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Tuesday 17 January 2012

हम डालर देश को देख आए


विद्यासागर नौटियाल



http://www.aksharparv.com/vishva.asp?Details=22

''यद्यपि कृषि कार्य में टमाटर चुनने के लिए अभी तक किसी मशीन का निर्माण नहीं हो सका है- एक अच्छे विश्व में क्या एक रोबोट टमाटरों को उनके कच्चे-पक्के आकार या अन्य विशेषताओं के अनुरूप चुनने में सक्षम है- गलियों की सफाई सहित अन्य अस्पृश्य कार्य करने में राबोट सक्षम है जिनको वहाँ का कोई भी व्यक्ति उस उपभोक्ता समाज में नहीं करना चाहता है ? वे इन समस्याओं को किस तरह से हल करेंगे ? ओह! उन सबके लिए तृतीय विश्व के प्रवासी हैं ही ! वे स्वयं इस तरह का कार्य कभी नहीं करते हैं। '' फीदेल कास्त्रो। 
( 18फरवरी, 1999 को वेनेजुएला विश्वविद्यालय में फिदेल कास्त्रो द्वारा दिया गया भाषण। )
उस दिन शाम होने से पहले हमारे नाती बालसुब्रह्मण्यन अच्युत अतिशय ने अपनी उम्र के तीसरे दिन पहली बार जन्म के अस्पताल से अपने घर के अंदर प्रवेश किया। हमारे नीचे दो अमरीकन रहते थे। एक अधेंढ़ उम्र का और दूसरा बूढ़ा आदमी। दोनों की गाड़ियाँ अलग-अलग थीं। अधेड़ के पास कार थी, दूसरे आदमी के पास एक छोटी गाड़ी जिसमें ड्राइवर की सीट के पीछे समान रखने का कैरियर बना था। वे दोनों पिता-पुत्र भी नहीं लगते थे। बिजली को उनके बारे में कोई जानकारी नहीं थी। उनकी एक बिल्ली थी। वह अक्सर हमारी सीढ़ी और मुख्य दरवांजे के बाहर लगे सोफे पर आराम फरमाती रहती और वहाँ रखे गमलों से छेंडछांड कर उन्हें उखाड़ने में लगी रहती। भूरी बिल्ली। मैं उसकी वजह से परेशान हो उठता था। 
मेरा सुबह का घूमना ंजरूरी था। डाक्टरों ने दवाओं के अलावा घूमने की भी सलाह दी थी। विद्युत ने अपनी माँ को अमरीका के बारे में जो चीजें बताई थीं उनमें यह बात खास थी कि अपने सामने आने वाले किसी भी आदमी या औरत के द्वारा की जा रही किसी भी तरह की हरकत की ओर देखना ही नहीं चाहिए। सुब्बू ने अपना घर का पता और फोन नम्बर एक पुरजे पर लिख कर मुझे दे दिया कि मैं जब भी घर से बाहर निकलूँ उसे साथ रखूँ। बाहर निकलने पर एक सेलफोन भी मुझे साथ ले जाने की हिदायत दी गई। 
हमारे घर के सामने बाएँ हाथ की ओर एन्सिलरी पार्क है। पार्क के आखीर में सुब्बू का दफ्तर। सुब्बू मुझे अपने साथ दूसरी पटरी पर लगे अखबार विक्रय स्टैंड तक ले गया। वहाँ पैदल पटरी के किनारे पर एक लेटर बाक्स जैसी बड़ी पेटिका जमीन में गड़ी है। पचास सेंट का सिक्का डालने पर पेटिका के बीच का ढक्कन खुलेगा और एक अखबार को बाहर फेंक कर फिर बन्द हो जाएगा। पार्क काफी बंडा है। वहाँ पूर्वी छोर पर दो टेनिस कोर्ट बने हैं। एक बालीबाल फील्ड, दो बास्केटबाल, स्टैंड और बीच-बीच में जगह-जगह पर शरीर को खींचने-तानने की कसरतें करने के लिए लकड़ी के स्टैंड गड़े हैं । यह एक तरह का खुला जिम लग रहा है। पश्चिमी किनारे पर शिशुओं के लिए झूले, सीढ़ियां सी-सॉ और चरखी वगैरह। वहाँ शिशुओं वाले पार्क में सिगरेट पीने की मनाही है। उस पार्क की चौहद्दी में और दूसरी जगहों पर भी मैंने लोगों को सिगरेट पीते देखा हो, ऐसा मुझे याद नहीं आ रहा है। दिन के मौके पर जब उनका लंच का वंक्त हो जाता है ्र बहुत से लोगों को मैं पार्क के पूर्वी भाग में बनी बेंचों पर बैठ कर, आराम करते और कुछ खाते-पीते हुए देखता था। हिन्दुस्तानियों की तरह साथ बैठ कर, मिल-जुल कर नहीं। -यार तेरी वाइफ ने आज तेरे लिए कैसी सब्जी बनाई है, ंजरा हम भी देखें, ऐसी बेतकल्लुफी और बेशर्मी भारत में ही छूट गई थी। मेरे बहर्नोई डा0 गिरीश मैठाणी वर्षों तक अल्जीरिया में डाक्टर रहे। वहाँ की अरब संस्कृति में स्वत:स्फूर्त बंधुत्व की भावना के बारे में वे अपने संस्मरण सुना रहे थे। एक बात मुझे याद रह गई।
खाने के एक बड़े-से पात्र में कोई रसदार सब्जी या सूप जैसी रखी है। उसके चारों ओर बैठ कर कई लोग नीचे बिछे दस्तरखान से रोटियाँ ले कर भोजन कर रहे हैं। अचानक आप वहाँ जा पहुंचे। वे सब बेहद खुश होकर आपको आमंत्रित करेंगे कि आओ, बिस्मिल्ला करो। और आपके हाथ में एक चम्मच पकड़ा देंगे। प्रेमपूर्वक दिए गए उनके उस आमंत्रण को अस्वीकार करना उन्हें भारी अपमान लगेगा। इस किस्से को सुनते हुए मेरे मन में यह विचार उभरा कि उस आमंत्रण से सिर्फ सामूहिकता का बोध नहीं होता, बन्धुत्व की भावना की सामूहिकता भी झलकने लगती है। यातना शिविरों में अवर्णनीय यातनाएँ देकर उस कौम के खून में पारंपरिक तौर पर बसी युगों पुरानी सभ्यता को कैसे नष्ट किया जा सकता है?
पार्क में चारों ओर खूब बड़े-बड़े छायादार दरंख्त खड़े हैं, ंयादातर चौड़ी पत्तियों वाले। पेड़ यहाँ सिर्फ पार्क में ही नहीं, नगर की सड़कों के किनारों पर भी बहुतायत में तरतीबवार लगाए गए हैं। इस पार्क के दक्षिणी दिशा में यहाँ से काफी दूरी पर एक पहाड़ दिखाई देता है। उस पर जंगल की हरियाली बहुत अच्छी लगती है। घने जंगल के बीच में एक आबादी क्षेत्र भी दिखाई देता है जहाँ की सड़कें भी साफ नंजर आती हैं। अपने इस पार्क में मैं तीन चक्कर लगा कर ही संतुष्ट हो जाता था। दूसरे कई लोग वहाँ दौड़ भी लगाते रहते थे। पूरे वेग से। खासकर नौजवान। अपने पाँवों के दर्द के कारण मेरी श्रीमतीजी के लिए वहाँ दो पूरे चक्कर काटना भी ंजरा ंयादा हो जाता था। 
विद्युत ने मेरे पास एक डिबिया में पचास सेंट के कई सिक्के दे दिए थे। मैं रोज तड़के उठ कर जल्दी से अखबार लेकर आ आता। कई बार मैंने देखा कि मेरे बाद वहाँ अखबार की कोई प्रति बाकी नहीं बची है। मेरे बाद जो लोग जाते उन्हें स्टैंड से खाली हाथ लौटना पंडता। मुझे स्वैटर जैकेट मोजे और कनटोपी तक पहन कर जाना पड़ता था। (सुबह-सुबह श्रीमतीजी की डाँट से बचने के लिए)। कुहरा घिरा होता तो ठंड और भी बढ़ जाती थी। ऐसे में दस्ताने भी पहन लेने पड़ते। मुझे महसूस हुआ कि मेरे अलावा बाकी घूमने वाले लोगों को ठंड शायद उतना नहीं सताती। अलबत्ता कुछ दूसरे बुजुंर्ग भी मेरे ही जैसे वेश में दिखाई देते थे। उनमें ंयादातर चीन, जापान कोरिया व भारत के होते। किसी मैक्सिकन को मैंने उस पार्क में घूमते-टहलते देखा हो, ऐसा मुझे याद नहीं आता। हालाँकि सड़कों पर और स्टोरों के अंदर की कई-कई तरह की छवियाँ मेरे भीतर भरी हैं। छोटी-सी कार के अंदर ओवर से भी ओवर सवारियाँ भर कर सड़कों पर दौड़ते हुए मैक्सिकन, पुलिसवाले भी जिनका चालान नहीं करते। -इनके लाइसेंस रद्द करवाने से भी क्या फायदा? दूसरे ही दिन वे किसी दूसरे नाम से प्रकट हो जाते हैं, पापा! सुब्बू उनके बारे में अपना नंजरिया इस तरह प्रकट करता है। इन प्रसंगों के बारे में कहीं आगे।
अखबार, जिसे मैं लाता था ' साँ नोसे मर्करी न्यूंज 'वह विज्ञापनों से भरा होता। उसमें समाचार बहुत कम होते और संयुक्त राय अमेरिका के अलावा दूसरे मुल्कों के समाचार नहीं मिल सकते थे। दक्षिणी अमरीका कीे भी सिर्फ वे ही खबरें उसमें जगह पा सकती थीं जिनका कोई सीधा या टेढ़ा संबंध अमरीका से होता। लैटिन अमरीकी देशों में बढ़ रहे कुछ कम्युनिस्ट राजनेताओं के विरोध में खबरें यदा-कदा दिखाई दे जातीं। इंटरनेट पर बी बी सी पर मैं एशिया, अफ्रीका की खबरें व मुख्य घटनाओं पर लेख देख लेता था। नेपाल की खासकर, जहाँ लोग राजशाही से मुक्ति युध्द में लगे थे। रविवारीय अखबार की कीमत एक डालर होती थी और उस दिन वह स्टैंड पर और भी जल्दी खत्म हो जाता। उस दिन उसका वंजन कभी-कभी एक किलो तक भी हो जाता था। अखबार क्या ्र वह विशुध्द विज्ञापनों का एक भारी-भरकम पुलिंदा होता, जिसे हम अपने घर ढो लाते। आकर्षक रंगीले विज्ञापनों से भी कभी-कभी साहित्य की जैसी झलक मिलने लगती थी। मेरे लिए उन विज्ञापनों का कोई मतलब नहीं होता था। लेकिन सुब्बू व बिजली उन्हें बहुत ध्यान से उलटने-पलटने लगते। क्रिसमस का त्यौहार करीब आ रहा था और अमेरिका की तमाम कंपनियों में अपने-अपने माल को सस्ता करने की होड़ लग गई थी। तुम तीस परसेंट तो मैं फिफ्टी परसेंट।
अतिशय के जन्म के कुछ दिन बाद भारत में दीवाली का त्यौहार शुरू हो गया। अमरीका में तमाम भारतवंशियों के घरों के बाहर बिजली के बल्बों की मालाएँ सज गईं। सुब्बू भी एक स्टोर से कई लड़ियाँ खरीद लाया। उनकी झालरें अपने अपार्टमेंट के बाहर लटका दी गईं। रात के मौके पर चमकने वाली वे मालाएँ देखने वालों को इस बात का अहसास करा देती थीं कि ये भारतवंशियों के घर हैं। मैं रात में अपनी सीढ़ियों से नीचे उतर कर कार पार्किंग से अपने आसपास जगमगाती मालाओं को देखने लगता था। हमारे पड़ोस में भारतवासियों के और भी घर थे। वे सब जगमग करने लगते। अतिशय के घर पर आ जाने के पाँचवें या छठे दिन अतिशय की तबियत अचानक खराब हो गई। अमरीका में डाक्टर को दिखाने के लिए पहले से समय लेना अनिवार्य होता है। डाक्टर ने दूसरे दिन का समय दिया। हम सभी लोग परेशान हो उठे। जुकाम लग जाने पर अमरीका में बहुत एहतियात बरतने की ंजरूरत होती है। सुब्बू अपने कमरे से किचन और बैठक में लगातार आने-जाने लगा। हमारे कमरे के पूरब में एक बड़ी खिड़की थी। रात में हम खिड़की पर मोटे परदे डाल देते थे ताकि कमरे में बाहर सड़क की रोशनी न आ सके। वहाँ पड़े लंबे सोफे पर बैठ कर आगंतुक अपने जूते उतार लेते, अगर उन्हें कमरे के अंदर जाना होता। उसके अंत में घर का मुख्य दरवाजा । दरवांजा हमेशा अंदर से बंद ही रखा जाता था। सुब्बू ने हमें ठीक तरह से यह बात भी समझा दी थी कि यहाँ किसी का भी भरोसा नहीं किया जा सकता। किसी के घंटी बजाने पर घर का दरवांजा नहीं खोलना चाहिए। हम पहले अपने कमरे की खिड़की से घंटी बजाने वाले को देख लें। ंजरूरत हो तो वहीं से बात कर उसे रूखसत भी किया जा सकता है। रात के करीब बारह बजे होंगे जब हमारे दरवांजे पर दस्तक हुई। सुब्बू ने दरवांजा खोला। बाहर पड़ोसी अमरीकन खड़ा था। वह सुब्बू से शिकायत करने लगा कि तुम्हारे घर पर चलने की आवांज हो रही है। सुब्बू ने उसे अतिशय के अचानक अस्वस्थ हो जाने की बात बताई। उसे उस बात से कोई सरोकार नहीं लग रहा था। यही रट लगाए रहा कि मैं शिकायत कर दूँगा। सुब्बू ने ओके कह कर दरवांजा भिड़ दिया। उस रात हम सभी लोग निकटतम पड़ोसी के उस व्यवहार से काफी परेशान रहे। बिजली की माँ तो यह कहने लगीं कि तुम्हें अपार्टमेंट बदल देना चाहिए। 
ऐसे आदमी का कोई भरोसा नहीं किया जा सकता। मैं अपार्टमेंट बदलने के पक्ष में नहीं था। इन लोगों को ऐसा सुन्दर स्थान अन्यत्र नहीं मिल सकता था। सुबह उगने से ग्यारह बजे तक खुली धूप, किनारे का घर। सामने आधा किलोमीटर तक एकदम खुली हुई सड़क, जिस पर आने-जाने वाले लोग दिखाई देते रहते हैं। घर से सटा हुआ पार्क। इस अपार्टमेंट को बदल कर अब सिर्फ कहीं अपने घर में ही जाया जा सकता है। और घरों की कीमतें वहाँ आसमान को छू रही हैं। इस सोसाइटी में सबसे अच्छा घर यही लगता है। इस्पाती बहुत लंबे अरसे तक जिस भवन में रहता आया था, वह हमसे थोड़ी ही दूरी पर था। उधर से होकर मैं कई बार आता-जाता रहता था। वह एक कमरे का अपार्टमेंट था। यहाँ से भारत जाने से पहले इस्पाती ने सुब्बू को अपने उस अपार्टमेंट में काबिज कर दिया था। सुब्बू-बिजली उसी में रहते रहे। अब हमारे अमरीका आने का कार्यक्रम बना तो सुब्बू दो कमरों के घर की तलाश करने लगा। अचानक यह घर खाली हुआ और उसे यह घर मिल गया। अब महज एक दुर्जन के कारण घर को छोड़कर तो वहाँ से नहीं भागा जा सकता। 
एक दिन सुब्बू ने अपनी सोसाइटी से संपर्क किया। मालूम हुआ अमरीकन की पहले भी कई लोगों से शिकायतें मिलती रही हैं। उन्होंने सुब्बू को कहा कि अब उसकी ओर से और कोई हरकत होने पर वे उसे वहाँ से खाली कर देने को कह देंगे। उनके आश्वासन के बाद भी बिजली की माँ के मन का भय खत्म नहीं हो पाया। हमारे भारत लौट आने के बाद भी बहुत लंबे समय तक वे फोन पर उस पड़ोसी के बारे में यह बात अवश्य पूछती रहती थीं कि उस पड़ोसी की ओर से फिर तो कोई हरकत नहीं हुई। उनकी बड़ी इच्छा थी कि सुब्बू अपने लिए कहीं खुले इलाके में कोई अलग कोठी खरीद ले जहाँ वे अपनी मर्जी के मुताबिक रह सकें। 
मैने ऊपर बताया है कि हमारे सामने पार्किंग के पास कूड़ा-कचरा डालने के लिए तीन कूड़ादान रखे थे। इनमें एक ऐसा था जो सिर्फ लोग जो खरीददारी करते उसकी पैकिंग के बक्से और कागज दूसरे ही दिन कूड़ादान में पहुँचा दिए जाते। मुझे याद आया कि मास्को में एक दिन सुप्रसिद्ध पत्रकार कामरेड सुरेन्द्र कुमार ने मेरे यह कहने पर कि आपके यहाँ सभी अखबार आते हैं, यहाँ पुराने अखबार काफी मँहगे चले जाते होंगे, हँसते हुए यह बात कही थी कि यहाँ अखबार कूड़े में फेंका जाता है, बेचा नहीं जाता। यहाँ भी वही हाल थे। घर में जिस चींज की ंजरूरत न रहती उसे फौरन घर के अंदर रखे गए बड़े थैले के अंदर डाल कर बाहर रखे कूड़ादान में उलट आते। मैंने यह काम भी अपने जिम्मे ले लिया। हर रोज एक या दो बड़े थैले कूड़ादान में चले जाते थे। वहाँ के घरों में रहने वाले सभी लोग उस काम को खुद ही करते थे। घर की औरतों को भी वैसे काम को करने में कोई शर्म महसूस नहीं होती थी। उस काम को करने के लिए किसी सफाई मजदूर की सेवाएँ नहीं ली जाती थीं। अपने भारत की तरह वहाँ कुछ कामों को घटिया या छोटा और कुछ को बड़ा नहीं माना जाता। बहुत धनवान या अधिक आमदनी वाले किसी भी व्यक्ति को अपने काम करने में कोई शर्म महसूस नहीं होती। 

कुछ दिनों का हो जाने पर सुब्बू अतिशय को भी अपने साथ बाजार वगैरह की तरफ ले जाने लगा। गाड़ी पर हम सभी लोग बैठ जाते। अमरीका के यातायात नियमों के मुताबिक अतिशय को चलती गाड़ी में गोद में रख कर नहीं ले जा सकते थे। बच्चे के लिए कार में एक अलग सीट लगा दी जाती है, उसकी उम्र के हिसाब से। उस सीट को लगवाए बगैर कार में बच्चे को रखना जुर्म होता है। ड्राइवर और फ्रंट सीट के बीच में फिट की जाती है बच्चे की पालनानुमा सीट। बहुत छोटे बच्चे की सीट पर बच्चे का मुँह पीछे की ओर रखा जाएगा थोड़ा बड़ा हो जाने पर उसकी पीठ पीछे की तरफ हो जाएगी और तब वह आगे की तरफ देखने लगेगा। चलती कार में रोते हुए भूखे बच्चे को भी उसकी माँ अपनी गोद में नहीं ले सकती। उसे गोद में लेने के लिए कार को कहीं पार्क करना ंजरूरी होगा। और पार्क सिर्फ उसी जगह पर किया जा सकता है, जो उसके लिए निर्धारित हो। अतिशय को अस्पताल से घर लाए जाने से पहले सुब्बू ने वर्कशाप में जाकर कार पर उसकी सीट फिट करवा ली थी। उसके लिए एक प्रैम भी लिया गया है, जो कार की डिक्की में ही रखा रहता है। कार से बाहर कहीं जाने से पहले अतिशय को उसके प्रैम के अंदर रख कर साथ ले चलते हैं। घर से निकलने पर अतिशय को घर पर थोड़ी देर के लिए भी अकेला नहीं छोड़ा जा सकता। वैसा छोड़ देना भी अपराध होगा। स्टोर में जाने पर उसे एक मिनट के लिए भी कार के अंदर अकेला नहीं छोड़ सकते। जब तक माँ स्टोर से बाहर निकलती है अकेले बच्चे की गाड़ी को फौरन पुलिस घेर लेगी। इन तमाम बातों की जानकारी सुब्बू-बिजली हमें देते रहते थे।
सुबह सुब्बू के आफिस जाने के बाद अतिशय की माँ-नानी उसकी सेवा-टहल में लग जाती थीं। बैठक में धूप काफी सुबह आ जाती थी। आकाश में सूरज के गोले के आगे बढ़ने के साथ बैठक के कालीन पर फैली उसकी किरणें भी शनै: शनै: सरकती रहती थीं। हम अतिशय के बिस्तर और उससे जुड़े गाना गाने वाले खेल को भी उसी अनुपात में सरकाते रहते। जाड़ों की सुहावनी धूप की सुखद गर्मी को कायम रखने के लिए बैठक और बरामदे के बीच बड़े शीशों के दरवाजों को बंद कर उन पर लगे परदे हटा कर एक तरफ कर दिए जाते थे। मैं अपनी सब्जी काटने का काम निपटाने के बाद बेड रूम में कंप्यूटर के पास चला जाता। उस पर कोई मेल वगैरह देख लेने के बाद अपने नियमित काम करने लगता। मुझ पर चालीस साल से अधलिखी अपनी ंजिंदगी के तजुर्बात, आपबीतियों की किताब 'देशभक्तों की कैद में' को पूरा करने की धुन सवार थी। फिर कॉलम पर काम करने की चिन्ता भी थी। उन कामों से थोड़ी छुट्टी मिलने पर मैं किसी उपन्यास को उठा कर पढ़ने लग जाता। उनकी समीक्षा भी मुझे सनी वेल में रहते ही पूरी कर लेनी थीं। ऐसा इफरात का वंक्त मुझे और कहीं नहीं मिल सकता था। या ठंडा दिन होने पर हम दोनों जने नाश्ता कर लेते और धूप के खिल जाने के बाद पार्क में टहलने निकल जाते। हमारे लिए तो वहाँ के मौसम में पर्याप्त ठंड होती लेकिन बिजली-सुब्बू अब उसके अभ्यस्त हो चुके थे। सुब्बू को क्रिसमस की छुट्टियों का इन्तंजार था। उस दौरान हमें लेकर कहीं दूर निकल जाना चाहता था। बिजली अपनी माँ को अल्बम दिखाने में लग जाती। वह चाहती थी कि उसकी माँ किसी जगह जाने के लिए अपनी ओर से हाँ कर दें। लेकिन माँ को तो सनी वेल भी ठंडा लग रहा था। वे किसी पहाड़ी पर कहीं बर्फीली जगह या कि समुद्र में पानी की सतह के नीचे जाने को कैसे राजी हो सकती थीं ? और वह भी अतिशय को साथ लेकर। मैं उन्हें अपने मॉस्को के किस्से सुनाने लगता कि ठंड होने पर वहाँ के लोग अपने बच्चों को कई-कई कपंडों की तहों में लपेट कर कमरे के भीतर बन्द करने के बजाय सिर्फ एक चङ्ढी पहना कर नंग धड़ंग पार्क में खेलने-दौड़ने के लिए खुला छोड़ देते हैं। ऐसा करने से उन बच्चों को सर्दी-जुकाम या किसी भी तरह के रोग असर नहीं कर सकते। लेकिन उसकी माँ के चिंतन पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। उसे बदलना मुश्किल था।
शनिवार को सुब्बू के आफिस में अमरीका के तमाम दूसरे दफ्तरों की तरह छुट्टी रहती थी। घर के लिए भोजन सामग्री लेने कई बार मैं और सुब्बू अतिशय और उसकी माँ-नानी को घर पर ही छोड़कर बांजार की ओर निकल जाते। एक दिन हम शाम के वंक्त बाहर निकले तो मेरी श्रीमतीजी को भी साथ ले लिया। उस शाम सुब्बू के बाथरूम में कमोड चोक हो गया था और वहाँ से निकल कर पानी फर्श पर भी बहने लगा था। हम लोगों के घर से निकल जाने के बाद विद्युत ने फोन पर कालोनी आफिस में उसकी शिकायत कर दी। हमारे लौटने पर मैंने पहला सवाल बाथरूम की सफाई के बारे में पूछा। बिजली ने बताया कि वहाँ सफाई कर दी गई है।
-कौन आया था उसे साफ करने ?
- दो मैक्सिकन आए थे। उन्होंने सफाई कर लेने के बाद उस कमरे के फर्श को सुखा भी दिया। 
-कोई मशीनें थीं उनके पास ?
-मशीनें क्या सीट पर पाउडर छिड़कने के बाद ंयादातर काम तो उन्होंने हाथ से ही किए। मैं उस बाथरूम में गया। वहाँ ऐसा नहीं लग रहा था कि कुछ ही देर पहले इस कमरे में अन्दर जाना भी असंभव हो गया था। वहाँ से निकलने के बाद मैं सोचता रह गया। फिदेल कास्त्रो ठीक ही कहते हैं। अमरीकनों के छोटे कामों को करने के लिए वहाँ दक्षिण अमरीकी देशों के लोगों को ही जोता जाता है। कैलिफोर्निया में रहने वाले कुल मैक्सिकन अगर सिर्फ एक दिन के लिए काम न करने का फैसला कर दें तो वहाँ ंजिन्दगी ठप हो जाएगी और हाहाकार मच जाएगा। 
लेखक की शीघ्र प्रकाशित हो रही पुस्तक ' कलीसा मेरे आगे ' का अंश।

-डी-8, नेहरू कॉलोनी , देहरादून
पिन-2480010-28 (उत्तराखंड) 

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