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Saturday 7 April 2012

विधवा बनकर सुहाग की रक्षा FRIDAY, 06 APRIL 2012 08:52



विधवा बनकर सुहाग की रक्षा


http://www.janjwar.com/society/1-society/2529-vidhva-bankar-suhag-ki-raksha-ashish-vashishth
तरकुलारिष्ट यानि ताड़ी के परंपरागत पेशे से जुड़े लोगों की पत्नियां वर्ष में कुछ माह न तो मांग में सुहाग की निशानी सिंदूर भरती हैं और न ही श्रृंगार करती हैं। यानी विधवा जैसा जीवन जीती हैं। इतना ही नहीं इस दौरान ये महिलाएं सिर पर तेल तक नहीं लगाती हैं......
आशीष वशिष्ट
पति की लंबी उम्र के लिए पूजा, व्रत रखने और श्रृंगार करने की परंपरा हमारे देश में प्राचीन समय से है। मगर यह जानकर अचरज होता है कि हमारे देश में ही ऐेसी महिलाएं भी हैं, जो अपने पति की लंबी आयु की कामना और प्राण रक्षा के लिए वर्ष के कुछ महीने विधवा की भांति जीवन व्यतीत करती हैं। सुनने में ये चाहे अजीब और अटपटा लगता हो, मगर ये सत्य है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और देवरिया जिले में ये परंपरा सदियों से जारी है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और देवरिया जिले में तरकुलारिष्ट यानि ताड़ी के परंपरागत पेशे से जुड़े लोगों की पत्नियां वर्ष में कुछ माह न तो मांग में सुहाग की निशानी सिंदूर भरती हैं और न ही श्रृंगार करती हैं। यानी विधवा जैसा जीवन जीती हैं। इतना ही नहीं इस दौरान ये महिलाएं सिर पर तेल तक नहीं लगाती हैं।
taad-tree
ताड़ एक वृक्ष होता है, जिसकी औसत लंबाई 80-100 फीट तक होती है। इसके शिखर पर फल लगता है और बालियां निकलती हैं, जिसमें से मादक द्रव्य निकलता है। उसी नशीले द्रव्य को पेड़ से उतारना जोखिम भरा काम होता है। इस कार्य को करने वाले को 'गछवाह' कहते हैं। गरीबी, अशिक्षा और अंधविश्वास के चलते इस कार्य में पीढि़यों से लगे लोगों में अनेक मान्यताएं प्रचलित हैं।
ताड़ के पेड़ों से ताड़ी निकालने का काम चैत्र से सावन माह तक चलता है, इसलिए इस दौरान ताड़ी निकालने वाले पुरुषों की पत्नियां भयातुर रहती हैं कि काम को अंजाम देते समय उनके पति की कहीं मौत न हो जाय। इसी भय में वे रामनवमी से नागपंचमी तक न तो सुहागिनों-सा श्रृंगार करती हैं और न ही मांग में सिंदूर लगाती हैं। इस दौरान ये 'तरकुलहा माता' (आकाश कामिनी माता) से मन्नत मांगती हैं कि उनके पति सही सलामत अपने कार्य को अंजाम दे देंगे तो पूजा करेंगी और उसके बाद ही अपनी मांग में सिंदूर भरेंगी।
तरकुलहा माता का मंदिर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र के गोररखपुर-देवरिया जिले की सीमा पर अवस्थित है। यहां पूजा में बकरा, भेड़ और सुअर की बलि भी चढ़ाई जाती है। कुछ लोग खीर-पूरी भी चढ़ाते हैं।
यहां यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और आज भी बदस्तूर जारी है। गोरखपुर जनपद के रूपेश बताते हैं कि पेड़ की ताड़ी पकने तक अर्थात चैत्र से सावन तक ताड़ी तोड़ने का काम करने वालों की पत्नियां सुहागिनों की तरह नहीं रहती हैं, बल्कि विधवा जैसा जीवन व्यतीत करती हैं।


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