Pages

Free counters!
FollowLike Share It

Tuesday 20 December 2011

गुम होते बच्चों की फिक्र किसे है

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/6466-2011-12-14-04-36-31
अजय सेतिया 
जनसत्ता 14 दिसंबर, 2011:  पिछले दिनों दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में एक अत्यंत गंभीर विषय पर चर्चा हुई। विषय था, देश में बच्चों के अपहरण की बढ़ रही घटनाएं। विषय की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बच्चों के अपहरण पर शोध आधारित पुस्तक का विमोचन करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अल्तमस कबीर खुद मौजूद थे। इस गंभीर समस्या का सनसनीखेज खुलासा 1996 में हुआ था, जब यूनिसेफ ने भारत में बच्चों के देह-शोषण पर एक रिपोर्ट जारी की थी। बी भामती की इस रिपोर्ट में बच्चों के अपहरण का देह व्यापार से सीधा संबंध बताया गया था। इसके बाद 2003-04 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने महिलाओं और बच्चों की तस्करी पर एक रिपोर्ट तैयार करवाई। आयोग की इस रिपोर्ट में खुलासा किया गया था कि हर साल पैंतालीस हजार बच्चों का अपहरण होता है और इनमें से ग्यारह हजार का कोई अता-पता नहीं चलता।
दो साल के लंबे शोध के बाद ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की तरफ से ‘मिसिंग चिल्ड्रन आॅफ इंडिया’ यानी ‘भारत के लापता बच्चे’ नामक अंग्रेजी पुस्तक तैयार की गई है। शोध की भूमिका जनवरी 2007 में तैयार हुई थी, जब निठारी कांड सुर्खियों में आया था। देश की राजधानी दिल्ली से कुछ किलोमीटर की दूरी पर ही निठारी गांव के नाले में तीस बच्चों के शरीरों के अंग बरामद हुए थे। निठारी कांड से बच्चों का अपहरण कर उनके यौन शोषण का रोंगटे खड़े कर देने वाला खुलासा हुआ था।
बचपन में हम सब कुंभ के मेले में गुम हो जाने और सालों बाद फिर मिल जाने की कहानियां सुनते आए थे। लेकिन पिछले चार दशक से भारत बच्चों के व्यापार का एक बड़ा केंद्र बनता जा रहा है। बच्चों का अपहरण करके सिर्फ फिरौती हासिल करना छोटे-मोटे अपराधियों का धंधा नहीं है। हथियारों, नशीली दवाओं की तस्करी और नक्सली गतिविधियों के लिए भी बच्चों का अपहरण हो रहा है।
अस्सी के दशक में शुरू हुई गैर-सरकारी संस्था ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ (बीबीए) ने 1998 में बाल मजदूरी के खिलाफ एक सौ तीन देशों में ग्लोबल मार्च करके एक रिकार्ड कायम किया था, जिसके बाद संयुक्त राष्ट्र ने 2000 में बच्चों के बारे में एक प्रोटोकॉल बनाया, जिस पर भारत ने भी दस्तखत किए। इसके बाद ही राजग सरकार ने बच्चों के लिए अलग से आयोग बनाने की प्रक्रिया शुरू की, जिसे बाद में 2005 में यूपीए सरकार ने पूरा किया। केंद्रीय कानून एनसीपीसीआर के तहत देश के पंद्रह राज्यों में भी बच्चों की सुरक्षा से संबंधित आयोग गठित हो चुके हैं। बीबीए के संस्थापक अध्यक्ष कैलाश सत्यार्थी नोबेल पुरस्कार के लिए नामित हो चुके हैं। पुस्तक की भूमिका उन्होंने खुद लिखी है। इस शोध-पुस्तक के लेखन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले डॉ पीएम नायर वही शख्स हैं जिन्होंने दो साल की अथक मेहनत के बाद 2004 में मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट तैयार की थी।
दिल्ली और आसपास से गुम हुए कुछ बच्चे मिल जाने के बाद विराटनगर स्थित बचपन बचाओ आंदोलन के आश्रम में पल-बढ़ रहे हैं, क्योंकि उनके माता-पिता उनकी परवरिश करने की स्थिति में नहीं हैं। उन बच्चों की कुछ कहानियां इस पुस्तक में भी उदृधृत की गई हैं, जो पुलिस की लापरवाही का भंडाफोड़ करती हैं। दिल्ली के सुलतानपुरी थाना क्षेत्र की एक कहानी तो घोर लापरवाही का जीता-जागता नमूना है। बात सवा तीन साल पुरानी है। रजनी नाम की करीब बारह साल की लड़की तीस अगस्त 2008 को अपने घर के बाहर खेल रही थी। उसकी बड़ी बहन ने पड़ोस में ही रहने वाली बिमला नाम की महिला के साथ रजनी को देखा था। जब रजनी की मां बबली ने बिमला से पूछताछ की, तो नतीजा गाली-गलौज निकला। बबली ने अपनी बच्ची के अपहरण की शिकायत पुलिस में की। लेकिन पुलिस ने कोई परवाह नहीं की।
सुलतानपुरी की उसी गली से अप्रैल 2009 में संजना नाम की एक और लड़की गायब हो गई। लोगों ने संजना को भी बिमला और मुकेश नाम के एक व्यक्ति के साथ देखा था। पहली बार की तरह इस बार भी पुलिस ने मामला दर्ज करने से इनकार कर दिया। पिछले साल जुलाई में सुलतानपुरी के ही मंगल बाजार से महक नाम की चार साल की लड़की गायब हो गई। गुम होने की यह घटना पहले वाली दोनों घटनाओं से सिर्फ सौ मीटर की दूरी पर हुई। सुलतानपुरी के इसी ब्लाक से बारह साल का गौरव भी गायब हो गया। इन चार घटनाओं के बाद इलाके के लोगों ने पुलिस थाने का घेराव किया।
बचपन बचाओ आंदोलन के पास खबर पहुंची, तो आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने मामले को ऊपर तक उठाया। पर तब तक बिमला रफूचक्कर हो चुकी थी। हालांकि भागदौड़ के बाद उसे और उसके पति करतार सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। दोनों के पकड़े जाने से खुलासा हुआ कि इन बच्चों को राजस्थान में बेचा जाता था जिन्हें बाद में मुंबई भेज दिया जाता था। इस तरह की आधा दर्जन घटनाओं का पुस्तक में जिक्र है। पुस्तक में एक एनजीओ की ओर से बच्चों का अपहरण कर उनसे घरों में काम करवाने का भंडाफोड़ होने और बच्चे मुक्त करवाए जाने का खुलासा भी किया गया है।
मानवाधिकार आयोग ने हर साल पैंतालीस हजार बच्चों के लापता होने की रिपोर्ट सरकार के सामने रखी थी। लेकिन इस पुस्तक में देश के साढ़े छह सौ में से तीन सौ बानवे जिलों से जुटाए गए आंकडेÞ प्रस्तुत किए गए हैं। ये आंकड़े या तो सूचनाधिकार कानून के तहत हासिल किए   गए हैं, या राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो से जुटाए गए हैं। सारी भागदौड़ के बाद
सिर्फ बीस राज्यों और चार केंद्र शासित क्षेत्रों ने बच्चों के अपहरण और उन्हें ढूंढ़ निकालने के आंकड़े दिए।
इस अध्ययन में बताया गया है कि इन बीस राज्यों के तीन सौ बानवे जिलों में जनवरी 2008 से जनवरी 2010 के दो साल के दौरान एक लाख 17 हजार 480 बच्चों का अपहरण हुआ, इनमें से 74,209 बच्चे बरामद कर लिए गए, जबकि 41 हजार 546 बच्चों का कोई अता-पता नहीं चला। इसका अर्थ यह है कि गुम बच्चों में से एक तिहाई बच्चे बरामद नहीं किए जा सके, यानी इन बच्चों को अवैध कार्यों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। जिन बीस राज्यों ने आंकडेÞ उपलब्ध कराए हैं उनको तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। महाराष्ट्र, बंगाल, दिल्ली, मध्यप्रदेश, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में बच्चों का अपहरण सर्वाधिक होता है।
उत्तराखंड के तेरह जिलों में आठ, असम के सत्ताईस जिलों में से उन्नीस और आंध्र के तेईस जिलों में से सोलह की ही रिपोर्ट आई। उत्तराखंड, सिक्किम, मेघालय, गोवा, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश को उस श्रेणी में रखा जा सकता है जहां बच्चों को ढूंढ़ लिए जाने की पुलिसिया कार्रवाई काफी तीव्र गति से हुई। जैसे उत्तराखंड के तेरह में से आठ जिलों में जनवरी 2008 से जनवरी 2010 तक 380 बच्चों के अपहरण की घटनाएं हुर्इं लेकिन उनमें से 303 ढूंढ़ निकाले गए। जबकि सतहत्तर बच्चों का अभी तक कोई पता नहीं चला। इन बच्चों का किस कार्य में इस्तेमाल हो रहा होगा, कोई नहीं जानता।
हर संभव कोशिश के बावजूद पंजाब, राजस्थान, गुजरात, ओड़िशा, तमिलनाडु और जम्मू-कश्मीर ने बच्चों के अपहरण की बाबत आंकडेÞ उपलब्ध नहीं कराए। राजस्थान से कपास के बीजों के उत्पादन में काम के लिए हर साल हजारों बच्चे गुजरात और महाराष्ट्र ले जाए जाते हैं। चूंकि आंकडेÞ उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए समस्या की तस्वीर भी साफ नहीं है। ओड़िशा, महाराष्ट्र और गुजरात से देह व्यापार के लिए बडेÞ पैमाने पर बच्चों का अपहरण होता है। लेकिन सरकार या पुलिस के पास कोई आंकडेÞ नहीं हैं।
भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी पीएम नायर ने अपने शोध के आधार पर खुलासा किया है कि नक्सलियों ने भी ओड़िशा, तमिलनाडु आदि क्षेत्रों से बडेÞ पैमाने पर बच्चों का अपहरण करके अपने हिंसक आंदोलन के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। बच्चों के अपहरण के पीछे मोटे तौर पर छह कारण गिनाए जा सकते हैं। एक, बंधुआ मजदूरी करवाना। दूसरा, देह व्यापार। तीसरा, गोद लेने-देने का अवैध धंधा। चौथा, नक्सली बनाने के लिए बच्चों का अपहरण। पांचवां, अंग व्यापार और अवैध रूप से दवाओं का परीक्षण। छठा, अन्य अपराध, जिनमें भीख मंगवाना, जेबतराश बनाना और नशीले पदार्थों के व्यापार में इस्तेमाल करना आदि शामिल हैं।
अफसोस यह है कि संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार आयोग की बच्चों के अपहरण के बारे में गंभीर रिपोर्टें सामने आने के बावजूद केंद्र सरकार ने अभी तक बच्चों के गायब होने की सही परिभाषा तय नहीं की है। अगर कोई व्यक्ति पुलिस थाने में अपने बच्चे के गुम होने की रिपोर्ट दर्ज कराने जाता है तो पुलिस अधिकारी को यह समझ नहीं आता है कि वह किस धारा के तहत मामला दर्ज करे। लेकिन अगर वह व्यक्ति यह कहे कि उसको बच्चे के अपहरण का शक है तब पुलिस अधिकारी उसकी शिकायत अपहरण संबंधी भारतीय दंड संहिता की धारा 363 के तहत दर्ज करेगा।
साधारण आदमी नहीं जानता कि वह अपने बच्चे के गुम होने की रिपोर्ट कैसे लिखाए। पुलिस वाला भी नहीं जानता कि वह उसकी रिपोर्ट किस तरह दायर करे। इस तरह गुम होने वाला बच्चा उस हाथी की तरह है, जिसके अलग-अलग हिस्सों पर हाथ रख कर तीन अंधे अलग-अलग अनुमान लगाते हैं। पुलिस वाला अपने हिसाब से ही बच्चे के गायब होने की रिपोर्ट बनाता है। अगर चौदह से सत्रह साल की किसी लड़की का अपहरण हो जाए और लड़की का परिवार गरीब हो, तो पुलिस अपहरण का मामला दर्ज करने के बजाय तरह-तरह की बातें करके लड़की के माता-पिता को अपमानित करती है।
केंद्र सरकार को चाहिए कि वह जल्द ही एक ऐसा कानून बनाए या मौजूदा आईपीसी की धारा 363 से 373 के बीच कहीं गुम हो जाने वाले बच्चे या शख्स के बारे में केस दायर करने का प्रावधान करे। दिल्ली पुलिस ने इस बाबत एक मानक तय किया है। जब तक कोई नया कानून नहीं बनता, दिल्ली पुलिस के इस मानक को देश के बाकी राज्यों को भी अपनाना चाहिए। इसमें कहा गया है कि अठारह साल से कम उम्र के किसी बच्चे के बारे में अगर उसके मां-बाप या कानूनी संरक्षक को पता न चले कि वह कहां है तो उसे तब तक लापता माना जाएगा जब तक उसका पता नहीं लगा लिया जाता। पुलिस को यह सख्त हिदायत दी जाए कि वह बच्चों के गुम होने की रिपोर्ट फौरन दायर करे। इस बारे में दिल्ली उच्च न्यायालय 2009 में एक आदेश जारी कर चुका है, जिसके तहत बच्चों के गुम होने की घटनाओं की जांच करने और आपराधिक मुकदमा दायर करने का निर्देश दिया गया है।
इस शोध-पुस्तक में सरकार के सामने दस सुझाव रखे गए हैं, जिनमें कानून में संशोधन के अलावा गुम हुए बच्चों और उनके शोषण के मद््देनजर एक केंद्र स्थापित करने, हर जिले में गुम होने वाले बच्चों के बारे में नोडल अफसर तैनात करने, सभी सरकारी महकमों में सलाहकार प्रकोष्ठ बनाने, पुलिस अधिकारियों, वकीलों,   दंडाधिकारियों, श्रम विभाग के अधिकारियों, मीडिया और गैर-सरकारी संगठनों को प्रशिक्षित करने जैसे सुझाव हैं। प्रशिक्षण की जिम्मेदारी मानवाधिकार आयोग या बच्चों की सुरक्षा से संबंधित राष्ट्रीय आयोग और राज्यों में बने या बन रहे ऐसे आयोगों को सौंपी जा सकती है

No comments:

Post a Comment