देखो "बांग्ला देश" जाग रहा है भारत को फिर कुछ सिखा रहा है
"बांग्ला देश" में आजकल एक बहुत महत्वपूर्ण इतिहास रचा जा रहा है। 1970-71 में मात्र नौ माह के दौरान हुए गृह युद्ध में वहाँ 30 लाख लोगों की जानें गयीं, दो लाख महिलाओं का बलात्कार हुआ और अपर संपत्ति की नुक्सान हुआ। मानव जाति ने ऐसे घिनौना घटनाक्रम यूं तो कई बार देखे हैं लेकिन बर्रे सगीर में इतने कम समय में इतना बड़ा काण्ड भारत विभाजन (जिसमें दस लाख लोग मरे) के बाद पहली बार हुआ। आजकल एक ट्रिब्यूनल "बांग्ला देश" सरकार ने बनाया है जो 1971 की घटनाओं की जाँच कर रहा है और गुनाहगारो को सजा दे रहा है।
जमात-ए-इस्लामी ने (जिसे पाकिस्तान में कुछ लोग जमात-ए-हरामी भी कहते बताये जाते हैं) इस दौरान बांग्लादेश में सबसे विध्वंसकारी रोल अदा किया जिसने पाकिस्तानी सेना के साथ मिलकर रजाकार, अल बद्र, अल शम्स जैसी मिलिशिया बनायी और बांग्लादेश की राष्ट्रवादी ताकतों को बेरहमी से कुचला। जमात नेता अब्दुल कलाम आज़ाद उर्फ़ बच्चू रजाकार को 21 जनवरी 2013 को उसकी गैरहाजिरी में (वह पाकिस्तान भाग चुका है) सजा-ए- मौत दी जा चुकी है।
जमात के दूसरे बड़े नेता अब्दुल कादिर मोल्ला को 5 फरवरी 2013 को उनके गुनाहों के लिए (जिसमे एक गाँव में जाकर 344 लोगों की हत्या करने का आरोप साबित हुआ है) आजीवन कारावास की सजा जब सुनाई गयी तब उसका जबरदस्त विरोध हुआ। 'मीरपुर का कसाई' नाम से कुख्यात अब्दुल कादिर मोल्ला को फांसी की सजा दिए जाने की मांग को लेकर पूरे बांग्लादेश में तीव्र प्रदर्शन हुये।
मज़हबी ताकतों का सियासत में दखल और उसके परिणाम को "बांग्ला देश" के अवाम से बेहतर और कौन जान सकता है ? ऐसा नहीं कि वहां धर्म का सियासत में दखल बंद हो गया हो लेकिन 1971 उनके लिए ऐसा ज़ख्म है जिसे वह जब-जब याद करेंगे तब-तब सियासत में धर्म के तड़के को भी याद करेंगे।
भारत में सियासत को धर्म से महरूम करने की कवायद शायद इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि अभी तक भारत में रामजन्म भूमि आन्दोलन-बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद आधे भारत में हुए दंगों, गुजरात में हुए नरसंहार आदि की जांच करने के लिए कोई ट्राईब्यूनल बनाने और मानवजाति के प्रति किये गये गुनाह की विवेचना करने की न तो कोई सोच है न कोई आन्दोलन। जब तक ऐसी घटनाओं के जिम्मेदार लोगों को अब्दुल कादिर मोल्ला की भांति सजायें नहीं होतीं तब तक राजनीति में धर्म के प्रचार प्रसार और उसके दुष्परिणामों से मुक्ति नहीं मिल सकती। जब तक यह नहीं होगा तब तक भारत के समाज और उसकी राजनीति का मानावीयकरण जैसा ऐतिहासिक कार्यभार भी अधूरा रहेगा।
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हिटलर ने 60 लाख यहूदियों की हत्याएं कीं लेकिन यहूदियों ने हार नहीं मानी। आज भी प्रचार माध्यमों, फिल्मों और किताबों में उस कत्लेआम का जिक्र अक्सर होता है लेकिन भारत के विभाजन में 10 लाख लोग मरे, एक आध कहानीकार मंटो आदि को छोड़ दें तो एक कातिलाना खामोशी के सिवा हमारे बुजुर्गो ने हमें कुछ नहीं दिया। इस आपराधिक चुप्पी से किसी भी इंसानी हकूक से हमदर्दी रखने वाले को नफ़रत होगी। "बांग्ला देश" का यह कदम इस आपराधिक चुप्पी का जवाब है।
माईक्रो बैंकिग की महान उपलब्धि के बाद "बांग्ला देश" ने पूरे खित्ते को एक माकूल तोहफा देने की कोशिश की है, एक राष्ट्र की तरफ बढ़ते हुए इस विश्वास के लिए बांग्लादेश की तारीफ़ की जानी चाहिए और मानवताविरोधी मज़हबी जनूनी ताकतों को भी इस बात का अहसास होना चाहिए कि जिस दिन कौमें जाग जाती हैं तब वह अपने मुजरिमों की कब्रें खोद कर भी इन्साफ लेना जानती हैं। आज नहीं तो कल भारत जैसी कितनी भी गहरी निद्रा में सोया हुआ राष्ट्र हो, वह जागेगा जरूर और तब चाहे कोई राष्ट्र पिता हो या माता अथवा ह्रदय सम्राट या विकास पुरुष उसे अपनी करनी का फल भुगतना होगा। जैसा बांग्लादेश जाग रहा है, भारत भी एक दिन जागेगा।
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