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Wednesday, 13 February 2013

'पीसफुल' कश्मीर By एम ए सराफ


'पीसफुल' कश्मीर

कश्मीर घाटी में कर्फ्यू का यह चौथा दिन था। जहांगीर चौक के पास खड़ा एनडीटीवी का रिपोर्टर चैनल को लाइव दे रहा था। वह दावा कर रहा था कि पिछले चौबीस घण्टे से कश्मीर में हालात पीसफुल हैं। इस रिपोर्टर के दावे को सुनकर कोई भी कश्मीरी हैरान हो सकता है कि इसके लिए पीस का मतलब क्या होता है? कब्रगाह दुनिया में सबसे पीसफुल जगह होती है। मुर्दा अपनी जगह से न तो हिलते डुलते हैं और न ही उन्हें एक दूसरे से बात करने की जरूरत होती है। अगर पीस का मतलब ऐसा ही है तो कब्रगाह से ज्यादा शांति और कहां मिलेगी? हो सकता है एनडीटीवी का रिपोर्टर जिस पीस की दुहाई दे रहा था उसका मतलब भी कुछ ऐसी ही हो क्योंकि पिछले चार दिनों से कश्मीर घाटी में शांति व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर 80 लाख लोगों को उनके घरों में कैद कर दिया गया है।
पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवान सिर्फ सड़कों पर ही गश्त नहीं लगा रहे हैं बल्कि गलियों और मुहल्लों तक में घुसकर इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि कर्फ्यू का असर कमतर न होने पाये। सड़कों, गलियों और चौराहों को कंटीले तारों से घेर दिया गया है। जिन लोगों ने यू ट्यूब और इंटरनेट पर ऐसे हालातों का जायजा लिया हो उन्हें हालात समझने में ज्यादा मुश्किल नहीं होगी। धरती के स्वर्ग को पूरी तरह से कैद कर लिया गया है। सख्ती और पहरा इतना कड़ा कि दक्षिण अमेरिका, सोवियत यूनियन और नाजी जर्मनी के शासक भी धरती पर लौटकर आयेंगे तो कश्मीर में सरकार की सख्ती से बहुत कुछ सीखकर जाएंगे। कम से कम उन्होंने भी बीमार, बेजार और बच्चों को बख्स दिया होगा। यहां सब सरकार के निशाने पर हैं।
और उस पर भी सख्ती से शांति के नियमों को पालन का आलम यह कि संचार सेवाएं पूरी तरह से रोक दी गई हैं। दिल्ली में बैठी सरकार को शायद महसूस हो गया है कि कोई भी समाचार अच्छा समाचार नहीं होता है इसलिए इंटरनेट और केबल टीवी न्यूज चैनलों के तार काट दिये गये हैं। जो लोकल न्यूज चैनल थे वे तो 2010 से ही न्यूज बताने के अधिकार से वंचित किये जा चुके हैं। हमारे मुख्यमंत्री भी कह ही चुके हैं कि समाचार में मिलावट नहीं होनी चाहिए। समाचार में मिलावट करने से भ्रम की स्थिति पैदा होती है और लोग भटक जाते हैं। लेकिन दिल्ली की सरकार हमारे मुख्यमंत्री से भी ज्यादा समझदार है। उसने जो समाधान निकाला है उसमें शायद उसका मानना है कि समाचार का न होना ही समाचार का सबसे अच्छा होना होता है। लेकिन इक्कीसवीं सदीं की ये सरकारें इस बात को शायद अभी भी नहीं समझती हैं कि अब समाचार से दूर रख पाना उतना भी आसान नहीं है जितना सरकार समझती है। अब इंटरनेट के इस युग में ढेरों ऐसे रास्ते हैं जिनके जरिए समचारों तक पहुंच बनाई जा सकती है और अपनी बात भी पहुंचाई जा सकती है। लेकिन सवाल तो उस मानसिकता है जो भ्रम रोकने के लिए ऐसे उलुल जुलूल उपाय करती है। इन उपायों का सीधा असर कश्मीरी आवाम पर हुआ है वे सचमुच एक दूसरे से पूरी तरह से कट गये हैं। ऐसी स्थिति में भ्रम फैलने से रूकेगा या और तेजी से फैलेगा इसे समझना क्या ज्यादा मुश्किल है?
कश्मीर में यह सब क्यों किया गया है? कश्मीर में यह सब इसलिए किया जा रहा है क्योंकि स्वयं को आतंकवादी मान चुके अफजल गुरू को न्यायिक प्रक्रिया के बाद सजा के बतौर फांसी दे दी गई। अफजल गुरू की फांसी पर अपना बयान देते हुए गृहमंत्री जी ने कहा कि सभी न्यायिक प्रक्रियाओं को पूरा करते हुए अफजल गुरू को फांसी दी गई। अगर ऐसा है तो फिर पूरे कश्मीर को बंधक क्यों बनाकर रखा गया है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि प्रशासन को पता है कि उन्होंने कुछ ऐसा कर दिया है जिसमें सबकुछ सही नहीं है? या फिर उन्हें यह डर है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी संस्था पर हमला करनेवाले आतंकवादी को कश्मीर में हीरो घोषित कर दिया जाएगा? इन इंतजामों के बाद भी वह सब होगा। कश्मीरी लोगों के बारे में लंबे चौड़े दावों के बाद भी सच्चाई यही है कि यहां के लोग भारत से नफरत करते हैं। उनके मन में पहले से ही भारत के खिलाफ नफरत भरी है, ताजा हालात उस नफरत को क्लाइमेक्स तक पहुंचाने में मदद ही करेंगे। अगर भारतीय अधिकारियों को यह लगता है कि कश्मीरी लोगों को उनके घरों में नजरबंद करके वे उस नफरत और गुस्से पर काबू पा लेंगे तो उन्होंने गंभीर चूक कर दी है। कश्मीरी आदमी का स्वभाव बिल्कुल दूसरी का होता है। वह बहुत तेज दिमाग होता है। अति से अति का अत्याचार भी वह बर्दाश्त करता रहता है। वह अपने गुस्से पर काबू रखता है, लेकिन कभी कुछ भूलता नहीं है और मौका मिलने पर सारा हिसाब बराबर करता है। कश्मीरी तात्कालिक तौर पर प्रतिक्रियावादी नहीं होता है।
कश्मीर में जो नयी पौध उभरकर सामने आयी है उसने आतंक और हिंसा का वह दौर नहीं देखा है जो कभी कश्मीर का अतीत रहा है। लेकिन वह भी ऐसी नजरबंदी और विरोध प्रदर्शनों का गवाह तो है ही जो कश्मीर में कभी खत्म नहीं होते। उन्हें इस तरह की नजरबंदी बहुत परेशान नहीं करती है क्योंकि वे इसके अभ्यस्त हैं। इसलिए इस तरह की नजरबंदी से प्रशासन को तात्कालिक तौर पर जो हासिल हुआ है वह वही पीस है जो किसी कब्रगाह में जाने  पर महसूस होती है। लेकिन उन्हें नहीं पता कि लावा भीतर ही भीतर सुलग रहा है। जिस दिन मौका आयेगा बिना किसी पूर्व चेतावनी के ज्वालामुखी फट जाएगा। यह सब तत्काल नहीं होने जा रहा है। खुद मुख्यमंत्री भी यह मानते हैं कि ऐसी घटनाओं का असर दीर्घकालिक होता है। 90 के दशक में मकबूल भट कश्मीरियों के रोल मॉडल थे। 11 फरवरी 1984 को मकबूल भट को तिहाड़ जेल में फांसी दी गई थी। फांसी के तत्काल बाद कश्मीर में कोई खास प्रतिक्रिया नहीं हुई थी और भट के समर्थकों के एक छोटे से समूह ने उन्हें याद रखा था। लेकिन छह साल बाद 1990 में अचानक ज्वालामुखी फट पड़ा और मकबूल भट कश्मीरियों के लिए रोल मॉडल हो गया। अफजल गुरू भी उन्हीं नौजवानों में शामिल था जिसके लिए मकबूल भट एक हीरो थे।
हम बहुत अतीत में न भी जाएं तो जो ताजा हालत हैं उसमें अफजल गुरू की फांसी के बाद देश के हर हिस्से में कश्मीरी नौजवानों द्वारा विरोध प्रदर्शन की छुटपुट खबरें अभी से मिल रही हैं। खुद घाटी में भी लाख बंदिशों के बाद नौजवानों को घरों में कैद रख पाने में सरकार नाकाम रही है। लेकिन इन सबके बीच मीडिया की भूमिका भी परेशान करनेवाली है। भारत के टीवी चैनल जनता के सामने वह सच्चाई नहीं ला रहे हैं कि उनके द्वारा की जानेवाली गलतियों की क्या क्या सजा कश्मीरियों को भुगतनी पड़ती है। उन्होंने जनभावना का ध्यान रखते सामूहिक भावना से एक फांसी जरूर दे दी है। लेकिन अभी भी मौका पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है। दिल्ली की सरकार नजरबंदी को खत्म करके कम से कम इतना कर दे कि अफजल गुरू की लाश उसके परिवारवालों को लौटा दे ताकि वे उसका विधिवत अंतिम संस्कार कर सकें। निश्चित रूप से इसका एक नतीजा यह सामने आया कि अफजल गुरू की मजार पर कोई बड़ा सा गुंबद खड़ा हो जाएगा लेकिन यह गुंबद उतना खतरनाक नहीं होगा जितना तिहाड़ जेल के भीतर खुदी कब्र जो घाटी में उसे "शहीद" का दर्जा दिला रही है।
(एम ए सराफ ने यह लेख जम्मू कश्मीर के अंग्रेजी अखबार ग्रेटर कश्मीर में लिखा है जिसका प्रिंट संस्करण कर्फ्यू के कारण बाजार में भले ही न आ रहा हो लेकिन इंटरनेट संस्करण नियमित प्रकाशित हो रहा है।)


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