http://hastakshep.com/?p=20669
क्या आज की महिलाओं का आदर्श सीता हो सकती हैं ?
पितृसत्तात्मक व्यवस्था की बेड़ियों को तोड़कर, महिलाओं के स्वयंसिद्धा बनने
की प्रक्रिया, समाज के प्रजातंत्रीकरण और धर्मनिरपेक्षीकरण का अविभाज्य
हिस्सा है। यद्यपि भारतीय संविधान ने आज से 62 साल पहले ही महिलाओं को
पुरूषों के बराबर दर्जा दे दिया था तथापि सर्वज्ञात व कटु सत्य यह है कि
हमारे समाज के अधिकांश पुरूष आज भी महिलाओं को अपने बराबर का दर्जा देने के
लिए तैयार नहीं हैं और महिलाएं, पुरूषों के अधीन जीने को मजबूर हैं।
धर्म-आधारित राजनीति के उदय ने महिलाओं की स्थिति को और गिराया है। इस
राजनीति के पैरोकार, महिलाओं पर दकियानूसी सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक
परंपराएं लाद रहे हैं। धर्म-आधारित राजनीति ने लैंगिक न्याय के संघर्ष पर
विपरीत प्रभाव डाला है। महिला अधिकार आंदोलन, सामाजिक बराबरी के लिए
संघर्षरत है परंतु उसकी राह में अनेक बाधाएं हैं और जब ये बाधाएं धर्म के
नाम पर खड़ी की जाती हैं तो उनसे पार पाना और कठिन हो जाता है।
बंबई
उच्च न्यायालय ने हाल (मार्च, 2012) में टिप्पणी की है कि विवाहित महिलाओं
को देवी सीता की तरह व्यवहार करना चाहिए और अपने पति का साथ पाने के लिए
अपना सर्वस्व त्यागने के लिए तैयार रहना चाहिए। विद्वान न्यायाधीशगणों ने
यह टिप्पणी, तलाक के एक मामले की सुनवाई के दौरान की। यह मामला एक ऐसी
महिला से संबंधित था जिसका पति पोर्टब्लेयर में नौकरी कर रहा था और वह अपने
पति के साथ पोर्टब्लेयर जाने को तैयार नहीं थी और मुंबई में ही रह रही थी।
न्यायाधीश की टिप्पणी अनावश्यक तो थी ही उसमें एक पौराणिक चरित्र का
उल्लेख तो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। जहां तक सीता से तुलना
किए जाने का प्रश्न है, शायद ही कोई महिला सीता जैसा दुःखी जीवन बिताना
चाहेगी। भगवान राम की कथा के कई संस्करण उपलब्ध हैं परंतु निःसंदेह इनमें
से सबसे अधिक लोकप्रिय है वाल्मीकि-रचित “रामायण“। वाल्मीकि की “रामायण“ को
“महर्षि“ रामानन्द सागर के टेलीविजन धारावाहिक ने घर-घर तक पहुंचा दिया।
इस धारावाहिक में सीता को राम की सेविका और उनकी हर आज्ञा को आंख मूंदकर
स्वीकार करने वाली पत्नी के रूप में दिखाया गया है। उदाहरणार्थ, जब राम,
सीता की पवित्रता के संबंध में फैल रही अफवाहों के चलते इस दुविधा में रहते
हैं कि वे सीता को वनवास पर भेजें या नहीं तब रामानन्द सागर के धारावाहिक
के अनुसार, सीता स्वयं राम से विनती करती हैं कि वे उन्हें त्याग दें। यह
तो वाल्मीकि से भी एक कदम और आगे जाना था।
भगवान
राम की कहानी के अधिकांश संस्करणों में यह बताया गया है कि सीता, राजा जनक
को खेत में तब पड़ी हुई मिलीं थीं जब वे एक धार्मिक अनुष्ठान के तारतम्य
में खेत की जुताई कर रहे थे। उनका विवाह राम से कर दिया जाता है और अपनी एक
रानी, कैकयी को दिए गए वचन को पूरा करने के लिए राम के पिता दशरथ उन्हें
चौदह साल के वनवास पर भेज देते हैं। यहीं से सीता की मुसीबतों का दौर शुरू
होता है। राम-लक्ष्मण, शूर्पनखा का अपमान करते हैं और इसका बदला लेने के
लिए शूर्पनखा का भाई रावण, सीता को अपह्रत कर अपने महल की अशोक वाटिका मे
बंधक बना लेता है। रावण स्वयं सीता से विवाह करने का इच्छुक है परंतु सीता
इसके लिए राजी नहीं होतीं। सीता को रावण के चंगुल से छुड़ाए जाने के दौरान
भी उनका जमकर अपमान होता है। राम सीता से कहते हैं कि उन्होंने उन्हें अपने
सम्मान की रक्षा की खातिर मुक्त कराया है! इसके बाद, सीता को अपनी
पवित्रता साबित करने के लिए अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ता है। इस परीक्षा
में सफल हो जाने के बाद वे अपने पति के साथ अयोध्या आ जाती हैं।
परंतु
उनकी मुसीबतें कम नहीं होतीं, अपितु और बढ़ जाती हैं। महारानी की पवित्रता
पर संदेह व्यक्त करने वाली अफवाहें फैलने लगती हैं। सीता ने राम के समक्ष
अग्निपरीक्षा दी थी परंतु इसके बावजूद अपनी गर्भवती पत्नी का बचाव करने की
बजाए, राम अपने वफादार भाई लक्ष्मण को आदेश देते हैं कि वे सीता को जंगल
में छोड़ आएं। गर्भवती पत्नी को अकारण घर से निकाल देना, इतिहास के किसी दौर
के सामाजिक तौरतरीकों में शामिल नहीं था। सालों बाद राम की संयोगवश सीता
से मुलाकात हो जाती है। वे तब भी सीता को अपने साथ ले जाने में हिचकिचाते
हैं। इसके बाद सीता आत्महत्या कर लेती हैं। शायद ही किसी पौराणिक चरित्र का
जीवन इतना त्रासद रहा हो जितना कि सीता का था।
यह
सब दंतकथाओं और लोक व धार्मिक साहित्य का हिस्सा है। परंतु यह समझना
मुश्किल है कि कोई विद्वान न्यायाधीश भला कैसे किसी महिला को सीता के
पदचिन्हों पर चलने की सलाह दे सकता है? किसी महिला के लिए सीता जैसा जीवन
बिताने से बुरा शायद ही कुछ और हो सकता है। एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह भी
है कि जब हमारा देश प्रजातांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को सर्वोपरि
मानता है तब किसी न्यायालय द्वारा एक पौराणिक चरित्र का हवाला देना कहां तक
उचित है? रामायण, महाभारत व पुराणों में जिस युग का चित्रण किया गया है वह
राजशाही और सामंतवाद का युग था। उस युग का समाज जन्म-निर्धारित, जातिगत व
लैंगिक ऊँच-नीच पर आधारित था। ऐसा प्रचार किया जाता है कि प्राचीन भारत में
महिलाओं को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था और उन्हें समाज में
बहुत ऊँचा दर्जा प्राप्त था। इस सिलसिले में “यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते
रमन्ते तत्र देवताः“ जैसी सुभाषितों को भी उद्धत किया जाता है। सच यह है कि
प्राचीन भारत में महिलाओं को पुरूषों की दासी से बेहतर दर्जा प्राप्त नहीं
था। उनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि वे अपने पिता, पति व पुत्रों की हर
आज्ञा का पालन करें। “मनुस्मृति“ में महिलाओं के कर्तव्यों का वर्णन, इस
तथ्य की पुष्टि करता है। “मनुस्मृति“ द्वारा लैंगिक व जातिगत ऊँच-नीच के
प्रतिपादन के कारण ही डाक्टर बी. आर. अम्बेडकर ने इस पुस्तक को सार्वजनिक
रूप से जलाया था।
आज
महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए कई आंदोलन चल रहे हैं। सरकारों ने कई नए
कानून बनाए हैं और पति, पत्नी का मालिक होता है, इस मान्यता को चुनौती दी
जा रही है। इन परिस्थितियों में क्या यह आवश्यक नहीं है कि हमारी अदालतें
भी महिलाओं के अधिकारों, उनकी महत्वाकांक्षाओं और उनके सशक्तिकरण के
प्रयासों को सम्मान और प्रोत्साहन दें। आज इस अवधारणा को ही चुनौती दी जा
रही है कि विवाह के बाद महिला अपनी पूर्व पहचान खोकर केवल पति के परिवार का
अंग बन जाती है। इस अवधारणा को कचरे के डिब्बे में फेंक दिया गया है, जोकि
पूर्णतः उचित भी है। आज पति-पत्नि के बीच सामांजस्य बिठाने के लिए दोनों
पक्षों को प्रयास करने होते हैं। केवल पत्नी से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि
वह अपने पति के अनुरूप स्वयं को ढाल ले। पश्चिमी देशों में तो ऐसा हो ही
रहा है हमारे देश में भी ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। हमारे देश में भी
ऐसे दम्पत्ति हैं जो अपने वैवाहिक संबंधों को निभाते हुए भी अपनी अलग पहचान
बनाए हुए हैं। हमें समय के साथ अपनी सोच बदलनी होगी, हमें अपने विचारों को
प्रजातांत्रिक मूल्यों के अनुरूप ढालना होगा, हमें जन्म-आधारित ऊँच-नीच के
विचार को त्यागकर, सबको बराबरी की दृष्टि से देखना सीखना होगा। सभी धर्मों
में सामंती और अन्य सड़ेगले मूल्य, धार्मिक कट्टरवाद के भेष में समाज में
घुसपैठ कर रहे हैं। चाहे वे ईसाई कट्टरपंथी हों, इस्लामिक कट्टरपंथी या
हिन्दुत्व के झंडाबरदार-सभी धर्म के नाम पर महिलाओं के दमन को औचित्यपूर्ण
ठहराते हैं।
भारत
में भी धर्म-आधारित राजनीति के उदय और राम मंदिर आंदोलन के बाद सैकड़ों
बाबा और भगवान कुकरमुत्तों की तरह उग आए हैं। ये सभी परिष्कृत भाषा में
सामाजिक रिश्तों में यथास्थितिवाद की वकालत करते हैं। पांच सितारा बाबा और
गुरू, मनुस्मृति के आधुनिक संस्करण के प्रचारक हैं। जहां तक महिलाओं की
बराबरी और उनके सशक्तिकरण का प्रश्न है, इस मामले में कई टेलीविजन
धारावाहिकों की भूमिका भी अत्यंत निकृष्ट है। बाबाओं और टेलीविजन का
संयुक्त मोर्चा अत्यंत खतरनाक और शक्तिशाली है। यह समाज को सही दिशा में
बढ़ने से रोक रहा है-उस दिशा में जहां हम सामंती व सड़ीगली दकियानूसी
मान्यताओं को त्यागकर, प्रजातंत्र व बराबरी पर आधारित मूल्यों को अपनाएंगे।
अदालत
द्वारा आज की स्त्रियों के संदर्भ में सीता का उदाहरण दिया जाना अत्यंत
दुःखद है। वैसे तो अदालतों और अन्य प्रजातांत्रिक संस्थाओं को भारत में
प्रजातंत्र के उदय के पूर्व के केवल उन्हीं चरित्रों का हवाला देना चाहिए
जो प्रगतिशील मूल्यों के हामी थे और भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त
कराने के लिए संघर्षरत थे। हमें उम्मीद है कि देश की महिलाओं को सीता की
राह पर चलने की सलाह देने से पहले हमारी अदालतें इस पर विचार करेंगी कि
सीता का जीवन कितना दुःखद और संघर्षपूर्ण था। उन्हें उन सबके के हाथों
अपमान और अवहेलना झेलनी पड़ी जिनसे उन्हें सम्मान, प्रेम और सहानुभूति की
अपेक्षा थी। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद: अमरीष हरदेनिया)
No comments:
Post a Comment