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'अ'क्रम 'च'क्रम प्रणव पराक्रम
By 6 hours 11 minutes ago
प्रणव मुखर्जी ने जिस दिन अंग्रेजी अखबार 'इकोनॉमिक्स टाइम्स' को दिए गए विशेष साक्षात्कार में मंशा जाहिर कर दी थी कि वह राष्ट्रपति भवन के अहाते में सुबह की सैर करने के इच्छुक हैं उसी दिन साफ हो गया था कि सोनिया गांधी ने प्रणव मुखर्जी की राजनीतिक निवृत्ति योजना पर अपनी सहमति व्यक्त कर दी है। प्रणव मुखर्जी आलाकमान को प्रसन्न करने की कला के उस्ताद हैं। उनके पांच दशकों के राजनीतिक अनुभव ने उन्हें वाणी पर नियंत्रण की सिद्धि तो दशकों पहले ही प्रदान कर दी थी।
प्रणव की परेशानी: 1980 के दशक में इंदिरा गांधी के साथ उनकी नजदीकियों के चलते महत्वाकांक्षी दरबारियों ने राजीव गांधी के कान भर उन्हें कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखाया था। प्रणव मुखर्जी के नाम और उपनाम क्रमशः पीएम शब्दों से शुरू होते हैं। उनका अफसरशाही कॉरपोरेट जगत तथा संसदीय प्रभामंडल में पुख्ता लोकप्रिय होना, राजनीतिक संकटमोचक होने की उनकी क्षमता ने हमेशा उनके 'बॉस' को असुरक्षा बोध से ग्रस्त रखा। इसलिए जब प्रणव दा खुद कह रहे थे कि अपने वित्तमंत्री वाले मकान में मुझे रोज 40 चक्कर मारने पड़ते हैं और मुगल गार्डन का एक ही चक्कर मेरे लिए काफी होगा तो समझ लेना चाहिए था कि उन्होंने यह बयान बिना सोनिया गांधी को विश्वास में लिए नहीं दिया होगा। प्रणव दा जानते हैं कि उन्हें सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनाकर राहुल गांधी का रास्ता दुर्गम नहीं करेंगी। मनमोहन सिंह के नाम का शोशा तो इसलिए छोड़ा गया था कि 7, रेसकोर्स उनके रास्ते में कांटे न बिछाने लगे।
ममता नहीं समझ पाईं मर्म: दिल्ली की राजनीति बेहद बर्बर है। वहां वचनबद्धता को मूर्खता का पर्यायवायी माना जाता है। ममता बनर्जी इस मर्म को नहीं भांप पाईं। इसलिए एक बार फिर वह राष्ट्रीय राजनीति में उसी तरह हाशिए पर फेंक दी गई हैं जिस तरह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के द्वितीय संस्करण में वह अप्रासंगिक कर दी गई थीं। राजग में अजीत पांजा तृणमूल के कोटे से मंत्री बनकर ममता के मुखालिफ हो गए थे। आज ठीक उसी अंदाज में दिनेश त्रिवेदी ममता के विरोधी हो गए हैं। केंद्र की भाजपा सरकार और पश्चिम बंगाल की माकपा सरकार में ऐसा याराना जुड़ा कि लालकृष्ण आडवाणी को बुद्धदेव भट्टाचार्य प्रिय मुख्यमंत्री लगने लगे।
मुसलमानों ने दी भाजपा को मात: 2004 के लोकसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस सचमुच तृणमूल जितनी औकात में रह गई थी। 2004 में राजग के मैनेजर समीकरण बैठाते थे कि अमर सिंह मुलायम सिंह के साथ वाममोर्चे की एक ऐसी खिचड़ी पकाएंगे कि सोनिया ताकती रह जाएंगी और सरकार भाजपा की ही बनी रह जाएगी। भाजपा कांग्रेस के शहरी मध्य वर्ग के वोट खींच लेगी और शेष गैर कांग्रेसी उसके सेकुलर वोट लपक लेंगे। नरेंद्र मोदी के चलते राष्ट्रीय राजनीति में मुसलमानों ने तय किया था कि वोट उसी को देना है जो भाजपा को सत्ता से उखाड़े। सो, जहां कांग्रेस नहीं थी वहां मुसलमानों के वोट बेशक गैर कांग्रेसी सेकुलरों को मिले, पर जहां कांग्रेस थी, वहां मुसलमान कांग्रेसी हो गया। उत्तर प्रदेश में सपा, पश्चिम बंगाल-केरल में माकपा, बिहार में राजद और तमिलनाडु द्रमुक को मुस्लिम वोट बैंक की फिक्स्ड डिपॉजिट ने जिता दिया। भाजपा के साथी रह चुके सेकुलर पराभूत हुए थे। आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम, तमिलनाडु में एआईएडीएमके, बिहार में जनता दल (यू) की पराजय का यही कारण था। अमर सिंह सोचते थे कि उत्तर प्रदेश में 40 सांसद, चंद्रबाबू-जयललिता और नीतिश की मदद से साम्यवादियों के साथ जो गठजोड़ बनेगा तो उसके पास कांग्रेस के ज्यादा सांसद होंगे।
चूका अनिल अंबानी का अंकगणित: 2004 के लोकसभा चुनावों के दो रोज पहले आंध्रप्रदेश के विधानसभा चुनावों के परिणाम घोषित हुए थे। प्रधानमंत्री का ख्वाब देखने वाले चंद्रबाबू नायडू मुख्यमंत्री बनने की औकात गंवा चुके थे। दूसरे दिन अनिल अंबानी भांप गए थे कि सरकार कांग्रेस के नेतृत्व में आ भी सकती है। सो लोकसभा परिणामों से एक दिन पहले वह सोनिया गांधी से मिलकर जरूरत पड़ने पर सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को पटाने का जिम्मा प्रस्तावितकर आए थे। अनिल अंबानी ने दूर की कौड़ी खेली थी। वह बस इतना भूल गए थे कि कॉरपोरेट साझेदारियां और राजनीतिक साझेदारी में अंकगणित और बीजगणित जितना अंतर है। दूसरे दिन जब लोकसभा के परिणाम आने लगे तो अनिल अंबानी सोच रहे थे कि उनका सेंसेक्स सरसरा कर चढ़ने ही वाला है। जब आखिरी परिणाम आए तो सारे गणितज्ञों को सांप सूंघ गया था। मुलायम 40 सांसदों की ताकत के बाद भी साम्यवादियों के संख्याबल के चलते केवल बौने बल्कि अनचाहे हो गए थे।
मुलायम पर सख्त हुए कांग्रेसी: अमर सिंह ने जब माकपा महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत का कंधा पकड़ा तो पाया कि प्रकाश करात और सीताराम येचुरी सुरजीत को रिटायरमेंट प्लान पकड़ा चुके हैं। मुलायम और अमर ने 1999 से 2004 तक सोनिया गांधी को जलील करने का कोई मौका नहीं छोड़ा था। एक दावत में सोनिया गांधी का पक्ष लेने पर अमर सिंह और उनके चमचों ने मणिशंकर अय्यर की जूतों से धुनाई कर दी थी। सोनिया सत्ता की संचालक बन गई तो मुलायम को निपटाना जनपथ ने गांधी परिवार और कांग्रेस दोनों के लिए आवश्यक माना। मुलायम सिंह यादव भले ही केंद्र सरकार में हिस्सेदार नहीं बन पाए थे, पर अटल 'बापजी' की कृपा से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वह सालभर पहले ही बन चुके थे। मुलायम-अमर को सबक सिखाने की जिम्मेदारी 10, जनपथ के सिपहसालार अर्जुन सिंह ने ली। अर्जुन सिंह की सिफारिश पर टी.वी. राजेश्वर जो कि इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रमुख रह चुके थे, को उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया। सालभर में मुलायम परिवार और अमर सिंह के खिलाफ तमाम खुफिया दस्तावेज जमा हो गए।
चतुर्वेदी का चक्रम: अर्जुन सिंह के चहेते रहे विश्वनाथ चतुर्वेदी एक जनहित याचिका लेकर न्यायपालिका पहुंच गये थे। मुलायम-अमर माफिया स्टाइल में उसे निपटाने निकल पड़े। कभी मुख्तार अंसारी को फोन तो कभी पीएसी लगाकर चतुर्वेदी परिवार का सामान सड़क पर फेंक दिया गया। न्यायपालिका को 'मैनेज' करने का पूरा प्रयास चला। इस गड़बड़झाले में सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने तो भरी अदालत में विलाप भी किया। चतुर्वेदी का अमर सिंह प्रायोजित स्टिंग ऑपरेशन हुआ। अमर-मुलायम हर पत्रकार सम्मेलन में चतुर्वेदी के ईमान पर सवाल खड़ा करते थे। इस बीच प्रकाश करात और सीताराम येचुरी ने संप्रग के प्रथम संस्करण को इतनी परेशानियां दीं कि प्रणव मुखर्जी उनके संवाद साधने की कला के चलेत छाया प्रधानमंत्री (शैडो पीएम) हो गए।
मनमोहन ने दी सबको मात:2007 में जब राष्ट्रपति चुनाव आए तो साम्यवादियों ने प्रणव दा का नाम सुझाया। कांग्रेस अपने घोड़े पर दूसरे की सवारी बर्दाश्त नहीं करती। भाजपा वाले सोचते थे कि भैंरो सिंह शेखावत की राजपूतों पर सर्वदलीय पकड़क है और मुलायम कांग्रेस प्रत्याशी की बजाय भैंरो सिंह का साथ देंगे। तब तक सर्वोच्च न्यायालय मुलायम-अमर परिवार की बेहिसाबी संपत्तियों की जांच का आदेश दे चुका था। मुलायम सिंह भैंरो सिंह को कब भूल गए किसी को पता ही नहीं चला। साम्यवादियों को अपनी पसंद के हामिद अंसारी को उपराष्ट्रपति बनवा लेने में ही संतोष हो गया। अब तक मनमोहन सिंह उनकी अमेरिका परस्त नीतियों का विरोध करने वाले नटवर सिंह को तेल के बदले खाद्य घोटाले में ठिकाने लगा चुके थे। अर्जुन सिंह उनकी सरकार के लिए आए दिन संकट पैदा करते थे। अर्जुन सिंह को साम्यवादियों का वैचारिक समर्थन प्राप्त था। 2008 के परमाणु समझौते में संप्रग की गाड़ी फंसी। परमाणु समझौते पर माकपा और भाजपा के सुर मिल रहे थे। माकपा समेत पूरा वामपंथी खेमा परमाणु समझौते पर सरकार गिराने पर आमादा था। मुलायम सिंह तब तक तेलुगु देशम, इंडियन नेशनल लोकदल, असम गण परिषद, नेशनल कांफ्रेंस और झारखंड विकास पार्टी को साथ लेकर तीसरा मोर्चा बना चुके थे। जयललिता से सपा की वार्ता चल रही थी। हर किसी को लगा कि मुलायम तो सरकार गिराने का इंतजार ही कर रहे होंगे। जुलाई 2008 की एक शाम मुलायम और अमर सिंह अचानक पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से मिले। बाहर निकल कर दोनों ने कहा- 'हम श्री कलाम से मिले और परमाणु समझौते पर उनसे सलाह ली। उन्होंने हमें बताया कि परमाणु समझौता राष्ट्र के हित में है।' नेपथ्य में समझौता हुआ था कि कांग्रेस अमर-मुलायम को सीबीआई से माफ करवा दे। यह रहस्योद्घाटन खुद अमर सिंह ने 'तहलका' पत्रिका को दिए गए अपने हालिया साक्षात्कार में किया है। सरकार बच गई।
गले की फांस बना मुलायम मामला: मुलायम की बहू डिंपल यादव ने कार्मिक मंत्री को एक पत्र लिखकर सीबीआई जांच पर पुनर्विचार की प्रार्थना की। तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज, प्रधानमंत्री कार्यालय के मंत्री और कार्मिक मंत्रालय के तत्कालीन प्रभारी पृथ्वीराज चव्हाण, कपिल सिब्बल, अहमद पटेल और सॉलिस्टर जनरल गुलाम वहनवट्टी यादव कुनबे को बचाने की कानूनी कवायद में जुट गए। गुलाम वहनवट्टी ने सर्वोच्च न्यायालय में प्रलंबित मामले में विधि प्रक्रिया के विपरीत जाकर सलाह दे दी कि परिजनों की संपत्ति को पदासीन अधिकारी की संपत्ति से जोड़ना उचित नहीं। गुलाम वहनवट्टी की इस राय को यदि सर्वोच्च न्यायालय स्वीकारता है तो जगन मोहन रेड्डी समेत देश के तमाम भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कोई मामला ही नहीं बचेगा। मनमोहन सिंह ने विश्वनाथ चतुर्वेदी को शांत कर मामले को रफा-दफा करने का जिम्मा कपिल सिब्बल को सौंपा।
...और हो गया अर्जुन का अंत: किसी जमाने में यही कपिल सिब्बल बोफोर्स मामले में राजीव गांधी को भ्रष्टाचारी करार देते थे, सो अर्जुन सिंह खेमे ने सिब्बल को फटकारना शुरू किया। प्रधानमंत्री ने अब अर्जुन सिंह को किनारे लगाना तय कर दिया। अर्जुन सिंह के विरोध के चलते ही 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और सपा का समझौता नहीं हो पाया था। हालांकि इसी के कारण उत्तर प्रदेश में कांग्रेस 24 लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब हुई, सो अर्जुन सिंह को तो पुरस्कृत किया जाना चाहिए था। पर मनमोहन सिंह ने सोनिया को पटाकर अर्जुन सिंह को न केवल मंत्रिमंडल से बाहर करा दिया, बल्कि राज्यपाल पद अस्वीकार कर रिटायरमेंट योजना नकारने के चलते अर्जुन सिंह को कांग्रेस की कार्यसमिति से भी बाहर का रास्ता दिखा दिया। अर्जुन सिंह यह अपमान बर्दाश्त नहीं कर पाए और स्वर्ग सिधार गए। 2009 से 2012 तक कांग्रेस और सपा के बीच सांप-सीढ़ी का खेल चलता रहा। मनमोहन सिंह भांप गए कि यदि 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस लोकसभा चुनावों के पैटर्न पर सफलता पा गई तो उन्हें कुर्सी खाली करनी पड़ेगी।
पांसा पलट गया: जितना डर मनमोहन को था उतना ही डरे हुए सोनिया के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल भी थे। पटेल जानते हैं कि जिस दिन राहुल का राज्यभिषेक हो जाएगा उसी दिन उनको भी किसी राज्य के राजभवन का रास्ता दिखा दिया जाएगा। सो सपा से कांग्रेस के सत्ताधारियों का गुप्त समझौता हुआ। सपा को जितनी सफलता की उम्मीद नहीं थी उससे कहीं ज्यादा सफलता हासिल हो गई। होना था राहुल गांधी का राज्याभिषेक और हो गया अखिलेश सिंह यादव का। अब मनमोहन सिंह की राह में अकेली बाधा प्रणव मुखर्जी बचे थे जो अहमद पटेल और मनमोहन सिंह दोनों पर भारी थे। मनमोहन 2009 में चुनावों के बाद वित्त मंत्रालय में मोंटेक सिंह अहलूवालिया को बैठाने का वादा अमेरिकी विदेशमंत्री हिलरी क्लिंटन से कर आए थे। सो प्रणव ने जब भी बजट पेश किया उसे अमेरिकी लॉबी ने विकास विरोधी करार दिया। राष्ट्रपति चुनाव प्रणव को ठिकाने लगाने का उत्तम अवसर था। मनमोहन जानते थे कि अगर प्रणव का नाम पहले घोषित हो गया तो ममता बनर्जी उन्हें सिर पर लेकर नाच सकती हैं। सालभर पहले ममता प्रणव पुत्र को अपनी कैबिनेट में लेने का आग्रह कर रही थीं। सो मनमोहन-अहमद पटेल ने मुलायम को उकसा कर ममता को भड़का दिया। ममता को लगा कि मुलायम संप्रग में उसके विकल्प हैं। यदि सपा-तृकां एक है तो राष्ट्रपति उनकी मर्जी का होगा।
क्यों मांद में घुस गए मुलायम: जैसे ही ममता ने प्रणव बाबू के नाम का विरोध और मनमोहन का नाम पेश किया वैसे ही अहमद पटेल ने मुलायम को बेहिसाबी संपत्ति मामले की सर्वोच्च न्यायालय की अगली तारीख याद दिला दी। सनद रहे कि देश के भावी प्रधान न्यायाधीश उक्त मामले का फैसला डेढ़ साल से रिजर्व किए बैठे हैं। हालांकि खुद सर्वोच्च न्यायालय का ही निर्देश है कि अगर कोई फैसला छह माह से ज्यादा सुरक्षित रखा जाता है तो उसका कारण स्पष्ट किया जाना चाहिए। पर सर्वोच्च न्यायालय को यह नियम बताए कौन? कहीं न्यायापालिका की अवमानना हो गई तो? मुलायम सिंह जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में वह बड़ी संख्या में सांसद तभी जिता पाएंगे जब केंद्र उन पर मेहरबान रहे। अगर सीबीआई मुलायम, अखिलेश-डिंपल यादव को गिरफ्तार कर लेती है तो राष्ट्रपति भवन उनकी कोई मदद नहीं कर पाएगा। सत्ता की निर्ममता को पहचान मुलायम नरम पड़े हैं और ममता पराभूत। प्रणव मुखर्जी मुगल गार्डन में सुबह की तफरीह करेंगे और मनमोहन निष्कंटक सत्ता भोग। इसे कहते हैं आम के आम गुठलियों के भी दाम। विश्वनाथ चतुर्वेदी मुलायम से लड़कर आज खुद बेचैन हैं। अर्जुन सिंह रहे नहीं, सोनिया गांधी घिरी पड़ी हैं और राहुल इस गणित से बेखबर। मुलायम तो कांग्रेस के काम आ रहे हैं, पर मुलायम-अमर को निपटानेवाले कांग्रेसी 'दुखवा कासे कहूं' वाली स्थिति को प्राप्त हैं।
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