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Sunday 24 February 2013

आहत आस्थाओं का देश


http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/39401-2013-02-22-05-42-44


Friday, 22 February 2013 11:11
शिवदयाल 
जनसत्ता 22 फरवरी, 2013: आस्था और अभिव्यक्ति को लेकर पिछले कुछ वर्षों में अनेक लज्जाजनक प्रसंग सामने आए हैं, बल्कि आए दिन कुछ न कुछ घटता ही रहता है। एक घाव भरता नहीं कि दूसरी खरोचें लग जाती हैं। किसी के कुछ कहने पर कोई न कोई आहत हो रहा है, लेकिन जो कोई आहत हो रहा है वह खुद को ही कोई खास जाति या समुदाय बता रहा है। वह कह रहा है- चूंकि इस बात से मुझे चोट पहुंची, इसलिए यह माना जाए कि मैं जिस समुदाय से आता हूं उसकी भावनाएं भी आहत हुर्इं। कौन हैं ये लोग? या तो धर्म या संस्कृति के ठेकेदार या फिर राजनीति के ठेकेदार। 
अब इस जमात में कुछ विलक्षण बुद्धिजीवी भी शामिल हो गए हैं, लेकिन इस विशेषता के साथ कि इन्हें व्यापक समाज का बुद्धिजीवी बनने से किसी इस या उस समाज का बुद्धिजीवी कहलाना बेहतर लगता है और ये उपरोक्त 'ठेकेदारों' का ही पोषण करते हैं, भले वे इस खयाल में गाफिल रहें कि उनकी कोई अलग स्वायत्तता है। ये लोग किसी समुदाय विशेष की तरफ से पूरे अधिकार और विश्वास के साथ अपने विचार रखते हैं- आधिकारिक प्रवक्ता के तौर पर। मजे की बात यह कि उनके कथन भी प्राय: उकसाने या चोट पहुंचाने वाले ही होते हैं। 
भारत में अभिव्यक्ति का प्रश्न अब नियंत्रित अभिव्यक्ति बनाम स्वाधीन अभिव्यक्ति का हो गया है। सरकार और अदालतें लोकतंत्र और संविधान की दुहाई देते हुए प्रकट या अप्रकट रूप से नियंत्रित अभिव्यक्ति के पक्ष में नजर आती हैं। हम बोलें जरूर, लेकिन ऐसे बोलें जिससे किसी और की भावनाएं आहत न हों! स्कूल-कॉलेज-पंचायतों में अब इस बात के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए कि एक नागरिक के तौर पर हमें क्या बोलना है, कितना बोलना है और कैसे बोलना है। प्रशिक्षकों के रूप में धार्मिक समूहों और राजनीतिक दलों के नुमाइंदों को नियुक्त किया जा सकता है। आखिर 'भावना' और 'आस्था' के थोक सौदागर यही लोग हैं। यही तय करते हैं कि किसे आने देना है, किसे निकाल बाहर करना है! 
अगर सचमुच ऐसी व्यवस्था हो जाए तो कम से कम सरकार का काम आसान हो जाएगा और जनता भी यह बात गांठ बांध लेगी कि वह 'जनार्दन' नहीं, बस प्रजा है इस लोकतंत्र में, और इसीलिए ढंग से, हिसाब से रहना है। इतना होने पर तो 'स्वतंत्रचेता' बुद्धिजीवियों को अपनी औकात समझ में आ ही जानी है, और इन करतबों का प्रयोजन भी तो आखिरकार यही है।
कभी-कभी विचार आता है कि इस बहुधार्मिक, बहुभाषिक, बहुसांस्कृतिक समाज में भाषाशास्त्रियों को नई 'लोकतांत्रिक भाषा' रचने के लिए तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। ऐसी भाषा, जिसमें व्यंजना न हो, मुहावरे न हों, व्यंग्य और उलटबांसियां न हों, जिसमें बात को समझाने के लिए उदाहरणों का प्रयोग न हो, और हां, जहां मजाक के लिए भी कोई गुंजाइश न हो। हमारे यहां तो चुटकुले और लतीफे भी बहुत कहे-सुने जाते हैं, जिनमें कोई न कोई समुदाय आ ही जाता है। 
हमारे परम सहिष्णु ग्रामीण समाज में विभिन्न जातियों के बारे में एक से बढ़ कर एक लोकोक्तियां और मुहावरे प्रचलित हैं। इनमें निम्न जातियों को ही नहीं, उच्च जातियों को भी लक्ष्य बनाया गया है, बल्कि अधिक बनाया गया है- उनके दोहरे मानदंडों, स्वार्थी और आत्मकेंद्रित स्वभाव, उनकी तिकड़मों और काइयांपन को निशाना बनाया गया है। यह सब भी प्रतिबंधित हो जाना चाहिए अब, क्योंकि इससे आखिर किसी न किसी की भावनाएं आहत होती ही हैं।
तो बिल्कुल सादा, सरल, समतापूर्ण, लोकतांत्रिक भाषा रचना और बरतना भी हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य होना चाहिए। इससे नियंत्रित अभिव्यक्ति का महान उद््देश्य पूरा हो जाता है। यह रास्ता निरापद है और लोकतांत्रिक मर्यादाओं के अनुकूल भी ठहरता है। आखिर अपने देश में वैसा कारनामा तो किया नहीं जा सकता, जैसे कि पूर्वी पाकिस्तान के ढाका में 1971 के संभवत: अप्रैल महीने के आखिर में जनरल टिक्का खां की फौज ने पाकिस्तानी राष्ट्र के 'व्यापक हित में' अभियान चला कर ढाका को लगभग 'बुद्धिजीवीविहीन' बना डाला था। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी! वैसे होने को क्या नहीं हो सकता। अपने देश में ऐसा सपना देखने वाले न हों- यह कैसे कहा जा सकता है। मौका मिलने की बात है। देश की जनता मौका कमोबेश सबको देती ही है- आज नहीं तो कल। 
जिस देश और समाज ने कुछ अपवादों को छोड़ कर कभी वाणी पर बंधन स्वीकार नहीं किया उसे अब उपदेश देने की कोशिश की जा रही है- क्या बोलो, कैसे बोलो या फिर बोलो ही क्यों? संवाद और सायुज्यता जिस समाज और संस्कृति के आधार रहे हों वहां अभिव्यक्ति का पाठ पढ़ाया जा रहा है। आप अभिव्यक्ति को रोकिए, और संवाद खत्म! क्या हमारे हित और सोच सचमुच इतने परस्पर विरोधी हैं कि हमें खुल कर अपनी बातें रखने से गुरेज करना चाहिए? अगर हां, तो एक राष्ट्र के रूप में बचे रहने की हमारी कुछ संभावना है? 
एक भ्रम फैलाया जा रहा है, जैसे अभिव्यक्ति की स्वाधीनता का अर्थ दूसरों को चोट पहुंचना ही हो। यह बात तो कोई भी व्यक्ति समझ सकता है, बल्कि बचपन से ही हम पढ़ते-सुनते आए हैं कि हमारी स्वतंत्रता दूसरों पर बंधन भी हो सकती है, वह वहीं तक प्रयोज्य हो सकती है जहां तक दूसरे भी उसका उतना ही अनुभव करें जितना कि हम। उसी तरह गाली-गलौज और धमकी को स्वाधीन अभिव्यक्ति का उदाहरण नहीं माना जा सकता। हमारे बोलने की आजादी का मतलब है हमारे बारे में बोलने की दूसरों को आजादी देना। और क्या अर्थ हो सकता है इसका? 
यहां हम या कोई अन्य व्यक्ति, समूह या समुदाय इससे बरी नहीं हो सकता- किसी भी आधार पर नहीं। ऐसा नहीं हो सकता कि हम राजनीति में सामाजिक विभाजन को स्वीकार करें और अभिव्यक्ति के मामले में इससे पलट जाएं और 'दंडमुक्ति' के बहाने तलाशें। 
भारत में लोकतांत्रिक राजनीति का प्रसार हुआ है। इसके क्या नतीजे हुए हैं, अच्छे, बुरे या जैसे भी, इसका विश्लेषण करने से रोका नहीं जा सकता, न ही उसकी कसौटी बदली जा सकती है। इसकी जरूरत तो कतई नहीं है। अगर आप दलित, पिछड़ा, अल्पसंख्यक या महिला बन कर चुनाव लड़ते हैं और अपनी इस विशिष्ट पहचान से सत्ता-प्राप्ति में आपको सहूलियत होती है तो इसी आधार पर अपने कार्य-प्रदर्शन या आचरण के मूल्यांकन से परहेज क्यों हो? यहां अभिव्यक्ति का मामला क्योंकर उठना चाहिए? आपको तो जवाब देने के लिए प्रस्तुत होना चाहिए और अपनी बात रखनी चाहिए। 
याद आता है, संभवत: 1996 में, पटना में आयोजित एक सभा में प्रख्यात समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने कहा था कि यह भारत का दुर्भाग्य है कि राजनीति में जो शूद्र नेतृत्व खड़ा हुआ वह भी भ्रष्ट हो गया, इससे बदलाव की संभावनाएं धूमिल हो गर्इं। आज की स्थिति होती तो शायद किशनजी को भी अपने कथन का फल भुगतना पड़ता। देश भर में उनके खिलाफ मुकदमे दायर होते और उन्हें खलनायक घोषित कर दिया जाता।
उनके कथन की गहराई में उतरा जाए तो पता चलेगा कि किस पीड़ा से उन्होंने वह बात कही थी। तब तक राजनीतिक अर्थशास्त्र में भ्रष्टाचार को 'समकारी कारक' मानने के आधुनिक सिद्धांत का प्रवर्तन नहीं हुआ था, उनका कथन तो इस सिद्धांत के ठीक विपरीत पड़ता है। 
इसी प्रकार सत्तर से नब्बे के दशक तक आंदोलनकारी समूहों में यह सर्वमान्य बात थी कि महिलाओं के समाज और राजनीति की मुख्यधारा में आने से समाज और व्यवस्था मानवीय बनेगी। क्या इस विश्वास पर देश का महिला नेतृत्व खरा उतर सका? चार-पांच राज्यों में महिला नेतृत्व उभरा तो, लेकिन उसने अपने को किसी भी स्तर पर पूर्ववर्तियों से अलग दिखने का प्रयास भी नहीं किया, बल्कि कभी तो अपने को अधिक सख्त और असंवदेनशील ही सिद्ध किया। क्या यह असंगत विश्लेषण और महिला विरोधी है, और ऐसा कहना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग है?
राजनीतिक जोड़-घटाव और चुनावी लाभ-हानि के फेर में देश में एक प्रतिबंध की संस्कृति विकसित की गई है। अदालत भी 'प्रतिबंध' की मांग पर अतिशय संवेदनशीलता, बल्कि सदाशयता दिखाती है। यह कौन-सा लोकतंत्र है, जिसमें सरकार कोई फिल्म देख कर बताए कि वह जनता के देखने योग्य है या नहीं? कोई किताब पढ़ कर हमें बताया जाए कि न, यह तुम्हारे पढ़ने योग्य नहीं! क्या सरकार के पास कोई पैमाना है, जिससे यह जाना जा सके कि कोई फिल्म देखने या किताब पढ़ने की इच्छा रखने वाले कितने लोग हैं देश में, और उनकी इच्छा का भी आदर होना चाहिए? कुछ सौ या हजार लोगों के विरोध पर इतने बड़े देश में अभिव्यक्ति का प्रश्न हल किया जाएगा? यह तो नकारात्मकता की हद है! 
कितनी लज्जाजनक बात है कि 'कामाध्यात्म' के देश में हम नग्नता को अश्लीलता में संकुचित होते देख रहे हैं और स्वयं अश्लीलता की ओर से आंखें फेर रखी हैं। हमारे बच्चे पोर्न साइट्स देखते बड़े हो रहे हैं, स्त्री-पुरुष होने का अर्थ नर-मादा होने में सिमटता जा रहा है और कलाकारों की बनाई नग्न आकृतियों पर कुछ सिरफिरे रंग पोत रहे हैं। वेलेंटाइन डे मनाते युवाओं को कान पकड़वा कर उठक-बैठक करवा रहे हैं। हम इन 'आहत' लोगों की ये सब स्वतंत्रताएं सह रहे हैं। 
ये स्वतंत्रताएं व्यवस्था, सरकार, सत्ताधारी वर्ग को रास आती हैं। इन्हीं स्वतंत्रताओं की आड़ में एक ओर युवा पीढ़ी को लाइसेंसी दारू में डुबोया जा रहा है, तो दूसरी ओर अखबार मालिकों को सरकारी टेंडरों और विज्ञापनों से मालामाल कर असहमति और विरोध को ढकने की कोशिशें की जा रही हैं। लोकतंत्र का आभास हो तो ठीक, वह वास्तविक न बनने पाए। अभिव्यक्ति को नियंत्रित करने के ये उदाहरण हैं।
हमारा यह इतना विशाल देश संवादहीनता में अब तक नहीं जीता रहा। हमारी संस्कृति तो संवाद की संस्कृति रही है। अलग-अलग मत और विचार रखते, अलग आचरण और व्यवहार का पालन करते लोग साथ-साथ रहते आए हैं। हमारे यहां तो आस्तिकों ने ईशनिंदा को भी आदर से देखा। चार्वाक जैसे भोगवादी दर्शन के जनक को भी ऋषि माना। दिगंबरों को हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और उनके प्रति श्रद्धा बरती। आत्मा के सामने देह को नगण्य माना। रति को भी सृजन की अपरिमित संभावनाओं के रूप में देखा, बल्कि उसे देवोपलब्धि का माध्यम बनाया। हम अपने सामुदायिक आचरण में कितना गिर चुके हैं, यह देखने का साहस अपने अंदर जुटाने का समय आ गया है। परस्पर व्यवहार और विचार-विनिमय के लिए एक जागृत समाज अपने को कानून और सरकार के ऊपर नहीं छोड़ सकता। 
सार्थक संवाद स्वाधीन अभिव्यक्ति से ही संभव है। बहुलतावादी या बहुसांस्कृतिक समाज अभिव्यक्ति पर नियंत्रण से नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक सुनम्यता से ही बच पाएगा। यह सुनम्यता तब बढ़ेगी जब प्रत्येक सामाजिक समूह या समुदाय अपने से बाहर देखने की भी कोशिश करेगा, उसमें आलोचना करने का साहस, आलोचना सहने का धैर्य और शक्ति होगी। जो सचमुच लोकतंत्र और आजादी चाहते हैं उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि अभिव्यक्ति आस्थाओं की बंधक न हो।


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