नंदी-प्रकरण पर यह शानदार आलेख प्रो जाबिर हुसेन का
आशीष नंदी ने जयपुर के 'साहित्य-उत्सव' में जो कुछ कहा, वह अकेले उनके सोच का नतीजा नहीं. हमारी सामाजिक संरचना में, खोजने पर, ऐसे कई अभिजात तत्व मिल जाएंगे, जो अपनी-अपनी भाषा में, नंदी के विचारों का समर्थन करते दिखेंगे. नंदी तो केवल इस सोच की मुखर अभिव्यक्ति बने हैं. उन्हें मुखौटा कहने में मुङो संकोच होता है, क्योंकि उन जैसे प्रखर बुद्धिजीवी किसी विचार-समूह के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मुखौटा नहीं बन सकते. हां, उनके विचार किसी अनुदार वर्ग-समूह की बौद्धिक खुराक जरूर बन सकते हैं, बल्कि इस घटना के बाद बनते दिखाई भी दे रहे हैं. तभी तो टीवी चैनलों पर होनेवाली बहसों में ऐसे चेहरे बार-बार नजर आ रहे हैं, जो 'उनका आशय यह नहीं था' जैसे वाक्यों का बेङिाझक उच्चारण कर रहे हैं. मुङो इन चेहरों पर तरस आता है! ऐसे बेङिाझक वाक्य दो ही स्थिति में उच्चारित होते हैं- या तो उनके दिल में नंदी की आत्मा उतर आयी हो, या फिर वे स्वयं उनकी वैचारिक प्रति-छाया बन गये हों! मुङो नहीं मालूम, ताजा संदर्भ में क्या सही है.
ऊपर मैंने एक शब्द 'बेझिझक' इस्तेमाल किया है. वह इसलिए कि कुछ चेहरों ने यह साबित करने की कोशिश की है कि नंदी के वक्तव्य का यह हिस्सा बहुत तवज्जो देने लायक नहीं, क्योंकि सवाल पैदा करना, बहस में उत्तेजना पैदा करना और समाज को मानिसक जड़ता से मुक्त करना, नंदी की वर्षो के दौरान विकसित 'शैली' का हिस्सा है. इन चेहरों के मुताबिक, नंदी-जैसा कोई प्रतिबद्ध लेखक भ्रष्टाचार के मामले में ऐसे अतार्किक निष्कर्ष भला कैसे निकाल सकता है. परंतु सच्चाई यह है कि नंदी ने अनायास, अनमने ढंग से यह बात नहीं कही. अपनी बात कहते समय उन्हें अच्छी तरह ज्ञात था कि वो क्या कहने जा रहे हैं, और यह भी कि उनके कथन की स्वाभाविक प्रतिक्रिया क्या होगी.
तभी तो उनके वक्तव्य का पूर्व-वाक्य था- 'मेरे लिए यह कहना एक प्रकार की अश्लीलता है.' इसके तुरंत बाद ही वक्तव्य का वह हिस्सा सामने आया, जिसे लेकर परेशानी पैदा हुई. नंदी ने कहा- 'यह एक सच्चाई है कि ज्यादातर भ्रष्ट लोग पिछड़ी, दलित और अब आदिवासी जातियों से भी, आते हैं.' जाहिर है, नंदी का इशारा समकालीन भारतीय परिप्रेक्ष्य है. एक समाजशास्त्री (?) के रूप में उनसे इतिहास के पिछले पन्नों में उतरने की अपेक्षा रखना बेमानी है. उनके दिमाग में जो बौद्धिक हलचल मची है, वह केवल इस बात को लेकर है कि देश के कई राज्यों में पिछड़ों का जो राजनीतिक नेतृत्व उभरा है, वह पूरी तरह निकम्मा और भ्रष्ट है. भ्रष्ट इसलिए कि वह स्वयं धन-संग्रह में लिप्त है और निकम्मा इसलिए कि वह अपने अधीन कार्यरत अधिशासी समूह की धन-लिप्सा पर काबू करने या इसे लगाम देने में पूरी तरह विफल है.
नंदी के वक्तव्य में एक और बात कही गयी- पश्चिम बंगाल में भ्रष्टाचार नहीं के बराबर है ('क्लीनेस्ट'), क्योंकि पिछले सौ बरसों के दौरान वहां पिछड़ों और दलितों को सत्ता के नजदीक आने का मौका नहीं मिला. नंदी के इस वाक्य से एक पारदर्शी संदेश भी उभरता है- पश्चिम बंगाल को भ्रष्टाचार-मुक्त रखना है, तो पिछड़ों और दलितों को सत्ता से कोसों दूर रखो, उन्हें किसी हालत में 'राइटर्स बिल्डिंग' के आसपास फटकने नहीं दो. मुङो नहीं मालूम, गरीबों, दलितों, मजदूरों, किसानों के बल पर वहां दशकों शासन करने वाले वामपंथी इस वक्तव्य को कैसे लेंगे!
फिलहाल, जो चेहरे नंदी के वैचारिक अतीत का हवाला देकर उन्हें मासूम बताने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें नंदी के वक्तव्य के इस भाग को दोबारा गहराई से पढ़ने और समझने की जरूरत है. नंदी अगर सही हैं, तो उन्हें क्षमा-याचना की जगह अपने तर्कसंगत सोच और समाजशास्त्रीय विश्लेषण का तेज प्रकट करना चाहिए. क्या आज भी इतिहास के नस्लवादी गड्ढे में खोजने पर ऐसे कई कंकाल नहीं मिल जाएंगे, जो अपनी मानसिक विकृतियों के कारण ही अभिशप्त रहे हैं?
इस सिलिसले में एक और बात का जिक्र जरूरी है. उत्सव-स्थल पर ही कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर किये जाने पर, और देश-भर में फैले आक्रोश को देख कर नंदी ने माफी की पेशकश करते हुए यह रहस्य खोला कि वह दरअसल यह कहना चाहते थे कि 'धनी वर्ग बड़ी चतुराई से अपने भ्रष्टाचार छिपा ले जाता है, परंतु दलित-पिछड़े आदि छोटी गलतियों पर भी गिरफ्त में आ जाते हैं.' यह किसी बुद्धिजीवी के वैचारिक फिसलन का एक और उदाहरण है. समाजविज्ञानी के तौर पर, कुछ ही घंटों में अपनी बात से मुकरने, क्षमा-याचना करने और अपने वक्तव्य में एक नया, काल्पनिक अंश जोड़ने की कोशिश उसी चतुराई की ओर संकेत करती है, जिसके बल पर अभिजात प्रभु-वर्ग अपना भ्रष्टाचार छिपा लेता है.नंदी के समर्थक चेहरों को भी उनकी इस टिप्पणी को 'अभिव्यक्ति की आजादी' के रूप में परिभाषित करने और इस वक्तव्य का विरोध करनेवालों की नीयत पर सवाल उठाने से परहेज करना चाहिए. यह उनकी छद्म प्रगतिशीलता ही है, जो उन्हें नंदी के वक्तव्य को 'अभिव्यक्ति की आजादी' और उसके प्रतिकार में खड़े आंदोलन को 'प्रायोजित' ठहराती है. इस दिशा में, जितनी भी पांडित्यपूर्ण दलीलें दी जायेंगी, देश का दलित-पिछड़ा समाज उन्हें खारिज ही करेगा.
ऊपर मैंने एक शब्द 'बेझिझक' इस्तेमाल किया है. वह इसलिए कि कुछ चेहरों ने यह साबित करने की कोशिश की है कि नंदी के वक्तव्य का यह हिस्सा बहुत तवज्जो देने लायक नहीं, क्योंकि सवाल पैदा करना, बहस में उत्तेजना पैदा करना और समाज को मानिसक जड़ता से मुक्त करना, नंदी की वर्षो के दौरान विकसित 'शैली' का हिस्सा है. इन चेहरों के मुताबिक, नंदी-जैसा कोई प्रतिबद्ध लेखक भ्रष्टाचार के मामले में ऐसे अतार्किक निष्कर्ष भला कैसे निकाल सकता है. परंतु सच्चाई यह है कि नंदी ने अनायास, अनमने ढंग से यह बात नहीं कही. अपनी बात कहते समय उन्हें अच्छी तरह ज्ञात था कि वो क्या कहने जा रहे हैं, और यह भी कि उनके कथन की स्वाभाविक प्रतिक्रिया क्या होगी.
तभी तो उनके वक्तव्य का पूर्व-वाक्य था- 'मेरे लिए यह कहना एक प्रकार की अश्लीलता है.' इसके तुरंत बाद ही वक्तव्य का वह हिस्सा सामने आया, जिसे लेकर परेशानी पैदा हुई. नंदी ने कहा- 'यह एक सच्चाई है कि ज्यादातर भ्रष्ट लोग पिछड़ी, दलित और अब आदिवासी जातियों से भी, आते हैं.' जाहिर है, नंदी का इशारा समकालीन भारतीय परिप्रेक्ष्य है. एक समाजशास्त्री (?) के रूप में उनसे इतिहास के पिछले पन्नों में उतरने की अपेक्षा रखना बेमानी है. उनके दिमाग में जो बौद्धिक हलचल मची है, वह केवल इस बात को लेकर है कि देश के कई राज्यों में पिछड़ों का जो राजनीतिक नेतृत्व उभरा है, वह पूरी तरह निकम्मा और भ्रष्ट है. भ्रष्ट इसलिए कि वह स्वयं धन-संग्रह में लिप्त है और निकम्मा इसलिए कि वह अपने अधीन कार्यरत अधिशासी समूह की धन-लिप्सा पर काबू करने या इसे लगाम देने में पूरी तरह विफल है.
नंदी के वक्तव्य में एक और बात कही गयी- पश्चिम बंगाल में भ्रष्टाचार नहीं के बराबर है ('क्लीनेस्ट'), क्योंकि पिछले सौ बरसों के दौरान वहां पिछड़ों और दलितों को सत्ता के नजदीक आने का मौका नहीं मिला. नंदी के इस वाक्य से एक पारदर्शी संदेश भी उभरता है- पश्चिम बंगाल को भ्रष्टाचार-मुक्त रखना है, तो पिछड़ों और दलितों को सत्ता से कोसों दूर रखो, उन्हें किसी हालत में 'राइटर्स बिल्डिंग' के आसपास फटकने नहीं दो. मुङो नहीं मालूम, गरीबों, दलितों, मजदूरों, किसानों के बल पर वहां दशकों शासन करने वाले वामपंथी इस वक्तव्य को कैसे लेंगे!
फिलहाल, जो चेहरे नंदी के वैचारिक अतीत का हवाला देकर उन्हें मासूम बताने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें नंदी के वक्तव्य के इस भाग को दोबारा गहराई से पढ़ने और समझने की जरूरत है. नंदी अगर सही हैं, तो उन्हें क्षमा-याचना की जगह अपने तर्कसंगत सोच और समाजशास्त्रीय विश्लेषण का तेज प्रकट करना चाहिए. क्या आज भी इतिहास के नस्लवादी गड्ढे में खोजने पर ऐसे कई कंकाल नहीं मिल जाएंगे, जो अपनी मानसिक विकृतियों के कारण ही अभिशप्त रहे हैं?
इस सिलिसले में एक और बात का जिक्र जरूरी है. उत्सव-स्थल पर ही कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर किये जाने पर, और देश-भर में फैले आक्रोश को देख कर नंदी ने माफी की पेशकश करते हुए यह रहस्य खोला कि वह दरअसल यह कहना चाहते थे कि 'धनी वर्ग बड़ी चतुराई से अपने भ्रष्टाचार छिपा ले जाता है, परंतु दलित-पिछड़े आदि छोटी गलतियों पर भी गिरफ्त में आ जाते हैं.' यह किसी बुद्धिजीवी के वैचारिक फिसलन का एक और उदाहरण है. समाजविज्ञानी के तौर पर, कुछ ही घंटों में अपनी बात से मुकरने, क्षमा-याचना करने और अपने वक्तव्य में एक नया, काल्पनिक अंश जोड़ने की कोशिश उसी चतुराई की ओर संकेत करती है, जिसके बल पर अभिजात प्रभु-वर्ग अपना भ्रष्टाचार छिपा लेता है.नंदी के समर्थक चेहरों को भी उनकी इस टिप्पणी को 'अभिव्यक्ति की आजादी' के रूप में परिभाषित करने और इस वक्तव्य का विरोध करनेवालों की नीयत पर सवाल उठाने से परहेज करना चाहिए. यह उनकी छद्म प्रगतिशीलता ही है, जो उन्हें नंदी के वक्तव्य को 'अभिव्यक्ति की आजादी' और उसके प्रतिकार में खड़े आंदोलन को 'प्रायोजित' ठहराती है. इस दिशा में, जितनी भी पांडित्यपूर्ण दलीलें दी जायेंगी, देश का दलित-पिछड़ा समाज उन्हें खारिज ही करेगा.
-----------------।।जाबिर हुसेन।।
(पूर्व राज्यसभा सांसद)
(पूर्व राज्यसभा सांसद)
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