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Sunday, 24 February 2013

दिल्ली के अधिकांश अख़बार कर रहे हैं भूमाफियाओं की दलाली


दिल्ली के अधिकांश अख़बार कर रहे हैं भूमाफियाओं की दलाली


राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बनने वालेबिकने वाले मकानोंफ्लैटों से "मल-मूत्र" निकलने की कोई व्यवस्था भले ना होपरन्तु कीमत करोड़ों रूपये से अधिक तक पहुँच जाती हैवैसे दिखने से कोई वजह मालूम नहीं होती लेकिन जब गौर से देखेंगे तो पता चलेगा कि उस राशि का करीब पच्चीस  फीसदी से अधिक हिस्सा दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र समूहों को जाता है. 
-शिवनाथ झा|| 
पिछले दिनों बिहार के मुख्य मंत्री श्री नितीश कुमार समाचार के सुर्ख़ियों में रहे, आज भी हैं. आरोप यह लगाया गया है कि पटना या बिहार से प्रकाशित समाचार पत्रों के मालिकों के साथ उनकी जबरदस्त "सांठ -गाँठ" है और सरकारी विज्ञापनों की धौंस दिखाकर, पत्रकारों को डराकर, धमकाकर अपने पक्ष में multistory-apartment-blockसमाचार छपवाते हैं. अभी यह आरोप प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया देख रहा है. जांच-पड़ताल कर रहा है, यह अलग बात है की प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया "दंतहीन" है और उसकी सिफारिश किसी भी सरकार के लिए लागू करना "बाध्यकारी नहीं है."
कहते हैं कि प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया अपनी बात भारत के संसद को अवगत कराएगा और संसद इस दिशा में पहल करेगी. परन्तु विशेषज्ञों का मानना है की "ना नौ मन तेल होगा, और ना ही राधा नाचेगी", यानि, जिस दिन भारतीय संसद "इतनी ताकतवर हो जाएगी और विवेकशील, राष्ट्र-भक्त लोग सही मायने में संसद का प्रतिनिधित्व करेंगे उस समय ना तो राधा को तेल की जरुरत होगी और ना ही पटना के पत्रकारों को मालिकों की या स्थानीय सरकार और उसके नुमायंदों की धौंस ही सहनी पड़ेगी.
बहरहाल, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में जहाँ "कुकुर-मुत्तों" की तरह पनप रहा है, फल-फूल रहा है एक ऐसा धंधा जिसमे समाचार-पत्रों के मालिक भारतीय पत्रकारिता को नैतिकता के "पिछवारे" में रखकर लोगों की बेबसी का भरपूर आनंद लेते हैं. दुर्भाग्य यह है कि यहाँ यह सभी बातें प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया को नहीं दिखतीहै. अगर कुछ दिखता भी है तो प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया के सदस्यों की सोच मगर यह उतनी "प्रखर" नहीं है जो इस दिशा में भी सोचे. परन्तु सम्बद्ध संस्थान में कार्य-रत मेरे जैसा कोई 'अदना' सा पत्रकार सोचने को आमादा भी हो तो उसे भी वही झेलना पड़ेगा जो पटना के पत्रकारों को झेलना पड़ रहा है.
तो आइये आयें तथ्य पर. पिछले दस वर्षों में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रियल एस्टेट के धंधो में लाखों गुणा का इजाफा हुआ है. निजी बैकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण की सुविधा ने इस धंधे में और भी चार-चाँद लगा दिये है. आश्चर्य तो यह है कि इतना होने के बाद आज भी सरकारी क्षेत्र के बैंक इस बहती गंगा में अपना हाथ महज दस से पंद्रह फीसदी ही साफ़ कर पाए हैं क्योकि शायद उनमे कार्य करने वाले कर्मचारियों, अधिकारीयों या फिर सरकारी नीतियों में जनता के प्रति अभी भी 'संवेदनशीलता' बची है.
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सैकड़ों रियल एस्टेट डेवेलपर्स हैं जो मकान, फ्लैट, मॉल इत्यादि बना रहे हैं. यदि देखा जाये तो किसी भी प्रोजेक्ट को समाप्त होने और घर/फ्लैट की चाभी क्रेता के हाथ सौंपने में कम से कम तीन से चार साल लग जाते हैं. मकान, फ्लेट, मॉल इत्यादि की कीमत बुकिंग के समय ही तय रहती है साथ ही क्रेता को आगाह भी कर दिया जाता है कि वह राशि के भुगतान में नियमितता बरतें नहीं तो अनावश्यक रूप में उन्हें अधिक राशि दंड स्वरुप देनी होगी. यहाँ निजी बैंको और रियल एस्टेट डेवेलपर्स का "मिली-भगत" या "आपसी ताल-मेल" एक अहम् भूमिका निभाती है क्रेताओं को "अपने वश में करने के लिए".
दिल्ली से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों के दो पत्र-समूहों के बीच (शायद पाठकों को गुमराह करने के लिए ही हो) ऐसे सम्बन्ध है जैसे भारत और पाकिस्तान में. कभी एक समहू दुसरे समूह को "ठेंगा" दिखाता है कि "हम नंबर एक है जो पाठकों के दिलों में बसते हैं" तो कभी दूसरा समूह "उसके पैजामे खोलने पर आमादा रहता है अपना अधिपत्य दिखाने, ज़माने, दर्शाने में." शेष जो समाचार पत्र है वे कुछ और तरीकों से अपने क्रिया-कलाप जारी रखते हैं.
दिल्ली से प्रकाशित टाइम्स ऑफ़ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स औसतन सप्ताह में दो बार रियल एस्टेट पर विशिष्ठांक निकालते है. यह विशिष्ठांक औसतन चालीस से साठ पृष्ठों तक होता है. इन पृष्ठों में रियल एस्टेट मालिकों के गुणगान के अलावा वे सभी बाते होती हैं जो क्रेता को लुभाए.
अगर मात्र चालीस पृष्ठों को ही माना जाये (औसतन) तो एक समाचार पत्र सप्ताह में दो बार (अस्सी पेज) और महीने में आठ बार (640 पेज) का विशिष्ठांक निकालते हैं. यानि, पुरे साल में 640 पेज x 12 महीने  = 7680 पेज.  पूर्व में उल्लिखित के तथ्यों के अनुसार कोई भी प्रोजेक्ट समाप्त होने में तीन से चार साल का समय तय होता है, यानि चार साल में 30720 पेज. यह एक समाचार पत्र को मिलने वाला रियल एस्टेट का विज्ञापन है.
इन समाचार पत्रों के विज्ञापन विभाग के कर्मचारियों का मानना है कि "यदि अन्य बाते सामान्य रहें तो एक दिन के संस्करण में एक पृष्ठ के लिए न्यूनतम तीन लाख रुपये देने होते हैं, वह भी अगर पूरे साल/प्रोजेक्ट का कांट्रेक्ट दे."
अब फिर गणित पर आयें. अगर टाइम्स ऑफ़ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स चार साल में कुल 30720 पेज (टाइम्स ऑफ़ इंडिया) + 30720 पेज (हिंदुस्तान टाइम्स) का विशिष्ठांक रियल एस्टेट पर निकालते हैं और औसतन एक पन्ने के लिए रियल एस्टेट कम्पनी को तीन लाख रुपये देने होते हैं तो आर्य भट्ट का गणित भी कुछ इस तरह का ही अंक निकालेगा  - 30720+30720 = 61440 पृष्ठ. अब अगर इन पृष्ठों को महज तीन लाख रूपये प्रति पृष्ठ से गुणा किया जाये (61440 पृष्ठ x 300,000 रुपये)  =18432000000/- रुपये आता है यानि चार वर्षों के सिर्फ इन दो समाचार पत्र समूहों को एक हज़ार आठ सौ तियालीस करोड़ बीस लाख रुपये की राशि रियल एस्टेट के विज्ञापनों से आती है.
अब आप सोचें. रियल एस्टेट अगर अपने व्यवसाय को बढ़ाने या क्रेताओं को लुभाने के लिए इतनी बड़ी राशि इन दो समाचार पत्र समूहों को ही देता है तो क्या कहेंगे आप, या क्या कहेंगे पाठक? हिम्मत है उसके किसी संवाददाता में, जो किसी भी ऐसी "कामधेनु गाय" के बारे में अपनी "जुबान" हिला ले या फिर अपने कंप्यूटर पर बैठकर दो शब्द समाचार पत्र के समाचार के लिए लिख सके. पूरा सम्पादकीय भी बैठ जाये तो नहीं लिख सकता है. और यही कारण है कि इन समाचार पत्र समूहों में एक विज्ञापन लाने वाला अधिकारी समाचार पत्र के संपादकों को भी अपनी कुर्सी के सामने खड़ा रखता है और कहता है "थोडा ध्यान रखें, बहुत तनख्वाह देते हैं".
अब अगर इतनी बड़ी राशि कोई बिल्डर विज्ञापन पर खर्च करता है तो उसके द्वारा बनाये गए मकान और फ्लैटों को खरीदने वाले कोई उसके रिश्तेदार तो है नहीं, पैसा तो वसूलेगा ही और वह भी जितना खर्च किया उसका कम से कम पांच गुणा.
तो हुई न जिस मकान या फ़्लैट की कीमत, चाहे उस भवन से या फलैट से अधिकारिक तौर पर मल-मूत्र का निकास हो या नहीं, आज भी बीस या पच्चीस लाख होनी चाहिए वह बिक रहीं है चालीस लाख, साठ लाख, नब्बे लाख, एक करोड. डेढ़-करोड़. और लोग खरीद रहे हैं जीवन भर गृह-लोन की किश्तें चुकाने के लिए.


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