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Monday 1 April 2013

सामान्य गुजरात बनाम मोदी का गुजरात




सामान्य गुजरात बनाम मोदी का गुजरात

narendra-modiइस तथ्य से सभी अवगत हैं कि गुजरात प्रदेश प्राचीन समय से ही समृद्ध रहा है। यहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय पशु-पालन और वाणिज्य था। इसमें यहां के लंबे समुद्री किनारे का भी बड़ा योगदान रहा है। यहां के वणिक मध्य भारत के उत्पादों को समुद्र मार्ग से ले जाकर पश्चिमी देशों को बेचते थे। ईरान-ईराक से भारत का जो प्राचीन संबंध बतलाया जाता है, वस्तुत: वह यहीं के वणिकों द्वारा विकसित हुआ था। किसान की अपेक्षा वणिक ज्यादा समृद्ध होते हैं। कृषि-कर्म में अनजाने ही न जाने कितने जीव मरते हैं; जबकि व्यापार में हिंसा की कोई गुंजाइश नहीं होती। शायद इसीलिए यहां जैन धर्म खूब फला-फूला। वैसे भी कृषि की अपेक्षा व्यापार आसान कर्म है। तैयार वस्तु को एक जगह से दूसरी जगह ले जाकर ज्यादा कीमत पर बेचना। परंतु जानने वाले जानते हैं कि किसान की अपेक्षा व्यापारी कितनी और कैसे हिंसा करता है। जितनी सूक्ष्म व्यापार की हिंसा होती है, उसका ठीक उलट, मतलब कि अत्यंत थुलथुल मोदी द्वारा किया गया गुजरात का विकास है। भीतर से खाली, पोलम-पोल। अहिंसा के प्रतीक पुरुष गांधी का प्रदेश यह। ऐसे प्रदेश ने 28 फरवरी, 2002 को भारत ही नहीं, विश्व को अपनी प्रलयकारी हिंसा से स्तब्ध कर दिया था। साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन की बोगी जलाने का दुष्कर्म क्यों, कैसे और किसके द्वारा संपन्न हुआ, इसका जवाब अभी तक नहीं मिल पाया है, जिसमें करीब साठ लोगों की जान जाने के उपरांत हुए जनसंहार में हजार-बारह सौ लोगों की जान गई। ये घटनाएं मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के वाइब्रेंट शासन में हुईं, जिसके कारण उन पर सवाल भी उठते रहे, बावजूद इसके वह पिछले दो विधान सभा चुनावों में बहुमत पाते रहे। पिछले चुनावों तक उन्होंने विकास से ज्यादा सुरक्षा की बात की थी। यहां तक कि फर्जी एनकाउंटरों को जायज भी ठहराया था। परंतु पिछले पांच साल से उन्होंने विकास का राग छेड़ा है। केंद्र में भाजपा को फीलगुड तो काम नहीं आया, परंतु गुजरात में नरेंद्र मोदी को वाइब्रेंट खूब फला। हिंसा का वाइब्रेंट या हिंसा के बाद का वाइब्रेंट। इसी वाइब्रेंट का बाई प्रोडक्ट है विकास, जो भीतर से हिंस्र रहा है। तभी तो सामान्य आदमी का गुजरात नहीं, नरेंद्र मोदी का गुजरात विकास के सारे पैमाने तोड़कर भारत में अव्वल आता है। ध्यान रहे कि मोदी हमेशा खुद को गुजरात के पर्याय के रूप में ही प्रचारित करते रहे हैं, जिसमें मीडिया ने भी अपना खूब योग दिया है। परंतु सच तो यह है कि असल का गुजरात मोदी का पर्याय न कभी रहा है, न रहेगा। असल का गुजरात ही सामान्य गुजरात है, जिसे मोदी का विकसित गुजरात हिंसता है। इस तरह मोदी ने गुजरात को ही गुजरात का विरोधी बना दिया है। उनके विकसित (?) गुजरात की आवाज के सामने हिंसित गुजरात की पीडि़त आवाज कहां सुनाई देती है।
भीतर की असलियत
रावण ने सोने की लंका में निर्जीव लोगों को बसाया था। बाहर के लोगों को वह कितना लुभाता रहा होगा। बाहरी को भीतर की असलियत का क्या पता। बाहरी तो भीतर पैठ ही नहीं पाया। जो पैठा वह रावण के द्वारा पैठाया गया था। भीतर रहना है तो रावण का आदमी ही बनकर रहना होगा। कुछ ऐसी ही हालत गुजरात की भी है। अब यह न पूछिये कि ये अव्वल नंबर देने वाली एजेंसियां कौन हैं। जब साहित्य जैसे टुटपुंजिया क्षेत्र में रेटिंग करने वाली एजेंसियों की भरमार है, तो राजनीति जैसे धन संपन्न क्षेत्र में कैसे न होंगी। विज्ञापन का दौर है भाई। फेसबुक-ट्वीटर एक व्यापारी द्वारा किया जा रहा व्यापार है, जिसे आम आदमी ने अपनी बात कहने का सबसे आसान और सशक्त माध्यम समझ लिया है। ऐसा समझते ही हम अपनी ही बात करते रहते हैं, दूसरों की सुनते ही नहीं। इस तरह हमारी सुनने-पढऩे की शक्ति निरंतर क्षीण होती जा रही है। दूसरों की सुने-पढ़े बिना अपनी बात का मतलब है आत्ममोह और आत्मप्रचार। इसीलिए हम निरंतर अपना स्थूल चेहरा बदल-बदल कर पेश कर रहे हैं। इस तरह हम निरंतर छिछले होते जा रहे हैं। इसके बरक्स राजनीति तो हमेशा से ऐसा करती आयी है। वह तो आत्मप्रचार के द्वारा ही अपना चेहरा बनाती है। वह राजनेता कैसा जो चेहरा बनाने के लिए आत्मप्रचार न करे। इसलिए मुख्यमंत्री मोदी आत्मप्रचार का कोई मौका नहीं चूकते, बल्कि मौके का निर्माण करते हैं। वह जिस गुजरात का पर्याय बनने की कोशिश में लगे थे, जिसमें मीडिया ने खूब योग दिया था; वह सामान्य (सम्मान्य) गुजरात न होकर मोदी का गुजरात था।
vibrant-gujarat-summit-2013-gandhinagar-logoहिंसक मोदी का गुजरात हो सकता है, परंतु सामान्य गुजरात नहीं। नरेंद्र मोदी ने ही कभी कहा था कि आप पांच साल तक निश्चिंत सोइये, आपके लिए मैं जागूंगा। जनता को सुलाकर वह आत्मप्रचार के लिए निरंतर जागते रहे। सामान्य गुजरात अत्यंत गहन और विस्तृत है। उसका शीर्ष ही नहीं, जड़ भी भारत क्या, इंग्लैंड-अमेरिका तक फैली है। इस छिछले प्रसरते युग में उनका छिछला और प्रसरता गुजरात ही बाहरों को दिखता है, गहन-विस्तृत गुजरात नहीं। गहन-विस्तृत गुजरात पर मोदी ने अपने गुजरात को फैलाकर विज्ञापित किया है। इस तरह सामान्य गुजरात को मोदी ने अपने गुजरात से ढंक दिया है। मोदी की जुबान पर भूले से भी गुजरात का कोई विरोधी नहीं आता। ऊंचे बैठे हुए को बाहर ही दिखता है, भीतर नजर डालने के लिए नजर जो नीची करनी पड़ती है। नजर नीची करना मोदी को गवारा नहीं। इसीलिए हमेशा बाहरी नेता का नाम लेते हैं, जिसे मीडिया उनको केंद्र की सत्ता का दावेदार बना देती है। जबकि असलियत यह है कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात की गहनता और विस्तार को बढ़ाया नहीं, बल्कि निरंतर संकुचित किया है।
उसी निश्चिंत सोयी जनता को उन्हें चुनाव के समय में जगाने की जरूरत पड़ती है। सो 'बीती विभावरी जाग री' गाकर जगाते हैं। आंख मलती जनता जब चारों ओर नजर घुमाती है, तो मोदी के विकास से चुंधिया जाती है, क्योंकि सोने के पहले का दृश्य इतना बदल चुका होता है कि साफ तौर पर कुछ नजर ही नहीं आता। ऐसा तो सिर्फ नटवर कर सकता है। सो नरेंद्र मोदी नटवर हो जाते हैं। जिधर देखो उधर विभिन्न चमकीली मुद्राओं में नटवर ही नटवर। वैसे भी यहां के लोग प्राचीन काल से ही नटवर पर रीझते आए हैं। चुनावी दिनों में नटवर कमल हो जाता है। जिस्म से कोमल कमल की कर्कश हुंकार जनता को विस्मित करती है। सो उसी पर ठप्पा लगा कर उसे ठप्प कर देती है। गुजरात के लोगों की यह तस्वीर मोदी जी के कथनों की निर्मिति है, वास्तविक नहीं। अगर वास्तविक होती तो कुछ सीटें कांग्रेस-एनसीपी को कैसे मिल जातीं! ऐसा है कि सामान्य लोगों को कभी निश्चिंत नींद आती ही नहीं। हमेशा चिंतित जो रहते हैं, सो बीच-बीच में आंख खुल ही जाती है, तो दिख पड़ती है नटवर की अंधेर लीला, जिसे मोदी जी बाहरियों का अपप्रचार बतलाते हैं। इस तरह सामान्य गुजरात और अन्य प्रदेश मोदी के लिए बाहरी हैं। भीतरी हैं तो केवल नरेंद्र मोदी और उनके पीछे चलनेवाले लोग।
नेता बनाम जनता
भारत में प्राइवेटाइजेशन का श्रेय मनमोहन सिंह और कांग्रेस को है। इससे व्यक्तिगत मीडिया अस्तित्व में आया, जिसका एक मात्र उद्देश्य है धन कमाना। इसके आने से सत्ताधीशों को चेहरा चमकाने का आसान साधन मिल गया। पूंजीपति, राजनेता और मीडिया के बाहु (हाथ) इस तरह सम होकर मिले कि समबाहु त्रिभुज बन गया। कोई नहीं पूछता कि सरकारें इतना धन आत्मप्रचार में क्यों खर्च करती हैं? क्या भारत की जनता इतनी मूरख है कि उसके हित में किया गया काम भी उसे नहीं दिखता हो? वैसे तो तमाम राजनेता जनता की समझदारी का गुणगान करते नहीं अघाते, जबकि सच यह है कि भारत की जनता मूरख नहीं, भोली है। शिव है यह। …छोटी-छोटी बातों पर अगर उलझते रहे, तो बड़ी बातों पर ध्यान नहीं दें पाएंगे। इसी के माथे टिका है यह राष्ट्र।
कांग्रेस ने इतने वर्षों से भारत में शासन किया परंतु उसका कोई भी मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री विकास पुरुष का इल्काब न पा सका, परंतु भाजपा का पहला ही प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी विकास पुरुष बन गया। किसने दिया यह इल्काब, इसका भी शोध होना चाहिए। मोदी ने किस तरह गुजरात का विकास किया है, उसकी एक बानगी देखिये। ममता बनर्जी ने जिस नैनो को बंगाल से खदेड़ा, उसको हमारे विकास पुरुष ने अपने राजनीतिक हुनर से गुजरात में स्थापित कर दिया। देखने की बात है कि मीडिया ने उस कारखाने को देशहित के लिए इतना जरूरी क्यों और कैसे बना दिया था। ऐसे में कुछ पत्रकारों के चेहरे याद आते हैं, जो बड़े-बड़े पूंजीपतियों का चेहरा चमकाने का काम करते हैं। बंगाल और गुजरात भारत के दो छोर हैं। भारत इन दोनों छोरों के बीच ही बसता है। एक नेता उसे भगाकर अपने लिए मुख्यमंत्री का रास्ता साफ करता है, तो दूसरा नेता अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी को और टिकाऊ बनाता है।
किसका फायदा, किसका नुकसान
इसका भी शोध होना चाहिए कि बंगाल से भगाए जाने से नैनो को जितना नुकसान हुआ उससे कितने गुना ज्यादा फायदा गुजरात में स्थापित होने से हुआ। ऐसा क्यों और कैसे हुआ? वाह, क्या सम्मिलन था तीनों बाहुओं का! बाहुओं के सम्मिलन से निर्मित यह त्रिकोण कितना नाट्यात्मक था कि जनता सुधबुध खोए देखती रही। इससे तीनों को लाभ ही लाभ हुआ। नुकसान हुआ तो जनता का। वर्तमान समय त्रिकोणात्मक है। हम सभी समबाहु त्रिभुज के अंतर्गत ही गति करते हैं। हमारा गुजरात अब ऑटोमोबाइल हब बनेगा। मुख्यमंत्री जी बड़े-बड़े पूंजीपतियों के साथ जापान का दौरा कर आए हैं। हमारे मुख्यमंत्री जब पूंजीपतियों को सिर पर बिठाएंगे, तो उन पूंजीपतियों का भी तो कोई फर्ज बनता है। समबाहु तभी तो कहलाएगा। सो उन्होंने किसी रेटिंग एजेंसी से अव्वल नंबर दिलवाकर, किसी विशिष्ट पत्रिका में प्रशंसात्मक लेख लिखवाकर अथवा मध्यावधि चुनाव के सर्वे द्वारा भावी प्रधानमंत्री के रूप में लोकप्रिय बतलाकर बाहु को समान कर दिया।
इधर कुछ महीनों से मोदी को प्रदेश का ही नहीं, राष्ट्र का दायरा भी कम पड़ रहा है। इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय होने की कोशिश करने लगे है। सो एक दिन के उपवास की सद्भावना शु डिग्री हो गई, जिसे मीडिया ने अंतर्राष्ट्रीय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा। यह एक दिन का उपवास अपने भीतर बड़ी भूख छिपाए है, जिसे छिपकर जगे लोग देख रहे हैं और विरोध कर रहे हैं। कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि हमारे मुख्यमंत्री जी की काया इतनी बढ़ गई है कि अब गुजरात में अंटती ही नहीं। सांस फूल रही है उनकी। गुजरात से बड़े मोदी। इसका मतलब है कि गुजरात उनके अंतर्गत है, गुजरात के अंतर्गत वह नहीं हैं। कहीं ऐसा न हो कि अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा गुजरात मोदी जी को ही बहिष्कृत न कर दे। गुजरात और मोदी जी के बीच के द्वंद्व का नतीजा क्या निकलता है, यह तो वक्त ही बतलाएगा।
फिलहाल मोदी के पास कोई ऐसा मुद्दा नहीं है जो लोगों को लुभाए। विकास में गुजरात अव्वल के प्रचार से यहां की जनता अब जले पर नमक महसूस करती है। केंद्र से किसानों के मद में ली जाती बिजली उद्योगों को मुहैया की जाती है। बेकारी सुरसा की तरह निरंतर मुंह बाए जा रही है। ऐसे में यह चुनाव नरेंद्र मोदी के लिए कहीं अति लघुरूपा न साबित हो। कौन नहीं जानता कि मीडिया का पेट समुद्र से भी गहरा है। उससे कोई पार नहीं पा सकता। वह अपने अस्तित्व पर कभी आंच नहीं आने देता। क्योंकि चित भी उसका पट भी उसका। उसने मोदी से ज्यादा अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए सद्भावना मिशन को आलोचना की शक्ल में प्रचारित किया। इससे मोदी को भावी प्रधान मंत्री का रूप भी मिल गया और आलोचना भी हो गई। गुजरात वैसे भी गरवी है। सो गरवी गुजरात की प्रतिष्ठा के लिए नरेंद्र मोदी का जीतना जरूरी है। इसी भावना के दोहन के लिए था सद्भावना मिशन और मीडिया द्वारा किया गया उसका प्रचार। हर जिले में एक दिन का उपवास, वह भी निरंतर नहीं, रुक-रुक कर। एक दिन के उपवास से एक जिले को जीतने की तमन्ना उस जिले के लोगों का सम्मान है या अपमान। इस तरह रुक-रुक कर किए गए 26 दिनों के उपवास के बदले में प्रधान मंत्री का पद। कितना सस्ता हो गया है प्रधान मंत्री का पद।
खराखरी का जंग
गुजरात का चुनाव भाजपा और कांग्रेस के बीच नहीं, नरेंद्र मोदी और कांग्रेस के बीच होता है। इस तरह गुजरात की भाजपा के अंतर्गत नरेंद्र मोदी नहीं हैं, मोदी के अंतर्गत भाजपा है। इस तरह मोदी का जीतना तो भाजपा का जीतना है मगर मोदी का हारना भाजपा का हारना नहीं। आज जहां भाजपा की राष्ट्रीय इकाई मोदी की हां में हां मिला रही है, वही हार की स्थिति में उन्हें दूध में मक्खी की समझेगी। वैसे राजनीति में दूध से मक्खी को निकाल कर ही दूध का पीना नहीं होता, मक्खी के साथ दूध का पीना भी होता है। भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर तो कमजोर है ही, इसका पता न केवल कर्नाटक से चलता है, बल्कि लालकृष्ण अडवाणी के ब्लॉग से भी चलता है। लड़े बिना ही हार की भविष्यवाणी। कैसा सैनिक और कैसा सेनापति है! तो मोदी अंतर्गत गुजरात भाजपा मोदी से कितनी संतुष्ट-असंतुष्ट है, इसका थोड़ा पता तो उम्मीदवारों के चयन के बाद और पूरा चुनाव के नतीजे के बाद चलेगा। भाजपा से केशुभाई पटेल ने न केवल किनारा कर लिया है, बल्कि मोदी को हराने में जी-जान से जुटे हैं। उनके साथ अभी तो भाजपा के दूसरे सांसद-विधायक नहीं आए हैं, इसके मूल में उनका अपना हित-अनहित है। अभी से निकल कर अपना नुकसान क्यों करना। फायदा जब तक मिलता है लेते रहो। हाशिये पर ढकेल दिए गए कार्यकर्ताओं को क्रिया क्षेत्र में लाने की कोशिश इसी का इशारा कर रही है कि नरेंद्र मोदी खुद को कमजोर पा रहे हैं। इधर नए-नए जिलों और तहसीलों के निर्माण की घोषणा, चुनाव में दूसरे प्रदेशों से कार्यकर्ताओं की मांग इसी का इशारा कर रही है कि मोदी के गुजरात पर अब सामान्य गुजरात भारी पडऩे लगा है। देखना यह है कि भाजपा के असंतुष्ट कार्यकर्ता संतुष्ट होते हैं कि नहीं। और होते हैं तो कितने और कैसे। सभी जानने लगे हैं कि अब चुनाव जीतने और लोकप्रियता में कोई संबंध नहीं है। चुनाव जीतना एक हुनर है। मोदी इसमें माहिर माने जाते हैं। देखना यह है कि यह मान्यता अबकी बार भी सिद्ध होती है कि नहीं। वैसे केंद्र सरकार के क्रिया-कलाप और केजरीवाल टीम की गतिविधियां और उनके प्रचार-प्रसार में मीडिया का अतिरिक्त उत्साह मोदी को जरूर लाभ पहुंचायेगा। मोदी अगर जीतते हैं तो उनका जीतना एक ओर तो अपने बूते नहीं होगा, तो दूसरी ओर हारना गुजरात कांग्रेस का नहीं, केंद्र सरकार का होगा। वैसे बाहरी तौर पर लगता है कि दो पार्टियां लड़ रही हैं, जिसमें से एक जीतता है और दूसरा हारता, परंतु यह गलत है। जीतती तो हमेशा कोई न कोई एक पार्टी है, परंतु हारती तो हमेशा जनता ही है। वही तो हमेशा ठगी जाती है तरह-तरह के लुभावने वादों और प्रचारों से, जिसमें मीडिया की दलाली अपने चरम पर होती है।
गुजरात में खेती से लेकर राजनीति और उद्योगों तक में पटेल जाति का ही वर्चस्व रहा है। केशुभाई उन्हीं के अगुआ रहे हैं और आज भी कहे जाते हैं। अब देखना यह है कि इस 'रहे' और 'कहे' में कितनी एकता है और कितनी अनेकता। अगर एकता हुई तो मोदी को बहुमत मिलना दिन में तारे देखने जैसा होगा। दिखता तो यही है कि इस बार के चुनाव में खराखरी का जंग होगा। इसके पहले की जंग तो एकतरफा थी। कांग्रेस में इस बार जोश-खरोश पहले से ज्यादा दिखता है। चुनावी दांव भी नजर आ रहा है। मिसाल के तौर पर कांग्रेस ने हर गरीब महिला को मकान देने का वादा किया है। इसके लिए उसमें फॉर्म छपवाकर बांटे। फॉर्म को पाने के लिए काफी भीड़ जुटी। इससे भी उनका उत्साह बढ़ा नजर आ रहा है। कहने का मतलब यह कि गुजरात कांग्रेस अबकी बार लोक लुभावने नारे देने में भाजपा से आगे निकल गई है। ये चीजें नरेंद्र मोदी को न केवल परेशान करने वाली हैं, बल्कि चिंतित करने वाली भी हैं। उन्होंने इसकी काट में अपने सरकारी तंत्र को लगा दिया है। हम कोई भविष्यवेत्ता नहीं, जो बतला सकें कि अबकी बार चुनाव कौन जीतेगा। हां, इतना जरूर कह सकते हैं कि यह चुनाव ज्यादा रोचक और मनोरंजक जरूर होगा। कांग्रेस की हार से यहां के किसी भी कांग्रेसी नेता का कोई बड़ा नुकसान नहीं होगा, परंतु भाजपा की हार पर अव्वल के इल्काबी नरेंद्र मोदी का बहुत ज्यादा नुकसान होगा। इस तरह यह चुनाव मोदी की प्रतिष्ठा का चुनाव है। देखना यह है कि गुजरात की सामान्य जनता इसे किस रूप में लेती है। यह तो साफ दिखता है कि मोदी का प्रचार अब उतना प्रभावी नहीं रहा, जितना पहले था। यह सच है कि एक ही चेहरा देखते-देखते और एक ही तरीके की बातें सुनते-सुनते इंसान ऊब जाता है। गुजरात में यह ऊब दिखती है। कथनी-करनी का अंतर साफ नजर आता है। बावजूद इसके अगर नरेंद्र मोदी जीतते हैं, तो यही समझना चाहिए कि हम समझदार कम और भोले ज्यादा हैं। वैसे हम भी तो चुनावी गणित के जानकार, मतलब कि पत्रकार नहीं हैं। वस्तुनिष्ठ होने की लाख कोशिशों के बावजूद मेरी आत्मनिष्ठा शामिल हो ही जाती है।

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