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Sunday 31 March 2013

दफ्न होती बेटियां



दफ्न होती बेटियां

Sunday, 31 March 2013 11:57
सय्यद मुबीन ज़ेहरा 
जनसत्ता 31 मार्च, 2013: होली के रंग अभी उतरे नहीं हैं, गुझिया की मिठास का स्वाद अब भी जीभ पर है। बुराई पर अच्छाई की विजय का जश्न मनाते हुए हमने होलिका दहन भी किया, मगर आज जब हम अपने समाज में कन्या अनुपात के गिरते आंकड़ों को देखते हैं तो लगता है कि इस बार हमें समाज के उस सोच का दहन भी करना होगा, जहां बेटी को पैदा होने से पहले ही मार दिया जाता है। कन्या भ्रूण हत्या हमारे समाज का सबसे क्रूर और विनाशकारी कृत्य है। यह हमारे समाज की उतनी ही पुरानी कुरीति है, जितना पुराना हमारा समाज। 
ऐतिहासिक दृष्टि से यूनान उल्लेखनीय है। वहां के डेल्फी शहर के दो सौ ईसा पूर्व के आंकड़े बताते हैं कि उस शहर की छह हजार की आबादी में एक सौ अठारह बेटों के मुकाबले केवल अट्ठाईस बेटियां थीं। अरब में तो इस्लाम के आने से पहले बेटियों को पैदा होते ही जिंदा दफ्न कर दिया जाता था। अल्लाह के आखिरी नबी और इंसानियत के रहनुमा हजरत मुहम्मद ने अरब के उस माहौल में बेटियों की हत्या को धर्म और समाज के खिलाफ बताया और कहा कि ये बच्चियां अपनी हत्या पर सवाल करेंगी तो तुम क्या जवाब दोगे? उनकी नस्ल उनकी बेटी बीबी फातिमा से ही आगे चली है। 
आज सबसे प्रगतिशील माने जाने वाले अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों में भी मौत के आंकड़ों में सबसे अधिक बच्चियों की मृत्यु के आंकड़े हैं। चीन में आज भी बेटी का जन्म अवांछित माना जाता है। प्राचीन रोम में जब पति पत्नी को परदेस से चिट्ठी लिखता था और अगर वह गर्भवती हुई तो उसे आदेश देता था कि अगर बेटा हुआ तो उसका जी-जान से खयाल रखना, लेकिन बेटी हुई तो उसे मार डालना। ब्राजील के प्राचीन इतिहास में भी कन्या भ्रूण हत्या के प्रमाण मिलते हैं। 1834 की मुंबई के आंकड़े बताते हैं कि उस समय इस शहर में केवल छह सौ तीन बेटियां थीं। 
मनुष्य ने आधुनिक युग में कदम रख लिया है, लेकिन कन्या भ्रूण हत्या उसके सभ्य होने पर प्रश्नचिह्न लगाती रही है। आप सोचिए कि जिस समाज में बेटी के पैदा होते ही उसे एक मिट्टी के बर्तन में बंद करके मार दिया जाता रहा हो वह समाज सभ्य कैसे माना जाए? आज भी बेटियों को मारने के दकियानूसी कारण मौजूद हैं। जो तकनीक या तरकीबें परिवार नियोजन के लिए ईजाद की गई थीं वे अब इस समाज की जननी को ही जन्म से पहले मार देने में उपयोग की जा रही हैं। अगर अमर्त्य सेन की मानें तो विश्व से एक करोड़ महिलाएं 'लापता' हैं। 'लापता' यानी जो पैदा नहीं हो पाई हैं या जिन्हें कोख में ही कत्ल कर दिया गया। इनकी अनुपस्थिति से समाज का सारा ढांचा ही गड़बड़ा रहा है। जिस समाज की बुनियाद ही असमान हो वह कब तक टिका रह सकता है? उसके धराशायी होने के पूरे आसार होते हैं। 
अनुमान के मुताबिक चीन से करीब साढ़े तीस लाख महिलाएं लापता हैं, भारत से 22.8 लाख, पाकिस्तान से 3.1 लाख, बांग्लादेश से 1.6 लाख, पश्चिम एशिया से 1.7 लाख, मिस्र से छह लाख और नेपाल से दो लाख महिलाएं लापता हैं। यानी वे पैदा होने से पहले ही मार डाली गई हैं। अगर गौर करें तो हमारे आसपास लाखों हत्यारे मौजूद हैं, जिनसे हम सुबह-शाम मिलते-जुलते, हंसते-बोलते हैं। त्योहारों की खुशियां बांटते हैं, जिनके साथ हमने अभी होली खेली है। इनके साथ हम ईद में गले मिलेंगे, दिवाली के दीप भी सजाएंगे। मगर ऐसी रोशनी किस काम की जो मां की कोख में आने वाली ज्योति को ही गुल करके जगमगाती हो। ऐसी ईद की रौनक  किसे भाएगी, जो इस्लाम के पैगाम को समझ कर अपनाने में ही भूल कर बैठे। अब अगर यह समाज भ्रष्ट और दूषित होता जा रहा है तो इसमें चकित होने की कोई बात नहीं। जिस समाज में हत्यारे भरे हों उससे आप अपेक्षा ही क्या कर सकते हैं? 
भारत में 2011 के लिंगानुपात के आंकड़े बहुत शर्मनाक और चिंताजनक हैं। आजादी के बाद से सबसे कम...! 2011 की जनगणना रिपोर्ट में समाज में लड़कों की चाह में वरीयता का संकेत है। एक हजार पुरुषों के मुकाबले नौ सौ चौदह महिलाओं का अनुपात है। कई क्षेत्रों में तो यह और भी कम है। इसमें चिंताजनक बात यह है कि यह अनुपात अच्छे, खाते-पीते, शिक्षित परिवारोंं में सबसे कम है। ये कन्याओं के गिरते आंकड़े हमारे समाज के गिरते सामाजिक स्तर की निशानदेही करते हैं। जिस देश की बेटी कोख में ही मार दी जाती है वहां उसकी सुरक्षा से जुड़ी नीतियां कितनी सफल हो सकती हैं? इस प्रश्न का उत्तर चाहे जो हो, हमारे आसपास महिलाओं के विरुद्ध बढ़ते अपराध के आंकड़े चीख-चीख कर कह रहे हैं कि यह समाज महिलाओं के प्रति संवेदनशील क्यों नहीं हो पा रहा है? मां की कोख, जो किसी बच्चे के लिए दुनिया का सबसे सुरक्षित स्थान हो सकता है, अगर वहां भी कोई सुरक्षित न रह पाए तो समाज की बच्चियों के प्रति भेदभावपूर्ण मानसिकता का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह हत्यारा समाज सिर्फ मर्दों का नहीं, बल्कि इसमें महिलाएं भी बराबर की भागीदार हैं। इसमें उनका योगदान सबसे अधिक होता है। अब इसका कारण वे चाहे कुछ भी बताएं इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि समाज उनके होंठों पर ताले तो नहीं जड़ता है। वे खुद चुप्पी ओढ़ लेती हैं, किसी डर से या मजबूरी में...!
दिल्ली देश की राजधानी है और विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है भारत। सूचनाधिकार के अंतर्गत मांगी गई जानकारी से तथ्य सामने आए हैं कि दिल्ली में प्रतिदिन औसतन सौ गर्भपात हो रहे हैं। पिछले पांच वर्षों में यहां   गर्भपात के एक लाख अस्सी हजार तीन सौ एक मामले सामने आए हैं। सरकार को बड़ी गंभीरता से जांच करनी चाहिए और पता लगाना चाहिए कि इतनी बड़ी संख्या में किए जा रहे गर्भपात के कारण क्या हैं? कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए गर्भ में लिंग परीक्षण के विरुद्ध कानून हैं, लेकिन सरकार इसे रोक पाने में नाकाम है। जब वह बाहर सुरक्षा नहीं दे पा रही तो घर के अंधेरे में, मां की कोख में फैलते अंधेरों को कैसे रोक सकती है? इसके लिए तो समाज को ही पहल करनी होगी और अपने ऊपर लगी हत्यारे समाज की छाप हटानी होगी। 
बच्चियों के गिरते आंकड़े केवल सरकारी प्रयासों से नहीं, समाज की संरचना से भी कम किए जा सकते हैं। हमें समाज में बेटियों की इज्जत का पाठ पढ़ाना होगा और सबसे बड़ी बात यह कि बेटी पराया धन है का सोच बदलना होगा। बेटी जब इस समाज का धन बनेगी तब यह समाज धनी कहा जा सकता है। बेटियों की उपेक्षा करने वाला समाज निर्धन और निर्गुण हो जाता है। सरकार को बेटियों के लिए अधिक से अधिक ऐसी योजनाओं की घोषणा करनी होगी, जहां मां-बाप सामाजिक दबाव से ऊपर उठ कर बेटियों को जन्म दे सकें, जिससे समाज की समांतर दुनिया मजबूत बनी रहे। ऐसे में 'मंजर' भोपाली का यह शेर मौजूं है। क्या हत्यारा समाज इस बारे में कुछ सोच पाएगा?
बेटियों के लिए भी हाथ उठाओ 'मंजर'
सिर्फ अल्लाह से बेटा नहीं मांगा करते।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/41586-2013-03-31-06-35-11


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