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By Dusadh Hari Lal
आडवाणी:हिंदुत्व की राजनीति का विवेकान्द
एच एल दुसाध
आज भले ही लोग को भाजपा के आडवाणी को भीष्म पितामह कह रहे हों, किन्तु मैं राजग के ज़माने से ही(जब वाजपेयी और आडवाणी का अहम एकाधिकबार टकराया) उन्हें हिंदुत्व की राजनीति का विवेकानंद कहता रहा हूँ.आज जबकि आडवाणी ने भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी,संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति से हटने का चरम निर्णय ले लिया है ,उन्हें पुनः हिंदुत्व की राजनीति का विवेकानंद कहने का मन कर रहा है.जानत हैं क्यों?
एडविन आर्नाल्ड की 'लाइट ऑफ़ एशिया' पढ़कर हिन्दुस्तान पहुंचे सिंघली बौध भिक्षु धर्मपाल ने जब बौद्ध धर्म की दुर्दशा देखकर भारत को बौद्ध धर्म-धारा में बहा देने की सिंह घोषणा किया,जन्मजात धर्माधिकारी ब्राह्मण भय से कांपने लगे .वैसे समय में धर्मपाल के सामान ही असाधारण प्रतिभाशाली विवेकानंद त्रानकर्ता बनकर सामने आये और उनकी चुनौती का साफलता के साथ सामना किया .यही नहीं परवर्तीकाल में शिकागो के विश्व धर्म सम्मलेन में धर्मपाल और ऐनिविसेंट इत्यादि के सहयोग से चरम अमानवीय हिन्दू-धर्म को विश्व चैम्पियन बनवा दिया .इस असाधारण कृतित्व के न्यूनतम पुरस्कार स्वरूप विवेकानंद को किसी धाम का शंकराचार्य बनना चाहिए था.किन्तु शूद्र होने के कारण वे न्यूनतम पुरस्कार से वंचित हुए ही,विश्वधर्म सम्मलेन से वापसी पर उन्हें कई जगह उन ब्राह्मणों के रोष का शिकार का शिकार बनाना पड़ा जिनका मानना था कि शूद्र होने के नाते विवेकानंद को अध्यात्मानुशीलन का अधिकार नहीं.प्रायः 100 साल बाद एल के आडवाणी ने विवेकानंद के इतिहास की पुनरावृति किया.
धर्मपाल के भारतभूमि पर आगमन सौ साल बाद जब अगस्त 1990 में मंडल रिपोर्ट की प्रकाशित हुई,उससे न सर्फ शक्ति के कुछ स्रोतों में पिछडो की भगीदारी का मार्ग प्रशस्त हुआ बल्कि उससे भी आगे बढ़कर बहुजनों की जाति चेतना का जो राजनीतीकरण हुआ उससे ,सामाजिक न्याय के सैलाब में हिन्दुस्तानी साम्राज्यवादियों के ध्वस्त हो जाने के आसार पैदा हो गए.ऐसे समय में आडवाणी उनके त्राता बनकर सामने आये.उन्होंने 25 सितम्बर 1990 को राम जन्म भूमि मुक्ति आन्दोलन के नाम पर रथ यात्रा निकाल कर सामाजिक न्याय की धारा को ही अन्य दिशा में मोड़ दिया.उनके रामजन्म भूमिम आन्दोलन से जाति चेतना के ऊपर धार्मिक चेतना का राजनीतिकरण हावी हो गया और परवर्ती चरण में भाजपा सत्ता में आ गई.जिस तरह उन्होंने अपने एकल प्रयास से भाजपा को शून्य से शिखर पर पहुँचाया ,उससे अन्य कोई संगठन होता तो सिर्फ और सिर्फ अडवाणी प्रधानमंत्री बनाते . किन्तु वैसा नहीं हुआ तो इसलिए संघ का लक्ष्य ब्राह्मणों के हाथ में सत्ता की लगाम थमाकर अल्पजान सवर्णों के हितों की रक्षा करना रहा है .संघ के इस फार्मूले के कारण अब्राह्मण अडवाणी की जगह,उस ब्राह्मण अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला जो दूर बैठे आडवाणी के मंदिर आन्दोलन को निहार रहे थे.जिनका मंदिर आन्दोलन में मात्र इतना अवदान रहा कि उन्होंने इसे स्वधीनोत्तर भारत का सबसे बड़ा आन्दोलन करार देने का साहस जुटाया ..तो क्या ऐसा नहीं लगता कि आडवाणी हिंदुत्व की राजनीति के विवेकानंद हैं?
बहरहाल हम बहुजनवादी नज़रिए से चाहें तो विवेकानन्द को 'ब्राह्मणवाद का दास' और आडवाणी को 'साम्प्रदायिक और बहुजन-शत्रु' कह सकते हैं.पर,इसमे कोई शक नहीं कि आध्यात्म के क्षेत्र में विवेकानंद और राजनीति के क्षेत्र में आडवाणी ने हिन्दू साम्राज्यवादियों के हित में सर्वोच्च स्तर की योग्यता प्रदर्शन का जो दृष्टान्त स्थापित किया है ,उसका हम कायल हुए बिना नहीं रह सकते.आज बहुत से लोग अडवाणी की तुलना उनके ही चेले मोदी से कर रहे हैं.यह आडवाणी का अपमान है.मोदी क्या अटल बिहारी वाजपेयी का अवदान आडवाणी के समक्ष नहीं के बराबर है.हिंदुत्व की राजनीति में हेडगेवार को अपवाद मान लिया जाय तो एक से दस तक नंबर सिर्फ आडवाणी को मिल सकता है.मुझे ख़ुशी है कि 2099 में मैंने 1500 पृष्ठीय डाइवर्सिटी इयर बुक हिंदुत्व की राजनीति के विवेकानंद को समर्पित की थी.क्योंकि मेरा मानना रहा है कि तमाम कमियों के बावजूद स्वधीनोत्तर भारत की राजनीति को इंदिरा गाँधी और कांशीराम के बाद जिस तरह आडवाणी ने प्रभावित किया उसकी मिसाल मुश्किल है.हमारी कामना है कि कुदरत अडवाणी को कृतघ्न संघ परिवार को योग्य जवाब देने की शक्ति दे.
11,6.2013
एच एल दुसाध
आज भले ही लोग को भाजपा के आडवाणी को भीष्म पितामह कह रहे हों, किन्तु मैं राजग के ज़माने से ही(जब वाजपेयी और आडवाणी का अहम एकाधिकबार टकराया) उन्हें हिंदुत्व की राजनीति का विवेकानंद कहता रहा हूँ.आज जबकि आडवाणी ने भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी,संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति से हटने का चरम निर्णय ले लिया है ,उन्हें पुनः हिंदुत्व की राजनीति का विवेकानंद कहने का मन कर रहा है.जानत हैं क्यों?
एडविन आर्नाल्ड की 'लाइट ऑफ़ एशिया' पढ़कर हिन्दुस्तान पहुंचे सिंघली बौध भिक्षु धर्मपाल ने जब बौद्ध धर्म की दुर्दशा देखकर भारत को बौद्ध धर्म-धारा में बहा देने की सिंह घोषणा किया,जन्मजात धर्माधिकारी ब्राह्मण भय से कांपने लगे .वैसे समय में धर्मपाल के सामान ही असाधारण प्रतिभाशाली विवेकानंद त्रानकर्ता बनकर सामने आये और उनकी चुनौती का साफलता के साथ सामना किया .यही नहीं परवर्तीकाल में शिकागो के विश्व धर्म सम्मलेन में धर्मपाल और ऐनिविसेंट इत्यादि के सहयोग से चरम अमानवीय हिन्दू-धर्म को विश्व चैम्पियन बनवा दिया .इस असाधारण कृतित्व के न्यूनतम पुरस्कार स्वरूप विवेकानंद को किसी धाम का शंकराचार्य बनना चाहिए था.किन्तु शूद्र होने के कारण वे न्यूनतम पुरस्कार से वंचित हुए ही,विश्वधर्म सम्मलेन से वापसी पर उन्हें कई जगह उन ब्राह्मणों के रोष का शिकार का शिकार बनाना पड़ा जिनका मानना था कि शूद्र होने के नाते विवेकानंद को अध्यात्मानुशीलन का अधिकार नहीं.प्रायः 100 साल बाद एल के आडवाणी ने विवेकानंद के इतिहास की पुनरावृति किया.
धर्मपाल के भारतभूमि पर आगमन सौ साल बाद जब अगस्त 1990 में मंडल रिपोर्ट की प्रकाशित हुई,उससे न सर्फ शक्ति के कुछ स्रोतों में पिछडो की भगीदारी का मार्ग प्रशस्त हुआ बल्कि उससे भी आगे बढ़कर बहुजनों की जाति चेतना का जो राजनीतीकरण हुआ उससे ,सामाजिक न्याय के सैलाब में हिन्दुस्तानी साम्राज्यवादियों के ध्वस्त हो जाने के आसार पैदा हो गए.ऐसे समय में आडवाणी उनके त्राता बनकर सामने आये.उन्होंने 25 सितम्बर 1990 को राम जन्म भूमि मुक्ति आन्दोलन के नाम पर रथ यात्रा निकाल कर सामाजिक न्याय की धारा को ही अन्य दिशा में मोड़ दिया.उनके रामजन्म भूमिम आन्दोलन से जाति चेतना के ऊपर धार्मिक चेतना का राजनीतिकरण हावी हो गया और परवर्ती चरण में भाजपा सत्ता में आ गई.जिस तरह उन्होंने अपने एकल प्रयास से भाजपा को शून्य से शिखर पर पहुँचाया ,उससे अन्य कोई संगठन होता तो सिर्फ और सिर्फ अडवाणी प्रधानमंत्री बनाते . किन्तु वैसा नहीं हुआ तो इसलिए संघ का लक्ष्य ब्राह्मणों के हाथ में सत्ता की लगाम थमाकर अल्पजान सवर्णों के हितों की रक्षा करना रहा है .संघ के इस फार्मूले के कारण अब्राह्मण अडवाणी की जगह,उस ब्राह्मण अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला जो दूर बैठे आडवाणी के मंदिर आन्दोलन को निहार रहे थे.जिनका मंदिर आन्दोलन में मात्र इतना अवदान रहा कि उन्होंने इसे स्वधीनोत्तर भारत का सबसे बड़ा आन्दोलन करार देने का साहस जुटाया ..तो क्या ऐसा नहीं लगता कि आडवाणी हिंदुत्व की राजनीति के विवेकानंद हैं?
बहरहाल हम बहुजनवादी नज़रिए से चाहें तो विवेकानन्द को 'ब्राह्मणवाद का दास' और आडवाणी को 'साम्प्रदायिक और बहुजन-शत्रु' कह सकते हैं.पर,इसमे कोई शक नहीं कि आध्यात्म के क्षेत्र में विवेकानंद और राजनीति के क्षेत्र में आडवाणी ने हिन्दू साम्राज्यवादियों के हित में सर्वोच्च स्तर की योग्यता प्रदर्शन का जो दृष्टान्त स्थापित किया है ,उसका हम कायल हुए बिना नहीं रह सकते.आज बहुत से लोग अडवाणी की तुलना उनके ही चेले मोदी से कर रहे हैं.यह आडवाणी का अपमान है.मोदी क्या अटल बिहारी वाजपेयी का अवदान आडवाणी के समक्ष नहीं के बराबर है.हिंदुत्व की राजनीति में हेडगेवार को अपवाद मान लिया जाय तो एक से दस तक नंबर सिर्फ आडवाणी को मिल सकता है.मुझे ख़ुशी है कि 2099 में मैंने 1500 पृष्ठीय डाइवर्सिटी इयर बुक हिंदुत्व की राजनीति के विवेकानंद को समर्पित की थी.क्योंकि मेरा मानना रहा है कि तमाम कमियों के बावजूद स्वधीनोत्तर भारत की राजनीति को इंदिरा गाँधी और कांशीराम के बाद जिस तरह आडवाणी ने प्रभावित किया उसकी मिसाल मुश्किल है.हमारी कामना है कि कुदरत अडवाणी को कृतघ्न संघ परिवार को योग्य जवाब देने की शक्ति दे.
11,6.2013
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