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Friday 10 February 2012

खेती तबाह, देहात में कंपनियों का कारोबार ठंडा!





खेती तबाह, देहात में कंपनियों का कारोबार ठंडा!

आत्महत्याओं के नक्शे में अब तेजी से समूचा भारत शामिस होता जा रहा है, जिससे इमर्जिंग मार्केट का वजूद ही खतरे में है।

सरकार ने कोल्ड चेन के लिए केंद्र स्थापित करने को मंजूरी दी

मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


खेती तबाह हो जाने से देहात में कंपनियों का कारोबार ठंडा पड़ गया है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में अगर किसान आत्महत्या करने लगे तो सोचा जा सकता है कि स्थिति कितनी भयावह हो चुकी है। उदारीकरण के बाद शहरों और कस्बों में बाजार का विस्तार जितना होना था, हो चुका है, अब दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों और द्वितीय हरित क्रांति का मूल लक्ष्य ग्रामीण क्षेत्रों में तेजी से बाजार का विस्तार करना है। इसीलिए​ ​ इनफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश तेजी से बढ़ा है। बाजार की रणनीति देहात को फोकस करके बनायी है तमाम कारपोरेट कंपनियों ने। भारत की जो इमर्जिंग मार्केट बतौर ताजा साख बनी है, वह भी देहात का अनछुआ बाजार है। पर खेती तबाह हो जाले से अब देहात में कंपनियों का कारोबार ठंडा पड गया है।

किसानों की आत्महत्याओं के नक्शे में अब तेजी से समूचा भारत शामिस होता जा रहा है, जिससे इमर्जिंग मार्केट का वजूद ही खतरे में है।पिछले दो-ढाई दशकों खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के नशे में कृषि क्षेत्र की जमकर उपेक्षा की गई है।राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक 1995 से लेकर पिछले साल यानी सोलह सालों में ढाई लाख से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की।यूं किसानों की आत्महत्या की घटनाएं पूरे देश में घटित होती रही हैं पर कुछ राज्यों में यह ज्यादा विकराल रूप में नजर आती हैं। महाराष्ट्र, कनार्टक, आंध्रप्रदेश और मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्या की दर सबसे अधिक है।

बंगाल में तो धान की खेती से हुए नुकसान के कारण दर्जनों किसान आत्महत्या  कर रहे हैं और जनमुखी छवि के प्रति बेहद संवेदनशील मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तक इस तथ्य से साफ इंकार  कर रही हैं। अब तक 31 किसानों ने आत्महत्या की है। सरकार जब यह मानने के लिए तैयार नहीं है तो इसकी जांच करानी चाहिए। जांच के बाद पता चलेगा कि किसानों की मौत का मुख्य वजह क्या है।

यदि आप छत्तीसगढ को तीन हिस्सों में बांट दें तो कहानी थोडी और स्पष्ट होती है । 2007 के आंकडों के अनुसार उत्तर के 6 आदिवासी जिलों में किसान आत्महत्या की सम्मिलित संख्या 312 है । दक्षिण के 5 जिलों में यह संख्या 240 है ।पर मध्य छत्तीसगढ के 7 जिलों के लिए यही आंकडा 1040 का है । लगभग 4 गुना ।
इन्हीं आंकडों का यदि इन जिलों में किसानों की कुल संख्या से भाग दें तो प्रति 1 लाख किसान पर महासमुंद में सबसे अधिक 83 किसान प्रतिवर्ष आत्महत्या करते
हैं । इसके बाद रायपुर 72 और धमतरी 71 का नम्बर है ।यदि पूरे मध्य क्षेत्र के किसानों की संख्या देखें तो यहां प्रति 1 लाख किसान आबादी में 51 किसान प्रति वर्ष आत्महत्या करते हैं । उत्तरी छत्तीसगढ के 6 जिलों के लिए यह संख्या 21 है तो दक्षिण के आदिवासी जिलों के लिए 19 ।

शिक्षा और चिकित्सा के खर्च बेतहाशा बढ़े हैं, इस  पर खेती तबाह हो जाने से देश के अन्न्दाता दाने दाने को मोहताज हो गये हैं। अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2010 में ही देशभर में 15,964 किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं दर्ज हुई।इनमें से 60 फीसद मामले इन्हीं चार राज्यों के हैं। दरअसल, जो खेती कभी मुनाफे का धंधा हुआ करती थी, वह अब घाटे का कारोबार हो गई है। इसकी प्रत्यक्ष वजह मौजूदा सरकारी नीतियों में निहित खामियां ही हैं।


विडम्बना है कि देश के लगभग 32 करोड़ लोगों को भूखे पेट जिंदगी बसर करनी पड़ती है। भुखमरी की यह तस्वीर कृषि संकट का ही एक चेहरा है।



पिछले बजट में कृषि विकास सात प्रतिशत रहने का जो सब्जबाग दिखाया गया था, कंपनियों ने उसके मद्देनजर देहात में अपना कारोबार बढ़ाने के लिए निवेश किया थी, पर वास्तव में २०११-२०१२ वित्तीय वर्ष में कृषि विकास दर ढाई प्रतिशत से ज्यादा होने के आसार  नहीं है। बूमबूं देहात बाजार जनमने से पहले ही सिधारने को है। कृषि क्षेत्र गहरे संकट में फंसता जा रहा है। राष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि और इससे जुड़े क्षेत्रों का योगदान दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा है।एक समय कृषि क्षेत्र में जीडीपी का योगदान 50 फीसद से अधिक होता था परन्तु आजादी के छह दशक बाद यह घटकर मात्र 14.6 प्रतिशत रह गया है।साफ है कि देश की कुल जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्स्दारी में लगातार गिरावट आ रही है।

इस बीच सरकार ने कोल्ड चेन के लिए केंद्र स्थापित करने को मंजूरी दी, इस केंद्र के लिए कोष के रूप में 25 करोड़ रुपए आवंटित किया गया है।

भंडारण सुविधाओं के अभाव में उपज के बाद 50,000 करोड़ रुपए मूल्य के फसल की बर्बादी के मद्देनजर यह निर्णय किया गया है।

सरकारी बयान के अनुसार, 'केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नैशनल सेंटर फॉर कोल्ड चेन डिवेलपमेंट (एनसीसीडी) को सोसाइटी के रूप में सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन ऐक्ट, 1860 के नियमों के तहत गठित करने की मंजूरी दी है।'

बयान के अनुसार एनसीसीडी के कोष के लिए एक मुश्त अनुदान के रूप में 25 करोड़ रुपए देने की मंजूरी दी है।


सरकार जहां महंगाई और मुद्रास्फीति पर लगाम कसने पर पूरा जोर लगाकर शहरी कमाऊ उपभोक्ताओं को खुश रखने की चुनावी कवायद में मशगुल है, वहीं खेती की बढ़ती लागत, ग्रामीण मजदूरी में बढ़ोतरी के अनुपात में कृषि उत्पादों  के बाजार में उत्पादकों के हितों की पूरी तरह अनदेखी की जाती रही है। कपास, जूट और  गन्ना की कहानी अब पुरानी हो गयी है। हल्दी,आलू, प्याज की खेती से भी नुकसान की भरपाई न होने से किसान खुदकशी के लिए अमादा है।

जब देहात में खाने को अनाज और पहनने को कपड़ा न हो तो शापिंग माल के नेटवर्क की क्या बिसात?भारतीय किसान खेती को घाटे का सौदा मानते हैं और रोजगार का दूसरा विकल्प न होने के कारण मजबूरी में खेती के रोजगार से जुड़े हैं। देश के 40 प्रतिशत किसान कहते हैं कि उन्हें आजीविका का कोई विकल्प मिल जाए, तो वे खेती को एक पल गंवाए बिना तिलांजलि दे देंगे।


कंपनियों की देहात में बाजार  बढ़ाने का सपना टूटने लगा है। किसानों की घटती क्रयशक्ति की वजह से देहात  के बाजार में उसका प्रवेश असंभव हो गया है। कर्ज के बोझ तले दबे देहात में कंपनियों का निवेश इसीलिए ठंडा बस्ते में है और सरकारों को इसकी कोई परवाह नहीं है।ग्रामीण बाजारों में कारोबार की अपार संभावनाओं को देखते हुए विश्लेषकों को लगता है कि इस तरह के उत्पाद काफी बेहतर कारोबार कर सकते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की क्रय क्षमता में लागतार इजाफा हो रहा है और यहां के बाजारों में 3-4 फीसदी की दर से विकास हो रहा है और हरेक साल 10 लाख नए ग्राहक जुड़ते जा रहे हैं। एफएमसीजी कंपनियों के उत्पादों की खपत में ग्रामीण बाजारों की हिस्सेदारी लगभग आधी है। इतना ही नहीं ग्रामीण क्षेत्र के लोग दिनोंदिन समृद्ध होते जा रहे हैं। नैशनल काउंसिल फॉर अप्लाइड इकॉनमिक रिसर्च (एनसीएईआर) के अध्ययन के अनुसार शहरी क्षेत्रों की तरह ही ग्रामीण क्षेत्रों में भी मध्यम आय और इससे ऊपर की आय वाले परिवारों की मौजूदगी है।

भारतीय कंपनियों की ग्रामीण क्षेत्रों में कारोबार करने की रणनीति में साफ तौर पर बदलाव नजर आ रहा है। इससे पहले तक ये कंपनियां अपने फ्लैगशिप ब्रांड के छोटे पैकेटों को कम कीमतों पर ग्रामीण बाजारों में उतारने की रणनीति पर काम क र रही थीं। अब नेस्ले और ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन कंज्यूमर हेल्थेकयर (जीएसके) ग्रामीण क्षेत्रों में अपने उत्पाद लॉन्च करने के लिए दूसरे तरीकों का इस्तेमाल कर रही हैं।

मिसाल के तौर पर जीएसके ने आशा (लो कॉस्ट वैरिएंट) नाम से एक नया उत्पाद उतारा है, जिसकी बिक्री सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों में ही की जाएगी। यह उत्पाद हॉर्लिक्स से 40 फीसदी सस्ता है। नेस्ले भी इस दौर में पीछे नहीं रहना चाहती है। कंपनी ने हाल में ही मैगी मसाला-ए- मैजिक और मैगी रसीले चॉव नाम से दो उत्पाद उतारे हैं, जिनकी कीमत 2 और 4 रुपये है। इन उत्पादों की बिक्री ऐसे क्षेत्रों में की जाएगी, जहां के लोगों की क्रय क्षमता कम है। मैगी रसीले चॉव को खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों के लिए तैयार किया गया है। मसाला-ए-मैजिक में ऑयरन, आयोडिन और विटामिन ए का मिश्रण है।

कोक वर्ष 2007 में  'यूटेक्टिकÓ नाम से कूलर लेकर आई थी, जिसमें रोज 8 से 10 घंटे बिजली की खपत होती थी। 4 साल बाद लगभग 17,000 कूलर वापस लेने पड़े थे, क्योंकि उनकी लागत काफी ज्यादा थी।
कोक को इस समस्या के बारे में मालूम है। कोका कोला इंडिया के वीपी (तकनीक) असीम पारेख कहते हैं कि इस तरह के उत्पादों को बढ़ावा देने में सिर्फ लागत ही चुनौती है।

एफएमसीजी कंपनियां इसकी उपयोगिता को लेकर बंटी हुई हैं। जूस श्रेणी में कारोबार करने वाली डॉबर इंडिया कांच की बोतलों के रूप में समाधान खोज लिया है। सॉफ्ट ड्रिंक्स में कांच की बोतलें का प्रचलित हैं। वहीं जूस की घरेलू खपत ज्यादा है जो मुख्य रूप से 1 लीटर के पैक में होती है। जहां कांच की बोतलों को इस तरह के कूलरों में ठंडा किया जा सकता है, वहीं जूस के टेट्रा पैक इसमें बेकार हो जाएंगे। डॉबर की 85 फीसदी बिक्री 1 लीटर पैक से होती है और बाकी बिक्री 200 मिली पैक में होती है।

मजे की बात है कि कृषि के नाम पर बेतहाशा सरकारी खर्च का प्रावधान है। तमाम विभाग और प्रतिष्ठान हैं।कृषि मंत्रालय कृषि, उद्यान कृषि, मत्‍स्‍य उद्योग, पशु पालन इत्‍यादि से जुड़े क्रियाकलापों के विनियमन तथा विकास के लिए भारत का मुख्‍य प्राधिकरण है। यह ''कृषि और सहकारिता विभाग'' तथा ''पशुपालन, डेयरी उद्योग तथा मत्स्यिकी विभाग'' जैसे अपने प्रभागों के माध्‍यम से इस क्षेत्र के लिए विभिन्‍न योजनाओं तथा नीतियों को क्रियान्वित कर रहा है। इसके अतिरिक्‍त, खाद्य प्रसंस्‍करण उद्योग मत्स्‍य प्रसंस्‍करण तथा फल एवं वनस्‍पति प्रसंस्‍करणके खंडों में उद्यमकारिता क्रियाकलापों के संवर्धन में सक्रिय रूप से रत है। इसके अतिरिक्‍त, वस्‍तु बोर्ड जैसे टी बोर्ड, कॉफी बोर्ड, रबर बोर्ड, चिकित्‍सीय पौधे बोर्ड इत्‍यादि की स्‍थापना क्रमश: चाय, कॉफी, रबर, चिकित्‍सीय पौधों जैसे क्षेत्रों की संवृद्धि को बढ़ावा देने के लिए की गई है।

इन  सबके बावजूद खेती क्यों तबाह हो रही है?ृषि क्षेत्र के चौरतफा संकट की कीमत किसानों के साथ-साथ आम उपभोक्ता चुका रहे हैं. ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आने वाले समय में भारत खाद्य संकट और भुखमरी की समस्या से कैसे निपटेगा।

अक्टूबर से दिसंबर तक डीएपी, पोटाश व मिक्स्चर व दिसंबर से फरवरी तक यूरिया के लिए किसानों में हाहाकार मचता है। उर्वरक का कालाबाजार करने वालों का भी खेल सबसे अधिक इसी समय चलता है। वैसे ऑफ सीजन भी कालाबाजार के लिए सबसे मुफीद माना जाता है, क्योंकि इस समय इसको लेकर कोई हो हल्ला नहीं मचता। सारा खेल इतनी सफाई से खेला जाता है कि उपर से देखने से कुछ पता नहीं चलता।

देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता घटती जा रही है।

हकीकत यह है कि अगर देश में सभी लोग दो जून भरपेट भोजन करने लगें तो अनाज की भारी किल्लत पैदा हो जाएगी!



अब खाद्य सुरक्षा कानून की तैयारी है। इससे  किसानों को क्या हासिल होगा?


शरद पवार ने प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने के रास्ते में मौजूद मुश्किलों की एक ठोस तस्वीर पेश की है। उन्होंने कहा कि अब यह सुनिश्चित करने का वक्त आ गया है कि देश के हर नागरिक को दो वक्त पूरा भोजन मिले। लेकिन इसके लिए कृषि के ढांचे और अनाज वितरण की व्यवस्था में सिरे से बदलाव की जरूरत होगी। शरद पवार ने कहा है कि मौजूदा पीडीएस सिस्टम के तहत खाद्य सुरक्षा योजना लागू करने में कई दिक्कतें हैं। ऐसे में सवाल खड़ा हो गया है कि क्या पवार राजनीतिक कारणों से इस लोकलुभावन योजना में अड़ंगा डाल रहे हैं। दरअसल देश के करीब 65 फीसदी गरीबों को भोजन की गारंटी का अधिकार को मनरेगा के बाद कांग्रेस इस प्रस्तावित कानून को अपना ब्रह्मास्त्र मान रही है। सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के दिमाग से उपजी ये योजना अब बिल की शक्ल में संसदीय समिति के पास है। लेकिन कृषि मंत्री शरद पवार को ये पहल रास नहीं आ रही है। शरद पवार का कहना है कि मौजूदा पीडीएस की सीमाएं हैं, जैसे कि मंडियों की क्षमता, राज्य की एजेंसियों की वित्तीय स्थिति, कर्मचारी, भंडारण आदि। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार किए बिना इसे पूरे देश के में लागू करने में दिक्कतें आएंगी।

सबको भोजन मिले, इसके लिए अनाज की पैदावार में लगातार वृद्धि जरूरी है। उसके लिए सिंचाई, बिजली, खाद एवं बीज में भारी निवेश की जरूरत पड़ेगी। फिर अनाज के सुरक्षित भंडारण की व्यवस्था करनी होगी।


इसके बाद सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने की चुनौती है, जिसके जरिए लक्ष्य समूहों तक अनाज पहुंचाया जाएगा। पवार की इस बात से कौन असहमत होगा कि आज कृषि मंडियों, राज्य सरकारों की खाद्य संबंधी एजेंसियों, उनकी कर्मचारी क्षमता, पीडीएस निरीक्षण तंत्र की गुणवत्ता एवं भंडारण की व्यवस्थाएं नाकाफी हैं।




कृषि तथा सहबद्ध क्षेत्रों को भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था का मुख्‍य आधार माना जाता है। वे कच्‍ची सामग्री के महत्‍वपूर्ण स्रोत तथा कई औद्योगिक उत्‍पादों विशेषत: उर्वरकों, कीटनाशियों, कृषिक औजारों तथा अनेक प्रकार की उपभोक्‍ता वस्‍तुओं के लिए मांग में हैं। भारत के सकल घरेलू उत्‍पाद में उनका योगदान लगभग 22 प्रतिशत है। लगभग 65-70 प्रतिशत जनसंख्‍या अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है।

पिछले 20 वर्षों में बीज विविधता और बीज संप्रभुता के मामले में बड़ी तेजी से क्षरण देखा गया है। अब बीजों पर कुछ बड़ी कंपनियों का नियंत्रण बढ़ गया है। 1995 में जब संयुक्त राष्ट्र ने लाइपजिंग में प्लांट जेनेटिक रिसोर्स कांफ्रेंस का आयोजन किया था, तो बताया गया था कि कृषि जैव विविधता का 75 प्रतिशत हिस्सा 'आधुनिक' किस्मों के इस्तेमाल के कारण लुप्त हो गया। उसके बाद से यह क्षरण तेजी से बढ़ा है।

विश्व व्यापार संगठन के व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकार समझौते ने आनुवांशिक रूप से तैयार बीजों के प्रसार में तेजी लाई है, जिसका पेटेंट कराया जा सकता है और रॉयल्टी वसूली जा सकती है। नवदान्या की शुरुआत गैट के व्यवसाय संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकार समझौते के जवाब में की गई थी, जिसके बारे में बाद में मोनसेंटो के प्रतिनिधि ने कहा था कि इस समझौते का मसौदा तैयार करते वक्त इसके सर्वेसर्वा वह ही थे।

पेटेंट कराए गए आनुवांशिक रूप से तैयार बीज विविधता को खत्म और विस्थापित करने के अलावा बीज संप्रभुता को भी कम कर रहे हैं। पूरी दुनिया में नया बीज कानून लाया जा रहा है, जिसमें बीजों का पंजीयन कराना अनिवार्य है। इस प्रकार छोटे किसान अपनी विविध प्रकार की फसलें नहीं उगा सकेंगे और जबरन उन्हें बड़े बीज निगमों पर निर्भर रहना होगा। ये बड़े निगम किसानों द्वारा विकसित मौसम के अनुकूल बीजों का भी पेटेंट करा रहे हैं। इस प्रकार किसानों के बीज और ज्ञान का उपयोग कर वे उन्हें लूट रहे हैं।




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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/


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