बैंकिंग का टाइटेनिक बैंड बजाने लगे राजन
निजीकरण वास्ते बदलेगा आरबीआई कानून भी
पलाश विश्वास
आरबीआई एक स्वायत्त इकाई है। रिजर्व बैंक की स्वयत्तता अब खतरे में है। जैसे सर्वदलीय सहमति से कालेजियम बनाकर भारतीय न्याय प्रणाली में नियुक्तियां अब केंद्र सरकार ही करने वाली है, ठीक उसी तरह केंद्रीय बैंक के कर्मचारियों की सेवा शर्तों, उनकी तनख्वाह, पदोन्नति और प्रोत्साहन संबंधी मामलों में अब मुमकिन है कि आखिरी फैसला सरकार ही ले। फिलहाल इन सभी मामलों पर भारतीय रिजर्व बैंक फैसला लेता है।
इसके लिए आरबीआई कानून बदलने की तैयारी है। दूसरी ओर, आईबीईए ने बैंकिंग रिफॉर्म, बैंकों के मर्जर तथा रिकवरी मैनेजमेंट बॉडी के विरोध की रणनीति तैयार कर ली है। एआईबीईए ने इसके लिए 26 अगस्त से लेकर 15 अक्टूबर तक विरोध के चार दिन तय किए हैं। इन दिनों को एआईबीईए विरोध दिवस के रूप में मनाएगी। बैंकिंग सूत्रों का कहना है कि अगर तय किए गए इन चार दिनों में विरोध नहीं किया जा सका तो नवंबर या दिसंबर में बैंक कर्मियों द्वारा हड़ताल की जाएगी।
बैंकिंग सेक्टर के लोग जाहिर है कि वित्तीय मामलों के सबसे ज्यादा जानकार हैं और इस सेक्टर में सारे के सारे पढ़े लिखे भी हैं जिन्हें अर्थव्यवस्था की बेहतर जानकीरी और समझ बाकी नागरिकों के मुकाबले पेशागत विशेषाधिकार के तहत हासिल है।
विडंबना है कि बैंकिंग सेक्टर के प्रबंधन में प्राइवेट सेक्टर के आक्रामक वर्चस्व के बारे में इस सेक्टर के लोगों की कोई धारणा अभी बनी ही नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम बतौर सारे सरकारी बैंकों के प्रबंधन में निजी कंपनियों से हायर किए निदेशक तैनात हो गये हैं, जो बैंकिंग में सार्वजनिक उपक्रमों का बैंड बाजा बजा रहे हैं। 26 प्रतिशत तक सरकारी हिस्सा सीमाबद्ध करने से बहुत पहले बाजार में हिस्सेदारी नीलाम होने से पहले सरकारी बैंकों के निदेशक मंडल में निजी सेक्टर का वर्चस्व कायम हो गया है।
सरकारी बैकों का सारा खून हलाल होते-होते बह निकला है और अब बाकी बचा मीट पकाने की तैयारी हो रही है।
बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट बदल दिये जाने से गैरसरकारी शेयरहोल्डरों का दस प्रतिशत तक सीमाबद्ध वोटिंग राइट एक झटके से अनंत हो गया। बैंकिंग सेक्टर के कर्मचारियों और उनके भारी भरकम पॉवर हाउस सरीखे श्रमिक संगठनों को अंदाजा ही नहीं लगा कि क्या से क्या हो गया।
अब जबकि आरबीआई कानून बदलने की तैयारी है तो बैंकिंग ट्रेड यूनियनों के नेता और आम कर्मचारी कानों में तेल डाले घोड़ा बेचकर सो रहे हैं।
सरकार बदलने के बावजूद नौकरी राजन की कैसे बची रह गयी, अब लेकिन यह पहेली बूझने का समय आ गया है। वे डूबते टाइटेनिक जहाज के बैंड मास्टर बन गये हैं, डूबते हुए बैंड बाजा बजना उनका कार्यभार है।
इसी के तहत राजन ने रिजर्व बैंक के कार्यकारी निदेशक बतौर आईसीआईसीआई के पूर्व मुखिया मोर को कार्यकारी निदेशक बनाकर रिजर्व बैकों के सभी सत्ताइस विभागों की ट्रिमिंग का प्रस्ताव दिया है। इस ट्रिमिंग से मतलब यह है कि सरकारी बैंकों में काम कर रहे अफसरान और कर्मचारियों को हाशिये पर डालकर प्राइवेट सेक्टर के सारे मुलाजिम हायर करके नीतिगत और कार्यकारी सारे दैनांदिन कामकाज उनके हवाले कर दिया जाये।
ताजा स्टेटस यह है कि केसरिया नमो सरकार को राजन की यह पिछवाड़ा पद्धति समझ में नहीं आयी और वे तो अगवाड़े से मारना चाहते हैं। इसलिए तदर्थ नियुक्तियों के बदले स्थाई बंदोबस्त मुकम्मल करने वास्ते उनकी सरकार ने इस एजेंडा को हासिल करने के लिए आरबीआई कानून को ही बदल डालने का फैसला कर लिया है।
बैंकिंग ट्रेड यूनियनें जोर-शोर से नायक कमिटी की सिफारिशों के खिलाफ लामबंद हैं और उनकी पूर्ण आस्था राजनैतिक नेतृत्व और संसदीय प्रणाली में है। जबकि हकीकत में मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में न राजनेताओं की कोई भूमिका है और न संसद की। राजनेता और उन्हीं से नियंत्रित संसद, दोनों को शिद्दी से काटकर बाकायदासंविधान संशोधन तक हो रहे हैं, जिसके लिए दो तिहाई बहुमत दोनों सदनों में होना जरूरी है। जो इस पद्मप्रलय मध्ये भी भारतीय संसद में सत्तादल को है ही नहीं। नवउदार जमाने में तो इससे पहले की सारी सरकारे ही अल्पमत की रही हैं और इसके बावजूद अबाध पूंजी निवेश की तरह आर्थिक नीतियों की निरंतरता जारी है।
ट्रेड यूनियन नेता कर्मचारियों के वेतन और सेवा शर्तों के बारे में सिलसिलेवार भाषण पेल रहे हैं और उन्हें गायब होते जा रहे कर्मचारियों की कोई परवाह नहीं है। जिन्हें वे संबोधित करते हैं, उनकी नौकरी बचेगी या नहीं, इसकी भी उन्हें चिंता नहीं है। जिस मैनेजमेंट के खिलाफ उनकी अविराम युद्ध घोषणा है, वह अब सरकारी है ही नहीं और लोककल्याणकारी अवधारणा से उनका कोई ताल्लुक नहीं है। उस मैनेजमेंट में तमाम लोग निजी सेक्टर के भाड़े के पेशेवर टट्टू या खच्चर हैं तो इन ट्रेड यूनियन नोताओं की कौन सी प्रजाति है, आप ही तय कर लें।
ट्रेड यूनियन नेता रिजर्वेशन, प्लेसमेंट, प्रमोशन और वेज बोर्ड के गाजर लंगर के मालिकान हैं, उनकी झोली में बस उतना ही है। सदर दरवाजे की रखवाली करने वाले लोग हैं वे, लेकिन खिड़की के रास्ते या चोर दरवाजे से या चहारदीवारी तोड़कर जो डाका पड़ रहा है, उस तरफ उनका ध्यान लेकिन नहीं है।
नायक समिति की सिपारिशें लागू हो रही हैं और चरण बद्ध तरीके से इस एजेंडा को अंजाम दिया जा रहा है।
पहले बैंकिंग एक्ट और अब आरबीआई एक्ट।
बैड लोन के लिए गाज सरकारी बैकों पर गिरायी जा रही है और अभी-अभी भूषण स्टील के 40 हजार करोड़ का खूंटा एसबीआी मध्ये लगा दिया गया है। जबकि इस समय किंगफिशर एयरलाइंस, डेक्कन क्रॉनिकल, सुजलॉन, यूनिटेक, स्टर्लिंग बायोटेक, इलेक्ट्रोथर्म इंडिया, विनसम डायमंड एंड ज्वैलरी देश के बड़े डिफॉल्टर हैं और इन पर भारी कर्ज है। किंगफिशर एयरलाइंस पर 9143.51 करोड़ रुपये का कर्ज है, डेक्कन क्रॉनिकल पर 3769.75 करोड़ रुपये, सुजलॉन पर 15244.91 करोड़ रुपये, यूनिटेक पर 5217.58 करोड़ रुपये, स्टर्लिंग बायोटेक पर 2640.3 करोड़ रुपये और इलेक्ट्रोथर्म इंडिया पर 3233.38 करोड़ रुपये का कर्ज है।
सरकार हर साल कारपोरेटघरानों को पांच छह लाख करोड़ टैक्स छूट देने के अलावा उनका बैंकों का कर्ज भी राइट आफ करती है।
अभी-अभी पूंजीपतियों को तीन लाख करोड़ का बैंक लोन राइट आफ हुआ है और इस बैड लोन का ठीकरा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, उनके अफसरों और कर्मचारियों के मत्थे फोड़ दिया गया है और सारी ट्रेड यूनियनें खामोश हैं।
और सरकारी दावा, डिफॉल्ट करने वालों पर नकेल कसने के लिए मार्केट रेगुलेटर सेबी और बैंकिंग रेगुलेटर आरबीआई एक साथ आ गए हैं। सेबी और आरबीआई मिलकर ऐसे नियम बनाने जा रहे हैं जिसके बाद डिफॉल्टर कंपनियों को कहीं से भी पैसे जुटाना लगभग नामुमकिन हो जाएगा। यही नहीं प्रोमोटरों को कंपनी में डायरेक्टर की कुर्सी से हाथ भी धोना पड़ेगा।
जाहिर है कि छोटे जमाकर्ताओं के रकम को बड़े कारपोरेट घराने दबाये बैठे हैं, भारतीय बैंकिंग कानून की आड़ में। अन्यथा उनके नाम सार्वजनिक किये जा सकते थे। जब संसद को इस बात की जानकारी नहीं दी सक रही है कि तो इस रकम के वसूली के लिये कड़े कदम कैसे उठाये जा सकेंगे।
कथित बैंकिंग सुधारों के खिलाफ सड़क पर उतरेंगे बैंक कर्मचारी
बहराहाल पिछले दिनों कोलकाता में 3 व 4 अगस्त को एआईबीईए की बैठक हुई थी। बैठक में बैंकों के लिए बनाई जा रही इस प्रकार के नियमों का विरोध किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि एआईबीईए की जनरल काउंसिल की बैठक हुई।
बैठक में प्रमुख रूप से बैंकों के लिए बनाए जा रहे बैंकिंग रिफार्म, बैंकों के मर्जर किए जाने, रिकवरी करने रिकवरी मैनेजमेंट बनाने, नयाक कमेटी की सिफारिशों का विरोध तथा जल्द से जल्द वेतन समझौते को लागू किए जाने पर चर्चा हुई। बैठक में यह निर्णय लिया गया कि 26 अगस्त को ऑल इंडिया एंटी मर्जर डे मनाया जाएगा। इसके बाद 15 सितंबर को ऑल इंडिया अगेंस्ट बैंक ऑफ मर्जर मनाया जाएगा। इसके बाद 25 सितंबर को ऑल इंडिया अगेंस्ट सेल ऑफ डेड लोन मनाया जाएगा। इसके साथ ही 15 अक्टूबर को रिकवरी मैनेजमेंट बॉडी के विरोध में दिवस मनाया जाएगा। उन्होंने बताया कि विरोध में बैंक कर्मचारी उस दिन बैच लगाकर या पोस्टर लगाकर , डिमान्सट्रेशन कर या रैली निकालकर विरोध प्रदर्शन करेंगे। अगर किसी कारण से इन दिवसों पर विरोध नहीं हो पाया तो बैंक कर्मचारियों द्वारा नवंबर व दिसंबर में हड़ताल की जाएगी।
खुदा राजन की मार से बचाये। इस पर तुर्रा यह कि रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ (सांठ-गांठ वाले पूंजीवाद) की व्यवस्था का भर्त्सना करते हुए कहा है कि इससे पारदर्शिता और प्रतिस्पर्धा नष्ट होती है तथा यह मुक्त उद्यमशीलता, अवसरों के विस्तार और आर्थिक वृद्धि के लिए नुकसानदेह है।
इस पर जरूर गौर करें भारतीय बैंक भी स्विस बैंकों के समान गोपनीयता का पालन करते हैं। इस कारण से भारत में वर्षों से ऋण की अदायगी न करने वाले कारपोरेट घरानों पर बकाया ऋणों के संबंध में कोई विशिष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है। कम से कम कारपोरेट मामलों की राज्य मंत्री निर्मला सीतारमन की मंगलवार को राज्यसभा में दी गई लिखित जानकारी से ऐसा ही जान पड़ता है।
गौरतलब है कि भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 की धारा 45 ई एवं बैंकिंग कानूनों में यह प्रावधान है कि बैंक एवं वित्तीय संस्थाएं अपने ग्राहकों के बारे में गोपनीयता बनाये रखने के लिए बाध्य हैं। ठीक इसी तरह से स्विस बैंक अपने यहां जमा काले धन की जानकारी नहीं दे सकते हैं। यह वहां का स्थानीय कानून है। अब भारतीय बैंकिग कानून के कारण उन कारपोरेट घरानों का नाम सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है जिन्होंने बैंकों का पैसा दबाया हुआ है।
सदन में जानकारी दी गई है कि “वित्तीय क्षेत्र की स्थिति में सुधार, एनपीए में कमी करना, बैंकों की परिसम्पत्ति गुणवत्ता में सुधार तथा एनपीए की स्लीपेज की रोकथाम के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने निर्देश जारी किये हैं, जिसमें यह निर्धारित किया गया है कि प्रत्येक बैंक उनके मंडल द्वारा अनुमोदित ऋण वसूली की नीति लायेगा. नये ऋणों की मंजूरी, तदर्थ ऋणों, नये ऋणों अथवा वर्तमान ऋणों के नवीनीकरण के बारे में सूचना के आदान-प्रदान के लिए एक सुदृढ़ प्रणाली लाई जायेगी, जिससे सभी समर्थ खातों के मामले में सरफेसी अधिनियम, 2002, ऋण वसूली प्राधिकरणों और लोक अदालतों जैसे कानूनी उपायों का सहारा लेते हुए तत्पर पुर्न-संरचना सहित ऋणों के खराब होने के लक्षणों का शीघ्र पता लगाया जा सके।”
मुंबई में प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी ललित दोषी की स्मृति व्याख्यानमाला में इस वर्ष का व्याख्यान देते हुए आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने कहा-
‘क्रोनी कैपिटलिज्म पारदर्शिता और प्रतिस्पर्धा को खत्म करता है और इस मायने में यह मुक्त उद्यम, अवसर और आर्थिक वृद्धि के लिए नुकसानदेह है।’
शिक्षा क्षेत्र से आकर रिजर्व बैंक के प्रमुख बने राजन ने कहा कि हाल के चुनाव में सांठ-गांठ वाला पूंजीवाद एक बड़ा मुद्दा था जिसमें आरोप था कि बिकाऊ नेताओं को चढ़ावा चढ़ाकर लोगों ने जमीन, प्राकृतिक संसाधन और स्पेक्ट्रम हासिल किए थे। उन्होंने कहा कि क्रोनी कैपिटलिज्म से भारत जैसे विकासशील देशों में व्यवस्था पर कुछ लोगों के हावी होने का खतरा हो जाता है और पूरी अर्थव्यवस्था एक औसत आय की जाल में फँस जाती है।
राजन ने कहा कि लोग क्रोनी कैपिटलिज्म को इसलिए सहन करते हैं और इस व्यवस्था को बनाये रखने वाले बिकाऊ नेता को चुनते हैं क्योंकि वही नेता गरीबों और वंचितों की बैसाखी की भी भूमिका निभाता है जबकि उस व्यवस्था में गरीबों को कुछ खास हासिल नहीं होता है।
रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने कहा कि बढ़ी हुई ब्याज दरों की व्यवस्था अल्पकाल में दुखदायी हो सकती है, लेकिन दीर्घकाल में महंगाई रोकने में यह मददगार साबित होगी।
राजन ने कहा, यह (ऊंची ब्याज दरें) अल्पकाल में पीड़ादायक हो सकती है, लेकिन दीर्घकाल में मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने में इससे मदद मिलती है। उन्होंने कहा, लेकिन मैंने इसे (दरों को) वोल्कर (पूर्व अमेरिकी फेडरल रिजर्व चेयरमैन) जैसे स्तर तक नहीं बढ़ाया। लोग कहते रहते हैं कि आप भारतीय वोल्कर बनने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि मैं किसी भ्रम में नहीं रहता।
बिजनेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक-
केंद्रीय बैंक के कर्मचारियों की सेवा शर्तों, उनकी तनख्वाह, पदोन्नति और प्रोत्साहन संबंधी मामलों में अब मुमकिन है कि आखिरी फैसला सरकार ही ले। फिलहाल इन सभी मामलों पर भारतीय रिजर्व बैंक फैसला लेता है।
सरकार लंबे समय से आरबीआई पर दबाव डालती आई है कि वह कर्मचारी नियम संविदा को आरबीआई कानून 1934 की धारा 58 के तहत शामिल करे और इसे संसद के अधिकार क्षेत्र में लाए। सूत्रों के मुताबिक केंद्रीय बैंक अब इस मांग को पूरा कर सकती है और उम्मीद की जा रही है कि 9 दिसंबर को कोलकाता में बोर्ड की बैठक के दौरान इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी जाए।
पिछले 3 साल से सरकार केंद्रीय बैंक पर दबाव डाल रही थी कि वह कर्मचारियों से संबंधित सभी मसलों पर चर्चा करे। हालांकि आरबीआई अब तक इसे टालता रहा है। मगर बीते दिनों सरकार ने आरबीआई से कहा कि वह केंद्रीय बैंक के कर्मचारियों की वेतन वृद्धि से पहले उससे मंजूरी ले। हालांकि केंद्रीय बैंक अब तक ऐसा नहीं करता रहा है। बाद में दोनों पक्ष एक समझौते पर पहुंचे जिसके तहत केंद्रीय बैंक को वेतन वृद्धि लागू करने से पहले वित्त मंत्रालय को इस बारे में सूचित करना था। हालांकि केंद्रीय बैंक ने इस बात पर जोर दिया कि वह इस सिलसिले में सरकार से अंतिम मंजूरी नहीं लेगा।
अखिल भारतीय रिजर्व बैंक संगठन के महासचिव समीर घोष ने कहा, ‘आरबीआई एक स्वतंत्र इकाई है। अगर कर्मचारी नियमन संविदा बनाने की सरकार की मांग मान ली जाती है तो केंद्रीय बैंक के कर्मचारियों से जुड़े सभी फैसले जैसे सेवा शर्तें और लाभ, जिन पर अभी आरबीआई फैसला लेती है, उनके लिए सरकार की मंजूरी जरूरी हो जाएगी।‘
घोष ने आरबीआई के गवर्नर डी सुब्बाराव और केंद्रीय बोर्ड के सदस्यों को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि कर्मचारियों के मामलों से जुड़ी स्वतंत्रता न खोई जाए। घोष ने बोर्ड के एक सदस्य को पत्र में लिखा है, ‘केंद्रीय बैंक की इच्छा है कि जल्द से जल्द बोर्ड की बैठक में इसे मंजूरी मिल जाए। इससे आरबीआई के स्वायत्त इकाई के तौर पर काम करने की भूमिका धूमिल होगी।‘ इस साल कम से कम दो मौकों पर यह देखने को मिला है कि सरकार के किसी कदम से सुब्बाराव को यह बताना पड़ा है कि आरबीआई एक स्वायत्त इकाई है।
सीएनबीसी आवाज़ की एक खबर के मुताबिक-
बैंकों से कर्ज लेकर नहीं चुकाने वाले कॉरपोरेट्स की अब खैर नहीं होगी। खबर के मुताबिक डिफॉल्टरों की खैर नहीं है क्योंकि सेबी और आरबीआई मिलकर विलफुल डिफॉल्टर रेगुलेशन बनाएंगे। इसके तहत जानबूझकर डिफॉल्ट करने वालों को कर्ज नहीं मिल पाएगा और जानबूझकर डिफॉल्ट करने वालों की डायरेक्टर पद से छुट्टी होगी। ये दोनों ही रेगुलेटर मौजूदा कानूनी प्रावधानों की समीक्षा कर रहे हैं।
आरबीआई के गवर्नर रघुराम राजन डिफॉल्टरों पर कड़ाई के पक्ष में हैं और आरबीआई डिफॉल्टरों की लिस्ट तुरंत सेबी से साझा कर सकता है। नॉन-कोऑपरेटिव डिफॉल्टर की परिभाषा पर भी चर्चा हो रही है।
इस कदम के पीछे बैंकों के बढ़ते एनपीए की चिंता भी है। देश में बैंकों का एनपीए फिलहाल 2 लाख करोड़ रुपये के करीब है। मार्च 2014 तक पूरे बैंकिंग सिस्टम का एनपीए करीब 4.4 फीसदी हो गया था। टॉप 50 डिफॉल्टरों का एनपीए 40,500 करोड़ रुपये के करीब है। एनपीए से वित्तीय घाटे के मोर्चे पर सरकार की चिंताएं बढ़ती हैं।
About The Author
पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।
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