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Friday 20 April 2012

घुंघरू से सिंहासन तक 'समरू बेगम'


घुंघरू से सिंहासन तक 'समरू बेगम'

FRIDAY, 20 APRIL 2012 11:42

http://www.janjwar.com/janjwar-special/27-janjwar-special/2566-samroo-bagum-ghunghru-se-sinhasan-tak-steevens-vishvas

घुंघरू से सिंहासन तक 'समरू बेगम'

FRIDAY, 20 APRIL 2012 11:42
नाचनेवाली लड़की से लड़ाकू सेना की कमान संभालने वाली असामान्य​ ​नायिका के रूप् में समरू बेगम का उत्तरण सेल्युलायड पर रेखांकित करना वाकई बहुत मुश्किल काम है. खासकर तब जबकि सत्रहवीं अठारवीं सदी के भारतीय रजवाड़ों और रानियों का इतिहास तथ्य निर्भर कम और किंवदंतियों पर आधारित ज्यादा है.....
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
फिल्म निर्देशक तिग्मांशु धूलिया के लिए मुश्किल चुनौती है समरू बेगम. फिल्म 'पान सिंह तोमर' की सफलता के बाद इसके निर्देशक धूलिया इतिहास के एक और शख्स को जीवंत करने वाले हैं.वह बेगम जोआना नोबलिस उर्फ बेगम समरू (1753-1836) के जीवन पर एक पीरियड फिल्म बनाने की तैयारी में हैं. बेगम समरू का नर्तकी से मेरठ के सरधना रियासत की शासक बनने तक का सफर काफी रोचक है.
अठारहवीं शताब्दी के भारत में एक नाचने वाली के तौर पर शुरुआत करने वाली आम लड़की को इतिहास का बेहद खास किरदार बना फिल्म माध्यम में जीवंत करने की चुनौती तिग्मांशु के सामने है.बेगम समरु ने अपने करियर की शुरुआत नाच करने वाली डांसर के रूप में की थी.आगे चलकर उन्होंने शासन किया. उन्होंने आर्मी में ट्रेनिंग भी ली. छुटपन में ही उन्होंने विदेशी सैनिक से शादी कर ली, फिर ब्रिटिश हुकूमत पर राज किया.
बायोपिक फिल्में उमराव जान, बैंडिंट क्वीन, सिल्क स्मिता अब तक पसंद की जाती रही हैं, लेकिन इन सबसे अलहदा है बेगम समरू. यह घूंघट की आड़ में हुश्न का दीदार करने का मामला कतई नहीं है, बल्कि इतिहास के खोये हुए पन्नों की खोज में सफर करने जैसा है.
samru-bagam
इतिहासकारों ने बेगम-समरु के जीवन पर आधारित पुस्तक में लिखा है कि बेगम समरु के शासन की नीति आईने की तरह साफ-सुथरी थी. बेगम-समरु अपने शासनकाल में हमेशा जनता के हित को ध्यान में रखते हुए कानून व्यवस्था बनाए रखती थी. दिल्ली की समरु मुगल शासक शाह आलम की निगाह में आने से पहले कोठे की गायिका थीं. उनके रुतबे का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खुद बादशाह शाह आलम ने उन्हें अपना संरक्षक माना.
राजनीति की अच्छी जानकार बेगम समरु ने दिल्ली में ऐसी हैसियत हासिल कर ली थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी के फौजी अधिकारी और रणनीतिज्ञ अपने मंसूबों के लिए उन्हें ज़रूरी समझने लगे थे. उनकी परवरिश इतनी पक्की थी कि वे बादशाह, विदेशी सैनिकों, ज़मींदारों और शाही घराने के लोगों से मेलजोल में कोई दिक्कत महसूस नहीं करती थी. सरधना बेगम समरु की राजधानी रहा है, जहां बेगम समरु का विश्वप्रसिद्ध चर्च है. जिनके शासनकाल में यहां गंगनहर की खुदाई का काम चला.
फिल्मोद्योग में नायिका रानी मुखर्जी के फिल्मकार तिग्मांशु धूलिया की अगली फिल्म में नर्तकी बेगम समरू की भूमिका निभाने की चर्चा है. वैसे खुद धूलिया कहते हैं कि उन्हें नहीं पता कि यह खबर कहां से फैली, जबकि रानी ने अब तक उनकी फिल्म के लिए स्वीकृति नहीं दी है. नेशनल स्कूल आफ ड्रामा, नई दिल्ली के छात्र  तिग्मांशु के लिए बेगम समरू की भूमिका के लिए सही चेहरा खोजना अब वाकई मुश्किल काम नजर आने लगा है. बेगम समरू की किरदार बहुत ही मुश्किल है, अगर आप बेगम समरू के बारे में नहीं जानते तो महज कहानी लिखने से तिग्मांशु का संकट हल होने वाला नहीं है.
बेगम मजहब से मुसलमान है कि ईसाई, या फिर दोनों, साफ साफ बताना मुश्किल है. बादशाह शाह आलम की मददगार या अपने फ्रांसीसी प्रेमी की​ माशूका, उसकी कौन सी भूमिका निर्णायक है यह कहना भी मुश्किल है. नाचनेवाली लड़की से लड़ाकू सेना की कमान संभालने वाली असामान्य​ ​नायिका के रूप में उसका उत्तरण सेल्युलायड पर रेखांकित करना वाकई बहुत मुश्किल काम है. खासकर तब जबकि सत्रहवीं अठारवीं सदी के भारतीय रजवाड़ों और रानियों का इतिहास तथ्य निर्भर कम और किंवदंतियों पर आधारित ज्यादा है।
ब्रिटिश गेजेट और मिलिटरी दस्तावेज खंगालकर थोड़े बहुत तथ्य मिल सकते हैं, पर बागियों के बारे में शासकों का बयान कितना तथ्यपरक होगा, इसमें संदेह है.इस फिल्म के लिए निःसंदेह तिग्मांशु को 'पान सिंह तोमर' के मुकाबले ज्यादा पापड़ बेलने होंगे.'पान सिंह तोमर' के बाद यह फिल्म धूलिया की दूसरी ऐसी फिल्म होगी जो वास्तविक जीवन के किसी किरदार पर आधारित होगी.धूलिया की फिल्म 'पान सिंह तोमर' एथलीट से सैनिक और फिर डाकू बने पान सिंह की सच्ची कहानी पेश करती है।
फिल्मोद्योग में कहा जा रहा है कि इरफान अभिनीत 'पान सिंह तोमर' की सफलता के बाद धूलिया बॉलीवुड के स्थापित कलाकारों से ही सम्पर्क कर रहे हैं.उन्होंने स्पष्ट किया, 'मैंने 'पान सिंह तोमर' से पहले रानी से सम्पर्क किया था।' उन्होंने बताया कि बेगम समरू की कहानी बहुत पहले लिखी गई थी. उन्होंने कहा, 'यह एक पुरानी कहानी है.मैंने चार से पांच साल पहले यह कहानी लिखी थी.'
बेगम का कद महज चार फुट ग्यारह इंच का बताया जाता है. कदकाठी की दृष्टि से तो रानी इस किरदार के लिए फिट नज़र आती ही हैं. बेगम की जटिल भूमिका निभाने के लिए बाहैसियत अभिनेत्री उनकी काबिलियत पर भी शक की ज्यादा गुंजाइश नहीं है. वैसे रानी के लिए पीरियड फिल्म में काम करने का अनुभव नया नहीं है. इससे पहले वह फिल्म मंगल पांडेय में आमिर खान के साथ काम कर चुकी हैं. अब जब तिग्मांशु इस विकल्प को खारिज कर रहे हैं, तो यह जानना वाकई दिलचस्प होगा कि बतौर बेगम कौन सा चेहरा उनके जेहन में है. इससे पहले इस भूमिका के लिए माही गिल का नाम भी चर्चा में रहा है.
मीडिया कायह बेहद बचकाना प्रचार है कि तिग्मांशु की फिल्म 'बेगम समरू' एक तवायफ की जिंदगी पर आधारित है. विडंबना यह है कि आज के ज्यादातर पत्रकारों और यहां तक कि साहित्यकारों को भीअपने इतिहास से कोई दूर-दूर का वास्ता नहीं रह गया है. हलधर विद्यालय कृषक समिति और मेरठ के समाजसेवियों की मदद से सरधना की बेगम समरु पर डॉक्यूमेंट्री तैयार की गई है.डॉक्यूमेंट्री में बेगम समरु के ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में योगदान पर प्रकाश डाला गया है.
मेरठ में बेगम बाग स्थित नारी निकेतन शहर की बेजोड़ इमारतों में है. यह इमारत मुगल वास्तुकला से प्रेरित है, जो वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है. कहा जाता है कि पहले के समय में यह इमारत बेगम समरु का महल था.यह इमारत लगभग 160 साल पुरानी है, जो बाद में इलाही बख्श जो समरू के समय के निर्माणकर्ता थे, ने ले ली.उसके बाद यह शरणार्थी ट्रस्ट के हाथ में गई. वर्ष 1857 के बाद की इमारतों में से यह एक है, जो आज नारी निकेतन की इमारत के रूप में स्थापित है.आज यह इसी ट्रस्ट के अन्तर्गत देखरेख में है.
समरू के बचपन का नाम जोन्ना या फरजाना भी बताया जाता है, लेकिन वह बेगम समरू के नाम से ही प्रसिद्ध हुईं.'समरूज् नाम के बारे में जहां इंडियन आर्कियालॉजिकल सर्वे (एएसआई) ने उनके फ्रेंच शौहर वाल्टर रेनहार्ड साम्ब्रे से माना है जो भारत में ब्रिटिश शासन में भाड़े का सिपाही था, वहीं स्टेट आर्कियॉलाजी ने समरू नाम का संबंध सरधना (मेरठ ) से माना है.कश्मीरी मूल की बेगम समरू का जन्म 1753 में मेरठ के सरधना में माना जाता है, जो 1760 के आसपास दिल्ली में आई.
बेगम समरू पर लिखी किताब 'बेगम समरू- फेडेड पोर्टेट इन ए गिल्डेड फार्मज् ' में जॉन लाल ने लिखा है कि '45 वर्षीय वाल्टर रेनहर्ट जो यूरोपीय सेना का प्रशिक्षक था, यहां के एक कोठे पर 14 वर्षीय लड़की फरजाना को देखकर मुग्ध हो गया और उसे अपनी संगिनी बना लिया. बेगम समरू के बारे में कहा जाता है कि वह राजनीतिक व्यक्तित्व और शासन का कुशल प्रबंधन करने वाली महिला थी. शायद यही कारण था कि एक पत्र में तत्कालीन गवर्नर लार्ड बिलियम बैंटिक ने उन्हें अपनी मित्र कहा और उनके कार्य की प्रशंसा की.
एक समय में उत्तर भारत की सबसे सशक्त महिला रहीं बेगम का नाम अब शायद कम लोग ही जानते हैं. दिल्ली के चांदनी चौक स्थित बेगम समरू के महल में एक समय बुद्धिजीवियों, रणनीतिकारों और कुछ रियासतों के लोग विचार-विमर्श करने आते थे, लेकिन आज उस महल की वर्तमान हालत देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि यह कभी उनकी हवेली रही होगी.दिल्ली के चांदनी चौक इलाके के अंदर तंग गलियों से होकर किसी तरह वहां पहुंच भी जाएं तो उसकी हालत देखकर यह नहीं कह सकते कि यह कभी कोई हवेली रही होगी.
यहां गंदगी के बीच खड़ा है दिल्ली पर्यटन विभाग द्वारा लगाया गया बोर्ड, जो इस महल के बारे में जानकारी दे रहा है. लेकिन दिलचस्प यह है कि यह जानकारी आधी-अधूरी ही नहीं, बल्कि गलत भी है. यहां दी गई जानकारी दो भाषाओं में है. हिन्दी में जहां इसे 1980 में भगीरथमल द्वारा खरीदा गया बताया गया है, वहीं अंग्रेजी में उन्हीं के द्वारा 1940 में खरीदा गया बताया गया है.
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नाचनेवाली लड़की से लड़ाकू सेना की कमान संभालने वाली असामान्य​ ​नायिका के रूप् में समरू बेगम का उत्तरण सेल्युलायड पर रेखांकित करना वाकई बहुत मुश्किल काम है. खासकर तब जबकि सत्रहवीं अठारवीं सदी के भारतीय रजवाड़ों और रानियों का इतिहास तथ्य निर्भर कम और किंवदंतियों पर आधारित ज्यादा है.....
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
फिल्म निर्देशक तिग्मांशु धूलिया के लिए मुश्किल चुनौती है समरू बेगम. फिल्म 'पान सिंह तोमर' की सफलता के बाद इसके निर्देशक धूलिया इतिहास के एक और शख्स को जीवंत करने वाले हैं.वह बेगम जोआना नोबलिस उर्फ बेगम समरू (1753-1836) के जीवन पर एक पीरियड फिल्म बनाने की तैयारी में हैं. बेगम समरू का नर्तकी से मेरठ के सरधना रियासत की शासक बनने तक का सफर काफी रोचक है.
अठारहवीं शताब्दी के भारत में एक नाचने वाली के तौर पर शुरुआत करने वाली आम लड़की को इतिहास का बेहद खास किरदार बना फिल्म माध्यम में जीवंत करने की चुनौती तिग्मांशु के सामने है.बेगम समरु ने अपने करियर की शुरुआत नाच करने वाली डांसर के रूप में की थी.आगे चलकर उन्होंने शासन किया. उन्होंने आर्मी में ट्रेनिंग भी ली. छुटपन में ही उन्होंने विदेशी सैनिक से शादी कर ली, फिर ब्रिटिश हुकूमत पर राज किया.
बायोपिक फिल्में उमराव जान, बैंडिंट क्वीन, सिल्क स्मिता अब तक पसंद की जाती रही हैं, लेकिन इन सबसे अलहदा है बेगम समरू. यह घूंघट की आड़ में हुश्न का दीदार करने का मामला कतई नहीं है, बल्कि इतिहास के खोये हुए पन्नों की खोज में सफर करने जैसा है.
samru-bagam
इतिहासकारों ने बेगम-समरु के जीवन पर आधारित पुस्तक में लिखा है कि बेगम समरु के शासन की नीति आईने की तरह साफ-सुथरी थी. बेगम-समरु अपने शासनकाल में हमेशा जनता के हित को ध्यान में रखते हुए कानून व्यवस्था बनाए रखती थी. दिल्ली की समरु मुगल शासक शाह आलम की निगाह में आने से पहले कोठे की गायिका थीं. उनके रुतबे का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खुद बादशाह शाह आलम ने उन्हें अपना संरक्षक माना.
राजनीति की अच्छी जानकार बेगम समरु ने दिल्ली में ऐसी हैसियत हासिल कर ली थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी के फौजी अधिकारी और रणनीतिज्ञ अपने मंसूबों के लिए उन्हें ज़रूरी समझने लगे थे. उनकी परवरिश इतनी पक्की थी कि वे बादशाह, विदेशी सैनिकों, ज़मींदारों और शाही घराने के लोगों से मेलजोल में कोई दिक्कत महसूस नहीं करती थी. सरधना बेगम समरु की राजधानी रहा है, जहां बेगम समरु का विश्वप्रसिद्ध चर्च है. जिनके शासनकाल में यहां गंगनहर की खुदाई का काम चला.
फिल्मोद्योग में नायिका रानी मुखर्जी के फिल्मकार तिग्मांशु धूलिया की अगली फिल्म में नर्तकी बेगम समरू की भूमिका निभाने की चर्चा है. वैसे खुद धूलिया कहते हैं कि उन्हें नहीं पता कि यह खबर कहां से फैली, जबकि रानी ने अब तक उनकी फिल्म के लिए स्वीकृति नहीं दी है. नेशनल स्कूल आफ ड्रामा, नई दिल्ली के छात्र  तिग्मांशु के लिए बेगम समरू की भूमिका के लिए सही चेहरा खोजना अब वाकई मुश्किल काम नजर आने लगा है. बेगम समरू की किरदार बहुत ही मुश्किल है, अगर आप बेगम समरू के बारे में नहीं जानते तो महज कहानी लिखने से तिग्मांशु का संकट हल होने वाला नहीं है.
बेगम मजहब से मुसलमान है कि ईसाई, या फिर दोनों, साफ साफ बताना मुश्किल है. बादशाह शाह आलम की मददगार या अपने फ्रांसीसी प्रेमी की​ माशूका, उसकी कौन सी भूमिका निर्णायक है यह कहना भी मुश्किल है. नाचनेवाली लड़की से लड़ाकू सेना की कमान संभालने वाली असामान्य​ ​नायिका के रूप में उसका उत्तरण सेल्युलायड पर रेखांकित करना वाकई बहुत मुश्किल काम है. खासकर तब जबकि सत्रहवीं अठारवीं सदी के भारतीय रजवाड़ों और रानियों का इतिहास तथ्य निर्भर कम और किंवदंतियों पर आधारित ज्यादा है।
ब्रिटिश गेजेट और मिलिटरी दस्तावेज खंगालकर थोड़े बहुत तथ्य मिल सकते हैं, पर बागियों के बारे में शासकों का बयान कितना तथ्यपरक होगा, इसमें संदेह है.इस फिल्म के लिए निःसंदेह तिग्मांशु को 'पान सिंह तोमर' के मुकाबले ज्यादा पापड़ बेलने होंगे.'पान सिंह तोमर' के बाद यह फिल्म धूलिया की दूसरी ऐसी फिल्म होगी जो वास्तविक जीवन के किसी किरदार पर आधारित होगी.धूलिया की फिल्म 'पान सिंह तोमर' एथलीट से सैनिक और फिर डाकू बने पान सिंह की सच्ची कहानी पेश करती है।
फिल्मोद्योग में कहा जा रहा है कि इरफान अभिनीत 'पान सिंह तोमर' की सफलता के बाद धूलिया बॉलीवुड के स्थापित कलाकारों से ही सम्पर्क कर रहे हैं.उन्होंने स्पष्ट किया, 'मैंने 'पान सिंह तोमर' से पहले रानी से सम्पर्क किया था।' उन्होंने बताया कि बेगम समरू की कहानी बहुत पहले लिखी गई थी. उन्होंने कहा, 'यह एक पुरानी कहानी है.मैंने चार से पांच साल पहले यह कहानी लिखी थी.'
बेगम का कद महज चार फुट ग्यारह इंच का बताया जाता है. कदकाठी की दृष्टि से तो रानी इस किरदार के लिए फिट नज़र आती ही हैं. बेगम की जटिल भूमिका निभाने के लिए बाहैसियत अभिनेत्री उनकी काबिलियत पर भी शक की ज्यादा गुंजाइश नहीं है. वैसे रानी के लिए पीरियड फिल्म में काम करने का अनुभव नया नहीं है. इससे पहले वह फिल्म मंगल पांडेय में आमिर खान के साथ काम कर चुकी हैं. अब जब तिग्मांशु इस विकल्प को खारिज कर रहे हैं, तो यह जानना वाकई दिलचस्प होगा कि बतौर बेगम कौन सा चेहरा उनके जेहन में है. इससे पहले इस भूमिका के लिए माही गिल का नाम भी चर्चा में रहा है.
मीडिया कायह बेहद बचकाना प्रचार है कि तिग्मांशु की फिल्म 'बेगम समरू' एक तवायफ की जिंदगी पर आधारित है. विडंबना यह है कि आज के ज्यादातर पत्रकारों और यहां तक कि साहित्यकारों को भीअपने इतिहास से कोई दूर-दूर का वास्ता नहीं रह गया है. हलधर विद्यालय कृषक समिति और मेरठ के समाजसेवियों की मदद से सरधना की बेगम समरु पर डॉक्यूमेंट्री तैयार की गई है.डॉक्यूमेंट्री में बेगम समरु के ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में योगदान पर प्रकाश डाला गया है.
मेरठ में बेगम बाग स्थित नारी निकेतन शहर की बेजोड़ इमारतों में है. यह इमारत मुगल वास्तुकला से प्रेरित है, जो वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है. कहा जाता है कि पहले के समय में यह इमारत बेगम समरु का महल था.यह इमारत लगभग 160 साल पुरानी है, जो बाद में इलाही बख्श जो समरू के समय के निर्माणकर्ता थे, ने ले ली.उसके बाद यह शरणार्थी ट्रस्ट के हाथ में गई. वर्ष 1857 के बाद की इमारतों में से यह एक है, जो आज नारी निकेतन की इमारत के रूप में स्थापित है.आज यह इसी ट्रस्ट के अन्तर्गत देखरेख में है.
समरू के बचपन का नाम जोन्ना या फरजाना भी बताया जाता है, लेकिन वह बेगम समरू के नाम से ही प्रसिद्ध हुईं.'समरूज् नाम के बारे में जहां इंडियन आर्कियालॉजिकल सर्वे (एएसआई) ने उनके फ्रेंच शौहर वाल्टर रेनहार्ड साम्ब्रे से माना है जो भारत में ब्रिटिश शासन में भाड़े का सिपाही था, वहीं स्टेट आर्कियॉलाजी ने समरू नाम का संबंध सरधना (मेरठ ) से माना है.कश्मीरी मूल की बेगम समरू का जन्म 1753 में मेरठ के सरधना में माना जाता है, जो 1760 के आसपास दिल्ली में आई.
बेगम समरू पर लिखी किताब 'बेगम समरू- फेडेड पोर्टेट इन ए गिल्डेड फार्मज् ' में जॉन लाल ने लिखा है कि '45 वर्षीय वाल्टर रेनहर्ट जो यूरोपीय सेना का प्रशिक्षक था, यहां के एक कोठे पर 14 वर्षीय लड़की फरजाना को देखकर मुग्ध हो गया और उसे अपनी संगिनी बना लिया. बेगम समरू के बारे में कहा जाता है कि वह राजनीतिक व्यक्तित्व और शासन का कुशल प्रबंधन करने वाली महिला थी. शायद यही कारण था कि एक पत्र में तत्कालीन गवर्नर लार्ड बिलियम बैंटिक ने उन्हें अपनी मित्र कहा और उनके कार्य की प्रशंसा की.
एक समय में उत्तर भारत की सबसे सशक्त महिला रहीं बेगम का नाम अब शायद कम लोग ही जानते हैं. दिल्ली के चांदनी चौक स्थित बेगम समरू के महल में एक समय बुद्धिजीवियों, रणनीतिकारों और कुछ रियासतों के लोग विचार-विमर्श करने आते थे, लेकिन आज उस महल की वर्तमान हालत देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि यह कभी उनकी हवेली रही होगी.दिल्ली के चांदनी चौक इलाके के अंदर तंग गलियों से होकर किसी तरह वहां पहुंच भी जाएं तो उसकी हालत देखकर यह नहीं कह सकते कि यह कभी कोई हवेली रही होगी.
यहां गंदगी के बीच खड़ा है दिल्ली पर्यटन विभाग द्वारा लगाया गया बोर्ड, जो इस महल के बारे में जानकारी दे रहा है. लेकिन दिलचस्प यह है कि यह जानकारी आधी-अधूरी ही नहीं, बल्कि गलत भी है. यहां दी गई जानकारी दो भाषाओं में है. हिन्दी में जहां इसे 1980 में भगीरथमल द्वारा खरीदा गया बताया गया है, वहीं अंग्रेजी में उन्हीं के द्वारा 1940 में खरीदा गया बताया गया है.


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