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Tuesday 20 December 2011

शिकायत निवारण और लोकपाल

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/6878-2011-12-19-04-43-04
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शिकायत निवारण और लोकपाल

पाणिनि आनंद
जनसत्ता 19 दिसंबर, 2011: अण्णा समूह द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल कानून के प्रारूप को लेकर जो चिंताएं सबसे ज्यादा गंभीर हैं उनमें से एक है शिकायत निवारण की व्यवस्था को इसी एक कानून में अंतर्निहित करना। ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ (आईएसी) की ओर से शिकायत निवारण की व्यवस्था को लेकर एक बार फिर नया सुर सुनने को मिल रहा है कि इसे सिटिजन चार्टर यानी नागरिक संहिता के जरिए देखा जाए और इसे लोकपाल के अधीन रखा जाए। आईएसी की इस राय से इतर कई अलग समूहों ने लगातार इसके खतरों और नुकसानों को इंगित करते हुए इसे एक अलग कानून के तौर पर लाने की वकालत की है।
अब केंद्रीय मंत्रिमंडल ने स्पष्ट कर दिया है कि शिकायत निवारण अधिकार कानून के रूप में एक अलग व्यवस्था देश में लागू की जाएगी, जिससे कि सरकारी दफ्तरों में रोजमर्रा की शिकायतों, समस्याओं से जूझ रहे लोगों को राहत मिले। अगर ऐसा होता है तो इससे पहला सीधा लाभ यह होगा कि शिकायत निवारण कानून के रूप में लोगों के पास एक ऐसा कानून होगा जो हर योजना, परियोजना, सुविधा, सहायता या विभागों द्वारा मिलने वाली सेवाओं को एक कानूनी हक केरूप में स्थापित करेगा। यानी लोगों से जुड़ी सहूलियतों को और उनके अधिकारों को, चाहे वे किसी भी सरकारी महकमे से संबंधित हों, इस कानून के माध्यम से एक वैधानिक अधिकार बनाया जा सकेगा।
दूसरा बड़ा लाभ यह होगा कि लोकपाल के ऊपर शिकायत निवारण के सबसे बडेÞ संभावित कार्यभार से लोकपाल को मुक्त किया जा सकेगा और इससे लोकपाल भ्रष्टाचार के मामलों पर एकाग्र होकर काम कर सकेंगे। इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि देश में अधिकतर लोग भ्रष्टाचार से कहीं ज्यादा सरकारी और प्रशासनिक लापरवाही और उपेक्षा के शिकार हैं। काम न करना या लोगों को उनके अधिकार, सेवाएं, सुविधाएं या सहायताएं निर्धारित समय में न देना सरकारी विभागों के लिए सामान्य हो चली बात है। ऐसे में अगर शिकायत निवारण के लिए अलग कानून न बना कर इसे लोकपाल के दायरे में ही रखा जाएगा तो लोकपाल भ्रष्टाचार से कई गुना ज्यादा शिकायत निवारण के मामलों से जूझ रहा होगा और इससे भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी लोकपाल की जन-आकांक्षा धरी की धरी रह जाएगी।
लोकपाल भ्रष्टाचार के मामलों से तो निपटने का समय ही नहीं निकाल सकेगा, उलटे जन लोकपाल का आईएसी द्वारा सुझाया गया ढांचा शिकायतों के बोझ तले दम तोड़ देगा और जन लोकपाल एक अव्यावहारिक और अप्रभावी कानून बन कर रह जाएगा। लोकपाल की संस्था को और उसके महत्त्व को अगर हम गंभीरता से लेना चाहते हैं तो उसको ऐसी आशंकाओं से बाहर रखना होगा। उसके दायित्वों को स्पष्ट और एक व्यावहारिक दायरे में रखना होगा। इसलिए जरूरी है कि जन शिकायत निवारण कानून को लोकपाल के दायरे में लाने के एक हठी पूर्वाग्रह से बाहर निकला जाए।
केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा जन शिकायत निवारण अधिकार कानून के जिस प्रारूप को तैयार किया गया है और मंजूरी दी गई है, वह अभी तक जनता के सामने आना बाकी है। यहां तक कि मंत्रिमंडल के बाहर भी इस बाबत किसी के पास जानकारी नहीं है कि इस मसविदे में सरकार ने किन बातों को शामिल किया है।
फिर भी, अण्णा हजारे ने बिना मसविदा देखे ही एक अलग जन शिकायत निवारण कानून बनाने की आवश्यकता पर अपना विरोध दर्ज करा दिया है। उन्होंने स्पष्ट कह दिया है कि शिकायत निवारण और उसके लिए ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की ओर से सुझाई गई सिटिजन चार्टर वाली व्यवस्था को लोकपाल के अधीन ही रखा जाए। वे इससे अलग किसी भी तरह की व्यवस्था के पक्षधर नहीं हैं। अण्णा हजारे का यह तर्क फिलहाल समझ से परे है, क्योंकि अण्णा समूह में खुद इस बात को लेकर कई राय हैं।
अण्णा समूह के कुछ विशेषज्ञ श्रेणी के सदस्य इस बात से सहमति जताते रहे हैं कि एक पृथक शिकायत निवारण व्यवस्था भी बनाई जा सकती है। अण्णा हजारे का बिना मसविदा देखे इस कानून को बनाने की कोशिशों का विरोध इसलिए भी दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि अण्णा समूह के दो सदस्य- अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण- कई बार बहसों, चर्चाओं और मंचों पर यह कह चुके हैं कि अगर सरकार शिकायत निवारण कानून को लोकपाल के साथ ही लाती है तो इसे लोकपाल के बाहर रखते हुए भी लागू किया जा सकता है और वे इससे सहमत होंगे।
खबर है कि सरकार संसद के मौजूदा सत्र में ही शिकायत निवारण अधिकार कानून लाने की तैयारी कर चुकी है। सत्र के इस सप्ताह में कभी भी यह मसविदा सदन के पटल पर रखा जा सकता है। लेकिन अब अण्णा समूह शिकायत निवारण के मामले पर अपनी ही बातों से पीछे हट रहा है।
इन ताजा
बयानों से साफ दिख रहा है कि शिकायत निवारण का मसला कोई व्यावहारिक सवाल या सैद्धांतिक मुद्दा न होकर अब अण्णा समूह के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है और इस मामले में अब वे व्यावहारिक होने के बजाय पूर्वाग्रही बनते नजर आ रहे हैं। शिकायत निवारण कानून को लेकर अण्णा समूह के भीतर बार-बार बयानों का बदल जाना या अलग-अलग राय का सामने आना उनकी इस बाबत कमजोरी और अस्पष्टता को रेखांकित करता है।
ऐसा नहीं है कि सरकार जो मसविदा पेश करने वाली है, उसमें कोई कमी नहीं हो सकती, या उसकी ओर से जो मसविदा जनता के समक्ष चर्चा के लिए रखा गया था, उसमें कुछ कमजोरियां नहीं थीं। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इन कमियों और चिंताओं को लेकर सरकार के पास लोगों के सुझाव नहीं पहुंचे   हैं और सरकार इनसे अवगत नहीं है। पिछले दिनों शिकायत निवारण के मुद्दे पर ही ‘सूचना के अधिकार का राष्ट्रीय अभियान’ (एनसीपीआरआई) द्वारा दिल्ली में आयोजित किए गए एक राष्ट्रीय सम्मेलन में लोगों ने अपनी चिंताएं रखीं और इस कानून के संभावित स्वरूप को लेकर सरकार के सामने कई सुझाव भी रखे। विभिन्न राजनीतिक दलों और संसदीय स्थायी समिति के सदस्यों के समक्ष भी ये सुझाव रखे गए हैं और सरकार इन बातों को दरकिनार कर कानून नहीं बना सकती है।
अगर सरकार इस तरह की कोई कोशिश करती भी है तो ऐसी स्थिति में जन शिकायत निवारण कानून के लिए एक मजबूत आंदोलन खड़ा करके सरकार को बाध्य किया जाना चाहिए कि वह एक ऐसा कानून लागू करे जो व्यावहारिक हो और साथ ही प्रभावी भी। इस कानून में लोगों की जरूरतों को समझते हुए नियम-कायदे बनाए गए हों। दरअसल, जरूरत इस बात की है कि हम एक मजबूत शिकायत निवारण अधिकार कानून के लिए संघर्ष करें, न कि उसे लोकपाल के गले का फंदा बनाएं, जिसके कारण न तो शिकायत निवारण की व्यवस्था सुचारु रूप से लागू हो सकेगी और न ही लोकपाल भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों पर पूरी तरह से गौर कर सकेगा।
एक और संकट यह है कि अण्णा समूह की ओर से शिकायत निवारण की जो व्यवस्था लोकपाल के तहत बनाने की बात कही जा रही है, वह किसी भी तरह की व्यापकता और दूरदर्शिता से परे है। शिकायत निवारण की आईएसी द्वारा प्रस्तावित व्यवस्था सिटिजन चार्टर के आगे नहीं बढ़ती। अब यह समझना जरूरी है कि क्या केवल सिटिजन चार्टर बना कर शिकायत निवारण की पूरी समस्या का हल निकाला जा सकेगा। ऐसा इसलिए संभव नहीं है क्योंकि सिटिजन चार्टर में नागरिकों के अधिकारों को दर्ज करने के बाद भी कई ऐसे मामले और शिकायतें बाकी रह जाएंगी जो इसका हिस्सा नहीं होंगी। ऐसे में सिटिजन चार्टर नागरिक अधिकारों को सीमित करने का काम करेगा। फिर, सभी तरह की समस्याओं को कलमबद्ध कर पाना असंभव है।
ऐसे में जरूरी है कि सिटिजन चार्टर के बरक्स ही सरकारी विभागों और अधिकारियों के दायित्वों, कर्तव्यों (स्टेटमेंट आॅफ  आॅब्लिगेशंस) को भी रेखांकित किया जाए। इससे सीधा फायदा यह होगा कि दायित्वों के तहत सभी तरह की शिकायतों को सुनने की व्यवस्था बन सकेगी।
सूचना अधिकार कानून की धारा-4 में कहा गया है कि सभी विभागों को ‘स्टेटमेंट आॅफ आॅब्लिगेशन’ यानी कर्तव्यों-दायित्वों की एक सूची तैयार करनी होगी और इसे सबसे आधारभूत दस्तावेज मानते हुए इसकी किसी भी अवहेलना को शिकायत माना जाएगा। अगर हम इसे प्रभावी ढंग से लागू करा सकें तो सिटिजन चार्टर की कमियों को शिकायतों की एक व्यापक व्याख्या से जोड़ा जा सकेगा। साथ ही, शिकायतों के निवारण के लिए जिला स्तर पर स्वतंत्र प्राधिकरणों का गठन करके और ब्लॉक या वार्ड स्तर पर स्वतंत्र नागरिक सहायता केंद्रों की स्थापना करके हम देश के अधिकतम लोगों के लिए एक सुलभ और व्यावहारिक कानून बना सकेंगे।
एक और अहम बात यह है कि जन लोकपाल का मसविदा निजी क्षेत्र या अर्ध-सरकारी क्षेत्र को, कॉरपोरेट जगत को अपने दायरे से बाहर रख कर चल रहा है। सरकार की ओर से शिकायत निवारण कानून का जो मसविदा लोगों के बीच चर्चा के लिए रखा गया था, उसमें ऐसे निजी और कॉरपोरेट क्षेत्र में भी इसे लागू करने की पैरवी की गई है जिसकी सेवाएं सरकारी महकमे के अधीन हैं या रही हैं।
इस तरह से हम पाते हैं कि जन लोकपाल से बाहर निकल कर एक व्यापक और व्यावहारिक शिकायत निवारण कानून की गुंजाइश पैदा हुई है। जरूरत इस बात की है कि शिकायत निवारण की व्यवस्था को एक व्यापक, स्वतंत्र और व्यावहारिक कानून बनवाने की दिशा में एकजुट हुआ जाए, न कि इसे निजी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना कर किसी पूर्वाग्रह से बंधे रहा जाए, क्योंकि अंत में ये चीजें लोगों के लिए ही लागू होनी हैं और उन्हें ही इनका इस्तेमाल करना है।

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