Pages

Free counters!
FollowLike Share It

Friday, 18 May 2012

सिलिकोसिस ने दूभर की पत्थर तोड़ने वाले मजदूरों की जिंदगी

सिलिकोसिस ने दूभर की पत्थर तोड़ने वाले मजदूरों की जिंदगी

 बुधवार, 16 मई, 2012 को 10:25 IST तक के समाचार

झारखंड में पूर्वी सिंहभूम जिले में मूसबानी के केन्दाडीह गाँव में मातम छाया हुआ है. मार्च महीने में इस इलाके के तीन और लोगों ने सिलिकोसिस बीमारी से दम तोड़ दिया.
सिर्फ मार्च महीने में ही इस जिले के छह लोगों की मौत इस बीमारी से हो गई. पिछले कुछ सालों में इस इलाके में सिलिकोसिस से मरने वालों की संख्या ३५ हो गई है. 100 से अधिक लोग इस बीमारी की चपेट में हैं.
सिलिकोसिस लाइलाज बीमारी है और यह अमूमन उन मजदूरों को हो जाती है जो या तो पत्थर तोड़ने का काम करते हैं या क्रशर मशीनों में या फिर पत्थर का पाउडर बनाने वाली फैक्टरियों में काम करते हैं.
सिलिकोसिस पूर्वी भारत के इस खनन वाले इलाके में बड़ी जानलेवा बीमारी के रूप में उभरी है. ग़ैर सरकारी संगठनों का आंकलन है कि इस बीमारी की चपेट में हज़ारों मजदूर हैं. कई मजदूरों की मौत हो चुकी है जबकि कई मौत के मुंह में हैं.
'जिंदगी मुश्किल में'
केन्दाडीह के पास ही तेरेंगा गाँव है जहाँ मेरी मुलाक़ात 36 वर्षीय परन मुर्मू से हुई जो पिछले कई महीनो से बिस्तर पर हैं.
परन अपने गाँव के पास पत्थर का चूरा बनाने वाली एक फैक्ट्री में काम करते थे. पहले तो उनकी तबीयत ख़राब हुई और बाद में उनकी हालत बिगडती चली गई.
आज वह चल फिर भी नहीं पाते हैं. परन को सिलिकोसिस हो गया है और जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं उनका वज़न भी घट रहा है और शरीर में कमज़ोरी भी बढती जा रही है. अब उनकी पीठ चारपाई को लग गई है.
चारपाई पर पड़े पड़े परन सही तरह से अपनी तकलीफ भी बयान कर पाने की स्थिति में नहीं हैं.
वे कहते हैं, "बैठता हूँ तो बेचैनी. लेटता हूँ तो पेट फूल जाता है. सांस लेने में तकलीफ हो रही है. खाया नहीं जाता. मेरी ज़िन्दगी बहुत मुश्किल में है."
परन को पता है कि वह एक लाइलाज बीमारी की चपेट में आ गए हैं. उन्हें यह भी पता है कि जिसे जैसे दिन बीतते जाएँगे उनकी हालत और ख़राब होती चली जाएगी.
दर्दनाक मौत
"काम के दौरान पत्थर की जो धूल फेफड़ों में बैठ जाती है वह अहिस्ता आहिस्ता शरीर को कमज़ोर कर देती है. फेफड़ों का यह संक्रमण फैलता चला जाता है जिसका कोई इलाज नहीं है."
डॉक्टर टीके महंती
केन्दाडीह की ही मोनिका गोपे ने अपने पति को सिलिकोसिस से तड़प तड़प कर मरते देखा. चार बेटियों के साथ मोनिका किसी तरह अपना गुज़र बसर कर रहीं हैं. उन्हें ना उस फैक्ट्री के मालिक से कोई मदद मिली जहाँ उनके पति काम करते थे और ना ही सरकार से.
मोनिका की तरह ही केन्दाडीह की साधना हैं जिन्होंने अपना जवान बेटा खोया है. यह सभी लोग पत्थर का चूरा बनाने वाली फैक्ट्री में काम करते थे. केन्दाडीह में जो लोग सिलिकोसिस से मरे हैं, उन्हें उनके परिजनों बड़ी दर्दनाक मौत मरते देखा है.
इस लिए इस बारे में बात करते ही उनकी आँखें छलक जाती हैं. कई ऐसे हैं जो इस बीमारी से जूझ रहे हैं और बहुत शारीरिक कष्ट के दौर से गुज़र रहे हैं.
अंतरराष्ट्रीय मजदूर संगठन (आईएलओ) और विश्व स्वस्थ्य संगठन द्वारा प्रशिक्षित डाक्टर टीके महंती का कहना है कि यह बीमारी क्रशर मशीनों और पत्थर की खदानों में काम करने वाले मजदूरों में होती है. उनका कहना है कि इस बीमारी का पता लगाने के लिए इस इलाके में उनके अलावा कोई दूसरा प्रशिक्षित चिकित्सक नहीं है.
वह कहते हैं,"काम के दौरान पत्थर की जो धूल फेफड़ों में बैठ जाती है वह अहिस्ता आहिस्ता शरीर को कमज़ोर कर देती है. फेफड़ों का यह संक्रमण फैलता चला जाता है जिसका कोई इलाज नहीं है."
सिलिकोसिस के सवाल पर एक लंबे अरसे से काम कर रहे ओक्युपेश्नल सेफ्टी एंड हेल्थ अस्सोसीएशान आफ झारखण्ड के समित कुमार कर्र कहते हैं कि सिलिकोसिस एक ऐसी बीमारी है जिसका रोकथाम किया जा सकता है अगर फैक्टरियों में सुरक्षा के उपाय किये जाएँ. जो होता नहीं है.
उनके संगठन की पहल पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने झारखंड की सरकार को सिलिकोसिस के मामलों की जांच करने का निर्देश दिया है.
उनका कहना है कि मानवाधिकार आयोग के प्रतिवेदन पर सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बीमारी से पीड़ित लोगों के लिए चिकित्सा सुविधा मुहैया कराने के लिए राज्य सरकार को निर्देश दिए हैं.
समित कहते हैं, "झारखण्ड में खनन का इतिहास २०० साल पुराना है. अगर देखा जाए तो सिलिकोसिस एक ऐसी बीमारी है जो सबसे ज्यादा जान लेवा है. ज़रुरत है कि झारखंड में इन मामलों को पता लगाने के लिए एक गहन अध्यन किया जाना चाहिए. इस अध्यन में आईएलओ और विश्व स्वस्थ्य संगठन द्वारा प्रशिक्षित किए गए चिकित्सकों की टीम बनाए जाए जो खनन के इलाकों में मजदूरों की सेहत की जांच करे".
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/05/120515_jharkhand_silicosis_va.shtml

अछूत शरणार्थी और नवदलित आंदोलन का नजरिया


अछूत शरणार्थी और नवदलित आंदोलन का नजरिया



बेपरदा न कर सकोगे हुस्न को !



बेपरदा न कर सकोगे हुस्न को !



मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

संसद में हंगामा तो बरपा पर इससे सौंदर्य प्रसाधन बाजार की मार्केटिंग के आक्रामक तेवर बदलने की उम्मीद कम है। हालांकि सौंदर्य उद्योग के लिए बुरा समय है। महिलाओ को केद्रित कर उन्हे उपभोग की वस्तु की रूप मे दिखाए जाने वाले विज्ञापनो और उन्हे प्रसारित करने वाले टीवी चैनलो पर गाज गिर सकती है। 

लोकसभा मे मंगलवार को हर ओर से ऐसे विज्ञापनो के खिलाफ आवाज उठी। टीवी पर आपत्तिजनक विज्ञापनों पर रोक लगाने के लिए विभिन्न दलों की राय ली जाएगी। इसके लिए सरकार सर्वदलीय बैठक बुलाएगी। सूचना-प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने लोकसभा में मंगलवार को प्रश्नकाल में यह जानकारी दी। सोनी ने बताया कि इस संबंध में मंत्रियों का एक समूह बनाया गया है। यह समूह सभी पहलुओं पर विचार कर रहा है। इससे पहले विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने इस बैठक का सुझाव दिया था। उनके मुताबिक विपक्षी दल इस बैठक में न केवल अपनी राय देंगे बल्कि सरकार को सहयोग भी करेंगे। सोनी ने कहा कि ऐसे विज्ञापनों पर रोक लगाने के लिए 15 कानून मौजूद हैं। लेकिन इस बारे में कोई सख्त कानून नहीं होने से उनका मंत्रालय इन्हें पूरी तरह नहीं रोक पा रहा। इसलिए इस दिशा में सही निर्णय लेने के लिए संसद के सभी सदस्यों का सहयोग चाहिए। अंबिका सोनी ने कहा है कि अश्लील विज्ञापनों और सामग्री पर रोक लगाने के लिए मीडिया को खुद भी प्रयास करने चाहिए। टीवी चैनलों पर महिलाओं के अश्लील विज्ञापनों का लोकसभा की महिला सदस्यों ने एकजुट होकर विरोध किया और उन्हें बंद कराने की मांग की। पार्टी लाइन से हटकर महिला सदस्यों ने सरकार से इस मामले में कड़ा रुख अपनाने की मांग की। महिला सदस्यों के तेवरों को देखते हुए सरकार ने उन्हें आश्वासन दिया कि अगर चैनल नहीं मानें तो उन्हें केबल नेटवर्क से हटाने से भी सरकार गुरेज नहीं करेगी।

महिलाओं ने अश्लील विज्ञापनों के विरोध में गोरा बनाने के विज्ञापनो का खास विरोध करते हुए कहा है कि यह रंगभेद है। सही भी है। पर​ ​ भारत में सौंदर्य प्रसाधन उदोग के ग्राहक सिर्फ महिलाएं नहीं हैं। राष्ट्रीय व्यापार संगठन जैसे भारतीय उद्योग महासंघ के अनुसार बीस प्रतिशत की अनुमानित वार्षिक वृद्धि की विकास दर से, भारत में सौन्दर्य प्रसाधन उद्योग प्रति वर्ष तीन बिलियन डॉलर की है। आंकड़े बताते हैं कि पुरूष भी पीछे नहीं हैं, इसके बावजूद कि पुरूषों के सजने- संवरने के उत्पादों की संख्या में अभी तक अधिक वृद्धि नहीं हुई है।महिलाओं को गोरा बनाने की मुहिम के साथ पुरुषों को गोरा बनाने की मुहिम कम खतरनाक नहीं है। बल्कि पुरुषों को लक्षित ऐसे विज्ञापनों में कहीं अश्लीलता कहीं ज्यादा है। प्रसाधन सामग्री के इस्तेमाल करन वाले पुरुषों के प्रति औरतें कैसे फिदा होती हैं, इसे दिखाने के लिए हर सीमा ​​तोड़ दी जाती है। हर चैनल पर ऐसे विज्ञापन दिन दहाड़े दिखाये जाते हैं जिनके माडल अक्सर लोकप्रिय सितारे होते हैं। दरअसल, पुरुषों की सेहत के साथ ही सूरत के निखार का बाजार पिछले एक दशक में विकसित हुआ है। बरसों से गंजापन रोकने, चेहरा गोरा करने और पिंपल्स हटाने के बड़े-बड़े दावे किए जाते रहे हैं।

भारत में नब्वे के दशक में उदारीकरण शुरू होते न होते, बाजार खुलते न खुलते विश्व सुंदरियों की बाढ़ लगी गयी।तबसे सौंदर्य प्रसाधन उद्योग की दिन दूनी रात चौगुणी प्रगति हो रही है। आईपीएल और चियरिन संसकृति की चकाचौंध और रियेलिटी शो ने भी इस उद्योग की आक्रामक मार्केटिंग को नये आयाम दिये। रंगबेद का भावुक मसला उठाकर संसद में बैठी विदुषियों ने इस मुद्दे का अति सरलीकरण कर दिया है। बाजार के खिलाफ उन्होंने कभी कुछ इतनी एकजुटता से कही हो, याद नहीं आता।19 नवंबर 1994 वह दिन था, जब करोड़ों ‍हिन्दुस्तानी टीवी के आगे आँखें लगाए बैठे थे। ये सारी आँखें उस बिल्लौरी आँखों वाली लड़की को ढूँढ रही थीं, जिसने अपने अद्वितीय सौंदर्य से हर किसी को अचंभित कर दिया था। दक्षिण अफ्रीका के सनसिटी में आयोजित मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता के आयोजक ऐश्वर्या राय नामक भारतीय सुंदरी के विलक्षण रूप पर हतप्रभ थे। यह नवयौवना स्पर्धा के आरंभिक चरण में मिस फोटोजनिक का खिताब जीत चुकी थी और ज्यादातर विश्लेषकों का मत था कि प्रतियोगिता का मुख्‍य खिताब वही जीतेगी। इसीलिए निर्णायकों ने जब विश्व सुंदरी स्पर्धा की विजेता के बतौर ऐश्वर्या राय का नाम लिया तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ, सिवाय खुद 20 साल की उस तरुणी के, जो हाथों में अपना चेहरा छुपाए खुशी के आँसू छलका रही थी। आम हिन्दुस्तानी यह देखकर अ‍चंभित था कि एक ही वर्ष में दो भारतीय बालाएँ सुष्मिता सेन और ऐश्वर्या राय मिस यूनिवर्स और मिस वर्ल्ड जैसे प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय खिताब जीतने में कैसे सफल हो गईं। तीन दशक बाद कोई भारतीय लड़की विश्व सुंदरी का ताज पहनने में कामयाब हुई थी। यह पल हर देशवासी के लिए गर्व का भी अवसर था और हैरत का भी।कुछ राजनीतिक, सामाजिक विश्लेषकों ने कयास लगाया ‍कि यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा भारत के विशाल प्रसाधन बाजार में सेंध लगाने की सा‍जिश है। 

रात 11 बजे के बाद का स्लॉट ए सर्टिफिकेट प्राप्त फिल्मों के लिए माना जाता है। पुरुषों के परफ्यूम हों या फिर मोबाइल फोन, बच्चों के कपड़े हों या साबुन, टीवी पर इन उत्पादों के कई विज्ञापनों को अश्लील मानते हुए पिछले एक साल में कई शिकायतें हुई हैं। एएससीआई (विज्ञापन इंडस्ट्री द्वारा गठित आत्म नियंत्रण से जुड़ी संस्था) ने संबंधित विज्ञापनदाताओं को विज्ञापन हटाने की अपनी सलाह दी है और सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने ऐसे विज्ञापनों के प्रसारण करने वाले चैनलों को कारण बताओ नोटिस भेजे हैं।हाल में टीवी पर सबसे अधिक दिखने वाले डियोडरेंट के विज्ञापनों को सबसे अधिक अश्लील मानते हुए देश भर से व्यक्तियों और समूहों या संगठनों ने सरकार और एएस सीआई के सामने एक्स इफैक्ट, जटक, सेट वेट, किलर डिओ, वाइल्ड स्टोन डिओ, एक्स्ट्रा स्ट्रांग एक्स जैसे कई उत्पादों के टेलीविजन विज्ञापनों को बंद करने से जुड़ी शिकायतें भेजी हैं जिनमें महिलाओं को आपत्तिजनक तरीके से पेश करने के कारण इन्हें अश्लील माना गया है।एएससीआई ने कई विज्ञापनदाताओं को इन विज्ञापनों में संशोधन करने या इन्हें हटाने के निर्देश दिए हैं लेकिन इनमें से कई विज्ञापन हर चैनल पर बाकायदा जारी हैं। ऐसी कुछ शिकायतों को इसने सही नहीं ठहराया और उन विज्ञापनों को जारी रखने की सलाह भी दी है । इनमें आयडिया थ्री जी मोबाइल, मेनफोर्स कंडोम , लिलिपुट किड्सवेयर आदि से जुड़े टीवी विज्ञापन थे। हाल में जिस एक उत्पाद के टीवी विज्ञापन (क्लीन एंड ड्राइ इंटिमेट वाश) को निहायत ही अश्लील माना गया है, उसके विज्ञापनदाताओं को एएससीआई ने सलाह दी कि वे या तो विज्ञापन को सुधार लें या फिर इसे हटा लें। सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने भी हाल में इस विज्ञापन का प्रसारण करने वाले चैनलों को कारण बताओ नोटिस जारी किया है।

प्रश्नकाल के दौरान सुस्मिता बाउरी ने अश्लील विज्ञापनों का मामला उठाते हुए कहा कि ऐसे विज्ञापनों से महिलाओं की प्रतिष्ठा कम होती है। यही नहीं, काया गोरी करने के नाम पर जिस तरह से विज्ञापनबाजी होती है, उससे भी नस्लभेद को बढ़ावा मिलता है इसलिए सरकार को इस पर कार्रवाई करनी चाहिए। जयश्री बेन पटेल, डॉ. रत्ना सिंह, मीना सिंह और सुषमा स्वराज ने पूरक सवालों के जरिए सरकार से कहा कि वह अश्लील विज्ञापनों के मामले में कड़ी कार्रवाई करे। 

सुषमा स्वराज ने कहा कि अगर सरकार ऐसे विज्ञापन रोकने के लिए खुद को असहाय महसूस कर रही है तो वह सर्वदलीय बैठक बुलाए, हम उसे ताकत देंगे और सुझाव भी देंगे। हालांकि बाद में सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने कहा कि न वे असहाय हैं और न ही उनकी सरकार कमजोर है। उन्होंने सदस्यों को आश्वासन दिया कि इस मामले में वह कड़े कदम उठाएंगी। उन्होंने आंकड़े देकर बताया कि सरकार पहले भी कार्रवाई करती रही है लेकिन अगर जो चैनल इसके बावजूद अश्लीलता परोसेंगे, उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। उन्होंने सदस्यों को आश्वासन दिया कि सरकार सर्वदलीय बैठक भी बुलाएगी। 

कुछ समय पहले ही मशहूर फैशन हाउस क्रिश्चियन ल्यूबूटिन ने कॉस्मेटिक मार्केट में उतरने का ऐलान किया था और अब बारी है वर्जिन एंटलांटिक की। वर्जिन एटलांटिक को ज्यादातर लोग एयरलाइंस के रुप में ही जानते हैं लेकिन इस कंपनी का दखल अन्य क्षेत्रो में भी है। लेकिन अब वर्जिन ने रे़ड हॉट धमाका कर दिया है। वर्जिन एटलांटिक ने ब्यूटी प्रोडक्ट मार्केट में उतरने के लिए एक बड़े ब्रांड बेयर मिनरल्स से हाथ मिलाया है। वर्जिन का पहला ब्यूटी प्रोडक्ट एक लिपस्टिक है जिसे 'Upper Class Red' के नाम से जाना जा रहा है।लाल रंग एक आर्कषक रंग माना जाता है पुरुष और स्त्री के बीच लाल रंग सेक्स अपील को बढ़ाता है वर्जिन एटलांटिक की सभी एयर होस्टेस भी लाल रंग से नहाई रहती है।कंपनी द्वारा लॉन्च लिपस्टिक का प्रयोग उनकी एयर होस्टेस करेंगी। यात्रियों के लिए भी यह लिपस्टिक 16 डॉलर (871 रुपए) में उपलब्ध रहेगी। यह लिपस्टिक वर्जिन एटलांटिक के हीथ्रो, गेटविक और जेएफके हवाई अड्डों स्थित क्लब हाउस से मिलेंगी।

अब बच्चों को 'एडल्ट' विज्ञापनों से बचाने की कवायद शुरू हो गई है। विज्ञापनों पर नजर रखने वाली संस्था 'एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड काउंसिल ऑफ इंडिया' (एएससीआई) ने ऐसे कई टीवी विज्ञापनों का प्रसारण रात 11 बजे से सुबह 6 बजे के बीच करने की सिफारिश की है।सूचना व प्रसारण मंत्रालय इस प्रस्ताव पर विचार कर रहा है। काउंसिल की यह सिफारिश विशेषकर 'फास्ट ट्रैक' (इसमें एक पुरुष और स्त्री को एक कार में आपत्तिजनक अवस्था में दिखाया गया था), 'वाइल्ड स्टोन डिओ' (कार में पुरुष और स्त्री आपत्तिजनक अवस्था में), 'टाटा डोकोमो' जैसे विज्ञापनों के संदर्भ में दी गई। इन विज्ञापनों के खिलाफ शिकायतों को हालांकि काउंसिल ने सही नहीं ठहराया। 

पिछले कुछ दशकों में सौंदर्य प्रसाधन उद्योग ने भी देखा बदलाव। प्राकृतिक और जैविक कॉस्मेटिक उत्पादों की दिशा में एक क्रमिक बदलाव किया गया है। आयुर्वेदिक उत्पादों की मांग की बदौलत तेजी से बढ़ रहे भारतीय सौंदर्य प्रसाधन उद्योग की विकास दर सात फीसदी से ज्यादा रहने की संभावना है। देश में ज्यादातर उपभोक्ता, रासायनिक उत्पादों के मुकाबले आयुर्वेदिक उत्पादों को ज्यादा पसंद कर रहे हैं। सौंदर्य विशेषज्ञ शहनाज हुसैन ने आईएएनएस से कहा, "पिछले 10 साल में भारतीय सौंदर्य प्रसाधन उद्योग की वृद्धि दरअसल आयुर्वेदिक उत्पादों की वजह से हुई है। इस दौरान सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों की मांग ज्यादातर प्राकृतिक और आयुर्वेदिक उत्पादों के क्षेत्र में रही है।"

शहनाज ने दुनिया को सबसे पहले आयुर्वेदिक सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों का तोहफा दिया था, उन्होंने 1970 में अपना पहला आयुर्वेदिक उत्पाद बाजार में उतारा था।

अब भारतीय सौंदर्य प्रसाधन उद्योग में आयुर्वेदिक उत्पाद बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं, फॉरेस्ट एसेन्शियल्स, बुटीक, हिमालया, ब्लॉसम कोचर, वीएलसीसी, डाबर, लोटस और कई अन्य ब्रांड इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं। इस क्षेत्र के जानकारों के मुताबिक त्वचा, बाल, रंग आदि की श्रेणियों में विभाजित इस उद्योग का कुल कारोबार 2008 में 2.5 अरब डॉलर अनुमानित किया गया था। इसकी विकास दर सात प्रतिशत रहने के आसार हैं। तेल बनाने वाली कंपनी तथास्तु की अधिकारी दिविता कनोरिया कहती हैं कि लोग अपनी त्वचा की सुरक्षा के लिए हमेशा रासायनिक उत्पादों की जगह हर्बल उत्पादों का विकल्प तलाशते रहते हैं।


'दीदी' के अगुवाई वाले पश्चिम बंगाल में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में इजाफा


'दीदी' के अगुवाई वाले पश्चिम बंगाल में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में इजाफा

Thursday, 17 May 2012 15:32
नयी दिल्ली, 17 मई (एजेंसी) ऐसे मामलों में अचानक से इजाफा हुआ है और ऐसा खास तौर पर पिछले दो महीनों में हुआ है। राष्ट्रीय महिला आयोग का मानना है कि ममता बनर्जी की अगुवाई वाली पश्चिम बंगाल सरकार के कार्यकाल में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में इजाफा हुआ है ।
बलात्कार के मामलों का खुलासा करने वाले अधिकारियों का तबादला जांच पूरी होने से पहले ही कर दिए जाने के लिए भी आयोग ने पश्चिम बंगाल सरकार को आड़े हाथ लिया है । 
आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा का कहना है कि राज्य सरकार 
ने महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध के मामलों की निष्पक्ष जांच का वादा किया था जो अब तक पूरा नहीं हो पाया है ।
शर्मा ने एक साक्षात्कार में 'पीटीआई' को बताया, ''पश्चिम बंगाल में महिलाओं के खिलाफ अपराध की घटनाएं पहले भी धीरे-धीरे बढ़ रही थीं लेकिन मौजूदा सरकार के शासनकाल में तो ऐसे मामलों में अचानक से इजाफा हुआ है और ऐसा खास तौर पर पिछले दो महीनों में हुआ है ।''
उन्होंने कहा कि आयोग की एक हालिया रपट में बताया गया है कि खबरों में आए राज्य में बलात्कार के मामले राष्ट्रीय औसत से दोगुना अधिक हैं ।



नीतिगत लकवे का सच


नीतिगत लकवे का सच


Thursday, 17 May 2012 10:44
आनंद प्रधान 
जनसत्ता 17 मई, 2012: मार्च महीने में औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक में साढ़े तीन फीसद की गिरावट की खबर आते ही इसके लिए यूपीए सरकार के 'नीतिगत लकवे' को जिम्मेदार ठहराते हुए सामूहिक रुदन और तेज हो गया है।
इसके साथ ही कथित रूप से रुके हुए आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने की मांग का कर्कश कोरस भी कान के परदे फाड़ने लगा है। हालांकि इन आरोपों में नया कुछ नहीं है। पिछले डेढ़-दो साल खासकर 2-जी समेत भ्रष्टाचार के बडेÞ-बडेÞ मामलों के सामने आने के बाद से आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने में नाकामी और कई नीतिगत मामलों में अनिर्णय या निर्णय को लागू कराने में हिचक या गतिरोध को लेकर यूपीए सरकार पर नीतिगत लकवे के आरोप लगते रहे हैं। 
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो देशी-विदेशी पूंजी के प्रतिनिधि, उनके थिंक टैंक, समूचा कॉरपोरेट जगत, आर्थिक-राजनीतिक विश्लेषक, गुलाबी अखबार और विपक्ष- सभी सरकार पर उसके कथित नीतिगत लकवे के लिए चौतरफा हमला कर रहे हैं। हद तो यह हो गई कि खुद वित्तमंत्री के सलाहकार कौशिक बसु भी अमेरिका में विदेशी निवेशकों के सामने आर्थिक सुधारों के रुकने और सरकार के नीतिगत लकवे का शिकार होने का रोना रोते दिखाई पडेÞ। 
अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ्तार से लेकर उसकी सभी समस्याओं का ठीकरा इसी नीतिगत लकवे पर फोड़ा जा रहा है। मजे की बात यह है कि खुद प्रधानमंत्री से लेकर वित्तमंत्री तक सार्वजनिक तौर पर भले ही इस आरोप को नकार रहे हों लेकिन वे भी आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने और कड़े फैसले लेने में आ रही कठिनाइयों को दबी जुबान में स्वीकार करते हैं। वे इसके लिए गठबंधन राजनीति की मजबूरियों को जिम्मेदार भी ठहरा रहे हैं। साफ  है कि यूपीए सरकार सार्वजनिक तौर पर चाहे जितना इनकार करे, खुद उसके अंदर नीतिगत लकवे के आरोपों को लेकर काफी हद तक सहमति है। इस धारणा को वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु के इस बयान ने और दृढ़ कर दिया कि अब आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने वाले कठिन फैसले 2014 के आम चुनावों के बाद ही संभव हो पाएंगे। 
क्या सचमुच यूपीए सरकार नीतिगत लकवे की शिकार है? सच यह है कि वह देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कॉरपोरेट समूहों की इच्छा के मुताबिक नवउदारवादी सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने में नाकाम रही है। 
खासकर बड़ी पूंजी के मनमाफिक खुदरा व्यापार में एफडीआई, श्रम कानूनों को और ढीला करने और उदार छंटनी नीति की इजाजत देने, बैंक-बीमा आदि क्षेत्रों में चौहत्तर फीसद से अधिक विदेशी पूंजी की अनुमति से लेकर बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों को जमीन, स्पेक्ट्रम से लेकर खदानों तक सार्वजनिक संसाधनों को आने-पौने दामों में मुहैया कराने और सबसिडी में कटौती और इस तरह आम लोगों पर अधिक से अधिक बोझ डालने जैसे फैसले करने या उन्हें लागू कराने में सरकार कामयाब नहीं हुई है।
ऐसा नहीं है कि सरकार ये फैसले नहीं करना चाहती है। इसके उलट तथ्य यह है कि उसने अपने तर्इं हर कोशिश की है, कई फैसले किए भी, लेकिन कुछ यूपीए गठबंधन के राजनीतिक अंतर्विरोधों और कुछ आम लोगों के खुले विरोध के कारण लागू नहीं कर पाई। पिछले दो-तीन वर्षों में देश भर में जिस तरह से बड़ी कंपनियों की परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण से लेकर खनिजों के दोहन के लिए जंगल और पहाड़ सौंपने का आम गरीबों, आदिवासियों, किसानों ने खुला और संगठित प्रतिरोध किया है, उसके कारण नब्बे फीसद परियोजनाओं में काम रुका हुआ है। 
यही नहीं, आर्थिक सुधारों के नाम पर सबसिडी में कटौती और लोगों पर बोझ डालने के खिलाफ भी जनमत मुखर हुआ है। पार्टियों को इन कथित कड़े फैसलों की कीमत चुकानी पड़ रही है। इस कारण न चाहते हुए भी राजनीतिक दलों को पैर पीछे खींचने पडेÞ हैं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि गरीबों-किसानों-आदिवासियों की इस खुली बगावत से कैसे निपटें? हालांकि सरकारों ने अपने तर्इं कुछ भी उठा नहीं रखा है। 
दमन से लेकर जन आंदोलनों को तोड़ने, बदनाम करने और खरीदने के हथियार आजमाए जा रहे हैं। ओड़िशा से लेकर छत्तीसगढ़ तक कई जगहों पर सार्वजनिक संसाधनों की खुली लूट के खिलाफ खडेÞ गरीबों और उनके जनतांत्रिक आंदोलनों को नक्सली और माओवादी बता कर कुचलने और उन्हें देश की 'आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा' घोषित करके दमन करने की कोशिशें बडेÞ पैमाने पर जारी हैं।  
दूसरी ओर, जैतापुर से लेकर कुडनकुलम तक शांतिपूर्ण आंदोलनों को 'विकास विरोधी' और 'विदेशी धन समर्थित' आंदोलन बता कर बदनाम करने, उन्हें तोड़ने और उनका दमन करने का सुनियोजित अभियान चल रहा है। यही नहीं, हरियाणा से लेकर तमिलनाडु तक बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों और उनकी फैक्टरियों में मजदूरों का खुलेआम शोषण हो रहा है, श्रम कानूनों को सरेआम ठेंगा दिखाते हुए उन्हें यूनियन बनाने और अपनी मांगें उठाने तक का अधिकार नहीं दिया जा रहा है और हड़ताल के साथ तो आतंकवादी घटना की तरह व्यवहार किया जा रहा है। 
सच यह है कि कॉरपोरेट जगत की मनमर्जी के मुताबिक श्रम सुधार अभी भले न हुए हों लेकिन व्यवहार में श्रम कानूनों को बेमानी बना दिया गया है। 
सरकार की मंशा का अंदाजा हाल में घोषित राष्ट्रीय मैन्युफैक्चरिंग नीति से भी लगाया जा सकता है, जिसके तहत बनने वाले राष्ट्रीय   मैन्युफैक्चरिंग जोन में श्रम कानून लागू नहीं होंगे। 
इससे पहले सेज के तहत भी ऐसे ही प्रावधान किए गए थे। साफ  है कि यूपीए सरकार ने बड़ी पूंजी और कॉरपोरेट-हितों को आगे बढ़ाने के लिए कोई कसर नहीं उठा रखी है। यह और बात है कि खुदरा व्यापार में एफडीआई के मुद्दे पर तृणमूल सरीखे सहयोगी दलों और देशव्यापी विरोध के कारण उसे कदम पीछे खींचने पडेÞ। लेकिन उसके साथ यह भी सच है कि एकल ब्रांड में सौ फीसद एफडीआई की इजाजत मिल गई है। 
नीतिगत लकवे की छवि को तोड़ने के लिए सरकार की बेचैनी का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि टैक्स-कानूनों में छिद्रों का फायदा उठा कर टैक्स देने से बचने वाली कंपनियों से निपटने के लिए वित्तमंत्री ने बजट में जिस जीएएआर (गार) का प्रस्ताव किया था, उसे देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कॉरपोरेट के दबाव में अगले साल के लिए टालने का एलान कर दिया है। इसके बावजूद कॉरपोरेट जगत खुश नहीं है। यूपीए सरकार पर उनकी ओर से भांति-भांति की रियायतों के लिए और कई मामलों में परस्पर विरोधी दबाव हैं। हाल के महीनों में ये दबाव इतने अधिक बढ़ गए हैं कि सरकार कोई फैसला नहीं ले पा रही है या फैसलों को लागू नहीं करा पा रही है। लेकिन गुलाबी मीडिया इसे 'नीतिगत लकवा' नहीं मानता है!  उदाहरण के लिए, दूरसंचार क्षेत्र को ही लीजिए। 
टू-जी मामले में 122 लाइसेंसों के रद्द होने के बाद जिस तरह से देशी और खासकर विदेशी कंपनियों ने सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया और सरकार को इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डालने पर मजबूर किया, उससे पता चलता है कि कथित नीतिगत अपंगता का स्रोत क्या है? इसी तरह दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने 2-जी स्पेक्ट्रम की नीलामी के लिए आधार-मूल्य तय करते हुए जो सिफारिशें दी हैं, उनके खिलाफ देश की सभी बड़ी टेलीकॉम कंपनियों ने युद्ध-सा छेड़ दिया है। 
उनकी लॉबिंग की ताकत के कारण सरकार की घिग्घी बंध गई है। वह फैसला नहीं कर पा रही है। वोडाफोन के मामले में टैक्स लगाने को लेकर सरकार डटी हुई जरूर है लेकिन जिस तरह से उसे वापस लेने के लिए उस पर देश के अंदर और बाहर दबाव पड़ रहा है, उससे साफ  है कि सरकार के लिए बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को नियंत्रित करना कितना मुश्किल होता जा रहा है।
एक और उदाहरण देखिए। कृष्णा-गोदावरी घाटी से गैस उत्पादन के मामले में रिलायंस न सिर्फ सरकार पर गैस की कीमत बढ़ाने के लिए जबर्दस्त दबाव डाल रही है बल्कि भयादोहन के लिए उसने जान-बूझ कर गैस का उत्पादन गिरा दिया है। शुरुआती दृढ़ता दिखाने के बाद अब सरकार रिलायंस की अनुचित मांगों के आगे झुकती हुई दिख रही है। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जिनमें कंपनियों के दबाव के आगे सरकार या तो समर्पण कर दे रही है, उनके हितों के मुताबिक नीतियां बना रही है या फिर कंपनियों के आपसी टकराव में कोई फैसला नहीं कर पा रही है। सच यह है कि अर्थव्यवस्था का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसके बारे में नीतियां स्वतंत्र और जनहित में बन रही हों। इसके उलट मंत्रालयों से लेकर योजना आयोग और नियामक संस्थाओं तक हर समिति में या तो कॉरपोरेट प्रतिनिधि खुद मौजूद हैं या लॉबिंग के जरिए नीतियां बनाई या बदली जा रही हैं। 
लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि पिछले डेढ़-दो वर्षों में स्पेक्ट्रम से लेकर कोयला-लौह अयस्क जैसे सार्वजनिक संसाधनों को औने-पौने दामों पर देशी-विदेशी कॉरपोरेट क्षेत्र के हवाले करने के घोटालों का पर्दाफाश होने और बढ़ते जन-प्रतिरोध के कारण यूपीए सरकार के लिए आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के नाम पर इस कॉरपोरेट लूट को खुली छूट देने वाले फैसले लेने में बहुत मुश्किल हो रही है। कारपोरेट जगत और उसके प्रवक्ता इसे ही नीतिगत लकवा बता रहे हैं। 
असल में, यह एक बहुत सुनियोजित प्रचार अभियान है जिसका मकसद नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के पक्ष में माहौल बनाना, उसके विरोधियों को खलनायक घोषित करना, सरकार और उसके आर्थिक नीतिकारों पर कॉरपोरेट समर्थित सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने का दबाव बनाना है। इस मुहिम के कारण सरकार इतना अधिक दबाव में है कि वह देशी-विदेशी कॉरपोरेट समूहों को खुश करने के लिए बिना सोचे-समझे, हड़बड़ी में फैसले कर रही है। इसी अभियान का दबाव है कि सरकार जहां पेट्रोल-डीजल और उर्वरकों की कीमतों में वृद्धि की तैयारी कर रही है वहीं खाद्य सुरक्षा विधेयक को लटकाए हुए है। सच पूछिए तो असली नीतिगत लकवा यह है कि सरकार रिकार्ड (छह करोड़ टन) अनाज भंडार के बावजूद उसे गरीबों और भूखे लोगों तक पहुंचाने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि इससे वित्तीय घाटा बढ़ जाएगा और आवारा पूंजी नाराज हो जाएगी।
इसी तरह कॉरपोरेट की ओर से भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास विधेयक को और हल्का करने का दबाव है और इसी कारण विधेयक लटका हुआ है। असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा का मुद्दा हो या सभी नागरिकों के लिए पेंशन का या फिर सबके लिए स्वास्थ्य के अधिकार का- सरकार इन वायदों को पूरा करने और नीतिगत फैसले करने से बचने के लिए संसाधनों की कमी का रोना रो रही है, लेकिन कॉरपोरेट क्षेत्र और अमीरों को ताजा बजट में भी 5.40 लाख करोड़ रुपए की टैक्स छूट और रियायतें देते हुए उसे संसाधनों की कमी का खयाल नहीं आता है। क्या यह नीतिगत लकवा नहीं है?


बड़े बांध के विरोध में बैठे अन्दोलान्करियो पर असम सरकार कि दमनात्मक कार्यवाही



बड़े बांध के विरोध में बैठे अन्दोलान्करियो पर असम सरकार कि दमनात्मक कार्यवाही 

असम के लखीमपुर जिले में पिछले कई महीनो से कृषक मुक्ति संग्राम समिति एवेम अन्य नौ संगठनो द्वारा नीचले सुबनसिरी  पर बनाये जा रहे बड़े बांध का विरोध करने वाले अन्दोलान्करियो पर ११ मई को पुलिस द्वारा ज़बरदस्त दमनात्मक कार्यवाही की गई  है. सुबनसिरी में बनाये जा रहे बड़े बांध को लेकर जनसंगठनो का आन्दोलन को बड़े पैमाने पर आम जनता का समर्थन हासिल हो रहा है जिसके चलते बांध को बनाये जाने की सामग्री को ले जाने वाले मार्गो पर अन्दोलान्करियो ने पिछले पांच महीने से नाकेबंदी की हुई है. इसको लेकर असम सरकार काफी परेशान थी. कभी अन्दोलान्करियो को नाक्साली तो कभी आतंकवादी करार करने से असम सरकार गुरेज़ नहीं कर रही थी. आन्दोलन का नेतृत्व  करने वाले अखिल गोगोई को पर कई बार सरकार ने झूटे मुकदमे कर जेल में भी निरुद्ध किया लेकिन जनांदोलन के दबाव के चलते अखिल गोगोई को उन्हें जल्दी ही छोड़ना पड़ा. अन्दोलान्दरियो की मांग है की सुबनसिरी नदी पर बनाये जा रहा बांध सभी पर्यावरण मानको का उल्लघन करते है और इस बांध के बनने से असम और अरुणांचल के असंख्य परम्परागत लोगो की आजीविका छीन जाएगी और बड़े पैमाने में पर्यवार्निये संकट पैदा हो जायेगा. आन्दोलनकारी इस बाँध पर एक उच्च स्तरीय जांच की मांग कर रहे है. लेकिन इस और अभी तक असम सरकार का ध्यान नहीं जा रहा है व् लगातार इस आन्दोलन को कुचलने के लिए धरना स्थल पर एक महीने से सरकार द्वारा पुलिस छावनी तैयार की जा रही थी. 
ज्ञातव्य हो की १6  अप्रैल को अरुणाचल प्रदेश में सियांग वादी में  अन्दोलान्करियो द्वारा बांध के विरोध में जे पी कंपनी के कई गाड़िया, ऑफिस और जाँच घर तक जला दिए गई थे. इन सब आन्दोलन के मद्देनज़र एक हफ्ते बाद ही प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह ने असम और अरुन्चंल का दौरा कर मीडिया के समक्ष यह बयान दिया था की अरुणांचल व असम में बड़े बंधो को लेकर चल रहे अन्दोलोनो द्वारा उठाये जा रहे सवालो पर विचार किया जायेगा व इन बंधो की समीक्षा की जाएगी. 

लेकिन यह विडम्बना है की प्रधान मंत्री द्वारा इस आश्वासन  के बावजूद भी अन्दोलान्करियो पर दमनात्मक कार्यवाही की गई. पुलिस द्वारा ११ मई को सभी अन्दोलान्करियो की बेरहमी से पिटाई की गई व लगभग दस आन्दोलनकारी इस समय लापता है. अनोलान्करियो के घरो में घुस कर पुलिस द्वारा अन्दोलान्करियो के परिवारों के साथ भी दमन किया जा रहा है. महिलाओ के साथ भी काफी अभद्रता की गई है. यह सब तब हुआ जब देश के प्रधान मंत्री इस क्षेत्र का दौरा करने के बाद लौटे. इस दमनात्मक कार्यवाही से तो यही लगता है की स्वयं प्रधान मंत्री ने अन्दोलान्करियो से डंडे से निपटने के लिए राज्य सरकार को निर्देश दिए है. इस तरह की दमनात्मक कार्यवाही के बावजूद भी अभी तक बांध स्थल पर निर्माण सामग्री को पहुँचने नहीं दिया जा रहा है. कृषक मुक्ति संग्राम समिति ने घोषणा की है की अगर सरकार बातचीत के बजाय दमन पर उतारू होगी तो प्रदेश व्यापी आन्दोलन शुरू होगा. इस पुलिसिया कारवाही पर १३ मई को  अन्दोलान्करियो ने एक दिवसीय बंद का भी आहवान किया था.  

Police oppression on anti-dam protestors in Assam

The Anti-Lower Subansiri Hydro-power project of the NHPC since November 2011 has been under intense police repression. The protestors had blocked all goods transported to the project site. This eventually stopped the works at the project site since December 2011. Both women, men belonging to the KMSS, Assam; AJYCP, TMPK and others were in the street since last year. 
The government has however unleashed unprecedented police repression since last week. A number of protesters are now arrested and they have been exposed physical torture. Most families in the district of Lakhimpur have now faced some kind of repression. Most young men have fled as one or other have been continuously arrested.
As of now the administration has not succeeded been able to carry goods to project site. The workers of the petroleum goods are also in the strike in these areas against police repression.   
   
We will update you further all next development. For details Contact Bedanta Laskar, Assisant General Secretary KMSS 09435561832


Gates’s $4 billion foray in global family planning

May 15, 2012, 12:02 a.m. EDT

Gates's $4 billion foray in global family planning

Commentary: 'New crusade' for health care for 120 million women

By Paul B. Farrell, MarketWatch
SAN LUIS OBISPO, Calif. (MarketWatch) — Melinda Gates recently announced a "new crusade" for her $32 billion Bill & Melinda Gates Foundation. A recent Newsweek interview with Michelle Goldberg says it's a "decision that is likely to change lives all over the planet."
Gates has "decided to make family planning her signature issue," by investing "billions to revolutionize contraception worldwide," with substantial economic consequences.

Bill & Melinda Gates Foundation
Bill and Melinda Gates
The Gates decision will "be hugely significant for American women." She's "pouring money into the long-neglected field of contraceptive research, seeking entirely new methods of birth control," a "whole new class of drugs," some that could even work without hormones, and others, might be implantable devises that never need to be removed, can even be turned on and off by the woman.
The good news: Gates is already in high gear "teaming up with the British government to co-sponsor a summit of world leaders in July in London, to start raising the $4 billion the foundation says it will cost to get 120 million more women access to contraceptives by 2020."
And that's huge: Last year the entire pharmaceutical industry made a total of $67.4 billion in all their research, including cancer and heart, plus the cost of developing a single new drug can exceed $1 billion. So Gates $4 billion in new research for women's health care makes Melinda Gates perhaps the biggest player in the future of pharmaceuticals worldwide.

Commercial opportunities: Drug sales of $15 billion to $36 billion annually

Moreover, we know investing in R&D can have huge payoffs, creating major new marketing and sales opportunities for the commercial drug world. $4 billion of new research is certain to leverage up several times with new business opportunities not only for the pharmaceutical industry, but for clinics, hospitals and medical professionals.
For example, Newsweek says that Pfizer's Depo-Provera is already the most "popular in many poor countries because women need to take it only four times a year." So you do the numbers: If 120 million new women users chose Depo-Provera, at an estimated average cost between $120-$300 per woman annually, that works out to $15 billion to $36 billion in new sales annually, a nice payoff from leveraging $4 billion in research money.
Gates's research commitment may be one of the most significant health-care decisions of the new century. As Gates put it, when she realized "what needed to get done in family planning, I finally said, OK, I'm the person that's going to do that." Now she hopes to lead the charge and "galvanize a global movement."
With this commitment, if Gates succeeds in these plans the global economic, social, cultural and political landscape will be dramatically altered, with women gaining more power over their own health care.

Economic ripples: 120 million potential new women entrepreneurs

We've all heard about how all across the globe, especially in developing, emerging and poor countries, new banking institutions are making microloans (small loans to poor people with no credit or collateral). This new industry stepped into the global spotlight back in 2006 when Muhammud Yunus, an Indian economics professor turned banker, was awarded the Nobel Peace Prize, along with his Grameen Bank, for their groundbreaking efforts with microloans, creating a new class of micro-entrepreneurs worldwide.
So we expect the Gates $4 billion research investment will add more stimulus to this microloan phenomenon and increase membership in this new class of entrepreneurs.
In a well-documented feature on women's health, population growth, birth control and family planning back in 2010, the editors of Mother Jones magazine, Monika Bauerlein and Clara Jeffery, wrote:
"Every tiny improvement in the status of women, every bit of education for girls, translates into women having more control over their fertility, which translates into family sizes that match parents' means and wishes, which in turn means more opportunity for the next generation — a virtuous cycle of enormous potential" and economic prosperity

Microloans may be the world's best contraceptive

The editors of Mother Jones then added that "the best 21st-century contraceptive, as Julia Whitty writes in our cover story, turns out to be a microloan." How? Because smaller family size translates into more economic opportunities for those families in poor regions, and that means greater income potential for the family, lifestyle improvements and new commercial markets, all thanks to a growing market for microloans and new entrepreneurs.
According to Julia Whitty's cover piece, "the paradox embedded in our future is that the fastest way to slow our population growth is to reduce poverty, yet the fastest way to run out of resources is to increase wealth. The trial ahead is to strike the delicate compromise: between fewer people, and more people with fewer needs ... all within a new economy geared toward sustainability."
There's a lot of hope in her message. She sees a world rapidly evolving, now in a "stage in our demographic maturity: the transition from 20th-century family planning to 21st-century civilizational planning. The shift may seem daunting, but some of it's already happening. Birth rates continue to fall. And slowly but surely our focus converges as we realize that our common future is entwined with the fate of this small world."
And that further confirms the great promise driving the Gates $4 billion research commitment.

No controversy, focus on social justice and women's rights

Gates's decision has been building for 18 years, since Melinda and Bill got married and launched their philanthropic efforts. Newsweek says she's "a reserved woman who has long been wary of the public glare attached to the Gates name," and a devout Catholic who wrestled long and hard with the implications for her faith.
But after years traveling clinics around the world listening to women tell her how "they'd left their farms and walked for hours, sometimes with children in tow, often without the knowledge of their husbands, in their fruitless search" for a birth control shot, Melinda was "stunned by how vociferous women were about what they wanted."
As expected, however, "the Catholic right is pushing back," says Newsweek's Michelle Goldberg, adding rhetorically: "Is she ready for the political firestorm ahead?"
Yes, and she's made clear that this research will be guided by a clear "no controversy" policy. Her "goal is to get this back on the global agenda" by stepping into a three-decade-long power vacuum left by America's leaders.
And while her expressed "agenda is neither coercive population control nor abortion," focusing instead on "social justice and women's rights," you can clearly see that this research will have a huge impact on the global population economics. 
==================================================================
MOKSH: (Monitoring Knowledge & Social Health)
An International Network of Eminent Scientists Questioning 
                                  the Science Behind "Science"
1st Floor, N-3/409, IRC Village,
Nayapalli, Bhubaneswar - 15
Odisha, India
Phone: +91-9337102146
Disclaimer: Views expressed in my mails are my own and may not represent that of the organisation.
===================================================================