहार करना होता है। कठोर पुलिसिंग की सीमाओं और खतरों को नजरंदाज करते हुए हम जाने-अनजाने भावनात्मक रूप से हिंसक होते जा रहे हैं।
इस दोषदर्शी वातावरण में हम विभिन्न मंचों पर सार्वजनिक व्यवस्था और नेताओं की केवल शिकायत कर रहे हैं। यह शिकायत किससे कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं, इन शिकायतों के बाद हमारा आगे का कार्यक्रम क्या है, यह नकारवादी सामूहिक चेतना ही हमें कहां ले जा रही हैं और उससे आगे की हमारी रचनात्मक भूमिका क्या है; इन प्रश्नों पर सोचने की जिम्मेदारी से हम स्वयं को मुक्त समझने लगे हैं। इन तमाम शिकायती अभिव्यक्तियों में हम केवल किसी 'अन्य' से बदलने की अपेक्षा और मांग रखते जा रहे हैं। यह 'अन्य' कौन है, किसके बीच से है, वह यदि सार्वजनिक जीवन में है तो क्यों है, कब से है, उसकी प्रतिबद्धताएं और उपलब्धियां क्या हैं, उसके जीवन उद्देश्य और उसके सार्वजनिक कृत्यों का मानवीय पक्ष क्या है। निरंतर इनसे दूरियां बनाते और बढ़ाते जाना लोकतंत्र के लिए कितना फायदेमंद है? ये सारे प्रश्न हमारे जेहन में आने बंद से गये हैं। हम शायद भूलने लगे हैं कि लोकतंत्र किसी अन्य के द्वारा बने-बनाये रूप में प्रदत्त कोई व्यवस्था नहीं है। इसे हम सब को अपने-अपने स्तर पर रोज-रोज बनाना, सींचना और बनाये रखना होता है।
जो भी तथ्य सामने आ रहे हैं यदि वे सच भी हैं तो भी हमें अपनी प्रतिक्रियाओं के बारे में सचेत होना पड़ेगा। उनमें परिवर्तन लाने का रचनात्मक रास्ता अपनाना होगा। हमें इनसे समूल निजात पाने की अपनी जिद को छोड़ना होगा। इन्हें बुरा-भला कह कर, इन्हें कोस कर, इनके प्रति घृणा फैलाकर, इनसे जुड़ीं व्यक्तिगत कहानियों के जरिए इनका चरित्र हनन कर हम इन्हें समाज से बहिष्कृत करने पर उतारू होना न तो मानवीय है न ही व्यावहारिक। हम इन सबको जेल में डाल कर हमारी राजनीति के लिए लाखों की संख्या में कुछ 'अच्छे, गैर-राजनीतिक परिवार वाले, कम पैसे वाले, सच्चरित्र, ईमानदार, सादगीपसंद, और पढ़े-लिखे' लोगों की जबरन भर्ती भी सुनिश्चित नहीं कर सकते हैं। कठोर आदर्शों का दबाव और राजनीतिक नैतिकता की हमारी समझ सार्वजनिक जीवन में काम कर रहे 'अन्य' लोगों के जीवन पर 'त्याग-बलिदान, निस्वार्थता, सादगी, गरीबी' जैसे अव्यावहारिक मूल्य थोपने लगा है।
ऐसा लग रहा है कि हम अपने प्रतिनिधियों को निरंतर डिफेंसिव और प्रतिक्रियावादी बनाते जा रहे हैं। संभवतः आज इसका असर उनके स्वयं के जीवन में इतना आ चुका है कि उनका अन्य नेताओं के साथ आपसी व्यवहार में भी यही आरोप-प्रत्यारोप, रक्षात्मकता, उदासीनता, प्रतिक्रियावाद, जुबानी हिंसा, चरित्र हनन, स्पष्टीकरण और अन्य दल या व्यवस्था की शिकायत करके बच निकलना इत्यादि पूरी तरह से शामिल हो गया है। हमें समझना होगा कि उनमें अपराधबोध पैदा कर और उनकी नजरों में उनकी स्वयं की नकारात्मक छवि बना कर हम उनका सशक्तिकरण और उत्प्रेरण नहीं कर सकते। ऐसे माहौल में अपनी वैधता बनाये रखने के लिए उनके समक्ष कोई अन्य रचनात्मक रास्ते की गुंजाईश कम से कमतर होती जाती है। हम जानते हैं कि हमारे विविधतापूर्ण समाज में कोई भी नीतिगत कदम परफेक्ट या अपने आदर्शों के बिल्कुल करीब और फूल प्रूफ नहीं हो सकता है। लेकिन इन आदर्शों को तत्काल प्राप्त कर लेने की चाह का दबाव भी हमारे प्रतिनिधियों के आत्मविश्वास को डिगा सकती है या उनकी निष्क्रियता को बढ़ा सकती है।
सामाजिक तौर पर ही हमने महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक विषयों पर डिबेट यानि वाद-विवाद की शैली को अपनाया हुआ है। इस शैली के आधार पर हम केवल अपनी वह बात और अपना वह पक्ष रखने को उद्यत होते हैं जो हमने पहले से ही तय कर रखा है। ऐसे में प्रायः सुनने और समझने का धैर्य और सकारात्मक स्वीकार्यता का साहस क्षीण होने लगता है। इसलिए एक लोकतांत्रिक समाज के रूप में डायलॉग अथवा संवाद की अवस्था से हम निरंतर दूर होते जा रहे हैं।
एक न्यायपूर्ण समाज के लिए किये जा रहे हमारे संघर्षों की भाषा ही देखें तो उसमें सदियों से पीड़ित होने का संदर्भ बार-बार आने लगता है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह अपनी जगह बिल्कुल सही है लेकिन क्या प्रगतिशीलता के लिए हमें अपने अतीत की ओर बार-बार वापस जाने की भाषा और फ्रेमवर्क हमें सकारात्मक भविष्योन्मुखी संवाद के लिए प्रेरित करता है? शायद यही वजह है कि हमारा प्रतिरोध हमारे गुस्से, हमारे आक्रोश, परस्पर घृणा और जबानी हिंसा के रूप में ज्यादा व्यक्त हो रहा है। क्योंकि अतीत की राजनीतिक व्याख्या के जरिए भविष्य की सर्जना में रीकंसीलिएशन या सामंजस्य की बजाए सामाजिक, राजनीतिक और मानसिक गतिरोध की संभावनाएं ज्यादा हो सकती हैं। विक्टिमहुड, शिकायत, संशयवाद और हर बात के पीछे षड्यंत्र देखने की मानसिकता हमें कमजोर और असहाय महसूस कराता है और इसकी अभिव्यक्ति अनायास ही हम करते रहने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। हर सार्वजनिक व्यक्तित्व और घटना के प्रति कटुता का प्रदर्शन हमारी इस असहाय स्थिति की ही अभिव्यक्ति होती है। इस दुष्चक्र में न केवल सामान्य जनता बल्कि सार्वजनिक कर्म अपनाने वाले लेखक, समाज सेवी, राजनीतिक कार्यकर्त्ता भी समान रूप से फंसते जा रहे हैं। यह हमें कुछ सकारात्मक कर पाने को प्रेरित करने की बजाए, हमारे द्वारा गढ़े गये इस 'अन्य' अज्ञात शत्रु को सर्वशक्तिमान और हर चीज के लिए जिम्मेदार ठहरा देता है।
आर्थिक और समाजी असमानताओं से भी हमें भौतिक से ज्यादा मानसिक स्तर पर निपटने की जरूरत हो सकती है। संसद ने एक विविधतापूर्ण मंच पर बराबरी का जो अवसर हमारे जनप्रतिनिधियों को दिया है उससे समाज के विभिन्न तबकों का मानसिक स्तर पर भी हीलिंग हुआ है। उनकी भाषा में बराबरी का आत्मविश्वास आ गया है। समानता को इसके भौतिक अर्थों में निरूपित कर देने की प्रवृत्ति ने कई समुदायों को राजनीतिक और सामाजिक बराबरी की भावना के फायदे से वंचित रखा है। क्योंकि गैरबराबरी प्रायः भाषा और व्यापक वैमर्शिक वातावरण में मानसिक स्तर ज्यादा मौजूद है। इस भाषा ने हमारे राजनीतिक सोच की धारा को भी प्रभावित किया है। तभी तो हम अपने प्रतिनिधियों को वोट देकर उन्हें पदस्थापित करते हैं और आगे की समस्त जिम्मेदारी उनके कंधे डाल देते हैं। यह भला बराबरी का संबंध कैसे हो सकता है? साझेदारी या भागीदारी की जगह हम उनसे लेन-देन वाला संबंध चाहते हैं। उनको सहयोग, समर्थन और सशक्तिकरण देने की बजाए हम उन्हें ऊपर बिठा कर उनसे कुलीन जैसा बना देते हैं। हम स्वयं को उनके समक्ष हम अपनी मांग रखते जाने का अधिकारी समझने लगते हैं। उनसे कठोर राजनीतिक इच्छाशक्ति वाले महामानव होने की अपेक्षा करने लगते हैं। उन्हें 'स्व' से अलग कर 'अन्य' बना देते हैं। उनसे घृणा करने लगते हैं और इसके लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराते रहते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि इस घृणा से सामने वाले में कोई सकारात्मक परिवर्तन संभव नहीं है, बल्कि उल्टे यह हमें भी घृणा ही वापस मिलेगा।
संसद की साठवीं वर्षगांठ हमारे लिए एक मौका भी हो सकता है जब हम इन समस्याओं को एक भावनात्मक और मानवीय स्तर पर भी देखना शुरू करें। तात्कालिक रूप से हमारी मानसिक पृष्ठभूमि में चल रहे नकारात्मक और हिंसक विचाराभिव्यक्तियों का आनंद लेना बंद करें। मानवता की बुनियाद बिना शर्त्त प्रेम है। मानव समाज की उत्तरजीविता के लिए भी इससे अलग कोई अन्य तरीका नहीं है। लोकतंत्र, लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक प्रतिनिधियों को अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक और मानवीय संबंधों से अलग कोई चीज मानने की भावना हमारे भीतर घर करती जा रही है जिसे हमें समय रहते समझना होगा। इस राजनीतिक समाज और विमर्श में एक बराबरी का हिस्सेदार होने की वजह से यह भी जानने-समझने का प्रयत्न करना होगा कि यही सारा घटनाक्रम उनकी जगह पर खड़े होकर उनकी नजरों से कैसा दिखाई देता है। बल्कि इससे भी आगे उनके करीब जाकर यह जानने का प्रयत्न करना होगा कि वे कौन सी चीजें हैं जो उनकी मूल प्रतिबद्धताओं और विजन तक पहुंचने या हमारी सामूहिक चेतना से जुड़ने से उन्हें रोक रहीं हैं। उन्हें इससे वापस जोड़ने की सकारात्मक और भावनात्मक पहलकदमी भी हमारी ओर से होनी होगी।
क्या क्रिटिकल, पीआर और पेड के अतिरिक्त राजनीतिक विश्लेषण और विमर्श का कोई मानवीय नजरिया भी हो सकता है? क्या इससे सकारात्मक और साझी संभावनाओं से युक्त सशक्त संवादों और प्रयासों का माहौल बन सकता है? क्या हमारे बीच प्रेम, दया, सहयोग, सहानुभूति, करुणा, साझेदारी, भागीदारी, मानवीय स्तर पर छूने और प्रेरित करने वाला संवाद संभव है? क्या हम कोई ऐसा फ्रेमवर्क अपना सकते हैं जिसमें कोई 'अन्य' न हो, केवल 'स्व' का विस्तार हो?
(शशि कुमार झा। डेमोक्रेसी कनेक्ट में संवाद सूत्रधार। बीबीसी जैसी संस्थाओं से जुड़े रहे। इंटरनेट पर हिंदी को जमाने में भी बड़ा हाथ रहा। डीयू से आईआईएमसी तक राजनीति और पत्रकारिता की पढ़ाई की। वक्त मिले तो शशि के ब्लॉग अष्टावक्र पर भी जाएं। उनसे avyaktashashi@gmail.com और shashi@democracyconnect.org पर संपर्क किया जा सकता है।)
राजनीतिक विश्लेषक एस. निहाल सिंह ने कहा कि पहले संसद में बहस का स्तर बहुत ऊंचा होता था। उन्होंने कहा, "आज तो बहस बहुत कम, और शोरशराबा व व्यवधान सबसे ज्यादा है।"
लोकसभा के पूर्व सचिव सुभाष सी. कश्यप ने कहा कि संसद की संरचना सामाजिक स्थिति का भी प्रतिबिम्ब है। उन्होंने कहा, "वे सांसद जनता के प्रतिनिधि हैं..हमारी कमजोरियों के, हमारी संस्कृति, मूल्यों की समझ, हमारी अनुशासनहीनता के.. यदि समाज में अनुशासनहीनता है, तो उसे तो जाहिर होना ही है।"