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Saturday, 3 March 2012

जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में आईसा को मिला अध्यक्ष पद


जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में आईसा को मिला अध्यक्ष पद

Saturday, 03 March 2012 17:13
नयी दिल्ली, तीन मार्च (एजेंसी) जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय :जेएनयू: छात्रसंघ चुनावों में एक बार फिर धुर वामपंथी संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट्स असोसिएशन :आइसा: ने अध्यक्ष पद पर कब्जा जमाने में कामयाबी हासिल की है। आइसा को छात्रसंघ के चार शीर्ष पद पाने में तो कामयाबी हासिल हुई ही है साथ में काउंसिलरों की ज्यादातर सीटें भी इसी के हिस्से आयी हैं । 
भूगोल से पीएचडी कर रही आइसा कार्यकर्ता सुचेता डे ने एसएफआई-एआईएसएफ
की ओर से अध्यक्ष पद के उम्मीदवार जिको दासगुप्ता को 1,251 मतों के अंतर से मात देकर विजय हासिल की । डे को कुल 2,102 मत मिले जबकि गुप्ता को 751 मतों से संतोष करना पड़ा । 
अभिषेक यादव ने अपने निकटतम प्रतिद्धंदी को उपाध्यक्ष पद के लिए हुए चुनाव में 620 मतों के अंतर से मात दी जबकि रवि प्रसाद ने 919 मतों के अंतर से महासचिव का पद हथियाने में कामयाबी हासिल की ।
मोहम्मद फिरोज नए संयुक्त सचिव निर्वाचित हुए हैं । उन्होंने अपने निकट प्रतिद्वंदी को 579 मतों से हराया । 
शीर्ष के चार पदों सहित तीस सीटों के लिए हुए चुनाव में लगभग 123 उम्मीदवार मैदान में थे । गौरतलब है कि छात्रसंघ चुनाव चार साल के बाद हुए थे 


सत्ता का नेपथ्य


सत्ता का नेपथ्य


Saturday, 03 March 2012 12:39
नरेश गोस्वामी 
जनसत्ता 3 मार्च 2012: भारतीय चुनाव प्रणाली के अध्येता बताते हैं कि हमारे यहां आज तक कोई केंद्र या राज्य सरकार ऐसी नहीं बनी जिसे कुल मतदान का बहुमत हासिल हुआ हो। अक्सर तो सरकार बनाने वाले दल या गठजोड़ का वोट प्रतिशत इतना कम रहता है कि अगर उसे परीक्षा में दिए जाने वाले अंकों के हिसाब से आंका जाए तो अधिकतर पार्टियां चुनावों में तृतीय श्रेणी में पास हो पाती हैं। लोग रोजमर्रा के अनुभवों से जानते हैं कि इतने कम अंक लेकर छात्रों को अच्छी नौकरी तो क्या अच्छे संस्थान में दाखिले तक के लाले पड़ जाते हैं। जबकि राजनीतिक दल इसी प्रदर्शन के बूते सरकार बना कर देश की समस्त संसाधन-संपदा के नियंत्रक बन बैठते हैं। यह हमारी राजनीति का ऐसा अंधेरा है जिसमें न्याय, बराबरी और खुशहाल समाज बनाने की सारी संभावनाएं लापता हो जाती हैं। सत्ता की यह एक ऐसी संरचना है जो धीरे-धीरे अल्पमत के चौतरफा वर्चस्व के रूप में रूढ़ होती जा रही है।
देश की आजादी के तुरंत बाद जड़ जमा लेने वाली यह अल्पमत संरचना पिछले बीस-तीस बरसों में पहले से ज्यादा स्वेच्छाचारी होती गई है। शिक्षा का सबसे पहले, सबसे ज्यादा और आखिर तक इसी अल्पमत समूह ने लाभ उठाया। सरकारी स्कूलों की सस्ती शिक्षा पाकर हर तरह की नौकरियों पर कब्जा जमाया। शिक्षित और सबल होने के कारण सरकारी योजनाओं में सेंध लगाई। अपने परिवार को पीढ़ियों के लिए सुरक्षित किया, फिर जाति और अंतत: इलाके के लिए कोई ऐसा काम कर दिखाया जो उसके आगामी राजनीतिक जीवन के लिए एक तरह का निवेश बन गया। 
नौवें दशक के आरंभ में जब इस अल्पमत को लगा कि अब सरकारी ढांचे में कुछ भी खास नहीं बचा जो उसकी कामनाओं और सपनों को पूरा कर सके तो वह अर्थव्यवस्था के निजीकरण के पक्ष में माहौल बनाने लगा। और इस बीच संचित की गई राजनीतिक-सामाजिक पूंजी के दम पर उसने उन सारे क्षेत्रों को व्यवसाय में बदल दिया जो कभी राज्य की जिम्मेदारी हुआ करते थे। उसे शिक्षा में व्यवसाय की उम्मीद दिखी तो वह अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में शिक्षण संस्थान खोलने लगा। इन संस्थानों के बारे में दिलचस्प बात यह है कि उनमें शायद ही कोई ऐसा संस्थान हो जिसके नाम में एक बार ग्लोबल या इंटरनेशनल न आता हो। उनकी भव्यता देख कर यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं होता कि उनके निर्माण में लगा पैसा किसी व्यक्ति का निजी निवेश नहीं हो सकता। शासन की कार्यप्रणाली को समझने वाले लोग जानते हैं कि यह पैसा या तो बैंकों का होता है या फिर रसूखदार और ताकतवर लोगों के आपसी नेटवर्क का नतीजा होता है।
शिक्षा को उद्योग बना देने वाले इस अल्पमत ने अब खेती की जमीन को रियल इस्टेट के कारोबार में बदल दिया है। सत्ता में होने के कारण उस पर किसी का नियंत्रण नहीं होता। इसीलिए वह किसी भी कानून और नियम को अपने हित में इस्तेमाल कर लेता है। उसे लगता है कि अब शहरों का विकास होना चाहिए तो खेती की जमीन पर आवासीय परिसर उगने लगते हैं। यह अल्पमत जब अर्थशास्त्रियों, योजनाकारों और नीति-निर्माताओं की शक्ल में सामने आता है तो वृद्धि दर को विकास और प्रगति का पर्याय बना देता है। 
गजब यह कि यह सारा उपक्रम जनता के नाम पर किया जाता है। और दुहाई यह दी जाती है कि हमें जनता ने चुना है। जबकि मतदान करते ही जनता उस प्रक्रिया से कट जाती है जिसके तहत सरकार बनाई जाती है। उसकी इस बारे में कोई भूमिका नहीं होती कि सरकार कैसे-कैसे बनाई गई है। उसमें किनका हित साधा गया है। जनता को मीडिया के जरिए बेशक यह खबर मिल जाती हो कि सरकार बनाने में क्या-क्या समझौते किए गए हैं, किन औद्योगिक गुटों और सत्ता-प्रबंधकों की सहायता ली गई है। लेकिन वह सत्ता की इस बंदरबांट को नियंत्रित करने या रोकने की स्थिति में नहीं रह जाती। 
सरकार के गठन के मामले में इसे लगभग स्थायी अनुभव माना जा सकता है कि उसमें अक्सर ऐसे लोगों की भूमिका निर्णायक होती है जो कभी जनता के सामने नहीं आते और जिनके बारे में आम नागरिकों को बहुत देर तक पता नहीं चलता कि वे कौन हैं और किस आधार पर इतने महत्त्वपूर्ण हो गए हैं। विडंबना यह है कि सत्ता की इस अल्पमत संरचना को समझने और उसे प्रश्नांकित करने का काम स्थायी रूप से नहीं किया जाता। और इस अनुभवगत तथ्य पर भी ध्यान नहीं दिया जाता कि असल में सरकार और उसके शासकीय ढांचे की मार्फत वही जन-जीवन में सामूहिक वंचना और दुख का कारण बनी बैठी है। 
यह जंजाल इतना विराट है कि उसमें आम नागरिक को यह अहसास ही नहीं होता कि अगर यह संरचना ध्वस्त कर दी जाए तो उसका जीवन कई गुना बेहतर हो सकता है। सरकार की जन-कल्याण योजनाओं के जरिए इस सच्चाई को बखूबी समझा जा सकता है कि यह अल्पमत जनमत का कितना सम्मान करता है। 
गौर करें कि जब ऐसी कोई योजना तैयार की जाती है तो जनता को उसकी प्रक्रिया और औचित्य से अवगत नहीं कराया जाता। आम नागरिक को कभी पता नहीं चलता कि इन योजनाओं को कौन तैयार करता है। लेकिन यहां यह अहम बात जेहन में रहनी चाहिए कि इस अल्पमत समूह के सहोदर लोकवृत्त, शैक्षिक संस्थाओं और मीडिया में भी होते हैं जो किसी खास विचार और विमर्श को चर्चा में लाकर उसके इच्छित निष्कर्षों के इर्दगिर्द सहमति बनाने का काम करते हैं।  
ऐसे में चुनावों के जरिए सत्ता में आए नेतृत्व से यह सवाल क्यों न पूछा जाए कि   चुनावी प्रक्रिया से निकले जिस परिणाम को वह जनादेश कहता है, उसकी वैधता क्या है और जब वह सरकार के रूप में ऐसे बडेÞ फैसले करता है जिनसे करोड़ों लोगों का जीवन, उनका वर्तमान और भविष्य तय होता है तो निर्णय की उस प्रक्रिया में जनता की हैसियत क्या होती है। एक बार नौवें दशक को याद करें, जब मनमोहन सिंह (जो तब वित्तमंत्री थे) के नेतृत्व में आर्थिक सुधारों के नाम पर सत्ता के अल्पमत को देश की समस्त संपदा सौंपने का फैसला लिया गया था। क्या उस समय इन सुधारों की जरूरत और औचित्य को लेकर सरकार वाकई जनता के बीच गई थी?
सच तो यह है कि जन-जीवन को आमूल बदल देने वाले उस निर्णय पर जिस तरह की भाषा और जटिल सूत्रों में बातें की गई थीं उसे लोग न तब समझ पाए थे, न आज समझते हैं। इसलिए लोकतंत्र के तलबगारों को खुद से यह सवाल आगे लगातार पूछना पडेÞगा कि क्या सिर्फ चुनाव हो जाने और सरकार बन जाने से जनता का सबलीकरण हो जाता है? असल में, पिछले दो दशक के दौरान लोकतंत्र की दूसरी लहर का जो हश्र हुआ है उसे देखते हुए यह पड़ताल और जरूरी हो गई है।
लोकतंत्र की इस दूसरी लहर में मंडल आयोग के बाद राजनीति में उन जातियों का प्रवेश एक ऐतिहासिक घटना थी जो लोकतंत्र की पहली लहर में सत्ता से वंचित रह गए थे। यह बात सब जानते हैं कि इलाकाई राजनीति पिछले बीस-पचीस बरसों में इन्हीं पिछड़ी और दलित जातियों से तय हो रही है। और अब हालत यह हो चुकी है कि केंद्र सरकार तक उनकी सहायता या समर्थन के बिना डावांडोल हो जाती है।
इन जातियों का नेतृत्व जो लोग कर रहे थे उनके गंवई तौर-तरीकों को देख कर यह उम्मीद जगी थी कि शायद वे देश की प्राथमिकताएं बदलने का प्रयास करेंगे या कि उनकी देशज जीवन-शैली और खेती-किसानी की पृष्ठभूमि अर्थतंत्र के उस ढांचे को बदल देगी जिसमें देश का अल्पमत समूह अपनी ही जनता का शोषण करता रहा है।
लेकिन इन्हीं बरसों में मुक्त बाजार ने समाज में अमीरी, अनियंत्रित उपभोग और आम लोगों को साधनहीन करने की जो प्रक्रिया शुरू की, उसमें वह पिछड़ा और दलित नेतृत्व भी साझीदार हो गया जो मूलत: प्रतिरोध की राजनीति से आया था और जिनके समर्थकों ने रोजमर्रा के जीवन में सत्ता के ऐश्वर्य और उसकी अराजकता के नतीजे भुगते थे। 
आज इन राजनीतिक दलों के पास भी अपने-अपने पूंजीपति और सत्ता के प्रबंधक हो गए हैं। मायावती पहचान और सोशल इंजीनियरिंग की जिस राजनीति को साध कर सत्ता में आर्इं और जिसे लोकतंत्र के सिद्धांतकारों ने इस बात की मिसाल बना कर प्रचारित किया कि लोकतंत्र में बिना रक्तपात के भी कितना बड़ा सामाजिक बदलाव लाया जा सकता है, उसी दलित मुख्यमंत्री के काल में जमीन के नामालूम कारोबारी धन्नासेठ बन गए। नोएडा में फार्मूला वन रेस जैसे फूहड़ तमाशे का आयोजन कराया गया। 
इसी तरह धरतीपुत्र कहे जाने वाले मुलायम सिंह यादव की पार्टी तो एक समय जैसे फिल्मी सितारों और अमर सिंह जैसे लोगों के कब्जे में चली गई थी। आखिर ऐसा क्या हुआ होगा कि जो पार्टी अपने जातिगत आधार के कारण मजबूत बनी, चुनाव लड़ी और सरकार बनाने में सक्षम हुई, उसे ऐसे सितारों और धंधेबाजों की जरूरत आ पड़ी। दरअसल, यहीं से पता चलता है कि जनता सिर्फ चुनावी राजनीति में भाग लेती है। जबकि इसके परे संसाधनों पर कब्जे की एक और राजनीति है, जहां देश-समाज का अल्पमत जन-दबावों से सुरक्षित रह कर अपने हितों का गुणा-भाग करता रहता है। 
एक लंबे समय तक इस संरचना पर पारंपरिक अभिजनों या अगड़ी जातियों का कब्जा रहा, लेकिन इधर के वर्षों में इसमें पिछड़ा और दलित नेतृत्व भी शामिल हो गया है। सच तो यह है कि इसमें वह हर राजनीतिक समूह शामिल हो सकता है जो बाजार का साझीदार बनने को तैयार है। गहराई से देखें तो अल्पमत का वर्चस्व इसलिए घटित हुआ है, क्योंकि हमारी शासन-व्यवस्था में संसाधनों का प्रवाह केंद्र की तरफ जाता है। हमारी व्यवस्था की बनावट ही ऐसी है कि अंतत: देश-समाज की संपदा का नियंत्रण और उसका बंटवारा इसी अल्पमत राजनीतिक सत्ता के हाथों में चला जाता है। 
संसाधनों पर इस एकछत्र नियंत्रण का परिणाम यह होता है कि सरकार सर्वशक्तिमान बन जाती है और जनता निरीह हो जाती है। इस पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार कांग्रेस की है या भाजपा की। उसका चरित्र ही ऐसा है कि उसमें जो भी प्रवेश करेगा उसे उसकी शर्तों के अनुसार ही काम करना होगा। जाहिर है कि ऐसे में चाहे मायावती हों या मुलायम सिंह, दोनों को या तो अल्पमत की ही राजनीति करनी होगी या फिर राजनीति का कोई और विकल्प तैयार करना होगा।
बहरहाल, यह अकारण नहीं है कि बरसों से जड़ता का रूपक बने उत्तर प्रदेश के चुनावों में मुख्यधारा के सारे दल एक दूसरे की खामियां तो गिना रहे हैं, लेकिन कोई भी यह ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि उसके सत्ता में आने से जनता का भला कैसे हो जाएगा। जो अल्पमत के वर्चस्व पर टिकी इसी राजनीति का हिस्सा है वह उसकी अपूर्णताओं, सीमाओं और उसमें निहित अन्याय पर कैसे उंगली उठा सकता है!


Friday, 2 March 2012

THE ‘BRAHMINS-HINDUS’ DEMONCRACY alias ALLEGED INDIAN DEMOCRACY & THE NON-BRAHMINS-HINDUS MINORITIES*

THE ‘BRAHMINS-HINDUS’ DEMONCRACY alias ALLEGED INDIAN DEMOCRACY & THE NON-BRAHMINS-HINDUS MINORITIES*

The ‘Civil war’ has been going in the largest demo(n)cracy of the Brahmins-Hindus alias India, because of gross human rights violations, persecution, torture, terrorism, fake-encounter killings, pogroms, massacres, ‘undeclared’ war on the Sikhs of the ‘robbed’ PUNJAB of 15th August, 1947, The Sikh Nation, Khalistan, in a brutal militaliry “Operation Bluestar” of June, 1984, terror of the Saffaronized Hindus-Brahmins organizations, i. e., the RSS [Rashtriya Swamsewak Sangh, Vishwa Hindu Parishad or VHP, Shiv Sena, Bajrang Dal, Hindu Mahasabha (Mother of all evils)], injustices carried out by the highly politicized Brahmins-Hindus demoncracy, rapes, humiliations, dehuminizations, and social, educational and political genocide, etc., of the Sikhs, Muslims in general, Muslims of the IDA:JK (Internationally Disputed Areas of Jammu and Kashmi), Christians, Tamils, Assamese and 8-sister of Assam, Manipur, Dalits, aboriginals (native people), etc., since 15th August, 1947.

Since 15th August, 1947, the Brahmins-Hindus demoncracy has killed more than 3.2-3.4 million Sikhs, over 500,000 Muslims in general, over 500,000 Muslims of the IDA:JK, over 10,000 Tamils, over 15,000 Assamese, over 10,000 Manipuris, tens of thousand of Bodos, tens of thousands of the Dalits and other non-Brahmins-Hindus minorities by the armed forces of the Brahmins-Hindus demoncracy, using the special powers to the Armed Forces Act and making armed personnel immune to the draconian laws of land. Human Rights Commission of the Brahmins-Hindus demoncracy have been acting for their Brahmins-Hindus masters.

Recently, Kishorilal who massacred the Sikhs has been released by the Brahmins-Hindus’ court of law; whereas, Professor Devinderpal Singh Bhullar, Bhai Dilaver Singh Babbar, Parmjit Singh Bheora, their Sikh brothers have been given death sentences and are on the death row to go to gallows. Similarly, a Muslim brother Afzal Guru has also been on the waiting to go to gallows. The simple reason for the Sikhs and Muslims, as against Kishorilal and likewise Hindus-Brahmins, is that they are ‘not’ Brahmins-Hindus. It is a crime in the Brahmins-Hindus demoncracy to be a Sikh, Muslims or non-Brahmins-Hindus. The practices of the criminal, unethical and mentally bakrupt Brahmins-Hindus’ law-makers has brought the country to the ‘civil war’.

There have been more than 10,000 Sikhs (infants, children, male and female folks and elderly) languishing in the high security and other jails in Punjab and outside PUNJAB, the Sikh Nation, Khalistan, since the days of the Brahmins-Hindus’ ‘undeclared’ on the ‘robbed’ PUNJAB of Sikhs, the Sikh Nation. We, the Sikhs of PUNJAB and the Sikh Diaspora should be thankful to a 'turbaned Brahmin' Hanera Sinh Badal and stooges for their anti-Guru Khalsa Panth activities.

The writer of this brief has been requesting to his Sikh brothers, sisters, children and eldrelys, Muslims in general and the IDA:JK, Christians, Tamils, Assamese, Manipuris and Dalits, Buddhists, etc., to ‘wake up’, as the ‘Brahmins-Hindus and their ‘joe boys and girls’ have already waged a ‘Civil War’ against them, since 15th August, 1947. The ‘robbed’ PUNJAB of Sikhs and the citizens of the IDA:JK have been perfect examples of the Brahmins-Hindus’ ‘civil war’, which includes terror, persecution, genocide, etc.

Wake up, my dear brothers, sisters, youth, children and elderly of the non-Brahmin-Hindus minorities. Enough is enough.
 
Awatar Singh Sekhon (Machaki)*
*****
P S: NOTE: Players of the 'Civil War' are (alive or deceased): JL Nehru, the Nehru clan, MK Gandhi, MM Malviya, VB Patel, criminal AB Vajpayee and his whole team of BJP, RSS, Shiv Sena, Hindu Mahasabha, Indira Gandhi, LK Advani, Narender Modi (Gujarat Muslims' killer), Rajiv Gandhi, Sonia Gandhi and clan, Manmohan Kohli, Boota Sinh, Sikhs of anti-Sikh Hindu-Brahmin parties, Gurcharan Tohra, Harchand Longowal, Surjit Barnala, Ranjit Dayal, Kuldip Brar, VHP, Tara Sinh Malhotra, Fateh Sinh, Chanan Sinh, Kirpal Sinh, other state appointed Chief Scoundrels (Puran Sinh), Gurbachan Sinh, Vedanti Joginder Sinh, all members of the Rashtriya Sikh Sangat (a branch of Hindu's RSS), Jaswant Bhullar, Foreign missions of the Brahmins-Hindus demoncracy participated in the explosion of Air India Flight 182 on 23rd June, 1985 on the western coast of Ireland, Hanera Sinh Badal, his clan and party members, KP Gill, SS Virk, SS Ray, S Dayal, to cite a few.
***** 

अब क्या करेंगे रतन टाटा? नैनो की सूरत संवरी,मार्केटिंग की रणनीति और तौर तरीके बदल गये पर क्रेज अभी तक बनी नहीं!


अब क्या करेंगे रतन टाटा? नैनो की सूरत संवरी,मार्केटिंग की रणनीति और तौर तरीके बदल गये  पर क्रेज अभी तक बनी नहीं!

मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


अब क्या करेंगे रतन टाटा? उन्होंने कहा था कि नैनो की सूरत संवारी जाएगी। टाटा ने यह भी कहा था कि इसकी गरीब आदमी की कार वाली इमेज बदली जाएगी। 800 सीसी इंजन के साथ ही नैनो अल्ट्रा लो कॉस्ट सेगमेंट से निकलकर एंट्री लेवल सेगमेंट में दाखिल होगी। अभी इस सेगमेंट में ह्युंदै एऑन और मारुति ऑल्टो का दबदबा है। मौजूदा वित्त वर्ष की अक्टूबर-दिसंबर तिमाही में टाटा मोटर्स का राजस्व 43 फीसदी बढ़कर 45,260 करोड़ रुपये पर पहुंच गया है। वहीं वित्त वर्ष 2011 की तीसरी तिमाही में टाटा मोटर्स का राजस्व 31,685 करोड़ रुपये रहा था। तीसरी तिमाही में टाटा मोटर्स का मुनाफा 40.5 फीसदी बढ़कर 3,406 करोड़ रुपये हो गया है। पिछले वित्त वर्ष की अक्टूबर-दिसंबर तिमाही में टाटा मोटर्स का मुनाफा 2,424 करोड़ रुपये रहा था।

रतन टाटा के लिए नैनो कार को सड़क पर उतारने के लिए जितने पापड़ बेलने पड़े, बाजार में उसकी मांग बनाये रखने के लिए वे कोई कसर बाकी नहीं ठोड़ना चाहते। उन्हीं के दिशा निरदेश के मुताबिक अब नैनो की सूरत भी संवर गयी। मार्केटिंग की रणनीति और तौर तरीके बदल गये हैं। पर लखटकिया तमगा छिन गया और जिस क्रेज की उम्मीद थी, वह अभी तक बनी नहीं है। बहरहाल  नैनो स्पोर्टी लुक और 800 सीसी इंजन वाले पावरफुल वैरिएंट के साथ आएगी।2009 में नैनो को लॉन्च करने के बाद इसकी बिक्री में काफी उतार चढ़ाव देखने को मिले। खराब डिस्ट्रीब्यूशन, वित्तीय विकल्पों की कमी और दूसरे कारणों की वजह से इसकी बिक्री में कमी देखने को मिली थी।

सिंगुर आंदोलन और ममता बनर्जी के उत्थान से नैनो की कहानी जुड़ी हुई है। जहां नैनो को अपेक्षाओं पर अभी खरा उतरना बाकी है वहीं टाटा मोटर्स को नैनो के साथ गुजरात खदेड़ने के बाद पूंजी निवेश के लिए ममता को दर दर भटकना पड़ रहा है। सिंगुर परियोजना खारिज हो जाने का खामियाजा तो​ ​ रतन टाटा और उनकी कंपनी को न जाने कब तक भुगतना पड़ेगा। टाटा मोटर्स भारत में व्यावसायिक वाहन बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनी है। इसका पुराना नाम टेल्को (टाटा इंजिनीयरिंग ऐंड लोकोमोटिव कंपनी लिमिटेड) था। यह टाटा समूह की प्रमुख कंपनियों मे से एक है। पर नैनो का बाजार में कायदे से न जम पाने से रतन टाटा की उद्यमी दक्षता पर सवाल खड़े होने लगे हैं। नैनो ने टाटा मोटर्स की रातो की नींद बेशक उडा दी हो, लेकिन लगता है कंपनी ने अभी भी इस कार को लेकर हार नही मानी है,रतन टाटा ऐसा हरगिज नहीं होने देंगे और अब उनके तरकश से मार्केडिंग के क्या क्या नये तीर निकलते हैं, यह देखना अभी बाकी है। ब्रांड ​
​बतौर नैनो की कामयबी पर रतन टाटा और टाटा मोटर्स की साख जो दांव  पर लग गयी है।अभी तक नैनो को सस्ती और गरीबों की कार ही समझा जाता था लेकिन अब टाटा मोटर्स नैनो को दूसरी कार के मुकाबले में खड़ा करने की तैयारी कर रही है।

गौरतलब है कि रतन टाटा ने जनता की कार ' नैनो ' को पेश करते हुए आश्वासन दिया था कि इस कार की कीमत वादे के मुताबिक एक लाख रुपए ही होगी साथ ही यह सभी प्रकार के सुरक्षा और प्रदूषण स्तरों को पूरा करती है। पर शुरूआती जोश जल्दी ही काफूर हो गया और बाजार की चुनौतियां मुंह बांए खड़ी हैं। मालूम हो कि नैनो परियोजना पर  टाटा मोटर्स का निवेश जमीन विवाद में अभी तक फंसी हुई है और ममता बनर्जी रतन टाटा को कोई छूट देने के मूड में नहीं है।

खबर है कि  टाटा स्टील के संस्थापक जेएन टाटा की जयंती पर टाटा समूह के चेयरमैन रतन टाटा व साइरस मिस्त्री टेल्को भी आएंगे। उनके स्वागत में जोरदार तैयारी चल रही है। टाटा मोटर्स व उसकी सहायक कंपनी टीएमएल ड्राइव लाइंस, टाटा कमिंस व टेल्कॉन में रंगरोगन और सजावट शुरू है। टाटा मोटर्स मुख्य गेट के निकट एक नया पार्क बनाया जा रहा है, जिसका उद्घाटन तीन मार्च को ही किया जाएगा।इस यात्रा के दोरान कंपनी का कायाकल्प करने के लिहाज से साइरस को रतन टाटा क्या टिप्स देते हैं, इस पर भी उद्योग की नजर लगी है और खुफिया हरकतें तेज हो गयी हैं। पहली बार साइरस मिस्त्री के दौरे को लेकर कंपनी प्रबंधन काफी उत्साहित बताया जाता है।आटो क्षेत्र की अग्रणी कंपनी टाटा मोटर्स अपनी नन्ही कार (नैनो) की बिक्री बढ़ाने के लिए पूरी ताकत के साथ नई रणनीति पर अमल कर रही है, नैनो के मंजिल तक न पहुंचने पर यह जुमला जरूर फालतू हो जायेगा। ठाटा मोटर्स के प्रबंधन के लिए अब यह सबसे बड़ी चुनौती है, इसका वे कैसे मुकाबला करेंगे और नतीजा क्या निकलते हैं, यह देखना जाहिर है खासा दिलचस्प होगा।

चूंकि लागत बढ़ जाने से बाजार में मांग बनाने लायक कीमत का विकल्प ममता ने छीन लिया। अब तरह तरह के रंग रोगन से दुल्हन की तरह सजाकर पेश की जा रही है नैनो। टाटा नैनो की मौजूदा रेंज 1.4 लाख से 2 लाख रुपए से कम तक है। नए वैरिएंट से कंपनी को वॉल्यूम बढ़ाने में मदद मिल सकती है। अभी एक महीने में 7,500 नैनो बिक रही हैं। इस वॉल्यूम पर कंपनी के लिए ब्रेक ईवेन तक पहुंचना मुश्किल है। पिछले साल के अंत में टाटा मोटर्स ने नए साल में नैनो का इंप्रूव्ड वर्जन लाने की घोषणा की थी। इसमें कुछ बदलाव भी किए गए। इनसे टाटा मोटर्स को सेल्स बढ़ाने में मदद मिली। दिसंबर 2011 में जहां नैनो की बिक्री 7,466 यूनिट थी। वहीं, जनवरी 2012 में यह बढ़कर 7,723 हो गई। नैनो में फिलहाल 624 सीसी का इंजन लगा है और इसकी कीमत 1.4 लाख से 2 रुपए के भीतर ही आती है लेकिन अब टाटा मोटर्स उन ग्राहकों पर निशाना साधने की तैयारी कर रही है जो एंट्री लेवल सेगमेंट में नई कार के लिए ढाई लाख रुपए तक खर्च करने की हैसियत रखते हैं। टाटा के इस कदम से नैनो की बिक्री बढ़ने की उम्मीद है फिलहाल हर महीने 7,500 नैनो बिक रही है जो टाटा की उम्मीद से काफी कम है।

इससे पहले टाटा मोटर्स ने सभी नैनो कारों के स्टार्टर मोटर बदलने का एलान किया है। इसके तहत सभी ग्राहक अपनी नैनो कार के स्टार्टर मोटर को मुफ्त में बदलवा सकेंगे। यह मोटर 2012 की कारों में लगने वाला है। स्टार्टर मोटर से ही गाड़ी का इंजिन काम करना शुरू करता है। इस बदलाव से कार को स्टार्ट करना और सुविधाजनक हो जाएगा। कंपनी इस बदलाव पर 110 करोड़ रुपए खर्च करना होगा। दुनिया की इस सबसे सस्ती कार के कुछ पार्ट्स का कंपनी ने पहले भी बदलाव किया है। कंपनी ने आग लगने की खबरों के बीच कुछ पार्ट मुफ्त में बदले थे। भारत की सड़कों पर करीब डेढ़ लाख टाटा नैनो कारें हैं।

अक्टूबर-दिसंबर तिमाही में टाटा मोटर्स ने कुल 2.31 लाख गाड़ियां बेची हैं। इस दौरान टाटा मोटर्स को 164 करोड़ रुपये का फॉरेक्स घाटा हुआ है। तीसरी तिमाही में जेएलआर की बिक्री 36.7 फीसदी बढ़कर 86,322 यूनिट रही है।

वित्त वर्ष 2012 की तीसरी तिमाही में जेएलआर की बिक्री 41 फीसदी बढ़कर 3.7 अरब पाउंड रही। तीसरी तिमाही में जेएलआर का मुनाफा सालाना आधार पर 28 करोड़ पाउंड से बढ़कर 44 करोड़ पाउंड हो गया है। जेएलआर का एबिटडा 62.8 फीसदी बढ़कर 75.2 करोड़ पाउंड हो गया है। टाटा मोटर्स का एबिटडा सालाना आधार पर 15.4 फीसदी से घटकर 14.8 फीसदी हो गया है।
 

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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/


न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी


न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी

लेखक : रमदा :: अंक: 13 || 15 फरवरी से 28 फरवरी 2012:: वर्ष :: 35 : February 27, 2012  पर प्रकाशित
विधानसभा चुनावों की सरगर्मियाँ शुरू होते ही बरबस जो वाक्य दिमाग में कौंधा वह था, ‘न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी’। अब जबकि उम्मीदवारों के नसीब ई.वी.एम. में बन्द हैं, यह तय नहीं है कि कौन जीतेगा मगर यह तय है कि लोग इस बार भी हारेंगे। इस असलियत से रूबरू मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा हूँ कि ‘नौ मन तेल’ का क्या मतलब है और ‘राधा’ कौन है ?
election-and-vote-1नौ मन तेल अगर नेताओं द्वारा दिये जा रहे आश्वासनों और उम्मीदवारों द्वारा दिखाये जा रहे सब्जबागों के पीछे की हकीकत है तो राधा आम आदमी के अलावा कौन हो सकता है ? और अगर जनोन्मुखी नीतियाँ-चिन्तन और जन आकांक्षाओं की पूर्ति नौ मन तेल हो तो जाहिर है हमारा नेता वर्ग (संदर्भ: वर्ग संघर्ष) राधा। पेंचोखम और भी हो सकते हैं, बस दिमाग को थोड़ा आजाद छोड़ने की जरूरत है।
नौ मन तेल ई.वी.एम. का वह बटन भी हो सकता था, जो ‘राइट टु रिजेक्ट’ को आधार देता। राष्ट्रीय दलों के प्रति मतदाता का मोहभंग इस बटन को दबाने वाले लोगों के बडे़ प्रतिशत के रूप में दिखाई देता……इसके दूरगामी नतीजे भी होते। सुनते हैं चुनाव आयोग भी ऐसा बटन चाहता है, मगर एक जोरदार कोशिश नहीं हुई। मशीन पर ऐसे एक बटन की मौजूदगी का नेता वर्ग से शायद वैसा विरोध भी नहीं होता जैसा जन लोकपाल को लेकर राज्यसभा में दिखाई दिया, क्योंकि यह उनके खेल को तत्काल कोई हानि नहीं पहुँचाता। वह तो तब होगा जब इस विकल्प में प्राप्त मतों के प्रतिशत को चुनाव के निरस्त होने से जोड़ दिया जायेगा। तब तक यह पारित नहीं होता, लोकपाल बिल की तरह नेताओं के लिए खतरे की घंटी का काम तो करता….. राधा कम से कम नाचने की कोशिश करती तो दिखाई देती!
उत्तराखण्ड बनने के बाद शायद पहली बार इन चुनावों में वह राजनैतिक दल भी नौ मन तेल साबित होता, जो उन आंदोलनकारी ताकतों का मोर्चा होता जो क्षेत्रीय मुद्दों की समझ रखता है और यहाँ की बुनावट के अनुरूप नीति निर्माण की योग्यता, या कम से कम समझ रखता। बड़े राजनैतिक दलों के चेहरों की कालिख तो इस बार छुपाये से भी नहीं छुप रही है। उनके लिए उजड़ती खेती, सुविधाओं के अभाव में गाँवों से नगरों या कम से कम सड़क के पास की जगहों पर पलायन, शहरों पर उनकी धारक क्षमता से अधिक दबाव, जल विद्युत परियोजनाओं के खतरे, अनियंत्रित खनन, बदहाल शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधायें, बेरोजगारी के दबाव में माफियाओं के चंगुल में फँस रहे नौजवान किसी तरह की चिन्ता के लायक नहीं हैं। मगर राधा बेचारी क्या करे? उत्तराखण्ड की समझ रखने वाला यह नौ मन तेल तो कभी का आपसी फूट, सत्तालोलुपता और ‘जितने बामन उतने चूल्हे’ के अंहकार की भेंट चढ़ गया!
नौ मन तेल होता, अगर दलों के प्रत्याशियों के चयन का आधार विधानसभा क्षेत्र का राजनैतिक दल विशेष में प्रतिनिधित्व होता न कि राजनैतिक दल का क्षेत्र विशेष में प्रतिनिधित्व। रिप्रजेण्टेटिव डैमोक्रेसी शायद यही होती है कि जन प्रतिनिधि जन आवश्यकताओं-आकांक्षाओं को पार्टी फोरम और चुन लिए जाने पर विधानसभा तक ले जाए। ऐसे में सिटिंग गैटिंग/विनिंग/पैराड्रॉप्ड/धनबली – बाहुबली और सोशल इंजीनियरिंग जैसे खतरनाक जुमले राजनैतिक परिदृश्य का हिस्सा नहीं होते। लोगों के बीच काम करने वाले नौ मन तेल बनते और राधा झूम कर नाचती। बागी-दागी की समस्या से दलों को निजात मिलती और संसद में कोलीशन धर्म की दुहाई देने से पहले प्रधानमन्त्री सौ बार सोचते। जन सरोकारों की बात करने वालों को राजनैतिक दलों के प्रवक्ता ‘अनइलैक्टेबल पीपुल’ का ठप्पा लगाकर कूड़ेदान में डाल देने की बात नहीं कर पाते।
नौ मन तेल वह नौकरशाही भी हो सकती थी, जो चुनाव आयोग का सरमाया मिलते ही तमाम तरह के गठजोड़ों और दबावों से बड़ी हद तक आजाद होकर इतने बड़े चुनावों को अंजाम देती रही है, बशर्ते कि सरकार विशेष के अस्तित्व में आ जाने के बाद भी राजनेताओं के हाथ की कठपुतली बन जाने की नियति से अपने आप को मुक्त रख सकने का साहस उसमें बचा रहे।
विधायिका यदि जन आवश्यकताओं के अनुरूप नीति और विधान निर्माण सम्बन्धी अपने असल दायित्व के निर्वहन में संलग्न होती तो नौ मन तेल साबित होती, मगर यह काम उसने या तो नौकरशाहों को सौंप दिया है या इस मामले में वह अन्तर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय निजी स्वार्थों के अनुरूपसक्रिय होती है, लोग उसकी प्राथमिकताओं में हैं ही नहीं।
तो इस समूचे परिदृश्य के लिये ‘न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी’ गलत नहीं है ………क्यों ?

Narmada Bachao Andolan ;

Narmada Bachao Andolan ;
Add: Narmada-Ashish, Off Kasravad Road, Navalpura, Badwani, Madhya Pradesh – 451551; 
 Ph: 07290-291464  ; Fax: 07290-222549; E-mail: nba.badwani@gmail.com

PRESS NOTE

Defamation Case by Medha Patkar and Counter Case
to be heard on May 23rd
For Immediate Release                                                                                                       1st March, 2012

New Delhi: Certain sections of the media have mistakenly reported about the cross examination of Medha Patkar by Gujarat based ‘NGO’, National Council for Civil Liberties in a Delhi Court. These reports have been giving wrong facts and not bringing out the true picture. The fact is that the case that was to come today before the Metropolitan Magistrate of Saket Court, Delhi was the case filed by Medha Patkar against the deliberately defamatory advertisement put forth by the said NGO in Gujarat. The person putting up the ad has also been an accused in the case filed for the attack on media persons and Medha Patkar at the Sabarmati ashram during the post-riots peace meeting in April 2002. He has been accused along with the then Chairman, Bharatiya Yuva Morcha and then Councellor of BJP, Ahmedabad, Mr. Amit Popatlal Shah.

The same NGO that had made allegations against NBA and Medha Patkar also approached the Supreme Court in 2006, where his case was rejected and he was directed to pay costs for leveling frivolous allegations. NCCL is also involved in other cases against Prof. Ashish Nandy and Mallika Sarabhai which too were dismissed by the Apex Court.

The defamation case filed by Medha Patkar on the basis of the advertisements were to be heard today, while another defamation case filed by the NGO for some press statement believed by them to be defamatory action on the part of NBA. This case was to come up tomorrow i.e. on 2nd March. Both the cases have been postponed; in absence of the Metropolitan Magistrate and the cases have been listed for further hearing and recording of evidence on May 23rd.


Devram Kanera             Kamla Yadav                Bhagirath

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AMRI chargesheet clears mist, spares govt nominees

http://www.telegraphindia.com/1120302/jsp/frontpage/story_15202925.jsp

AMRI chargesheet clears mist, spares govt nominees

OUR BUREAU
Calcutta, March 1: Sixteen people accused in the AMRI Dhakuria fire case have been charged with offences that can jail them for life.
The 16 — nine owners, two doctor directors, the executive director and four managers — have also been charged under a section that deals with not only acts of commission but also those of omission. This section (36) is stronger than the one relating to common intent, the clause that police had been citing in the initial stages of the probe.
The chargesheet filed today formally answers some of the troubling questions thrown up by the tragedy in which over 90 people choked to death. Two of the questions related to when the fire started and when the fire brigade was informed. They have been answered.
Some other questions have not been answered, such as why the government directors have not been charged.
The Telegraph lists the answers given today and the unanswered questions, based on the account of sources who have seen the 1,285-page chargesheet.
The fire started at 2.30am and the fire brigade was called 1 hour and 40 minutes later, at 4.10am.
The chargesheet blames the hospital for allowing the killer smoke to spread across the seven floors for over an hour and a half. The central air-conditioning had not been switched off, providing easy passage for the fumes. The hospital’s fire alarm was off, allegedly because smoke from the kitchen often seeped in and made it ring, and its sprinklers did not work.
The fire was sparked by a “glowing object” that could be a cigarette or bidi butt that had not been stubbed out.
The basement, meant for a car park, had been illegally converted into an office-cum-storehouse as part of a cost-cutting exercise and comprised over 20 rooms. The fire started in the portion of the basement where the hospital stored its cotton and bandages.
Another part of the basement had the radiotherapy unit that had been allegedly built illegally but then regularised by the Calcutta Municipal Corporation.
The central staircase of the hospital used to be locked at night because the management feared some of the patients could flee without paying their bills.
The hospital had appointed personnel without relevant qualifications in key positions, violating norms prescribed by the National Accreditation Board for Hospitals. The chargesheet has cited the example of Sajid Hossain, a “hotel management graduate” who was in charge of the hospital that night.
Preeta Banerjee, vice-president (administration), had suspended a guard for calling the fire brigade a few months earlier, and fears of a similar reprisal prevented the staff from raising the alarm when the smoke started spreading on December 9.
The hospital, the chargesheet says, also lacked a full-time fire-safety officer and a chief (civil) engineer who would have known the layout of the premises and the emergency exits.
The directors might have been aware of all the violations but their approval did not form part of the minutes of the board meetings. The decisions were allegedly made and communicated verbally.
The police are not pressing the charge of common intent (Section 34) against the directors but replacing it with a “stronger” Section 36, which deals with the effects caused “partly by act and partly by an omission”.
Police sources said they had studied the Uphaar cinema verdict in detail during the investigations. In that case, the accused, influential owners of the cinema in downtown Delhi, had got away with the lighter charge of Section 304A (causing death by a rash or negligent act) because of the police’s laxity.
All 16 in the AMRI case have been charged with both culpable homicide not amounting to murder (Section 304 of the IPC) and attempt to commit culpable homicide (Section 308). The first offence carries a maximum sentence of a life term and the second that of seven years. They have also been charged with negligent conduct with respect to fire (Section 285 of the IPC) and Section 36.
Besides, the 12 directors face the charge of negligence under Sections 11C and 11J of the West Bengal Fire Services Act.
Unanswered
If all the directors were aware of the violations, why are the government representatives on the board not on the chargesheet? They had attended most board meetings and the minutes would have been sent to them even if they hadn’t.
The then director of medical education was the chairman of the board that had another health official. If the violations had taken place over the years, why had the government representatives not reported them to the state, a stakeholder in the hospital?
Why are fire department officials who allowed the alleged violations to continue not being charged? A fire official can use his discretion and allow time to an establishment to correct mistakes on the first occasion but not a second time. AMRI Dhakuria got its fourth extension in November 2011.
Why was a hospital with repeated and serious violations not shut down before? The rules say an establishment should be shut down if it has not corrected mistakes after the first caution. But the government officials who issue the no-objection certificate on behalf of the fire department were allegedly hand in glove with the hospital.