मुताबिक जाति,जाति स्थाई बंदोबस्त को बहाल रखने के लिए पहली कक्षा से गीता
जैसे राजनीति से धर्म को नत्थी करना गलत है,ठीक उसीतरह शिक्षा को धर्म या राजनीति से नत्थी करना गलत है क्योंकि इसतरह दरअसल हम अपनी भावी पीढ़ियों को एकमुश्त सामंती उत्पादन प्रणाली के अंधकार जमाने की तरह समाजवास्तव,इतिहासबोध और वैज्ञानिक दृष्टि के साथ उनके नैसर्गिक सौंदर्यबोध से वंचित कर रहे होते हैं जो मुक्तबाजारी अर्थ व्यवस्था के अनुकूल है जहां इतिहास की मृत्यु की घोषणा पहले ही कर दी जा चुकी है।
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
आदरणीय रघुवीर सहाय की इस कविता पर आने से पहले बात बाबासाहेब अंबेडकर के इस से मंतव्य शुरु करें तो समरसता के सिद्धांत की असलियत मालूम हो जायेगी।
बात इस बात से भी खुल सकती है कि संघ परिवार भारतीय संविधान के बजाय मनुस्मृति के अनुसार हिंदू राष्ट्र का निर्माण करने का कार्यक्रम चला रहा है और अब सरकार किसी राजनीतिक दल की नहीं,बल्कि हिंदुत्व की सबसे बड़ी संस्था के नियंत्रण में है।
गीता पर यह विमर्श जाहिर है कि संघ परिवार की ओर से ही शुरु किया गया है और संजोग से इस विमर्श का शुभारंभ सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश ए आर दवे ने किया है।इसे हिंदुत्व का न्यायिक आवाहन भी कह सकते हैं।
जस्टिस दवे ने यह उच्चविचार धर्मराज्य या हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए व्यक्त नहीं किया है। उन्होंने तानाशाही का औचित्य भी साबित किया है जो धर्म का मामला है ही नहीं।यह लोकतंत्र की अवधारणा खत्म करने के मकसद से है यानी संघ परिवार की भारतीय संवैधानिक व्यवस्था बदलने के अंतिम लक्ष्य से इसका सबंध है।
यह वक्तव्य तब आयाजब हिंदू राष्ट्र रहे नेपाल में हिंदुत्व की बहाली का अमेरिकी हित दांव पर है और भारी आपदा के मध्य भारत के संघ परिवार का प्रतिनिधि भारत के प्रधानमंत्री नेपाल की यात्रा पर हैं तो काठमांडो में आपदा से मरने वाले के लिएमातम का कोई माहौल के बजाय जश्न है।
हिंदुत्वके इस आवाहन से नेपाल के राजतंत्र समर्थकों के हिंदू राष्ट्र और संघ परिवार के अभीष्ट हिंदू राष्ट्र को एकाकार कर दिया है।
इसी सिलसिले में गौर करने वाली बात है कि यह मसला तब उठाया गया जब संसद का बजट सत्र जारी है और भारत सरकार कारपोरेट लाबिइंग के तहत संविधान और संसद को हाशिये पर रखकर आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण को जल्द से जल्द लागू करने के लिए एक के बाद एकजनसंहारी नीतियां ही नहीं बना रही है बल्कि संविधान के दायरे से बाहर मौजूदा संवैधानिक प्रावधानों के प्रतिकूल सारे कायदा कानून बदल रही है और संसदीय राजनीति खामोश है।
बजट के बजाय सीसैट की धूम रही।मीडिया में घोटालों,कालाधन,भ्रष्टाचार और विवादों से जुड़े गैरजरूरी मुद्दों की सुनामी है।आर्थिक मुद्दों पर इस देस में विमर्श जैसे प्रतिबंधित हो गया है और आर्थिक मुद्दों पर बोलते रहने वाले अर्थ विशेषज्ञ वामपंथी भी चुनावी राजनीति में चारों खाने चित्त हो जाने की वजह से सांप सूंघ गे हुए लग रहे हैं।
राज्यसभा में केसरिया कारपोरेट सरकार को बहुमत नही है और बीमा बिल दांव पर है।सब्सिडी में कटौती न होने से बाजार नाराज है और प्रत्यक्ष विनिवेश मल्टीब्रांड रिटेल में हुआ नहीं है।
बहुत जल्द ओबामा मोदी शिखर वार्ता व्हाइट हाउस में आसण्ण है और फिर एकबार इस्लाम के खिलाफ इजराइल और पश्चिम का धर्मयुद्ध मनुष्यता का अंत करने में लगी है।अमेरिकी विदेश मंत्री कारपोरेट कंपनी की तरह सब्सिडी और भारतीय संसद के कानून बनाने के मामलों में खुल्ला हस्तक्षेप कर रहे हैं।
इस परिप्रेक्ष्य में तानाशाह हिंदुत्व के इस आवाहन को गीता और महाभारत के प्रसंग से जोड़कर बहुसंख्यक जनता के धर्म कर्म और आस्था का अमेरिकी हित में दुरुपयोग करने की चाल है यह।
यह धर्मनिरपेक्षता का मामला नहीं है।तार्किक दृष्टि से देखें तो किसी और धर्म के पवित्रग्रंथ को सरकार अनुमोदित शिक्षा प्रतिष्टानों में पाठ्यक्रम में लगाया गया है तो हिंदू जिसे पवित्र धर्म ग्रंथ मानते हैं, उसे पहली कक्षा में लगाने की मांग का औचित्य भी बनता है।
धर्म निरपेक्ष विमर्श की दलील हो सकती है कि हिंदुओं के धर्म ग्रंथ का पाठ स्कूलों में अनिवार्य हो तो भारत में बाकी प्रचलित धर्मों का पाठ भी शिसुओं के पहले से भारी बस्ते के लिए अनिवार्य कर दिया जाये।
अगर ऐसा हुआ तो सोने पर सुहागा,सर्व धर्म समभाव जो दरअसल धर्मनिरपेक्षता की बुनियादी सिद्धांत है,के तहत शिक्षा और धर्म को एकाकाकर करने का आधार है यह।जो सिरे से गलत है।
जैसे राजनीति से धर्म को नत्थी करना गलत है,ठीक उसीतरह शिक्षा को धर्म या राजनीति से नत्थी करना गलत है क्योंकि इसतरह दरअसल हम अपनी भावी पीढ़ियों को एकमुश्त सामंती उत्पादन प्रणाली के अंधकार जमाने की तरह समाजवास्तव,इतिहासबोध और वैज्ञानिक दृष्टि के साथ उनके नैसर्गिक सौंदर्यबोध से वंचित कर रहे होते हैं जो मुक्तबाजारी अर्थ व्यवस्था के अनुकूल है जहां इतिहास की मृत्यु की घोषणा पहले ही कर दी जा चुकी है।
तानाशाही तो सीधे सीधे समंतवाद की वकालत है और बेहद शर्म की बाद है कि सुप्रीम कोर्टके किसी जस्टिस के मुकारविंद से निकले ये शब्द हैं न कि किसी संघ मठाधीस के या फिर किसी उग्र केसरिया राजनेता के मुख के अमूल्यसुवचन हैं ये उद्गार।
मुक्त बाजार में धर्म कर्म खूब हों,सारे धर्म के पवित्र ग्रंथ पाय़ठ्यक्रम में हों,समाजवास्तव,वैत्ज्ञानिक दृष्टि,इतिहासबोध और नैसर्गिक सौंदर्यबोध से वंचित नई पीढिया विशुद्ध सांढ़ संस्कृति के धारक वाहक हो और लोकतंत्र का खात्मा हो जाये,क्या हम ऐसा विक्लप चुन सकते हैं,बुनियादी सवाल यही है।
अब अंबेडकरके मुताबिक सुप्रीम भागवत गीता धर्म की एक किताब है और न ही दर्शन पर एक ग्रंथ जाता है. क्या गीता करता है पर धर्म की कुछ dogmas की रक्षा करना है ।
यह वक्तव्य इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वे मूक वधिर भारतीयबहिस्कृत वंचित शोषित जनगण के प्रवक्ता ही नहीं,स्वतंत्र लोक गणतंत्र भारत के संविधान का मसविदा तैयार करने वाले भी है।
डग्मा का शाब्दिक अनुवाद न करके इसे वर्णवर्चस्वी नस्ली भारतीय समाज समझें तो उनका कहे का मतलब खुलकर सामने आता है।
हिंदुत्व सिर्फ अति अल्पसंख्यक सवर्णों की आस्था नही है,यह ध्यान देने की बात है।इतिहास,पुरातत्व और समाजवास्तव के नजरिये से देखें तो मूल परिचिति चाहे जो हो असवर्ण अछूत भारतीय भी हिंदू कर्मकांड और आस्था का अनुकरण करते हैं।
जो अंबेडकरी या मंडली बहुजन,दलित,पिछड़ा आंदोलनों से जुड़ा भारतीय ग्राम कृषि समाज है,उसका हिंदुत्वकरण पर ही भारत में सत्ता की राजनीति चलती है।
सत्तापार्टी का रंग बदलने से नरम गरम फेरबदल हुआ जरुर है लेकिन हिंदुत्वकरण अभियान की धार खत्म हुई नहीं है।
मसलन बड़े पैमाने पर अहिंदू आदिवासियों और बौद्ध जैन से लेकर सिख,ईसाई औम इस्लाम धर्म के अनुयायियों के हिंदुत्वकरण में सत्तावर्ग को कामयाबी मिल गयी है और नमो सुनामी इसकी तार्किक परिणति है।
अंबेडकर का गीता पर वक्तव्य दरअसल बहुजन भारतीयों के हिदुत्वकरण का प्रतिरोध है।
भारत में हिंदुओं के लिए भागवत गीता पवित्रतम धर्म ग्रंथ ही नहीं,बल्कि भारतीय दर्शन का मूलाधार है।धर्म कर्म के सिद्धांत हिंदुत्व के नजरिये से गीता केंद्रित हैं।
बाबासाहेब ने हिंदुत्व के मिथक आधारित धर्मग्रंथों का श्लोक दर श्लोक विश्लेषण करते हुए रिडल्स इन हिंदुत्व में इन मिथकों के औचित्व पर तार्किक सवाल खड़े करके इस पवित्रतम दर्शन का खंडन किया है जो दरअसल मौलिक है,ऐसा भी कहना इतिहास की दृष्टि से गलत होगा।
वेद वेदांत पर आधारित भारतीय दर्शन का खंडन करने वाली गौरवशाली चार्वाक दर्शन परंपरा भी इस देश में है जो साम्यवाद और हेगेल के द्वैतवाद के सिद्धांत प्रतिपादित होने से हजारों साल पहले भौतिकवादी दर्शन की स्थापना कर चुकी थी।
धर्म कर्म की भौतिकवादी व्याख्या की भारतीय चार्वाक परंपरा के तहत हिंदुत्व और उसके पवित्र ग्रंथों,मिथकों का खंडन किया है बाबासाहेब ने।
खास बात है कि चार्वाक दर्शन वैदिकी साहित्य के संदर्भ में हैं और भारतीय संस्कृत काव्यधारा और विशेषतौर पर दोनों पवित्र महाकाव्य रामायण और महाभारत इतिहासबोध और वैज्ञानिक दृष्टि के मुताबिक वैदिकी साहित्य नहीं हैं और इसीसे बाबासाहेब की स्थापना कि न ये ग्रंथ धर्म ग्रंथ हैं और न दर्शन समाजवास्तव की अभिव्यक्ति और इतिहासबोध का समन्वय के साथ वैज्ञानिक दृष्टि भी है।
अब रघुवीर सहाय की कविता की पंक्तियों को ध्यान से देखें,गीता औरसीता को उन्होंने जोड़ा है।वे बड़े कवि ही नहीं,हिंदी पकत्रकारिता को आधुनिक समाजप्रतिबद्ध दृष्टि देने वाले पत्रकार भी है। महाभारत की पृष्ठभूमि में रची गयी गीता को सीता से जोड़ने का उनका आयोजन सिर्फ बिंब संयोजन नहीं है।
उनकी इसी कविता की पंक्तियों को देखें तो समझ में आयेगा कि वे पुरुषतांत्रिक धर्म के खिलाफ बोल रहे हैं।
इसमें ध्यान देने योग्यबात यह है कि सिर्फ भारतीय संस्कृत काव्यधारा में ही नहीं,बल्कि ग्रीक महाकाव्यों इलियड और औडिशा में भी स्त्री भोग्या के अलावा कुछ भी नहीं है।
महाभारत में ऐसा डंके की चोट पर प्रतिपादित किया गया है द्रोपदी के मिथक से।संजोग से उत्तरआधुनिक मुक्तबाजार व्यवस्था में भी स्त्री का समामाजिक अवस्थान वहीं महाकाव्यिक है।
सीता पुरुषवर्चस्व और पुरुषतांत्रिक उत्पीड़न की सबेस बड़ी प्रतीक हैं तो ग्रीक साहित्य में तो हैलेन की इच्छा अनिच्छा का कोई महत्व ही नहीं।
गीता के सारे प्रावधान महाभारत कथा की तरह स्त्री विरोधी है और इसीलिए गीता के साथ सीता की यह उपस्थिति है।
कृपया जस्टिस दवे को अंबेडकर के लिखे के संदर्भ में भी जांचे तो शायद इस विमर्श का सही तात्पर्य खुले।कृपया देखेंः
Riddle In Hinduism
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Contents
PART I - RELIGIOUS
Riddle No. 1 : The difficulty of knowing why one is a Hindu
Riddle No. 2 : The Origin Of The Vedas—The Brahminic Explanation or An Exercise In The Art Of Circumlocution
Riddle No. 3 : The Testimony Of Other Shastras On The Origin Of The Vedas
Riddle no. 4 : Why suddenly the brahmins declare the vedas to be infallible and not to be questioned?
Riddle no. 5 : Why did the brahmins go further and declare that the vedas are neither made by man nor by god?
Riddle no. 6 : The contents of the vedas: have they any moral or spiritual value?
Riddle no. 7 : The turn of the tide or how did the brahmins deceare the vedas to be lower than the lowest of their shastras?
Riddle no. 8 : How the upanishads declared war on the vedas?
Riddle no. 9 : How the upanishads came to be made subordinate to the vedas?
Riddle no. 10 : Why did the brahmins make the hindu gods fight against one another?
Riddle no. 11 : Why did the brahmins make the hindu gods suffer to rise and fall?
Riddle no. 12 : Why did the brahmins dethrone the gods and enthrone the goddesses?
Riddle no. 13 : The riddle of the ahimsa
Riddle no. 14 : From ahimsa back to himsa
Riddle no. 15 : How did the brahmins wed an ahimsak god to a bloodthirsty Goddess?
APPENDIX
PART II - SOCIAL
PART III - POLITICAL
http://www.ambedkar.org/riddleinhinduism/21A1.Riddles%20in%20Hinduism%20PART%20I.htm#r15
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश ए आर दवे ने आज एक सेमिनार में कहा कि अगर वो तानाशाह होते तो बच्चों को पहली क्लास से महाभारत और भगवद गीता पढ़वाते। दवे ने कहा कि महाभारत और भगवद गीता से हम जीवन जीने का तरीका सीखते हैं। भारत को अपनी प्राचीन परंपरा और ग्रंथों की ओर लौटना चाहिए।
जस्टिस दवे ने कहा कि अगर वे भारत के तानाशाह होते तो बच्चों को पहली कक्षा से ही इन्हें लागू करते। महाभारत और भगवद्गीता जैसे मूल ग्रंथों से बच्चों को कम उम्र में अवगत कराना चाहिए। जस्टिस दवे 'समकालीन मुद्दों एवं वैश्वीकरण के युग में मानवाधिकारों की चुनौतियां' विषय पर आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय विचार गोष्ठी को संबोधित कर रहे थे।
जस्टिस दवे ने कहा कि गुरु-शिष्य परंपरा जैसी हमारी प्राचीन प्रथा खत्म हो चुकी है। अगर ये परंपरा रहती तो देश में हिंसा और आतंकवाद जैसी समस्याएं नहीं रहतीं। लेकिन अब हम कई देशों में आतंकवाद देख रहे हैं। इस कार्यक्रम का आयोजन गुजरात ला सोसाइटी की ओर से किया गया था।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एआर दवे ने शनिवार को कहा कि महाभारत और भगवद गीता से हम जीवन जीने का तरीका सीखते हैं। यदि वे भारत के तानाशाह होते तो बच्चों को पहली कक्षा से ही इन्हें लागू करते। उन्होंने कहा कि भारतीयों को अपनी प्राचीन परंपरा और पुस्तकों की ओर लौटना चाहिए। महाभारत और भगवद्गीता जैसे मूल ग्रंथों से बच्चों को कम उम्र में अवगत कराना चाहिए।
न्यायमूर्ति दवे 'समकालीन मुद्दों एवं वैश्वीकरण के युग में मानवाधिकारों की चुनौतियां' विषय पर आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय विचार गोष्ठी को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा, 'गुरु-शिष्य परंपरा जैसी हमारी प्राचीन प्रथा खत्म हो चुकी है। यदि वह रहती तो देश में इस तरह की समस्याएं [हिंसा और आतंकवाद] नहीं रहतीं। अब हम कई देशों में आतंकवाद देख रहे हैं।
अधिकांश देश लोकतांत्रिक हैं. यदि किसी लोकतांत्रिक देश में हर व्यक्ति अच्छा हो तो वे निश्चित रूप से किसी ऐसे व्यक्ति को चुनेंगे जो अच्छा होगा। वह चुना गया व्यक्ति कभी भी किसी को नुकसान पहुंचाने के बारे में नहीं सोचेगा। इस तरह एक-एक कर हर आदमी में सभी अच्छे गुणों को भर के हर जगह हम हिंसा को रोक सकते हैं। इस मकसद के लिए हमें एक बार फिर अपनी पुरातन चीजों की ओर लौटना होगा।
इस कार्यक्रम का आयोजन गुजरात ला सोसाइटी की ओर से किया गया था। न्यायमूर्ति दवे ने यह भी प्रस्ताव किया कि छात्रों को पहली कक्षा से ही भगवद गीता और महाभारत पढ़ाई जाए। उन्होंने कहा ' कुछ लोग जो बहुत धर्मनिरपेक्ष हैं. तथाकथित धर्मनिरपेक्ष इससे सहमत नहीं होंगे..। यदि मैं भारत का तानाशाह होता तो मैंने पहली क्लास से गीता और महाभारत की पढ़ाई लागू कर दिया होता। इससे आप जीवन कैसे जिएं यह सीखने का रास्ता पाते। मुझे खेद है यदि कोई कहता है कि मैं धर्म निरपेक्ष हूं या नहीं हूं.. कहीं कोई चीज अच्छी है तो उसे हमें कहीं से भी लेनी चाहिए।
बांबे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश मोहित शाह ने कहा कि वैश्वीकरण का मूल अर्थ सबका विकास होना चाहिए। 'दुनिया एक गांव' की अवधारणा का अर्थ यह नहीं है कि सभी लोग सिर्फ दुनिया के बारे में सोचें बल्कि यह सबके विकास के विस्तार के रूप में हो। यदि हम वैश्वीकरण के फायदों को साझा नहीं करते तो इससे गंभीर चुनौतियां उभर कर सामने आएंगी। गीता के बारे में दवे से पहले हाईकोर्ट के एक जज भी ऐसे ही विचार व्यक्त कर चुके हैं और वह भी एक फैसला सुनाते समय। अगस्त 2007 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश एसएन श्रीवास्तव ने वाराणसी के एक पुजारी के संपत्ति संबंधी विवाद का निपटारा करते हुए गीता को राष्ट्रीय धर्म शास्त्र के रूप में मान्यता देने के साथ ही इस ग्रंथ को अन्य धार्मिक समूहों को पढ़ाए जाने की जरूरत पर बल दिया था। उनकी इस टिप्पणी से हलचल मच गई थी। तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री को संसद में यह स्पष्टीकरण देना पड़ा था कि न्यायाधीश की इस टिप्पणी का कोई महत्व नहीं है और उसकी अनदेखी की जाए।
'तानाशाह होता तो पहली कक्षा से गीता पढ़वाता'
रविवार, 3 अगस्त, 2014 को 11:23 IST तक के समाचार
सुप्रीम कोर्ट के एक जज जस्टिस ए आर दवे ने एक बयान में कहा कि अगर वो भारत के तानाशाह होते तो पहली कक्षा से महाभारत और भगवद् गीता की पढ़ाई शुरू करवाते.
उनके इस बयान पर विवाद शुरू हो गया है.
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न्यायधीश दवे 'वैश्वीकरण के दौर में समसामयिक मुद्दे और मानवाधिकार की चुनौतियों' विषय पर अहमदाबाद में आयोजित एक सम्मेलन में बोल रहे थे.
उन्होंने कहा, "गुरु शिष्य परम्परा लुप्त हो गई है, यदि यह जारी रहती तो हमारे देश में ये समस्याएं (हिंसा और चरमपंथ) नहीं होतीं.''
उन्होंने कहा, ''जिन देशों में आतंकवाद है, इनमें से अधिकांश लोकतांत्रिक हैं... यदि एक लोकतांत्रिक देश में सभी लोग अच्छे हों तो वे स्वाभाविक रूप से अच्छे व्यक्ति को चुनेंगे. और वह व्यक्ति कभी भी दूसरे व्यक्ति को क्षति नहीं पहुंचाना चाहेगा.''
'सेक्युलर लोग सहमत नहीं होंगे'
जस्टिस दवे के अनुसार, ''हरेक इंसान की अच्छाईयों को उभार कर हम हर जगह हो रही हिंसा को रोक सकते हैं और इस उद्देश्य के लिए हमें पीछे अपनी जड़ों की ओर लौटना है.''
उन्होंने कहा, ''तथाकथित सेक्युलर लोग सहमत नहीं होंगे ... अगर मैं भारत का तानाशाह होता तो मैंने पहली क्लॉस से गीता और महाभारत शुरू करवा दिया होता."
उन्होंने कहा, "मैं माफ़ी चाहता हूं अगर कोई कहता है कि मैं सेक्युलर हूँ या मैं सेक्युलर नहीं हूँ. लेकिन अगर कहीं कुछ अच्छा है तो इसे कहीं से भी लेना चाहिए."
बयान की निंदा
उनके इस बयान पर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता माजिद मेनन ने कहा, "मुझे समझ में नहीं आता कि एक जज कैसे इस तरह की बात कह सकते हैं. दवे का बयान भारत के संविधान के विपरीत है."
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राशिद अल्वी ने कहा, "यदि कोई जज तानाशाह बनने की इच्छा व्यक्त करे तो, मुझे मुझे कहना पड़ेगा कि यह सपना अपने आप में बहुत अजीब है. पहली क्लॉस का बच्चा तो पढ़ना भी नहीं जानता. उनका बयान आधारहीन है."
हालांकि भारतीय जनता पार्टी के नलिन कोहली ने कहा, "महाभारत, गीता और रामायण के साथ कुछ भी ग़लत नहीं है. इसे धर्म के नज़रिए से नहीं देखना चाहिए. उनके बयान को सेक्युलरिज़्म के ख़िलाफ़ नहीं समझा जाना चाहिए.''
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