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Thursday 5 April 2012

आईपीएल से क्यों नहीं घबड़ा रहा है फिल्म उद्योग इसबार?


आईपीएल से क्यों नहीं घबड़ा रहा है फिल्म उद्योग इसबार?

मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

आईपीएल से क्यों नहीं घबड़ा रहा है फिल्म उद्योग इसबार?सीधा सा जवाब यह हो सकता है कि  पहले बॉक्स ऑफिस कलेक्शन ही फिल्मों की आय का मुख्य जरिया था लेकिन अब फिल्मों की कमाई के कई नए द्वार खुल गए हैं।हिंदी फिल्मों का निर्माता अगर अपनी फिल्म रिलीज कर लेता है, तो वह नुकसान में नहीं रहता। तत्काल वह फायदे में भले ही नहीं दिखे, लेकिन एक अंतराल में वह निवेशित राशि निकाल ही लेता है। इसीलिए लगातार फ्लॉप हो रहीं फिल्मों के बावजूद निर्माता नई फिल्मों की घोषणाएं करते ही रहते हैं।लगभग एक हजार प्रिंट एक साथ सिनेमाघरों में रिलीज कर बड़े निर्माता आरंभिक तीन दिनों में ही लाभ सुनिश्चित कर लेते हैं। इसके लिए आक्रामक प्रचार, डिस्ट्रीब्यूशन का अच्छा नेटवर्क और सही थिएटरों के चुनाव जैसे कारक महत्वपूर्ण होते हैं। फिल्म उद्योग पर अब कारपोरेट काबिज है और फिल्मों के विपणन में कारपोरेट तौर तरीके देखे जा सकते हैं। मार्केटिंग और प्रोमो के तौर तरीके ​​बदल गये हैं। इसके बावजूद सौ सौ करोड़ के निवेश के बाद एक हजार प्रिंट के साथ मैदान में उतरने के बावजूद तीन दिनों के कारोबार में मुनाफा वसूली के लिए भी तो आखिर दर्शकों का समर्थन चाहिए!गौरतलब यह है कि इस तरह की तात्कालिक कमाई में मल्टीप्लेक्स की खास भूमिका होती है। फिल्म कारोबार विश्लेषक तरण आदर्श कहते हैं, 'फिल्म निर्माताओं ने पिछले चार साल के रवैये को बदलते हुए इस साल सोच-समझकर ही आईपीएल के दौरान फिल्में रिलीज करने का फैसला किया है।  इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल)- 5 से मुकाबला करने के लिए बॉलीवुड ने कमर कस ली है। बॉलीवुड ने आईपीएल के दौरान बड़े बजट की फिल्में रिलीज करने की तैयारी कर ली है। आईपीएल-5 के साथ रिलीज होने वाली फिल्मों पर 200-250 करोड़ रुपये का दांव लगा है। दिलचस्प है कि आईपीएल के पिछले चार संस्करणों के दौरान बॉलीवुड के निर्माता-निर्देशक फिल्में रिलीज करने से परहेज ही करते थे और कई बड़ी फिल्में आईपीएल के बाद ही थिएटरों में आती थी।

आईपीएल सीजन पांच के दौरानरिलीज होने वाली फिल्मों की सूची में सबसे पहले है साजिद नाडियाडवाला की 'हाउसफुल-2', जो 5 अप्रैल को थिएटरों में आएगी। इसके अलावा विधु विनोद चोपड़ा व राजकुमार हिरानी की 'फरारी की सवारी', प्रियदर्शन निर्देशित व अजय देवगन अभिनीत 'तेज', मुकेश भट्ट-इमरान हाशमी की 'जन्नत 2', यशराज फिल्म्स की 'इश्कजादे', अमिताभ बच्चन व संजय दत्त अभिनीत वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स की एक्शन थ्रिलर 'डिपार्टमेंट' और विक्रम भट्ट की 'डेंजरस इश्क' भी आईपीएल के दौरान रिलीज होंगी। इन सभी फिल्मों की निर्माण लागत 35-60 करोड़ रुपये के बीच है। फिल्म कारोबार विश्लेषक तरण आदर्श कहते हैं, 'फिल्म निर्माताओं ने पिछले चार साल के रवैये को बदलते हुए इस साल सोच-समझकर ही आईपीएल के दौरान फिल्में रिलीज करने का फैसला किया है। पिछले कुछ टूर्नामेंट में टीम इंडिया के खराब प्रदर्शन और क्रिकेट मैचों की घटती टीआरपी देखते हुए फिल्म उद्योग को दर्शकों को लुभाने की उम्मीद है।'

मल्टीप्लेक्स निर्भर पिल्म कारोबार में आम दर्शकों की, परम्परागत चवन्नी छाप दर्शकों की फिल्मों की कामयाबी नाकामयाबी पर कोई ज्यादा असर नहीं होता। इसलिए ज्यादातर थफिल्मों की थीम में उनकी बात तो क्या उनकी दुनिया तक सिरे से गायब रहती है। मगर तिमांग्शु धूलिया जैसे नये निर्देशक जब पान सिंह तोमर जैसे​ ​ छोटे बजट की फिल्म कामयाब कर दिखाते हैं या आमिर खान जैसे सुपर स्टार पीपली लाइव जैसी फिल्म बनाकर स्टारडम की ऐसी तैसी कर देते​ ​ हैं, तब कारपोरेट जोखिम, उद्यम और विपणन का व्याकरण गैरप्रासंगिक होकर बेहद संवेदनशील जनमाध्यम बतौर पिल्म का पुनर्जन्म हो जाता​ ​ है। पिर भारतीय फिल्मों की मुख्यधारा की पुरानी परंपरा पुनर्जीवित हो जाती है। इशकिया, कहानी और डर्टी पिक्चर जैसी फिल्मों में स्त्री को सजावट के बगैर हाड़ मांस के वजूद के रुप में हम देखते हैं। कारपोरेट ऱणनीति भले फेल हो जाये, नये फिल्मकारों का जड़ों में लौटने के इस दुस्साहस में शायद​​ आईपीएल का मुकाबला करने का ईंधन छुपा है।निर्माण और प्रचार के दौरान स्पांसर, इवेंट और इन फिल्म मार्केटिंग के जरिए वे आवश्यक खर्च की भरपाई कर लेते हैं। इन दिनों फिल्मों के ऐसे मार्केटिंग एजेंट उभर आए हैं, जो फिल्म के निर्माण और प्रचार में निर्माता-निर्देशक की मदद करते हैं। उनकी आर्थिक चिंताओं को कम करने में इन पेशेवर एजेंटों की भूमिका बढ़ती जा रही है।

इसी से फिल्मों की लागत भी बढ़ती जाती है। यह कारपोरेट ताम झाम इन दिनों फिल्म विपणन का फोकस है। पर फिल्म अगर सीधे जीवन से​  ​ जुड़ी हो, तो उसे ऐसे तौर तरीके अपनाने ही क्यों पड़े। आईपीएल से दरअसल खतरा इसी कारपोरेट मार्केटिंग को लेकर है। सत्तर के दशक में भी​ ​ श्याम बेनेगल की तमाम फिल्मों,मृणाल सेन की भुवन सोम जैसी फिल्म और बाद में गोविंद निलहानी की फिल्मों ने सिर्फ माध्यम की सशक्तता को पूंजी बनाकर बाजार से पंजा लड़ाने की हिम्मत दिखाते हुए कामयाबी हासिल की थी। माध्यम की ताकत पहचाने बिना कारोबार असंभव है, कारपोरेट को भी यह समझना चाहिए। माध्यम से खिलवाड़ करके न अच्छी फिल्म बन सकती है और न अच्छा कारोबार संभव है।आईपीएल से मुकावला का प्रश्न िलिए कारोबारी प्रतिद्वंद्वता उतनी नहीं है, जितनी विधा और माध्यम की प्रतिद्वंद्विता है। बतौर फिल्म माध्यम और विधा के स्तर पर क्रिकेट से उसका कहीं कोई मुकाबला है ही नहीं। खोी जरूरी नहीं कि आईपीएल मैच के दौरान ही पसंदीदा फिल्म देखी जाये।यूं देखा जाए तो बड़ी फिल्मों के बाजार में इन दोनों फिल्मों को हुई कमाई के आंकड़े जीरा बराबर ही हैं। लेकिन इन फिल्मों के बजट और स्टार कास्ट को देखें तो यह एक बड़ी सफलता है। यह साबित करती है कि लार्जर दैन लाइफ वाले 'फिल्मीपन' से हट कर सच के करीब नजर आती किसी फिल्म को कायदे से बना कर सही समय पर सही प्रचार के साथ लाया जाए तो फिर वह हर बाधा दौड़ को लांघ ही लेती है।तो साफ जाहिर है कि आईपीएल से मुकाबला करने वाली फिल्में पान सिंह तोमर या कहानी जैसी जिंदगी से जुड़ी फिल्में ही हो सकती हैं।इस समय इंडस्ट्री के लगभग हर बड़े प्रोडक्शन हाउस ने इस तरह की बिना मसालों वाली फिल्मों के लिए अपनी एक अलग ब्रांच खोल रखी है जिसमें कम बजट में कायदे की फिल्में बनाने की कवायद की जाती है। 'पान सिंह तोमर' यूटीवी की जिस यूटीवी स्पॉटब्वॉय नामक कंपनी से आई है वह खुद 'ए वैडनसडे', 'देव डी', 'खोसला का घोसला', 'उड़ान', 'ओए लकी लकी ओए', 'पीपली लाइव' और पिछले साल 'नो वन किल्ड जेसिका' जैसी फिल्में बना चुके हैं, जिनमें पारंपरिक मसाले या तो बिल्कुल नहीं थे या फिर इनका हल्का-सा छौंक भर था।पिछले ही साल में 'नो वन किल्ड जेसिका' के अलावा तिग्मांशु की ही 'साहब बीवी और गैंग्स्टर', अमोल गुप्ते की 'स्टेनली का डिब्बा' भी ऐसी फिल्में थीं जो रिएलिटी का अहसास कराते हुए तारीफें और कामयाबी पा गईं।

सबसे अच्छी बात यह है कि आज की भारतीय अभिनेत्री को इंसान के रूप में भी देखा जाने लगा है।विद्या बालन के पास खुश होने के लिए एक और कारण है। और वो है फिल्म 'द डर्टी पिक्चर' के लिए नेशनल अवार्ड। इधर, विद्या के लीड रोल से सजी फिल्म 'कहानी' भी बॉक्स-ऑफिस पर अच्छा कारोबार कर रही है। जाहिर है कि विद्या की खुशियों का आजकल कोई ठिकाना नहीं है।एक के बाद एक सफलताओं- 'पा', 'इश्किया', 'नो वन किल्ड जेसिका', 'द डर्टी पिक्चर', और अब 'कहानी' और इसके बाद नेशनल अवार्ड-शिखर के ऊपर!कहानी , अभिनय में दम और माध्यम की ताकत , कारोबार के लिए बस ये तीन बातें ही चमत्कार कर रही हैं। झिसके कारण ठोटी फिल्मे करिश्मा कर रही हैं और सौ सौ करोड़ की फिल्में पिट रही हैं।

लगभग साढ़े चार करोड़ रुपए के बजट के साथ आई 'पान सिंह तोमर' के दो हफ्ते में 13 करोड़ रुपए और करीब आठ करोड़ रुपए में बनी 'कहानी' के एक सप्ताह में 23 करोड़ रुपए के कलेक्शन ने फिल्मों के नफे-नुकसान पर नजरें गड़ाए रखने वाले फिल्मी पंडितों को अपने पत्रे-पोथियां फिर से बांचने पर मजबूर कर दिया है। विशाल म्हाडकर निर्देशित ब्लड मनी से कोई खास उम्मीद नहीं थी। स्टार वैल्यू न होने की वजह से फिल्म के प्रति आकर्षण नहीं था। गानों और भट्ट कैंप के पब्लिसिटी स्टंट ने सिंगल स्क्रीन के दर्शकों की जिज्ञासा अवश्य बढ़ा दी। ट्रेड पंडितों के मुताबिक कुणाल खेमू की सोलो फिल्म के लिए औसत कारोबार भी संतोषजनक कहा जाएगा।सीमित बजट में बनी ब्लड मनी को मल्टीप्लेक्स केदर्शकों ने साफ नकार दिया, लेकिन सिंगल स्क्रीन के दर्शकों ने सहारा दिया। श्रीराम राघवन की फिल्म एजेंट विनोद दूसरे हफ्ते में टिकी नहीं रह सकी। इस फिल्म के कलेक्शन में भारी गिरावट आई है। हां, विद्या बालन की कहानी सुपरहिट घोषित हो गई है। यह अभी तक सिनेमाघरों में टिकी हुई है।आने से पहले बॉक्स-ऑफिस के लिहाज से बेहद 'सूखी' समझी जा रही 'पान सिंह तोमर' को जिस तरह से तमाम छोटे-बड़े सेंटर्स में दर्शक मिले हैं, उससे इस तरह के रियलिस्टिक सिनेमा से जुड़े लोगों में एक बार फिर से उत्साह देखा जा रहा है। कुछ ऐसी ही तस्वीर 'कहानी' की भी है जिसे देखने के बाद शायद की कोई हो जिसने इसकी सराहना न की हो।

हालांकि 'पान सिंह तोमर' ने टिकट-खिड़की पर कोई तूफान खड़ा नहीं किया है, लेकिन जितनी कलेक्शन इसने की है, उसे देखते हुए यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि जरूरी समझ लिए गए फिल्मी मसालों के बगैर भी यह फिल्म बॉक्स-ऑफिस की बाधा को सहज ही पार कर गई है। जहां यह फिल्म अपने साथ आई 'लंदन पेरिस न्यूयॉर्क' से दूसरे ही दिन आगे जा निकली थी, वहीं 'कहानी' के साथ आई 'चार दिन की चांदनी' में वे तमाम मसाले थे जो बॉक्स-ऑफिस पर कामयाबी के लिहाज से जरूरी मान लिए गए हैं।


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