हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली, मुश्ते खाक है फानी, रहे रहे न रहे.
शहीद राजगुरू अमर रहें
शहीद भगत सिंह अमर रहें
शहीद सुखदेव अमर रहें
शहीदों के मज़ारों पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मिटने वालों का यही बाक़ी निशां होगा
- शहीद रामप्रसाद ‘बिस्मिल’
23 मार्च
‘‘शहीद दिवस’’
दक्षिण
एशिया के पैमाने पर जहाँ पर दुनिया के सबसे ज्यादा ग़रीब लोग रहते हैं,
जिस तरह से पूँजीवाद व नवउदारवादी नीतियों का जाल फैल रहा है उससे इस
उपमहाद्वीप पर मानवजाति, पर्यावरण और जीविका का संकट और भी गहराता चला जा
रहा है। भगत सिंह ने इस उपमहाद्वीप पर विश्व पूँजीवाद की समझदारी बनाकर
साम्राज्यवादी ताकतों को चुनौती दी थी। इसलिये भगतसिंह को केवल
हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की दोस्ती, भारतीय राष्ट्रवाद, सिक्ख राष्ट्रवाद के
आधार पर नहीं देखा जाना चाहिये। बल्कि दक्षिण एशियाई पैमाने पर वे और उनका
संगठन (हि.स.प्र.स) अविभाजित भारत व इस उपमहाद्वीप में शोषित समाज को
सामन्तवादी व्यवस्था, भारतीय अभिजात वर्ग व ब्रिटिश राज से मुक्ति दिलाने
के लिये संघर्ष किया था। भगतसिंह ने ब्रिटिश राज से केवल एक मुल्क की
आज़ादी के लिये नहीं, बल्कि इस पूरे दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप के लिये अपनी
शहादत दी थी।

राजनैतिक
गतिविधियों के साथ साथ भगतसिंह ने सामाजिक गैर बराबरी के मुद्दों पर भी
अपने विचारों को गम्भीरता से रखा। 1925 में 18 साल की उम्र में उनका
महत्वपूर्ण लेख ‘अछूत समस्या के बारे में’ प्रकाशित हुआ। उन्होंने बहुत स्पष्ट समझ से कहा था कि ‘‘क्रांतिकारियों का कर्तव्य यह है कि अछूत एवं वंचित समाज की अपने संगठन बनाने में भरपूर मदद करे’’।
यह घोषणा जातिवाद के खिलाफ एक जंग का ऐलान थी, जो पहली बार भारत के
राजनैतिक आन्दोलन के पटल पर आया था। अगले दशक में पिछड़े और वंचित समाज के
आन्दोलनों के जनक बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने यह ऐतिहासिक नारा दिया था कि ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो’ जोकि
भगतसिंह के विचारों से बिल्कुल तालमेल खाता है। जो कि उन्होंने 30 के दशक
में कहा था। भगत सिंह का क्रान्तिकारी चिंतन भारतीय परम्परा में लाला
हरदयाल, करतार सिंह सराभा, गदर पार्टी और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर
मार्क्सवाद और रूस की बोल्शेविक क्रान्ति से जुड़ा हुआ था। ।
क्रान्तिकारियों
को 24 मार्च 1931 को फाँसी के फँदे पर चढ़ाया जाना था, लेकिन अँग्रेज़ी
हुकूमत ने उभरती हुयी जनाक्रोश से भयभीत हो कर चुपके से उनकी फाँसी एक दिन
पहले ही करा दी थी। यहाँ तक कि उन शहीदों की लाशों को परिवारजनों को भी
सौंपा नहीं गया, उन्हें डर था कहीं इससे कोई बड़ा आन्दोलन खड़ा न हो जाये।
ऐसे समय में भी पूरी मुख्यधारा की राष्ट्रीय नेतृत्व खामोश बैठे रहे। दरअसल
उनकी शहादत को लेकर आम जनता में जो क्रान्तिकारी चेतना पैदा हो रही थी वो
भगत सिंह के राजनैतिक रणनीति की एक कामयाबी भी थी। अपने विचारों को स्पष्ट
रूप से व्यक्त करने के सभी रास्ते बन्द हैं, बस एक ही जगह बची है, जो कि
दुश्मन के पाले में जाकर और कचहरी में जाकर हम अपनी बात खुलकर कह सकते हैं,
जिससे हमारे विचारों के बारे में दुनिया को पता चल सके।’ बहरे कानों को
सुनने के लिये एक धमाके की जरूरत है’ अपनी विचारधारा को सर्वोपरि मानना और
उसके उपर ऐसी गम्भीर निष्ठा भारत के राजनैतिक आन्दोलन में बहुत कम देखी गयी
है जहाँ पर व्यक्तिगत आकाँक्षा और सुरक्षा की भावना खत्म हो जाती है।
इसलिए हमारे इतिहास में वे एक सबसे महत्वपूर्ण क्रान्तिकारी के रूप में बने
थे और बने हुये हैं। इस पूँजीवाद के खिलाफ संघर्ष में राष्ट्रीय सीमाओं को
पार करके मेहनतकश अवाम और उनके संगठनों के बीच एकता कायम करनी होगी।
दक्षिण एशिया में और खासकर के भारत-पाक उपमहाद्वीप में ऐसी एकता कायम करने
के लिये भगत सिंह एक शाश्वत प्रतीक हैं। उनकी विचारधाराओं के और तमाम
साम्राज्यवादी विरोधी विचारों के आधार पर एक मजबूत आन्दोलन खड़ा किया जा
सकता है, जो पूँजीवादी शक्तियों को चुनौती दे सकता है और जब तक ऐसा संघर्ष
चलता रहेगा भगत सिंह का नाम बार बार आता रहेगा।
अपने
आखिरी पत्र जो कि उनके छोटे भाई कुलतार सिंह को सम्बोधित किया था और जो कि
शहादत के चन्द दिनों पहले ही लिखा गया था उसमें उन्होंने कहा था कि -
कोई दम का मेहमां हुं ऐ अहले-महफिल
चरागे-सहर हुं बुझा चाहता हूँ
हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली
मुश्ते खाक है फानी, रहे रहे न रहे………
भगतसिंह
का जिस्म तो चन्द दिनों का मेहमान रहा, लेकिन उनके विचार आज के दौर में और
आगे भी जिन्दा रहेंगे। सम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के लिये उन्होने
अंग्रेजी हकूमत को चुनौती देते हुये जो वैचारिक संघर्ष की शुरूआत की थी, वो
आज और भी ज्यादा प्रासंगिक हैं, भगतसिंह के विचार एक सितारा की तरह हमें
राह दिखा रहे हैं।
इन्कलाब जिन्दाबाद!
विकल्प समाजिक संगठन
राष्ट्रीय वन-जन श्रमजीवी मंच
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