अगर सांवा टांगुन एह दुनिया से गायब हो गईल त इ महज एगो अन्न के दाना के मउगत नईखे,एगो विचार-एगो संस्कृति के मउगत बा . हम चाहतानी कि भोजपुरी के भाषा के दर्जा मिले...
निलय उपाध्याय
भोजपुरी संस्कृति के अईसन एगो चीज के नाम बताई जवन विलुप्त हो गईल होखे या विलुप्त होखे के कगार पर खडा होखे ?
कुछ दिन पहिले हम तमाम दोस्त लोगन से पूछले रही कि दुनिया में संस्कृति के ले के कहवा आन्दोलन भईल बा...हम चाहत रही कि ओकरा बारे में पूरा जानी ताकि कुछ मदद मिल सके कि लोग कईसे काम कइलेबा . कई लोग इ बात त बतावल कि कई देश में भाषा खातिर आन्दोलन भईल बा...
हमरा इ जान के आश्चर्य भईल कि अतना बडहन आ विविधता से भरल एह दुनिया में कहीं भी संस्कृति के आन्दोलन नईखे भईल..ई जरूर पता चलल कि अपना संतानन के उपेक्षा के कारण कई गो संस्कृति काल के गाल मे समा गइली स. आज ओकरा खातिर केहू रोवे वाला भी नईखे.
जानला के बाद मन डेरा गईल कि आधुनिकता के एह आंधी में कहीं अपना भोजपुरी के इहे हाल त ना हो जाई.
पिछला बेर जब गांवे गईनी त आपन छोट भाई से कहनी कि ए नन्हकू सांवा के खीर खाए के मन करता रे..हमार भाई सुन के हंसे लागल. कहलस कि भुला जा भईया. बीस बरिस हमरा देखला हो गईल. हमरा याद आईल कि रोज जब स्कूल से आवत रही त टांगुन के एगो बाल अपना तोता खातिर तूर के ले आवत रही.
जब कवनो लईका के पढे के बात चलत रहे त केहू गर्व के साथ कहत रहे कि हम कोदो देके नईखी पढल. तीसी के फ़ूल देख के हमार मन अगरा जात रहे. बाकि ओह यात्रा में ना त सांवा मिलल ना टांगुन ना कोदो ना राम रंग तीसी .
कहल जाला कि एह दुनिया के समानान्तार विश्वामित्र एगो नया सृष्टि रचले रहन. ओकरा मे उ अईसन अन्न बनवले रहन जवना पर अकाल के कवनो प्रभाव ना होखे. समय चाहे जतना कठीन होखे..लोग भूख से ना मरे. एह अनाज के मोटानजा कहल जात रहे. अगर सांवा टांगुन एह दुनिया से गायब हो गईल त इ महज एगो अन्न के दाना के मउगत नईखे, एगो विचार-एगो संस्कृति के मउगत बा. हम चाहतानी कि भोजपुरी के भाषा के दर्जा मिले, बाकि मिल गईला से भी एकरा पर कवनो प्रभाव ना परी.
ओकरे में के मकई भी ह, जवन अतना रंगदार निकलल कि एक बेर माल में खरीदनी त ओकर लावा कागज के ठोंगा मे सतर रुपया में मिलल. हठात मन मे आईल..मकईया रे तोर गुन गवलो ना जाला..मकई के तरह अगर केहू सांवा के खीर के बात कईके ओकरा के बाजार में ले आईल रहित त पता ना आज ओकर रंगदारी के कायल पूरा दुनिया रहित.
भोज पत्र के हम एगो बहस के मंच बनावल चाहतानी जंहवा एह तरह के विषय पर खुल के बात चीत हो सके आ आगे कवन रास्ता अख्तियार कईल जा सके. हमरा भोजपुरिया लोगन से जवना तरह के उत्साह के उम्मीद रहे..उ नईखे मिलत. बाकि हम निराश नईखी..आज ना काल्ह सही आवेके त परबे करी.
हम अपना दिनचर्या में रोज दू घन्टा देब ,रउरा बस दू मिनट दीही. लिखे से बचल चाहतानी,त बची..सोचे से मत बंची. हम हर आलेख के साथ एगो सवाल करब. बस दू शब्द में उतर दीही.... अपने जुडी, अपना आसपास के लोगन के जोडी. बहुत बडका काम हो जाई..माई के जान बांच जाई.
मुंबई में रह रहे कवि निलय उपाध्याय स्क्रीप्ट लेखक हैं और भोजपुरी को भाषा का दर्जा दिलाने के लिये प्रयासरत हैं.
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