नवारुणदा,हम फैताड़ु फौज के साथ लामबंद हैं और इस छिनाल कयामत के खिलाफ कोई
बैरिकेड जरुर बनायेंगे,यकीनन।
पलाश विश्वास
Kas Turi <https://www.facebook.com/kbonfb?hc_location=timeline
August 4
<https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10204217425176921&set=a.2990839411116.153845.1266042742&type=1
কমিউনিস্ট পার্টি ও আমি
~নবারুণ ভট্টাচার্য
কেউ পেয়েছে একটা মোবাইল ফোন
কেউ পেয়েছে লটারির জ্যাকপট
কেউ পেয়েছে নকল পা
কেউ আবার শিরোপা
কিন্তু আমি
আমি পেয়েছি একটা পার্টি
এবং যে সে এলেবেলে নয়
একটা আস্ত কমিউনিস্ট পার্টি
এই বারেই নয় ছয়
আমাকে কি নেবে
না ঘাড় ধাক্কা দিয়ে ফিরিয়ে দেবে
কে জানে কি হয়
আবার এমনও তো বলা যায়
নানা সাধু চিন্তার ফাঁকে
কমিউনিস্টদের যে হতচ্ছাড়া পার্টি
পেয়ে গেল ভুলভাল সেই লোকটাকে
(নবান্ন, বই মেলা সংখ্যা, ১৪১৫/২০০৯)
আগামী ৬ আগস্ট, ২০১৪ সন্ধে ৬টায় যাদবপুর বিশ্ববিদ্যালয়ের অভ্যন্তরে ত্রিগুণা
সেন প্রেক্ষাগৃহে পশ্চিমবঙ্গ গণসংস্কৃতি পরিষদ, ভাষাবন্ধন পত্রিকা ও নবারুণদার
পরিবারের পক্ষ থেকে নবারুণ ভট্টাচার্যর প্রতি শ্রদ্ধা জ্ঞাপন করা হবে। একটি
প্যানেল ডিসকাশনে অংশগ্রহণ করবেন, পরিচালক সুমন মুখোপাধ্যায়, গণতান্ত্রিক
আন্দোলনের কর্মী অধ্যাপক শুভেন্দু দাশগুপ্ত, অধ্যাপক সঞ্জয় মুখোপাধ্যায়,
জনসংস্কৃতি মঞ্চের সাধারণ সম্পাদক অধ্যাপক প্রণয় কৃষ্ণ।
photo courtesy: Sudipto Chatterjee
[image: Photo: কমিউনিস্ট পার্টি ও আমি ~নবারুণ ভট্টাচার্য কেউ পেয়েছে একটা
মোবাইল ফোন কেউ পেয়েছে লটারির জ্যাকপট কেউ পেয়েছে নকল পা কেউ আবার শিরোপা
কিন্তু আমি আমি পেয়েছি একটা পার্টি এবং যে সে এলেবেলে নয় একটা আস্ত কমিউনিস্ট
পার্টি এই বারেই নয় ছয় আমাকে কি নেবে না ঘাড় ধাক্কা দিয়ে ফিরিয়ে দেবে কে জানে
কি হয় আবার এমনও তো বলা যায় নানা সাধু চিন্তার ফাঁকে কমিউনিস্টদের যে হতচ্ছাড়া
পার্টি পেয়ে গেল ভুলভাল সেই লোকটাকে (নবান্ন, বই মেলা সংখ্যা, ১৪১৫/২০০৯)
আগামী ৬ আগস্ট, ২০১৪ সন্ধে ৬টায় যাদবপুর বিশ্ববিদ্যালয়ের অভ্যন্তরে ত্রিগুণা
সেন প্রেক্ষাগৃহে পশ্চিমবঙ্গ গণসংস্কৃতি পরিষদ, ভাষাবন্ধন পত্রিকা ও নবারুণদার
পরিবারের পক্ষ থেকে নবারুণ ভট্টাচার্যর প্রতি শ্রদ্ধা জ্ঞাপন করা হবে। একটি
প্যানেল ডিসকাশনে অংশগ্রহণ করবেন, পরিচালক সুমন মুখোপাধ্যায়, গণতান্ত্রিক
আন্দোলনের কর্মী অধ্যাপক শুভেন্দু দাশগুপ্ত, অধ্যাপক সঞ্জয় মুখোপাধ্যায়,
জনসংস্কৃতি মঞ্চের সাধারণ সম্পাদক অধ্যাপক প্রণয় কৃষ্ণ। photo courtesy:
Sudipto Chatterjee]
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आज की दिनचर्या की शुरुआत मैंने फेसबुक वाल पर अविरल मूत्रपातमध्ये इस पोस्ट
के साथ शुरु की हैः
Forgive me my male friends.I decided topmost priority to connect the female
world.I am requesting female activists,writers,professionals mostly as they
are much more committed,serious,honest and unaddressed hitherto.Itis
nothing to do with my gender status.Nofair lady ever knocked my door.I
expect none at this time.But I believe that the ladies and the generation
next have the potential and the genuine explosive power to blast this
bloody male imperialism fascist.I am asking all lady professional to be
kind enough to listen to me.
मेरा दांव अब सचमुच महिलाओं और युवाओं पर है।
शास्त्रसम्मत धर्मनिरपेक्षता बतर्ज महिलाएं शूद्र अंत्यज हैं और सामाजिक
आर्थिक स्टेटस के फेरबदल से उनकी मौलिक दशा बदलती नहीं हैं।साम्राज्ञी हैसियत
में भी वे अंततः- सीता गीता या द्रोपदी हैं।तसलिमा हो गयी या शिमोन या हमारी
हिंदी प्रभा खेतान.तो उनका सामाजिक राजनीतिक आर्थिक बहिस्कार विधवादशा तय है।
युवासमाज सर्वकालीन बदलाव ख्वाबों का हर्बर्ट बनेने को अभिशप्त है लेकिन कीड़ा
मकोड़ा बन जाने के पहले क्षण तक वह जो हाइड्रोजन बम है,उसमें दुनिया के किसी
भी मुद्रा वर्चस्व,वर्ण वर्चस्व या नस्ल वर्चस्व को तोड़कर छत्तू बनाकर निगल
जाने का हाजमा है क्योंकि वह वर्ग.जाति,नस्ल,धर्म,वर्ण निरपेक्ष चेतना का
रचनाशील सर्जक और धारक वाहक है।
चाहे तो सारे मर्दवादी और प्रतिष्ठित तमाम लोग मुझे अपनी फ्रेंडलिस्ट से निकाल
दें,मैं आखिरकार इस छिनाल कयामत के खिलाफ बेरिके़ड बनाने के आखिरी फैताड़ुआ
प्रायस में इन्हीं दो वर्गों को साथ लेकर जीरो बैलेंस के साथ इस युद्धक समय के
बरखिलाफ रीढ़ सीधी करके मरना या मारा जाना पसंद करुंगा।
माफ करना दोस्तों,अंत्यज हूं और फैताड़ू भी।लेकिन हर्बर्ट नहीं हूं
एकदम।दढ़ियल दंडवायस हूं तो फेलकवि गर्भपाती विद्रोही पुरंदर भट या मालखोर मदन
जैसा कोई डीएनए मेरा भी होगा।जन्मजात बदतमीज हूं और मानता हूं कि चरण छू सांढ़
संस्कृति में निष्णात भद्रजनों की तुलना में बदतमीजी में ही रीढ़ ज्यादा
पुख्ता होती है।
मसलन सारस्वत पत्रकारिता प्रतिमाओं की तुलना में अबतक घनघोर नापसंद ओम थानवी
को हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता में मैं आगे रखूंगा सिर्फ मुक्ताबाजारी
बंदोबस्त के खिलाफ कारपोरेट मैनेजर सीईओ या विचारधारा जुगाली मध्ये सफेद
पाखंडी वर्णवर्चस्वी सत्तादलाली के इस पेइड न्यूज जमाने में हमारे जनसत्ता में
बने रहने का औचित्य साबित करने के लिए।
हो सकता है कि ओम थानवी से कभी मेरा कोई संवाद न हो,हो सकता है कि पिछले तेइस
साल की तरह भविष्य में जनसत्ता के पन्नों पर मेरा नाम कभी न छपें,तो भी मेरे
लिए फिलवक्त प्रभाष जोशी से बड़े पत्रकार हैं ओम थानवी।समयान्तर संपादक हमारे
अग्रज थानवी आलोचक पंकज बिष्ट से जन्मजात मित्रता और आत्म ...
ता के बावजूद मेरा
यह निष्कर्ष है।
इस विपर्यस्त समय में यह सार्वजनिक स्वीकारोक्ति का दुस्साहस बेहद जरुरी है
क्योंकि प्रिंट में हमारी कोई आवाज कहीं नहीं है।
मेरे लिए आवाज ही अभिव्यक्ति का मूलाधार है,शब्द संस्कृति का ब्राह्मणवाद
नहीं।व्याकरण नहीं और न ही अभिधान और न सौंदर्यशास्त्र का अभिजन दुराग्रह।
मेरे लिए भाषा ध्वनि की कोख से जनमती है और आंखर पढ़े लिख्खे लोगों के वर्ण
नस्ली धार्मिक सत्ता वर्चस्व का फंडा है,ज्ञान का अंतिम सीमा क्षेत्र नहीं
आंखर।वह ध्वनि के उलझे तारों की कठपुतली ही है।
इसलिए ध्वनि ही मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता है।
ध्वनि ही मेरी अभिव्यक्ति है।
ध्वनि ही अभिधान।ध्वनि ही व्याकरण और ध्वनि ही सौंदर्यशास्त्र।
अरस्तू से लेकर पतंजलि तक और उनके परवर्ती तमाम पिद्दी भाषाविदों,
संपादकों,प्रकाशकों, आलोचकों और विद्वतजनों को मैं इसीलिए बंगाल की खाड़ी में
या अरब सागर में विसर्जित करता हूं समुचित तिलांजलि के साथ।
जिस आंखर में ध्वनि की गूंज नहीं,जो आंखर रक्त मांस के लोक का वाहक नहीं,जो
कोई बैरिकेड खड़ा करने लायक नहीं है,उस आंखर से घृणा है मुझे।
यह घृणा लेकिन नवारुणदा की मृत्युउपत्यका मौलिक और वाया मंगलेशदा अनूदित हिंदी
घृणा के सिलसिले में है,जाहिर है कि यह घृणा मौलिकता में नवारुणदा की पैतृिक
विरासत है,जिसको मात्र स्पर्श करने की हिम्मत कर रहा हूं उन्हीं की जलायी
मोमबत्तियों के जुलूस में स्तब्ध वाक खड़ा हुआ।
मैं इस मृत आंखर उपनिवेश का बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिक होने से साफ इंकार करता
हूं,और यह इंकार गिरदा से लेकर मंटो, इलियस, मुक्तिबोध, दस्तावस्की, काफ्का,
कामू,डिकेंस. उगो, मार्क्वेज, मायाकोवस्की,पुश्किन,शा, हकर माणिक से लेकर
नवारुण दा की मौलिक विरासत है और मैं दरअसल उसी विरासत से नत्थी होने का
प्रयत्न ही कर रहा हूं।यही मेरी संघर्ष गाथा है और प्रतिबद्धता भी है जो
संभ्रांत नहीं,अंत्यजलोक है।
नवारुण दा कि तरह मेरे लिए गौतम बुद्ध और बौद्धधर्म कोई आस्था नहीं,जीवनदद्धति
है और वर्चस्ववादी सत्ता के खिलाफ लोक का बदलाव ख्वाब है,जिसे साधने के लिए
ध्यान की विपश्यना तो है लेकिन मूल वही पंचशील।
पंचशील अभ्यास के लिए प्रकृति का सान्निध्य अनिवार्य है बौद्धमय होने से
हामारा तात्पर्य प्राकृतिक पर्यावरण चेतना है,जिसके बिना धर्म फिर वही है जो
पुरोहित कहें और आचरण में पाखंड का जश्न जो है और जो अनंत फतवा श्रंखला है
नागरिक मानवाधिकारों के विरुद्ध दैवी सत्ता के लिए।
यह पंचशील मुझे तसलिमा के साथ भी खड़ा करता है पुरुषवर्चस्व के खिलाफ उनकी
गैरसमझौतावादी बगावत के लिए जबकि उनकी देहगाथा में मैं कहीं नहीं हूं।
और चितकोबरा सांढ़ संस्कृति का तो हम सत्तर के दशक से लगातार विरोध करते रहे
हैं।स्त्री वक्ष,स्त्री योनि तक सीमाबद्ध सुनामी के बजाय प्रबुद्ध स्त्री के
विद्रोह में ही हमारी मुक्ता का मार्ग है और हमें उसकी संधान करनी चाहिए।
नवारुण दा की तरह हमारे लिए वाम कोई पार्टी नहीं,न महज कोई विचारधारा है।यह
शब्दशः वर्गचेतना को सामाजिक यथार्थ से वर्गहीन जातिविहीन शोषणविहीन समता और
सामाजिक न्याय के चरमोतकर्ष का दर्शन है जैसा कि अंबेडकर का व्यक्तित्व और
कृतित्व,उनकी विचारधारा,आंदोलन,प्रतिबद्धता,उनका जुनून,उनका अर्थशास्त्र ,धर्म
और जातिव्यव्सथा के खिलाफ उनका बदतमीज बगावत और उनके छोड़े अधूरे कार्यभार।
नवारुणदा वाम को वैज्ञानिक दृष्टि मानते रहे हैं और बाहैसियत लेखक मंटो वाम से
जुड़े न होकर भी इसी दृष्टिभंगिमा से सबसे ज्यादा समृद्ध हैं जैसे अपने
प्रेमचंद,जिन्हें किसी क्रांतिकारी विशव्विद्यालय या किसी क्रांतिकारी संगठन
का ठप्पा लगवाने की जरुरत नहीं पड़ी।
इलियस,शहीदुल जहीर से लेकर निराला और मुक्तिबोध का डीएनए भी यही है।शायद वाख
,वैनगाग,पिकासो,माइकेल जैक्शन,गोदार,ऋत्विक घटक,मार्टिन लूथर किंग और नेसल्सन
मंटेला का डीएनए भी वही।यह डीएनए लेकिन तमाम प्रतिष्ठित कामरेडों की सत्ता से
अलहदा है।
इसीलिए हमारे लिए अंबेडकर के डीप्रेस्ड वर्किंग क्लास और कम्युनिस्ट
मेनिफेस्टो के सर्वाहारा में कोई फर्क नहीं है और न जाति उन्मूलन और वर्गहीन
समाज के लक्ष्यों में कोई अंतर्विरोध है।
यही वह प्रस्थानबिंदू है,जहां महाश्वेता दी से एक किमी की दूरी के हजारों मील
के फासले में बदल जाने के बाद भी नवारुण दा उन्हींकी कथा विरासत के सार्थक
वारिस हैं तो अपने पिता बिजन भट्टाचार्य और मामा ऋत्विक घटक के लोक विरासत में
एकाकार हैं उनके शब्दों और आभिजात्य को तहस नहस करने वाले तमाम ज्वालामुखी
विस्फोट।
भाषाबंधन ही पहला और अंतिम सेतुबंधन है मां और बेटे के बीच।संजोग से इस
सेतुबंधन में हम जैसे अंत्यज भी जहांतहां खड़े हैं बेतरतीब।
महाश्वेता दी ने बेटे से संवादहीनता के लिए उनकी मत्यु के उपरांत दस साल के
व्यवधान समय का जिक्र करते हुए क्षमायाचना की है और संजोग यह कि इन दस सालों
में मैं दोनों से अलग रहा हूं।जब दोनों से हमारे अंतरंग पारिवारिक संबंध थे,तब
हम सभी भाषा बंधन से जुड़े थे।पंकज बिष्ट,मंगलेश डबराल से लेकर मैं ,अरविंद
चतुर्वेद और कृपाशंकर चौबे तक।
तभी इटली से आया था तथागत,जो हमें ठीक से जानता भी नहीं है।लेकिन आज महाश्वेता
दी और तथागत के स्मृतितर्पण से सुबह से कुछ भी नहीं पढ़ सका।
अखबार भी नहीं।
मुक्ति के लिए पीसी पर बैठा हूं।दिलो दिमाग खून से सराबोर है।
एई समय के नवारुणदा विशेषांक ने न जाने कितने खून के प्रपात खोल दिये जिसमें
सत्तर के दशक के हर्बर्ट से लेकर बिनू और महाश्वेता दी की हजारचौरासी लाशें
हैं।
महाश्वेता दी ने आज माना की वह हजारचारसवाीं लाश में छुपा युवा विद्रोही दरअसल
नवारुणदा हैं।
खून से सराबोर होने की वजह से खून का कोई कतरा मेरी उंगलियां चूं कर आपको छूने
की बदतमीजी कर दें तो इस अंत्यज,हर्बर्ट,फैताड़ु,कंगाल मालसाट के चरित्र को
माफ कर दीजिय़ेगा।
:-)
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