सिलिकोसिस ने दूभर की पत्थर तोड़ने वाले मजदूरों की जिंदगी
बुधवार, 16 मई, 2012 को 10:25 IST तक के समाचार
सिलिकोसिस लाइलाज बीमारी है और यह अमूमन उन मजदूरों को हो जाती है जो या तो पत्थर तोड़ने का काम करते हैं या क्रशर मशीनों में या फिर पत्थर का पाउडर बनाने वाली फैक्टरियों में काम करते हैं.
सिलिकोसिस पूर्वी भारत के इस खनन वाले इलाके में बड़ी जानलेवा बीमारी के रूप में उभरी है. ग़ैर सरकारी संगठनों का आंकलन है कि इस बीमारी की चपेट में हज़ारों मजदूर हैं. कई मजदूरों की मौत हो चुकी है जबकि कई मौत के मुंह में हैं.
'जिंदगी मुश्किल में'
परन अपने गाँव के पास पत्थर का चूरा बनाने वाली एक फैक्ट्री में काम करते थे. पहले तो उनकी तबीयत ख़राब हुई और बाद में उनकी हालत बिगडती चली गई.
आज वह चल फिर भी नहीं पाते हैं. परन को सिलिकोसिस हो गया है और जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं उनका वज़न भी घट रहा है और शरीर में कमज़ोरी भी बढती जा रही है. अब उनकी पीठ चारपाई को लग गई है.
चारपाई पर पड़े पड़े परन सही तरह से अपनी तकलीफ भी बयान कर पाने की स्थिति में नहीं हैं.
वे कहते हैं, "बैठता हूँ तो बेचैनी. लेटता हूँ तो पेट फूल जाता है. सांस लेने में तकलीफ हो रही है. खाया नहीं जाता. मेरी ज़िन्दगी बहुत मुश्किल में है."
परन को पता है कि वह एक लाइलाज बीमारी की चपेट में आ गए हैं. उन्हें यह भी पता है कि जिसे जैसे दिन बीतते जाएँगे उनकी हालत और ख़राब होती चली जाएगी.
दर्दनाक मौत
"काम के दौरान पत्थर की जो धूल फेफड़ों में बैठ जाती है वह अहिस्ता आहिस्ता शरीर को कमज़ोर कर देती है. फेफड़ों का यह संक्रमण फैलता चला जाता है जिसका कोई इलाज नहीं है."
डॉक्टर टीके महंती
मोनिका की तरह ही केन्दाडीह की साधना हैं जिन्होंने अपना जवान बेटा खोया है. यह सभी लोग पत्थर का चूरा बनाने वाली फैक्ट्री में काम करते थे. केन्दाडीह में जो लोग सिलिकोसिस से मरे हैं, उन्हें उनके परिजनों बड़ी दर्दनाक मौत मरते देखा है.
इस लिए इस बारे में बात करते ही उनकी आँखें छलक जाती हैं. कई ऐसे हैं जो इस बीमारी से जूझ रहे हैं और बहुत शारीरिक कष्ट के दौर से गुज़र रहे हैं.
अंतरराष्ट्रीय मजदूर संगठन (आईएलओ) और विश्व स्वस्थ्य संगठन द्वारा प्रशिक्षित डाक्टर टीके महंती का कहना है कि यह बीमारी क्रशर मशीनों और पत्थर की खदानों में काम करने वाले मजदूरों में होती है. उनका कहना है कि इस बीमारी का पता लगाने के लिए इस इलाके में उनके अलावा कोई दूसरा प्रशिक्षित चिकित्सक नहीं है.
वह कहते हैं,"काम के दौरान पत्थर की जो धूल फेफड़ों में बैठ जाती है वह अहिस्ता आहिस्ता शरीर को कमज़ोर कर देती है. फेफड़ों का यह संक्रमण फैलता चला जाता है जिसका कोई इलाज नहीं है."
सिलिकोसिस के सवाल पर एक लंबे अरसे से काम कर रहे ओक्युपेश्नल सेफ्टी एंड हेल्थ अस्सोसीएशान आफ झारखण्ड के समित कुमार कर्र कहते हैं कि सिलिकोसिस एक ऐसी बीमारी है जिसका रोकथाम किया जा सकता है अगर फैक्टरियों में सुरक्षा के उपाय किये जाएँ. जो होता नहीं है.
उनके संगठन की पहल पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने झारखंड की सरकार को सिलिकोसिस के मामलों की जांच करने का निर्देश दिया है.
उनका कहना है कि मानवाधिकार आयोग के प्रतिवेदन पर सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बीमारी से पीड़ित लोगों के लिए चिकित्सा सुविधा मुहैया कराने के लिए राज्य सरकार को निर्देश दिए हैं.
समित कहते हैं, "झारखण्ड में खनन का इतिहास २०० साल पुराना है. अगर देखा जाए तो सिलिकोसिस एक ऐसी बीमारी है जो सबसे ज्यादा जान लेवा है. ज़रुरत है कि झारखंड में इन मामलों को पता लगाने के लिए एक गहन अध्यन किया जाना चाहिए. इस अध्यन में आईएलओ और विश्व स्वस्थ्य संगठन द्वारा प्रशिक्षित किए गए चिकित्सकों की टीम बनाए जाए जो खनन के इलाकों में मजदूरों की सेहत की जांच करे".
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/05/120515_jharkhand_silicosis_va.shtml
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