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कल्पना कीजिए भारत में हिंदुत्व राजधर्म घोषित हो गया है, और संविधान की जगह मनुस्मृति ने ले ली है.
मोहन क्षोत्रिय
संघ की यह रणनीति जानकर विस्मय नहीं हुआ कि दिल्ली की गद्दी पर कब्ज़ा करने के लिए नरेंद्र मोदी को उत्तर प्रदेश से चुनाव लड़वाने का मन बना लिया गया है, और यह भी कि वह पूरे देश में पार्टी (खुद का) का प्रचार करेंगे. यह अच्छा रहेगा कि देश में सब कुछ मोदी के मन मुताबिक़ और उनके इशारे पर होगा. पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में ही यह साफ़ हो गया था कि मोदी पार्टी से ऊपर हैं. संजय जोशी को गुजरात में ट्रेन यात्रा तक न करने देने की घोषणा करने वाले मोदी ने यह तो उजागर कर ही दिया था कि वह लोकतंत्र और संविधान को ठेंगे पर रखते हैं, और वह फ़ासिज़्म लाकर ही रहेंगे. अडवाणी जी पोते-पोती खिलाएंगे, सलाह के रूप में यह निर्देश उन्हें दे ही दिया गया है. सुषमा-जैतली क्या करेंगे, अभी यह घोषित नहीं हुआ है, पर लगता है कि वे मोदी की बरात में बैंड -बाजा बजाएंगे. देखते चलिए… क्योंकि अभी यह पता नहीं कि और क्या-क्या देखना पड़ेगा ! यह ज़रूर तय लगता है कि टाटा-अंबानी-बच्चन बंदनवार सजाकर मोदी की अगवानी के लिए हर जगह दिखेंगे… बच्चन मोदी-ब्रांड को उसी तरह बेचते दिखेंगे जैसे कुछ बरस पहले उत्तर प्रदेश में मुलायम-ब्रांड को बेचते दिखे थे.
कल्पना कीजिए कि भारत में हिंदुत्व राजधर्म घोषित हो गया है, और संविधान की जगह मनुस्मृति ने ले ली है. ऐसा भी हो सकता है कि शुद्ध कवि-कर्म, कथाकार-कर्म में संलग्न "अधिकांश" साहित्यिक मित्र ( जो सामाजिक-राजनीतिक और न्याय-अन्याय के प्रश्नों पर बोलने में अपनी "हेठी" मानते हैं) "औचक" पकड़े जाएं और यह पाएं कि जो कुछ लिखना उनके जीवन का मिशन बन चुका है, वह सब लिखने-पढ़ने की मुमानियत हो गई है. इसे दूर की कौड़ी मानकर "आत्मतुष्ट" होकर न बैठ जाएं. संविधान द्वारा प्रदत्त "कहीं भी और किसी भी साधन से विचरण" करने की स्वतंत्रता के बावजूद संजय जोशी को मुंबई से दिल्ली ट्रेन से न आकर प्लेन से आना पड़ा था क्योंकि मोदी ने फ़रमान जारी कर दिया था कि वह संजय जोशी को ट्रेन से यात्रा नहीं कर देंगे. संजय जोशी, चूंकि वह मोदी की सामर्थ्य एवं क्षमताओं से नज़दीकी से परिचित हैं, ने "पंगा" लेना उचित नहीं समझा. "शहीद होने का क्या फ़ायदा", यह सोचकर.
हावर्ड फ़ास्ट ने बहुत पहले कहा था कि "फ़ासिज़्म सबसे पहले सत्य की बलि लेकर ही प्रकट होता है," लेखकों के लिए यह खतरे की घंटी होनी चाहिए, क्योंकि उनका काम सत्य से ही पड़ता है.
कल्पना कीजिए कि भारत में हिंदुत्व राजधर्म घोषित हो गया है, और संविधान की जगह मनुस्मृति ने ले ली है. ऐसा भी हो सकता है कि शुद्ध कवि-कर्म, कथाकार-कर्म में संलग्न "अधिकांश" साहित्यिक मित्र ( जो सामाजिक-राजनीतिक और न्याय-अन्याय के प्रश्नों पर बोलने में अपनी "हेठी" मानते हैं) "औचक" पकड़े जाएं और यह पाएं कि जो कुछ लिखना उनके जीवन का मिशन बन चुका है, वह सब लिखने-पढ़ने की मुमानियत हो गई है. इसे दूर की कौड़ी मानकर "आत्मतुष्ट" होकर न बैठ जाएं. संविधान द्वारा प्रदत्त "कहीं भी और किसी भी साधन से विचरण" करने की स्वतंत्रता के बावजूद संजय जोशी को मुंबई से दिल्ली ट्रेन से न आकर प्लेन से आना पड़ा था क्योंकि मोदी ने फ़रमान जारी कर दिया था कि वह संजय जोशी को ट्रेन से यात्रा नहीं कर देंगे. संजय जोशी, चूंकि वह मोदी की सामर्थ्य एवं क्षमताओं से नज़दीकी से परिचित हैं, ने "पंगा" लेना उचित नहीं समझा. "शहीद होने का क्या फ़ायदा", यह सोचकर.
हावर्ड फ़ास्ट ने बहुत पहले कहा था कि "फ़ासिज़्म सबसे पहले सत्य की बलि लेकर ही प्रकट होता है," लेखकों के लिए यह खतरे की घंटी होनी चाहिए, क्योंकि उनका काम सत्य से ही पड़ता है.
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