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Tuesday 10 January 2012

योग्यता पर नई बहस

योग्यता पर नई बहस


मस्तराम कपूर
जनसत्ता 6 जनवरी, 2012: अमेरिका के प्रिंस्टन विश्वविद्यालय के एक भारतीय छात्र विनय सीतापति ने एक अंग्रेजी दैनिक में लिखे लेख में लोकप्रियता के सारे रिकार्ड तोड़ने वाले तमिल गीत ‘कोलावरी डी’ का विश्लेषण किया है। और कहा है कि इस गीत की लोकप्रियता का बड़ा कारण यह है कि इसके साथ तमिल सिनेमा की प्रसिद्ध हस्तियों की संतानों के नाम जुडे हैं।उनका कहना है कि इस प्रसिद्धि का कारण योग्यता या पात्रता भी हो, तब भी इतना  तो मानना ही पडेÞगा कि यह योग्यता परिवारवाद या भाई-भतीजावाद से आई। यह लोकप्रियता साधारण तबकों से आए कलाकारों को इतनी आसानी से नहीं मिल सकती थी।
इससे वे यह निष्कर्ष निकालते हैं कि परिवारवाद या भाई-भतीजावाद योग्यता का पोषण करता है और योग्यता परिवारवाद या भाई-भतीजावाद का। उन्होंने राजनीति या अन्य क्षेत्रों के प्रसिद्ध व्यक्तियों की संतानों को विशेषाधिकार वाले बच्चे कहा, जिनमें योग्यता स्वाभाविक रूप से मान ली जाती है, शायद आ भी जाती है। उन्होंने हावर्ड विश्वविद्यालय केप्राध्यापक मैट एंडरसन का उदाहरण दिया, जिन्होंने रंगभेदोत्तर दक्षिण अफ्रीका संबंधी एक अध्ययन में पाया कि वहां जब अश्वेत युवाओं को निजी क्षेत्र में अधिक हिस्सेदारी देने का कार्यक्रम चलाया गया तो उसका अधिकतम लाभ उन्हीं युवाओं को मिला, जिनका संबंध अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के शासक वर्गों से था।
एंडरसन ने कहा कि ये युवक अधिक शिक्षित और योग्य भी रहे होंगे, लेकिन यह योग्यता उन्हें पारिवारिक पृष्ठभूमि से मिली। उन्होंने कहा कि अभिजात वर्गों में कोई चीज है, जो उनके बच्चों को योग्य बनाने में मदद करती है। इसका कारण मेरी समझ में नहीं आता, पर मैं इसे अक्सर देखता हूं। योग्यता और भाई-भतीजावाद का एक-दूसरे का पोषण करने का विचार विवादास्पद और अपुष्ट हो सकता है, पर यह है अनुचित और अन्यायपूर्ण। पारिवारिक संबंध आकस्मिक जन्म से बनते हैं और ये निचले वर्गों में जन्म लेने वाले करोड़ों बच्चों के साथ भेदभाव करते हैं।
हमारे देश की स्थितियों के संदर्भ में यह बहस बहुत महत्त्वपूर्ण है। हमारे यहां आरक्षण की योजना के तहत दलित, आदिवासी और पिछडेÞ तबकों को जो लाभ सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्रों में मिल रहा है उसका अधिकतर भाग भी उन्हीं बच्चों को मिलता है जिनके मां-बाप आरक्षण से लाभान्वित परिवारों से रहे हों। इनमें जो योग्यता पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण आ जाती है वह अन्य में नहीं आ पाती। अगर आरक्षण का लाभ पा चुके बच्चों को आरक्षण की सुविधा से वंचित किया जाता है (जैसा कि क्रीमी लेयर के विचित्र सिद्धांत की व्यवस्था है), तो इसका मतलब होगा आरक्षित पदों के लिए योग्य उम्मीदवारों का अभाव, जिसके चलते उन पदों को अनारक्षित घोषित कर ऊंची जातियों के हिस्से में शामिल किया जा सकता है। इस प्रकार क्रीमी लेयर का सिद्धांत आरक्षण-व्यवस्था को ही खत्म करने का तिकड़म बन जाता है।
आरक्षण-व्यवस्था को समाप्त करने का इसी तरह का एक और तिकड़म ऊंची जातियों के वर्चस्व वाली व्यवस्था ने अपनाया है। इसके अनुसार सरकारी नौकरियों की प्रतियोगिताओं में अगर कोई एससी-एसटी या ओबीसी उम्मीदवार सामान्य श्रेणी में परीक्षा पास करता है तो उसे भी आरक्षित कोटे में डाल दिया जाता है, जिसके फलस्वरूप आरक्षित श्रेणी का एक पद घट जाता है और अनारक्षित श्रेणी का एक पद बढ़ जाता है।
पिछले दिनों हरियाणा के शिक्षा विभाग में एक और तमाशा देखने को मिला। वहां महिलाओं के लिए तैंतीस प्रतिशत आरक्षण लागू हुआ था। इससे पहले स्कूल-शिक्षकों की जो भर्तियां होती थीं उनमें साठ-पैंसठ प्रतिशत महिलाएं चुन ली जाती थीं। आरक्षण लागू होने के बाद उनकी संख्या तैंतीस प्रतिशत तक सीमित कर दी गई, जिसका मतलब था पुरुषों के लिए पैंसठ प्रतिशत आरक्षण।
आरक्षण-व्यवस्था को विफल करने का एक और षड्यंत्र सरकार की पदोन्नतियों के रूप में भी चल रहा है। इधर न्यायपालिका ने भी व्यवस्था दी है कि पदोन्नतियों में आरक्षण नहीं होगा। यह व्यवस्था ओबीसी के लिए लागू है, पर एससी-एसटी के लिए भी लागू हो सकती है। यह व्यवस्था तभी न्यायपूर्ण हो सकती है जब पदोन्नतियों के नियम न्यायपूर्ण हों और उनमें पूर्वग्रह और भेदभाव के लिए कोई गुंजाइश न हो। पर ऐसा है नहीं। पदोन्नतियों में आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवारों से भेदभाव होने की पूरी संभावना रहती है।
पदोन्नतियों का प्रचलित सूत्र है योग्यता और वरीयता (मैरिट-कम-सीनियोरिटी)। इसमें जोर योग्यता पर होता है। अगर योग्यता की कसौटी पर कोई उम्मीदवार खरा नहीं उतरता तो वरिष्ठ होने पर भी उसे पदोन्नति से वंचित कर दिया जाता है। योग्यता का मापदंड सरकारी नौकरियों में होता है सीआर (कांफिडेंशियल रिपोर्ट), जो उच्च अधिकारी अपने से निचले कर्मचारी को हर साल देता है।
यह सीआर निन्यानवे प्रतिशत मामलों में आरक्षित श्रेणी के कर्मचारियों के खिलाफ होती है, क्योंकि उच्च जातियों में उनके प्रति पूर्वग्रह हर समय मौजूद होता है। पदोन्नति के समय आरक्षित श्रेणी के कर्मचारी के रिकार्ड में ‘फेयर’ भी होता है और अनारक्षित श्रेणी के कर्मचारी
के रिकार्ड में ‘गुड’ होता है तो ‘फेयर’ को ‘गुड’ से घटिया रिपोर्ट मान कर आरक्षित श्रेणी के कर्मचारी को पदोन्नति से वंचित कर दिया जाता है।
अगर पदोन्नति की कसौटी योग्यता और वरीयता के बजाय वरीयता और योग्यता हो तो वरीयता को तरजीह दिए जाने के कारण आरक्षित श्रेणी के कर्मचारी को पदोन्नति मिल सकती है। इस सूत्र के अनुसार रिपोर्ट ‘खराब’ होने पर ही वरीयता का अतिक्रमण   किया जा सकता है। मगर हमारी नौकरशाही में, जिस पर हमेशा उच्च जातियों का ही वर्चस्व रहा है, वरीयता और योग्यता के न्यायपूर्ण सिद्धांत को नहीं माना जाता, जबकि अंग्रेजों के वक्तमें यही सिद्धांत अपनाया जाता था। जवाहरलाल नेहरू के शासन में योग्यता को वरीयता पर तरजीह दी जाने लगी।
जाहिर है, यह दबे-कुचले तबकों के अधिकारों के प्रति बेरुखी की दृष्टि का नतीजा है और इसे उच्च जातियों द्वारा अपने वर्चस्व को हमेशा बनाए रखने की चालाकी भी कहा जा सकता है। यह सब योग्यता की रक्षा के नाम पर चलता है। यह योग्यता शब्द देखने-सुनने में बहुत अच्छा लगता है, लेकिन इसका वास्तविक अर्थ हो जाता है जातिवाद, परिवारवाद और भाई-भतीजावाद, जो समाज के सारे भ्रष्टाचार की जड़ है। इसीलिए भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए लोगों में 90-95 प्रतिशत अभिजात वर्गों से ही होते हैं, भले उनमें से अधिकतर एक और भ्रष्टाचार के बल पर साफ छूट जाते हैं।
जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक सभी प्रधानमंत्री, वीपी सिंह और देवगौड़ा को छोड़ कर, योग्यता-तंत्र के मुरीद रहे, जबकि वरीयता को तरजीह देने वाली व्यवस्था सभी न्यायपूर्ण समाजों में रही है। इसे उलटने के पीछे जो विचार निहित है वह स्पष्टतया अपने समूह से बाहर वालों के लिए दरवाजे बंद करना है, जैसे रेल के डिब्बे में बैठे लोग बाहर वालों के लिए दरवाजे बंद कर देते हैं। ये जाति-व्यवस्था के ही लक्षण हैं। डॉ राममनोहर लोहिया ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘जाति प्रथा’ में इसका बहुत सुंदर विवेचन आज से साठ साल पहले किया था।
उनका कहना था कि जाति-व्यवस्था ऊंची जातियों में योग्यता का केंद्रीकरण करती है और छोटी जातियों में आलस और जड़ता का केंद्रीकरण। उच्च जातियों में योग्यता सिकुड़ती जाती है और कुछ परिवारों तक सीमित हो जाती है।
भारत में यह व्यवस्था दो-ढाई हजार साल से चल रही है। लेकिन जाति-व्यवस्था सब समाजों में किसी न किसी रूप में रही है। इसे योग्यता को तरजीह देने वाली (वरीयता की तुलना में) व्यवस्था में भी देखा जा सकता है और अन्य प्रकार की ऊंची-नीची सीढ़ियों के रूप में भी।
प्रिंस्टन विश्वविद्यालय के शोधकर्ता अध्यापक ने इस तथ्य की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया, यह प्रसन्नता की बात है। हम उम्मीद कर सकते हैं कि भारत के विद्वान भी इस खोज से प्रभावित होकर अपने को योग्यता-तंत्र के मोह-जाल से मुक्त करने की कोशिश करेंगे। वैसे उनके लिए यह काम बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि दो-ढाई हजार साल का जमा हुआ मैल इतनी आसानी से नहीं धुलेगा। इसके लिए किसी असाधारण कदम या असाधारण घटना की जरूरत होगी। हमारे संविधान निर्माताओं ने इसका शांतिपूर्ण समाधान बताया है। यह समाधान है आरक्षण की व्यवस्था। पर पिछले छह दशकों में इस व्यवस्था को ठीक से लागू करने के बजाय इसमें अड़ंगे लगाने का काम ही हुआ है।
इसका सबसे बड़ा प्रमाण है जातिवार जनगणना से बचने की कोशिश, जो कि आरक्षण-व्यवस्था को लागू करने के लिए पहला कदम है। एक बुद्धिहीन राजा या राजपुत्र भी योग्य बन जाता है। इंग्लैंड के एक बादशाह के कथन के अनुसार, जिसके सिर पर ताज रखा जाता है उसमें अक्ल आ ही जाती है। बडेÞ नेताओं, मंत्रियों, प्रसिद्ध अभिनेताओं आदि की संतानों को राजनीति, व्यापार आदि में कुलांचें भरने के लिए किसी योग्यता की जरूरत नहीं पड़ती। वे पैदा होते ही महानता प्राप्त कर लेती हैं।
निम्न वर्गों के लिए भी योग्यता का उतना महत्त्व नहीं होता जितना विशेष अवसरों का। वे जानते हैं कि जो योग्यता के मानदंड निर्धारित करते हैं वे अपने फायदे का पहले ध्यान रखते हैं और उनके मानदंड भी बेसिरपैर के होते हैं। इनके अनुसार नब्बे प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाला इक्यानवे प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाले के मुकाबले अयोग्य हो जाता है। इसमें न जमीनी अनुभव की गिनती होती है न दया, करुणा, ईमानदारी आदि मानव-मूल्यों के प्रति गहरी निष्ठा की।
एक दुष्ट, क्रोधी, देशद्रोही और भ्रष्ट व्यक्ति भी अंकों के आधार पर योग्य बन जाता है, भले ही अंक भ्रष्ट तरीके से प्राप्त किए गए हों। योग्यता की यह कसौटी ऊंची-नीची सीढ़ियों का निर्माण करती है, जो जाति व्यवस्था का आधार है। इसीलिए इस छद््म योग्यता को सर्वोपरि महत्त्व देना जाति-व्यवस्था को हमेशा के लिए बनाए रखने का षड्यंत्र बन जाता है। जातिवाद योग्यता को सर्वोच्च मूल्य बनाने के लिए और इसके द्वारा अपने विशेषाधिकारों की रक्षा के लिए जान की बाजी लगा देता है।

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