ऐसी कोई स्वतंत्रता नहीं हो सकती, जो अमूर्त और परम हो!
इंडियन एक्सप्रेस में छपे जस्टिस मार्कंडेय काटजू के लेख की पहली किस्त का अनुवाद हमने शनिवार को छापा था, हमारा मीडिया फासिस्ट है! इस पर नजर रखना जरूरी है!! आज दूसरी किस्त का अनुवाद हम छाप रहे हैं। काटजू के इन विचारों को मीडिया के एक सिपहसालार मुकेश केजरीवाल ने एक आत्ममुग्ध व्यक्ति की गर्वोक्ति कहा है। उन्होंने काटजू के बारे में टिप्पणी की है कि “डंडा मिलते ही लगने लगा कि सारे लोग इस डंडे से पीटे जाने के लिए ही पैदा हुए हैं। और उन्हें ईश्वर ने इन सभी मूर्खों का उद्धार करने के लिए भेजा है। बेहद नकारात्मक सोच के साथ यह दंभी व्यक्ति मीडिया को ठीक करने आया है। ” खैर, मुकेश केजरीवाल जैसे मीडिया के सेठपरस्त पत्रकारों को एक तार्किक बातों पर अतार्किक तरीके प्रतिक्रिया करने दें, हम सब काटजू का लेख हिंदी में पढ़े और मौजूदा टीवी मीडिया का चेहरा बदलने के बाद में चर्चा को आगे बढ़ाएं : मॉडरेटरजैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि इस संक्रमण काल में हमारी जनता को आधुनिक, वैज्ञानिक युग की ओर अग्रसर करने में मीडिया को सहायक की भूमिका अदा करनी चाहिए। इस उद्देश्य के लिए मीडिया को तार्किक और वैज्ञानिक विचारों का प्रचार-प्रसार करना चाहिए, लेकिन ऐसा करने के बजाय हमारे मीडिया का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न तरह के अंध-विश्वासों को परोसता रहता है।
यह सच्चाई है कि बहुतेरे भारतीयों का बौद्धिक स्तर बहुत कम है – वे जातिवाद, सांप्रदायिकता और अंध-विश्वासों में जकड़े हुए हैं। हालांकि सवाल यह है : तार्किक और वैज्ञानिक विचारों के प्रचार-प्रसार के जरिये मीडिया को हमारे लोगों के बौद्धिक स्तर को उन्नत करना चाहिए, या इसे कमजर्फ स्तरों पर लुढ़कते हुए इसे कायम रखना चाहिए?
यूरोप में, पुनर्जागरण के युग में, मीडिया (जो कि उस वक्त सिर्फ प्रिंट मीडिया ही था) ने लोगों के मानसिक स्तरों में इजाफा किया, उसने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व तथा तार्किक चिंतन का प्रचार प्रसार करते हुए लोगों की मानसिकता में बदलाव लाया। वॉल्तेयर ने अंध-विश्वास पर आक्रमण किये और डिकेंस ने जेल, स्कूलों, अनाथालयों, अदालतों आदि की भयानक दशाओं की आलोचनाएं की। हमारे मीडिया को भी क्या यही सब नहीं करना चाहिए?
एक समय में, राजा राम मोहन रॉय जैसे साहसी लोगों ने अपने अखबारों मिरातुल अखबार और संबाद कौमुदी में सती-प्रथा, बाल-विवाह और पर्दा-प्रथा के खिलाफ आलेख लिखे। निखिल चक्रवर्ती ने 1943 के बंगाल के अकाल की भयावहता के बारे में लिखा। प्रेमचंद और शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय ने सामंती रिवाजों और महिलाओं के उत्पीड़न के बारे में लिखा। सआदत हसन मंटो ने विभाजन के खौफ के बारे में लिखा।
लेकिन आज के मीडिया में हमें क्या दिखता है?
कई चैनल नक्षत्र-शास्त्र पर आधारित कार्यक्रम दिखाते हैं। नक्षत्र-शास्त्र को खगोल-विज्ञान से गड्डमगड्ड नहीं किया जाना चाहिए। खगोल-विज्ञान एक विज्ञान है, जबकि नक्षत्र-शास्त्र पूरी तरह अंध-विश्वास और गोरखधंधा है। यहां तक कि एक सामान्य विवेक भी हमें यह बता सकता है कि तारों और ग्रहों की परिक्रमा और किसी आदमी के 50 या 80 साल में मरने, या किसी के इंजीनियर या डॉक्टर या वकील बनने के बीच कोई तार्किक संबंध नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि हमारे देश में अधिकांश लोग नक्षत्र-शास्त्र को मानते हैं, लेकिन ऐसा इसलिए क्योंकि उनका मानसिक स्तर कमजोर है। इस मानसिक स्तर में लोट-पोट होने और इसको जारी रखने के बजाय मीडिया को इसको उन्नत करने की कोशिश करनी चाहिए।
कई चैनल बताते हैं कि कोई हिंदू देवता कहां पैदा हुए थे, कहां कहां वे रहे, वगैरह वगैरह। क्या यह अंध-विश्वास को फैलाना नहीं है?
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि पूरे मीडिया में कोई अच्छा पत्रकार नहीं है। कई बेहतरीन पत्रकार हैं। पी साईनाथ एक ऐसे ही नाम हैं, जिनका नाम भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखा जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो कई राज्यों में किसान आत्महत्याओं के मामलों को उजागर करने की कहानी (जिसे कई सालों तक दबाया गया) कभी कही ही नहीं जाती। लेकिन ऐसे अच्छे पत्रकार अपवाद हैं। बहुसंख्या ऐसे लोगों की है, जो जन-हितों पर खरा उतरने की कोई चाहत नहीं रखते।
मीडिया के इन दोषों को दूर करने के लिए मुझे दो चीजें करनी हैं। पहला, मेरा प्रस्ताव है कि प्रत्येक दो माह या अन्य किसी निश्चित अंतराल में मीडिया के साथ (इलेक्टॉनिक मीडिया सहित) नियमित बैठकें हों। ये बैठकें समूची प्रेस कौंसिल की होने वाली नियमित बैठकें नहीं होंगी, लेकिन अनौपचारिक मेल-जोल होगा, जहां हम मीडिया से संबंधित मुद्दों पर विचार-विमर्श करेंगे और उनका लोकतांत्रिक तरीके से, अर्थात बातचीत के जरिये सुलझाने की कोशिश करेंगे। मेरा यकीन है कि 90 फीसदी समस्याएं इन तरीकों से सुलझायी जा सकती हैं। दूसरा, एक हद के बाद, जहां मीडिया का एक हिस्सा उपरोक्त सुझाये गये लोकतांत्रिक प्रयासों के बावजूद इन्हें अनुत्पादक साबित करने की हठ पर अड़ा हो, कठोर उपायों की जरूरत पड़ेगी। इस संबंध में, मैंने प्रधानमंत्री को प्रेस आयोग अधिनियम में संशोधन करने का आग्रह किया है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी प्रेस कौंसिल (जिसका संशोधित नाम मीडिया आयोग हो सकता है) के दायरे में लाया जाए और इसे और शक्ति-संपन्न बनाया जाए। मिसाल के लिए, सरकारी विज्ञापन बंद करना, या किसी अतिरेक स्थित में, कुछ समय के लिए मीडिया हाउस के लाइसेंस को निरस्त करना। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है : “भय बिनु होय न प्रीत।” यद्यपि, इसका इस्तेमाल सिर्फ बेहद, अतिरेक स्थितियों में और लोकतांत्रिक उपायों के असफल होने के बाद ही किया जाएगा।
यहां एक आपत्ति हो सकती है कि यह तो मीडिया की स्वतंत्रता को बाधित करना है। ऐसी कोई स्वतंत्रता नहीं हो सकती, जो कि अमूर्त और परम हो। सभी स्वतंत्रताएं तर्कसंगत सीमा का विषय होती हैं, और इसमें जिम्मेदारी भी निहित होती है। एक लोकतंत्र में, हर कोई जनता के प्रति उत्तरदायी है, और इसीलिए हमारा मीडिया भी है।
निष्कर्षतः, भारतीय मीडिया को अब आत्म-चिंतन, एक उत्तदायित्व की समझ और परिपक्वता विकसित करना चाहिए। इसका यह अर्थ नहीं हैं कि इसे सुधारा नहीं जा सकता। मेरी मान्यता है कि गड़बड़ी करने वालों में 80 फीसदी एक धैर्यपूर्ण बातचीत के जरिये, उनकी गलतियों को इंगित करके अच्छे लोग बनाये जा सकते हैं और धीरे धीरे उन्हें उस सम्मानजनक रास्ते की ओर अग्रसर किया जा सकता है, जिस पर यूरोप का मीडिया नवजागरण काल में चल रहा था।
http://mohallalive.com/2011/11/07/why-our-media-is-anti-people/
इंडियन एक्सप्रेस, 04 नवंबर 2011 को प्रकाशित
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