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Saturday 11 February 2012

साहित्‍य में श्रेणी को नौकरियों में आरक्षण की तरह मत देखिए


 Forward Pressअसहमतिनज़रिया

साहित्‍य में श्रेणी को नौकरियों में आरक्षण की तरह मत देखिए

17 DECEMBER 2011 9 COMMENTS
♦ प्रेमकुमार मणि
मोहल्ला लाइव पर चार दिन पहले कंवल भारती का लेख मुख्यधारा बने साहित्य की बहुजन अवधारणा आया था। एक मित्र ने बताया कि वीरेंद्र यादव जी ने इस बारे में फेसबुक पर टिप्प्‍णी की है कि ओबीसी साहित्य जैसे विचार की ‘भ्रूण हत्या’ कर देनी चाहिए। पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ। अंतत: वीरेंद्र को मैं नये विचारों प्रति उत्सुकता रखने वाले सुलझे हुए विचारक के रूप देखता रहा हूं। लेकिन दरयाफ्त करने पर मित्र की बात ही सच निकली। भ्रूण हत्या। एक साहित्‍यकार यह कह रहा है। उसकी हत्या, जिसका कथित रूप से अभी जन्म भी नहीं हुआ है। जिसे उसने देखा भी नहीं है। आखिर इसमें ऐसा क्या खतरनाक है कि वह ‘कंस’ बनने को आतुर हो रहा है। वह जाति निरपेक्ष दिखने को आतुर है। सिर्फ इसलिए क्योंकि पैदा होने वाला बच्चा उसकी जाति, समुदाय का करार दिया जाएगा?
‘ओबीसी साहित्य’ जैसे नामकरण अथवा अवधारणा का मैं भी पक्षधर नहीं हूं। फारवर्ड प्रेस में यह विमर्श आरंभ करने के समय ही मैंने इसके लिए ‘बहुजन’ अथवा ‘अद्विज साहित्य’ नाम प्रस्तावित किया था। लेकिन अगर कोई मेरे मत से सहमत नहीं है, और किसी अन्य विचार का हिमायती है, तो मैं उसकी हत्या का प्रस्ताव नहीं कर सकता। यह पाप है।
बहरहाल, इसी कड़ी में पढ़िए फारवर्ड प्रेस के नवंबर अंक में प्रकाशित प्रेमकुमार मणि का लेख।
प्रमोद रंजन

पिछले दिनों फॉरवर्ड प्रेस के पन्नों पर ओबीसी साहित्य की चर्चा हुई, तब इस पर सोचने के लिए विवश हुआ। स्मरण आता है 1970 के दशक में मराठी साहित्य में दलित विमर्श को लेकर इसी तरह चर्चा हुई थी। तब मैं युवा था। मैंने उस समय इस विषय यानी दलित साहित्य पर एक लेख भी लिखा था, जो अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ। 1975 में पटना में दलित साहित्य पर एक संगोष्ठी भी करवायी थी, जिसमें मराठी दलित साहित्य के अनेक नामचीन लेखक शामिल हुए थे।
हिंदी में दलित साहित्य की चर्चा 1980 के बाद तीव्र हुई। 1990 में मंडल आंदोलन के बाद राजनीति में जब जाति विमर्श शुरू हुआ, तो तब साहित्य में यह विमर्श तीव्रतर हुआ।
मराठी समाज में वैचारिक आंदोलन की एक सुदीर्घ परंपरा है। आधुनिक जमाने में एक तरफ तिलक-सावरकरवादी रहे, तो दूसरी ओर फुले-आंबेडकरवादी। दलित साहित्य की प्रस्तावना फुले-आंबेडकरवादी पक्ष ने रखी और स्पष्ट किया कि अब तक का साहित्य वर्णवादी विमर्श को स्वीकार कर लिखा गया है, हम इसे नकारते हैं। साहित्य में हम अधिक स्वतंत्रता-स्वच्छंदता और मानवीयता को रेखांकित करते हैं।
दलित साहित्य की प्रस्तावना का जो समय था, वह भारतीय साहित्य में प्रगतिशील और आधुनिकता के विमर्श का उत्कर्ष काल था। प्रगतिशील पक्ष मार्क्‍सवादियों के प्रभाव में था, तो आधुनिकतावादी उत्तर मार्क्‍सवादी विमर्श की बात करते थे। लेकिन चिंतनीय है कि इन दोनों पक्षों ने दलित लेखकों को प्रभावित नहीं किया।
कारण क्या थे? मार्क्‍सवादी और उत्तर मार्क्‍सवादी लेखक स्वयं को गांधी-सावरकरवाद की पृष्ठभूमि से अलग नहीं कर पा रहे थे। नतीजा था कि प्रगतिशील और आधुनिकतावादी दोनों पक्ष राष्ट्रीयता में अपनी जड़ें तलाशने लगे। सुविधा के लिए मैं हिंदी साहित्य का उदाहरण लेना चाहूंगा। यहां रामविलास शर्मा अपनी राष्ट्रीयता की तलाश में 1857 और नवजागरण संधान में लग जाते हैं, दूसरी ओर अज्ञेय और निर्मल वर्मा क्रमश: जय जानकी जीवन यात्रा और कुंभ मेले में स्वयं को तलाशने लगते हैं। वास्विकता यह है कि इन दोनों पक्षों में मौलिक एकता है, और उनकी पृष्ठभूमि एक है।
स्वाभाविक तो यह था कि मार्क्‍सवादियों और फुले-आंबेडकरवादियों की एकता होती। लेकिन मार्क्‍सवादी … और उससे अधिक उत्तर मार्क्‍सवादी … गांधी-सावरकरवाद की ओर झुकते दिखे। हिंदी में तिलक-सावरकरवाद का अच्छा-खासा प्रभाव दिखता है। रामचंद्र शुक्ल तो तिलक के साहित्यावतार ही हैं। रामविलास शर्मा ने सावरकरवाद को मार्क्‍सवादी जामा दिया है।
लेकिन फुले-आंबेडकरवादी तो पूरी ईमानदारी से मार्क्‍सवाद से संगति स्थगित करते रहे। मार्क्‍सवाद के स्थापित सिद्धांतकारों ने फुले-आंबेडकरवादियों की लगातार उपेक्षा की। नतीजा था, दोनों दो दिशाओं में चले गये। यह दुर्भाग्यपूर्ण था।
मार्क्‍स और आंबेडकर लगभग तमाम चीजों पर एकमत दिखते हैं, सिवाय एक जगह के। यह मौलिक मतभेद है, लेकिन एकता के तत्व अधिक हैं। मार्क्‍स मानते हैं कि मौलिक अथवा आर्थिक कारण मनुष्य की नियति के लिए जिम्मेदार हैं। यदि मनुष्य आर्थिक दारिद्र्य समाप्त कर लेता है, तब बाकी चीजें स्वयमेव हासिल कर लेता है। मार्क्‍स के यहां शोषण का मतलब आर्थिक शोषण है और मुक्ति का मतलब आर्थिक रूप से मुक्त मानव, फिर किसी अन्य तरह से शोषित नहीं रह सकता। आंबेडकर ने माना कि ऐसा नहीं है। मुख्य चीज है अस्मिता। मनुष्य जब अस्मिता (इज्‍जत) हासिल कर लेता है तब बाकी सारी चीकों (आर्थिक स्वतंत्रता भी) हासिल कर लेता है। मार्क्‍स और आंबेडकर में इतना ही फर्क है। इतिहास की व्याख्या में भी इसी पुट का इस्तेमाल करना होगा। मार्क्‍स का कहना था कि उन्होंने सिर के बल खड़े हीगेलवाद को पैर के बल खड़ा किया। आंबेडकर कह सकते थे कि उन्होंने पेट के बल खड़े मार्क्‍सवाद को वास्तविक रूप से खड़ा किया। दरअसल राष्ट्रवाद और अस्मिता में भी एक अंतरसंबंध है। राष्ट्रवाद और कुछ नहीं, एक बड़ा अस्मिताबोध ही है। अंग्रेजी राज के विरुद्ध जब भारत का मध्यवर्ग संघर्ष कर रहा था, तब एक सामूहिक अस्मिता के लिए ही संघर्ष कर रहा था। आंबेडकर का संघर्ष व्यापक अस्मिता के लिए था। अपने लेखन द्वारा उन्होंने जो विमर्श प्रस्तुत किया, उससे पता चलता है कि मनुष्य की राजनीतिक मुक्ति की जगह वह समग्र अथवा सम्यक मुक्ति का विचार रखते थे। आखिरी समय में एक धार्मिक आंदोलन से उनका जुड़ना, उनकी इसी मानसिकता को दर्शाता है।
लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि फुले-आंबेडकरवाद प्रणीत दलित आंदोलन हिंदी में आकर अनुसूचित जाति का आंदोलन बन गया और जिस साहित्य को दलित साहित्य के नाम से चिन्हित किया गया, वह अनुसूचित जाति का साहित्य हो गया। जिम्‍मेदारी किसकी है, और कमियां कहां रहीं, यह शोध का विषय है, लेकिन सच्चाई है कि दलित साहित्य जिस संकीर्णतावाद के विरुद्ध उठा था, उससे कहीं ज्‍यादा संकीर्णतावाद से घिर गया। साहित्य में जाति विमर्श और सामाजिक विमर्श उठाना एक बात है और एक नया जातिवाद स्थापित करना अलग बात। इसे इस रूप में लाने में हिंदी के द्विज आलोचकों की बड़ी भूमिका रही। मिल-मिलाकर सबने दलित साहित्य को एक प्रकोष्ठ के रूप में स्थापित कर दिया, जैसे भारतीय गांवों में जातिवार टोले होते हैं और सबसे दक्षिण में दलित जातियों के टोले होते हैं, उसी तरह दलित साहित्य हिंदी साहित्य की अनुक्रमणिका बन कर रह गया।
लेकिन यह ओबीसी साहित्य क्या करेगा? क्या विचार की जगह जाति को आधार बनाकर खड़ा होने की बात करने वाला यह आंदोलन एक और संकीर्णतावादी विमर्श के रूप में खड़ा होना चाहता है? उत्तर भारत के द्विज प्रभुत्व वाले राजनीतिक दलों में दलित और पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ हुआ करते हैं। अब तो अति पिछड़ा प्रकोष्ठ भी हो गये हैं। क्या ओबीसी साहित्य ऐसा ही एक नया प्रकोष्ठ बनेगा?
ओबीसी साहित्य की कोई अलग विचारधारा है, तो उसे स्पष्ट करना चाहिए अन्यथा जाति को लेकर एक नया पंथ खड़ा करना बहुत होशियारी की बात नहीं है। दलित साहित्य के साथ एक विचारधारा थी। फुले अंबेडकरवाद की विचारधारा। बड़े उद्देश्य थे। व्यापकता थी। 1975 में पटना में मैंने दलित साहित्य पर संगोष्ठी आयोजित की थी, तब उसमें बाबूराव बागूल, दया पवार, अर्जुन डांगले, सतीश कालसेकर के साथ प्र श्री नेरूरकर भी थे। श्री नेरूरकर ब्राह्मण थे, लेकिन दलित साहित्य के सम्मानित लेखक थे। यदि हम संस्कृत साहित्य का संधान करेंगे, तो पाएंगे कुरुब (एक पिछड़ी जाति) से आये हुए कालिदास वर्ण व्यवस्था के पक्षधर लेखक हैं, जबकि ब्राह्मण परिवार से आये अश्वघोष बुद्धचरितम् व वज्रसूची लिखकर इसका विरोध कर रहे हैं। आधुनिक हिंदी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन, प्रेमचंद, रांगेय राघव, मुक्तिबोध जैसों की एक लंबी परंपरा है, जिन्होंने वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठायी है। लेकिन जयशंकर प्रसाद और मैथिलीशरण गुप्त अद्विज तबके से आकर क्या कर रहे थे, सबको पता है। शूद्र चंद्रगुप्त को जयशंकर प्रसाद की किस मानसिकता ने क्षत्रिय बना दिया, हम सहज रूप से समझ सकते हैं।
सवाल जाति का नहीं, विचारधारा का है। इसे नौकरियों में आरक्षण की तरह मत देखिए। साहित्य पर विचार करने के पूर्व स्वयं को उसके अनुकूल बनाइए। हां, यह स्वीकार करने में मुझे कोई परेशानी नहीं है कि आज जो ओबीसी साहित्य की बात उठ रही है, उसके पीछे दलित साहित्य की संकीर्णतावादी सोच है। इसे मिल-बैठकर, विमर्श कर दूर करना ही श्रेयस्कर है।
(प्रेमकुमार मणि। हिंदी के प्रतिनिधि कथाकार, चिंतक व राजनीति कर्मी। जदयू के संस्‍थापक सदस्‍यों में रहे। इन दिनों बिहार परिवर्तन मोर्चा के बैनर तले मार्क्‍सवादियों, आंबेडकरवादियों और समाजवादियों को एक राजनीति मंच पर लाने में जुटे हैं। उनसे manipk25@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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