Move to clear doubts on foreign investment | ||
| OUR SPECIAL CORRESPONDENT | ||
New Delhi, March 29: A committee set up by the government will meet on Thursday to do away with the ambiguity regarding foreign direct investment (FDI) and foreign institutional investment (FII). The four-member committee is headed by the department of economic affairs secretary Arvind Mayaram. The panel is expected to finalise its report within two-three months. However, it is not expected to look at sectoral caps. Officials said, "It is just the start of the whole process. The discussion is expected to review the composition of FII and FDI in various sectors. The overall objective is to clarify the definition of the two types of investors without trying to disturb the sectoral investments." Other members of the committee are the department of industrial policy and promotion secretary Saurabh Chandra, an RBI deputy governor and a wholetime member of Sebi. "The question that arises is whether a 26 per cent cap includes FII and FDI. How do we determine the two and regulate people buying and selling shares of a particular company in the market," Mayaram had said. Finance minister P. Chidambaram had flagged the issue in the budget and proposed following global norms for defining FII and FDI. This means if an investor has a stake of 10 per cent or less in a company, the investment will be treated as FII. Chidambaram has only laid down a broad principle to distinguish between FII and FDI. Details regarding its implementation will be outlined by the panel. As on Thursday, the FIIs have pumped in Rs 1.38 trillion this fiscal, the highest since 2009-10. However, the FDI inflow dropped 39 per cent to $19.10 billion. There are multiple avenues for investment in the country — FDI, FII, foreign venture capital investment and qualified foreign investor regimes. In a research note, Nishith M. Desai Associates said in the light of the overlap between the various regimes and regulators overseeing them, there had been indications that the regulatory framework might shift from a classification-based regime to one based on investment size. |
Sunday, 31 March 2013
Move to clear doubts on foreign investment
DIDI VS DIDIS
ढांचागत क्षेत्र की कुछ बड़ी परियोजनाओं को जल्द मंजूरी की संभावना: मोंटेक
| Saturday, 30 March 2013 16:33 |
चेन्नई । योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने कहा है कि निवेश संबंधी मंत्रिमंडलीय समिति :सीसीआई: दो तीन सप्ताह में कुछ बड़ी परियोजनाओं को मंजूरी दे सकती है। इस समिति का गठन गत जनवरी में किया गया था। इसका उद्देश्य बड़ी बुनियादी परियोजनाओं पर मंजूरी की प्रक्रिया में शीघ्रता लाना है।अहलुवालिया ने कल शाम यहां उद्योगमंडल सदर्न इंडिया चेम्बर ऑफ कामर्स एण्ड इंडस्ट्री :एसआईसीसीआई: की एक संगोष्ठी में कहा, 'मुझे उम्मीद है कि निवेश पर मंत्रिमंडलीय समिति अगले दो तीन सप्ताह में कुछ बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाएं मंजूर कर सकती है।'' समिति की दो तीन बार बैठक हो भी चुकी है। सीसीआई ने 20 मार्च को अपने पहले निर्णय में रिलायंस इंडस्ट्रीज के गैस उत्पादन कर रहे कृष्णा गोदावरी बेसिन के अपतटीय केजी डी6 ब्लाक और खोजे गए एनईसी-25 क्षेत्र में अतिरिक्त निवेश के प्रस्तावों को मंजूरी दी है। इन दो और तीन अन्य क्षेत्रों में गैर-तेल के उत्खनन कार्य पर रक्षा मंत्रालय ने पहले निषेध या कड़ी पाबंदियां लगा रखी थीं। ईंधन की कीमतों के बारे में मोंटेक ने कहा कि इस पर 'राजनीतिक आम सहमति' की जरूरत है कि घरेलू कीमतें अंतर्राष्ट्रीय बाजार के साथ :निकट का संबंध: जुड़ी होनी चहिए। उन्होंने इसके विभिन्न पहलुओं को जोड़ते हुए कहा, 'हमारे राजनीतिक दोस्तों में से बहुत कम के लिए अपने श्रोताओं को यह बात समझाना आसान होगा। मैंने इस विषय में सांसदों के एक समूह को संबोधित करते हुए कहा कि यदि दुनिया में तेल के भाव उचे हों और आप अपने देश में उनकी कीमतें कम रखने की कोशिश कर रहे हैं तो आप अपने पांव पर ही कुल्हाड़ी चला रहे हैं।' मोंटेक ने कहा कि सरकार ने डीजल के दामें में 18 माह तक प्रति माह 50-50 पैसे की वृद्धि करने का एक साहसिक निर्णय लिया है। |
सामूहिकता बनाम वैयक्तिकता
सामूहिकता बनाम वैयक्तिकता
| Saturday, 30 March 2013 11:24 |
संदीप कुमार मील आदिवासियों की यह सामूहिकता वैयक्तिकता के लिए खतरा है, इसलिए उनका अस्तित्व आज निशाने पर है। क्योंकि वैयक्तिकता के समाज की तथाकथित सामूहिकता तो असल में वैयक्तिकता को बचाने का दिखावा भर है। समाज के आपसी संबंधों में वैयक्तिकता की स्थापना तथाकथित नैतिकता के नाम पर हो रही है और इसी कारण सामूहिकता वाले समाजों को देश की मुख्यधारा से अलग रखा गया। आज जिस तरह बहस चलाने की कोशिश हो रही है कि भारत के लोग भोजन बनाने में काफी समय बर्बाद कर देते हैं, वह समय देश के विकास में काम आ सकता है। इसलिए रसोई रहित घरों का निर्माण होना चाहिए। यानी अब खाना बनाने और खाने की प्रक्रिया में जो सामूहिकता बची थी, उसे भी खत्म कर दिया जाए। हमारे देश में खाना बनाना और खाना केवल पेट भरने की प्रक्रिया न होकर समाज के लिए सूचना और ज्ञान के आदान-प्रदान का माध्यम भी है। जनसत्ता 30 मार्च, 2013: आज देश के आदिवासी नवउदारवादी नीतियों के पहले निशाने पर हैं। दोनों तरफ संघर्ष हो रहा है। ये नीतियां इन्हें नेस्तनाबूद करने के लिए संघर्ष कर रही हैं तो आदिवासी अपनी अस्मिता बचाने के लिए। आदिवासियों के इस खतरे का एक महत्त्वपूर्ण कारण है कि उनमें अब भी सामूहिकता बची है। वे सामूहिकता को नेस्तनाबूद करने वाली आंतरिक और बाह्य दोनों तरह की ताकतों को खटक रहे हैं। किसी भी समाज की मजबूती और उसकी पूंजी सामूहिकता में होती है और इसकी उत्पत्ति की धारणा ही समाज की उत्पत्ति का मूल रही है। लेकिन धीरे-धीरे सामाजिक मूल्यों की संरचना का स्वरूप बदला जा रहा है, जिसमें सामूहिकता की जगह वैयक्तिकता को स्थापित किया जा रहा है। यह एक प्रक्रिया के तहत जीवन के सभी अंगों को एक खास धारणा की तरफ आकृष्ट करके किया जा रहा है। वह धारणा है सामूहिकता को ध्वस्त करना। इसके पीछे राजनीतिक कारण यह है कि मनुष्य की प्रकृति और मूल्यों में व्यक्तिवादी प्रवृत्ति बढ़े। यह धारा एक सांस्कृतिक मिशन के तहत भारतीय समाज में फैलाई जा रही है। तथाकथित पवित्रतावादी पश्चिमी मूल्यों के विरोध में चिल्ला रहे हैं, मगर वे भूल जाते हैं कि भारतीय समाज के इतिहास में भी एक वैयक्तिकता की धारा रही है। समाज अपनी भौतिक शक्तियों के द्वंद्व से विकास करता है, लेकिन जब बाहरी ताकतों का हस्तक्षेप उस प्रक्रिया को प्रभावित करने लगता है तब टकराहट पैदा हो जाती है। यही टकराहट आज भारत सहित दुनिया के तमाम विकासशील देशों में हो रही है। इस प्रक्रिया में सिर्फ शहरीकरण को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि शहर के विकास की रफ्तार भी डगमगा रही है। एक शहर में भी कई वर्ग होने की वजह से उनके मूल्यों में भिन्नता होती थी। लेकिन अब वर्ग अलग-अलग होते हुए भी मूल्य एक हैं, क्योंकि हर कोई अपना वर्ग बदलना चाहता है। उदारवाद का मुख्य एजेंडा यही है कि वर्ग बदलते जरूर रहें, लेकिन मिटे नहीं और यह इन व्यक्तिवादी मूल्यों से ही संभव है। शहरों से गांवों तक विभिन्न माध्यमों के तहत वैयक्तिकता को जायज और विकास के लिए जरूरी ठहराया जा रहा है। लेकिन समाज में सामूहिकता के महत्त्व पर कोई बात नहीं की जाती। एक समय ग्रामीण समाज में सामूहिकता का स्तर यह था कि रात के समय देखा जाता था कि गांव में कोई भूखा तो नहीं सो रहा है। उनके सुख-दुख में सबकी भगीदारी होती थी, क्योंकि उनके हित एक दूसरे से जुड़े हुए थे। हित वैयक्तिकता वाले समाज में एक दूसरे से जुड़े होते हैं, पर उनकी नींव सहयोग न होकर लाभ पर आधारित होती है। यह लाभ का विचार भारतीय मिथकों में भी पर्याप्त मात्रा में है, जिस पर शुभ-अशुभ के तमाम विश्वास टिके हैं। सामूहिकता का दूसरा कारण यह था कि प्रकृति और इंसान के बीच एक मजबूत रिश्ता था, जो लाभ पर आधारित न होकर जरूरतों पर आधारित था, जिससे प्रकृति भी बची रहती और सामाजिक संवेदनाएं भी। लेकिन जब इंसान के इस रिश्ते में जरूरत की जगह पूंजी आ गई तो पर्यावरण और समाज दोनों के लिए खतरा पैदा हो गया। यही फर्क आदिवासी समाज में है। वहां पर मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते में लाभ नहीं आया है। सामूहिकता से वैयक्तिकता तक का सफर भारतीय समाज ने अपनी ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया के तहत नहीं किया है, बल्कि उस पर बाहरी मूल्य थोपे गए हैं। एक तरफ बाहरी मूल्यों का दबाव और दूसरी तरफ आंतरिक अंतर्द्वंद्व, इन दोनों के बीच ही समाज अपना नया स्वरूप नहीं बना पा रहा है। कभी वही समाज परंपरा के नाम पर आदिवासी समाज के मूल्यों का समर्थन कर देता है तो कभी आधुनिकता के बहाने उनकी आलोचना करने लगता है। लेकिन आदिवासी समाज में परंपरा के अलावा जीवन पद्धति की कहीं कोई चर्चा नहीं होती है। वैसे भी उनकी परंपराएं थोपी हुई न होकर सामूहिकता का ही परिणाम होती हैं। उनकी एक परंपरा है कि वे किसी भी निर्णय में सर्वसम्मति को मानते हैं, किसी के भी असहमत होने पर वह निर्णय नहीं किया जाता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि आदिवासियों की सर्वसम्मति संयुक्त राष्ट्र की वीटो शक्ति से अलग है। इन दोनों के मूल्यों में भिन्नता यह है कि वीटो अपने या अपने गुट के हितों के लिए प्रयुक्त होने वाला विशेषाधिकार है, जबकि आदिवासियों की सर्वसम्मति सामूहिकता के लिए दी जाने वाली सहमति। यानी समाज में अपनी भागीदारी दर्ज कराने का अधिकार। इसलिए स्वतंत्र रूप से बिना किसी द्वंद्व के निर्णय किए जाते हैं न कि संयुक्त राष्ट्र की तरह वीटो करने की होड़ मची रहती है। देखें तो आज प्रकृति का संरक्षक वही समाज बचा है, जिसमें अब भी सामूहिकता के मूल्य बचे हैं। राजस्थान का विश्नोई समाज पर्यावरण के संरक्षक के रूप में खड़ा है, क्योंकि उस समाज के लोगों के मूल्यों में पेड़ों का नुकसान पूरे समाज का नुकसान माना जाता है। उसे बचाना दलित-आदिवासी समाज अपनी सामूहिक जिम्मेदारी मानता है। जहां वैयक्तिकता केवल अधिकार सिखाती है वहीं सामूहिकता अधिकारों के साथ कर्तव्यों को भी महत्त्व देती है। यही कारण है कि एक समाज केवल उपभोग करता है और दूसरा उपभोग के साथ संरक्षण भी करता है। अधिकार नष्ट करते हैं तो कर्तव्य उसका सृजन करके संतुलन करते हैं। जब अधिकार का उपयोग लाभ के लिए किया जाने लगता है तो विनाश की गति तेज हो जाती है, इसलिए आज वैयक्तिकता वाले समाज में प्रकृति तेजी से नष्ट हो रही है। जबकि आदिवासी कर्तव्य के साथ प्रकृति के विकास में सहयोग करते हैं। प्रकृति की यह संपत्ति छीनने के लिए आदिवासियों के जीवन मूल्यों को नष्ट करने के तरह-तरह के उपाय अपनाए जा रहे हैं। खाना पकाने, बनाने और खाने की पूरी प्रक्रिया में भावनाओं का आदान-प्रदान होता है। लोग खाने के बहाने जो दुख-दर्द साझा करते थे, अब उसका विकल्प भी बंद हो जाए। जहां खाना नहीं बनता हो उसे घर कैसे कह सकते हैं? इसका संकट समाज के उस हिस्से पर नहीं है, जिसने वैयक्तिकता को अपने मूल्यों में समाहित कर लिया है, बल्कि वह समाज संकट में है जो सामूहिकता को अपनी विरासत और जीवन का सूत्र समझता है। जो कि आदिवासी और पिछड़ों का इतिहास भी है। इनके लिए तो मालिक और सामंतों के अत्याचारों को एक दूसरे को सुनाने का माध्यम भी खाना ही रहा है। वैयक्तिकता से सामूहिकता तक के मूल्यों का विकास मानवीय विकास की प्रक्रिया के तहत हुआ, मगर आज फिर से मनुष्य व्यवहार को आदिम अवस्था में पहुंचाना ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया का नुकसान है और मूल्यों के विकास का रास्ता भी बंद कर देता है। चूंकि एक मूल्य की जगह दूसरे मूल्य को स्थापित करने के लिए जीवन के मूल अर्थ की व्याख्या को भी बदलना पड़ता है। जिस मूल्य के तहत समाज में जन्म से मृत्यु तक लोगों में एक भावनात्मक संबंध था। लोग उन्हें केवल ढोते नहीं हैं, बल्कि आत्मसात करके जीते हैं। जब वैयक्तिकता होती है तो सबका अलग-अलग जीवन लक्ष्य भी होता है, लेकिन उनका कोई सामूहिक लक्ष्य नहीं होता। यानी भविष्य के व्यक्ति की संरचना तो इस विचार के पीछे है, मगर समाज की संरचना का विचार नहीं है और जो भविष्य के व्यक्ति की संरचना है वह भी अपनी अलग-अलग है। सामूहिक लक्ष्य न होने की वजह से व्यक्तिगत लक्ष्यों में टकराव होता है, जो आज दिखाई देने लगा है। पहले बच्चे साल भर स्कूल में जाते थे और फिर परीक्षा का एक पूरा माहौल होता था। अब दीजिए घर बैठ कर परीक्षा। वे सिर्फ किताबों में कहानियां बन जाएंगी कि लड़का और लड़की के बीच कॉलेज में प्यार हो गया। यही तो चाहता है उदारवाद, तभी तो बिक सकते हैं भारत में अरबों कंप्यूटर। वैयक्तिकता तुलनात्मक अध्ययन पर आधारित न होकर एक श्रेष्ठता की अहम भावना से ग्रसित है। यही कारण है कि आदिवासी समाज की सामूहिकता की वैयक्तिकता से तुलना न करके स्वयं को श्रेष्ठ ठहरा दिया जाता है। मान लिया जाता है कि हमारा समाज कम से कम आदिवासियों से तो आगे निकल गया है। लेकिन क्या सचमुच हम आगे निकले हैं! मूल रूप से यही मूल्यों का टकराव है। यहां पर एक दिखावे की सामूहिकता का भी प्रचलन बढ़ रहा है। वैयक्तिकता वाले समाज के सामाजिक आयोजनों में देखें तो एक जैसे वस्त्रों में दिखने वाले लोगों का पूरा समूह दिख जाएगा। इनका प्रदर्शन यह होता है कि वैयक्तिकता में भी सामूहिकता है। लेकिन गौर से देखें तो इनमें हर कोई अपने को अलग दिखाना चाहता है। ये सबका ध्यान अपनी ओर खींचना चाहते हैं। इसमें कुछ हरकतें, आवाजें या कोई अन्य तरीका भी हो सकता है। इनके लिए समूह में दिखना इसलिए जरूरी है कि इसके साथ उनके निजी हित जुड़े होते हैं। इस मजबूरी के कारण समूह में आने वाला यह समाज यहां अपने संपर्क बढ़ा कर व्यावसायिक स्तर पर हित वृद्धि चाहता है। जबकि आदिवासी सामाजिक उत्सवों में लोग अलग-अलग नृत्य कर रहे होते हैं तब भी उनमें एकरंगता दिखाई देती है, क्योंकि यहां उनके निजी हित नहीं होते हैं। वैयक्तिकता वाले समाज में अक्सर हित एक दूसरे से टकराते हैं, तब समान हितों वाले कुछ लोग अलग समूह बना लेते हैं। इस प्रकार समूह लगातार उप-समूहों में विभाजित होते रहते हैं। यह वैयक्तिकता के विकास की नैसर्गिक प्रक्रिया है और इसी से वह मजबूत होती है। यह समाज समूह बना कर दिखावा इसलिए करता है कि वैयक्तिकता की श्रेष्ठता साबित की जा सके। देखें तो सामूहिकता अधिकारों के संघर्ष की रीढ़ है, क्योंकि उसके पास अतीत का अनुभव होता है और भविष्य की रूपरेखा भी। वैसे तो सामूहिकता हर समुदाय के लिए जरूरी है, लेकिन भारतीय समाज के लिए तो यह आॅक्सीजन है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/41533-2013-03-30-05-55-40 |
मोदी की प्रशंसा के लिए किया गया था भुगतान: रिपोर्ट
मोदी की प्रशंसा के लिए किया गया था भुगतान: रिपोर्ट
| Saturday, 30 March 2013 17:33 |
गांधीनगर, वाशिंगटन । अमेरिकी कांग्रेस के तीन सदस्यों द्वारा हाल में की गई गुजरात की यात्रा के लिए धन मुहैया कराने का आरोप है। जिसमें कांग्रेस सदस्यों के यात्रा की वैधता पर सवाल उठाए गए है। अमेरिकी कांग्रेस के इन सदस्यों ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अमेरिका यात्रा के लिए वीजा दिलाने का प्रयास करने की बात कही थी।अमेरिकी कांग्रेस के तीन सदस्यों ऐरॉन शॉक, सिंथिया लूमिस और कैथी एम रोजर्स समेत अमेरिकियों के एक समूह और कुछ व्यापारी इन खबरों के बाद विवाद में घिर गए हैं कि इस यात्रा के लिए प्रत्येक सदस्य को तीन हजार डॉलर :160000 रुपये: से 16000 डॉलर : आठ लाख 68 हजार रुपये: तक अदा किए होंगे। शिकागो के नेशनल इंडियन अमेरिकन पब्लिक पॉलिसी इंस्टीट्यूट :एनआईएपीपीआई: ने यात्रा का आयोजन किया था। इसके तहत बेंगलूर, तिरुपति, जयपुर, रणथंबौर बाघ अभयारण्य, अमृतसर के स्वर्ण मंदिर और बॉलीवुड की यात्रा करनी थी। टीम ने गुरुवार को मोदी से मुलाकात की थी और उनके काम की तारीफ की थी और उन्हें अमेरिका आने का न्यौता दिया था। उन्होंने कहा था कि वे उन्हें वीजा दिलाने के लिए काम करेंगे। साल 2002 में गुजरात में गोधरा कांड के बाद हुए दंगों में कथित भूमिका के लिए अमेरिका ने मोदी को वीजा देने से मना कर दिया था। अमेरिका में एक भारतीय दैनिक में यात्रा के संबंध में रिपोर्ट के बाद कांग्रेस और भाजपा ने एक-दूसरे पर हमला शुरू कर दिया। कांग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी ने कहा, ''यह शर्मनाक है कि :अमेरिकी: कांग्रेस सदस्यों को वीजा हासिल करने और मोदी को विकास का प्रमाण पत्र देने के लिए धन का भुगतान किया गया।'' ओवरसीज भाजपा के संयोजक विजय जॉली ने आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि अमेरिकी कांग्रेस सदस्यों ने अपना धन खर्च किया और इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। आरोपों के बारे में पूछे जाने पर शॉक ने पहले प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पूछा कि क्या मामला है। शॉक ने कहा, ''मैं सिर्फ इतना कहूंगा कि हमारी यहां की यात्रा को हमारी सरकार के उचित अधिकारियों ने मंजूरी दी थी और विशेष तौर पर प्रतिनिधि सभा ने। मैं कहूंगा कि अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य ऐसे ही देश से रवाना नहीं हो गए।'' उन्होंने कहा, ''इसलिए मैं इसके सूक्ष्म भेद में नहीं पड़ने जा रहा। निश्चित तौर पर कुछ लोगों को यह बात रास नहीं आई है कि हम यहां हैं। हम जो यहां कह रहे हैं उससे शायद कुछ लोग सहमत नहीं हैं। लेकिन अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य के नाते हमें यहां आने का मुक्त अधिकार है।'' शॉक ने कहा कि उन्होंने इस यात्रा को वैध बनाने के लिए तमाम नियम-कानूनों का पालन किया है। |
Saturday, 30 March 2013
Re Defining Hinduism ISP V March 2013
Re-Redefining Hinduism
Ram Puniyani
While defining religion is a theological exercise, many a times the tribunals and judges are pontificating on the nature of Hindusim on the basis of common sense and their own perceptions of it. Many of these perceptions are dictated by the contemporary politics, which wants to present Hinduism in a different light. It was a great surprise that a recent Income Tax Tribunal held that Hinduism is not a religion and stated that Shiva, Hanuman or Goddess Durga are "superpowers of the universe" and do not represent a particular religion. (March 2013) The Income Tax Appellate Tribunal, Nagpur, in a recent order, said the expenses on worshipping Hindu deities and maintenance of temple could not be considered as religious activity.
They went on to declare that "Technically, Hinduism is neither a religion nor Hindus form a religious community." Shiv Mandir Devsthan Panch Committee Sanstan' had argued that the temple run by it was open to everyone, irrespective of caste and creed and so "the temple does not belong to a particular religion and that installing idols is not a religious activity".
They went on to declare that "Technically, Hinduism is neither a religion nor Hindus form a religious community." Shiv Mandir Devsthan Panch Committee Sanstan' had argued that the temple run by it was open to everyone, irrespective of caste and creed and so "the temple does not belong to a particular religion and that installing idols is not a religious activity".
This is fairly hilarious. Idol worship is a major part of Hinduism, while religions like Islam and Christianity don't resort to worship of idols. It is a Hindu religious activity, that's how the whole Ram Temple issue could be built up and Babri mosque was demolished on the pretext of fulfilling a religious obligation of restoring Ram Temple, where the idols of Ram Lalla could be installed. Then, what is this new definition of 'superpowers' in the form of Shiva, Hanuman and Durga? Contemporary times mired in the world of politics regards the United States of America as the global superpower. In tribunal's verdict we are being told about the Universal superpowers, Durga, Hanuman and Shiva amongst others. The learned tribunal needed to know that in Hinduism the concept of supernatural power goes through different stages. It begins with polytheism with Gods and Goddesses looking after one faction of the power. So you have Gods and Goddesses taking care of rains (Indra), air (Marut), power (Durga), knowledge (Sarswati), and even sex (Kam Devata) and wine (Som Devata). From here one goes to trithiesm where one God creates (Brahma), one maintains (Vishnu) and one destroys (Shiva). From here, one goes to the concept of monotheism (Ishwar). As such Hanuman is a mythological character, servant of Lord Ram and also referred to as God.
All this is a part of Hindu religion, to think that is universal all religion belief is a travesty of truth. Different sects of Hinduism worship different of these Gods. Some of these Gods are a reincarnation of Lord Vishnu like Ram and Krishna. In Greek mythology one does see a parallel to polytheism. In Christian tradition trithiesim of Father, Son and the Holy Spirit is very much there. These are religion specific beliefs and don't apply to other religions. In contrast to the verdict of the tribunal one knows that some religions like Jainism and Budhhidm don't have faith in supernatural power. Some traditions, which developed in this part of the globe like Charvak also did not have faith in supernatural power.
Coming to the conclusion of the tribunal that Hinduism is not a religion because there are diverse trends, this can be rejected right away. True, Hinduism has diverse trends but that is because this religion is not based on the teachings of a single Prophet. It has evolved-been constructed over a period of time. So the diversity is very much there, still all this does fit into the criterion laid down for understanding a religion.
Defining Hinduism in such is a difficult task for sure. The reasons for this are multiple. One, Hinduism is not a prophet based religion, it has no single founder and two, religions developing in this part of the world have been lumped together as Hinduism and three; there are so many diversities in the practices of Hinduism that all streams cannot be painted with a single brush. To this one may add the the practices and beliefs originating at different times continue to exist side by side. Lord Satyanarayn and Santoshi Maa do exist along with the concept of Ishwar (God) and a Nirankar Nirguna Ishwar (God beyond the attributes of qualities and form at the same time.
The major point of departure for Hinduism is the imprint of caste system on the major aspects of Hinduism, the religious sanctity for social inequality, caste system being the soul of its scriptures and practices. The conditions under which the terms came into being also tell a lot about the real meaning of those terms. Aryans who came in a series of migrations were pastorals and were polytheists. During the early period we see the coming into being of Vedas, which give the glimpse of value system of that period and also the number of gods with diverse portfolios, the prevalence of polytheism. Laws of Manu were the guiding principles of society. This Vedic phase merged into Brahminic phase. During this phase elite of the society remained insulated from the all and sundry. At this point of time caste system provided a perfect mechanism for this insulation of elite. Buddhism's challenge to caste system forced Brahmanism to come up with a phase, which can be called Hinduism. During this the cultic practices were broadened and public ceremonies and rituals were devised to influence the broad masses to wean them away from Buddhism.
It is interesting to note that till 8th century the so called Hindu texts do not have the word Hindu itself. This word came into being with the Arabs and Middle East Muslims coming to this side. They called the people living on this side of Sindhu as Hindus. The word Hindu began as a geographical category. It was later that religions developing in this part started being called as Hindu religions. Due to caste system there was no question of prosetylization. On the contrary the victims of caste system made all the efforts to convert to other religions, Buddhism, Islam and partly Christianity and later to Sikhism.
Within Hindu religion two streams ran parallel, Brahmanism and Shramanism. Shramans defied the brahminical control and rejected caste system. While Brahminism remained dominant, other streams of Hinduism also prevailed, Tantra, Bhakti, Shaiva, Siddhanta etc. Shramans did not conform to the Vedic norms and values. Brahminism categorized religious practices by caste while Shramanism rejected caste distinctions. Brahminical Hinduism was the most dominant tendency as it was associated with rulers. Sidetracking the Hindu traditions of lower castes, Brahminism came to be recognised as Hinduism in due course of time. This phenomenon began with Magadh-Mauryan Empire after subjugating Budhhism and Jainism in particular. Later with coming of British who were trying to understand Indian society, Hindu identity, based on Brahminical norms was constructed for all non Muslims and non Christians. Vedas and other Brahminical texts were projected as the Hindu texts. Thus the diversity of Hinduism was put under the carpet and Brahminism came to be recognised as Hinduism. So Hinduism as understood as a religion is based on Brahminical rituals, texts and authority of Brahmins.
Hinduism as prevails today is a religion in all sense of the sociological characteristics. It is dominated by Brahminism is another matter. To say that Hindus are not a religious community is a wrong formulation to say the least.
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Issues in Secular Politics
V March 2013
Response only to ram.puniyani@gmail.com
किस ओर जा रहे हैं हम
किस ओर जा रहे हैं हम
| Friday, 29 March 2013 10:40 |
मणींद्र नाथ ठाकुर बात केवल एक पार्टी की नहीं है। अब जनता को यह भी समझ आने लगा है कि 'कोउ नृप होय हमें का हानी', क्योंकि हाइकमान अब नृप के हाथ में नहीं रह गया है। राज्य की नकेल अब देशी और विदेशी पूंजी के हाथ में है। लोग लगभग यह मान बैठे हैं कि देश की संप्रभुता खतरे में है। जब राजनेता डंकल प्रस्ताव की बड़ाई करते नहीं थकते थे तो लोगों ने उन पर विश्वास किया। फिर वे कहने लगे कि विकास का पथ कांटों से भरा है और अब कहते हैं कि पैसे पेड़ पर नहीं फलते। जनसत्ता 29 मार्च, 2013: भारत का लोकतंत्र किस ओर जा रहा है? पिछले कुछ दिनों की घटनाओं से यह सवाल लोगों के जेहन में बार-बार उठ रहा है। हाल की घटनाओं को गंभीरता से देखा जाए तो प्रजातंत्र पर आसन्न खतरे को लेकर हमें चिंतित होने की जरूरत है। नवउदारवादी अर्थनीति को समर्थन देने वाली ताकतों के प्रजातंत्र से प्रेम की पोल खुलने लगी है। बात अफजल गुरु की फांसी से शुरू की जाए। इस बहस में कई मुद््दे आ रहे हैं। एक तरफ तो कहा जा रहा है कि फांसी में देर हुई और यह मामला देर आयद दुरुस्त आयद का है। दूसरी तरफ कुछ लोग फांसी लगने के बाद कह रहे हैं कि अफजल को न्याय नहीं मिला है। दूसरे तर्क पर विमर्श करने का समय शायद अब नहीं है। लेकिन पहले तर्क को परखने की जरूरत है। देर आयद दुरुस्त आयद की बात इस आधार पर कही जा रही है कि भारतीय राज्य को मजबूत होने का प्रमाण देना होगा, वरना इसे आतंकवाद का खतरा झेलना पड़ेगा। इस बात में कोई खास दम नहीं है। क्योंकि नरम राज्य होने का जो आरोप भारत पर लगाया जाता है वह इसकी ताकत की कमी के कारण नहीं, बल्कि इसकी सांस्कृतिक बहुलता और भारतीय समाज की अन्य जटिलताओं से उपजी परिस्थिति में निर्णय लेने की दुविधा के कारण। ऐसे में नरम राज्य होने को अपनी कमजोरी मानना सही नहीं है। सच तो यह है कि एक नरम राज्य ही इतने जन समुदायों के जटिल रिश्तों को एक साथ लेकर चल सकता है। अगर हर मसले की पूरी तहकीकात किए बिना जल्दबाजी में निर्णय लिए जाएं तो संभव है कि इस विविध-बहुल समाज को शांतिपूर्वक एक साथ लेकर चलना मुश्किल हो जाए। अगर अफजल गुरु को फांसी देकर गृहमंत्री राज्य के शक्तिशाली होने का संदेश देना चाहते हैं तो यह तरीका गलत है। सच तो यह है कि इससे केवल एक भयभीत राज्य की छवि उभरी है। शायद सही समय पर उसके परिवार को पत्र तक पहुंचाने की क्षमता राज्य में नहीं है या फिर इसकी हिम्मत नहीं है। कुछ लोगों का यह मानना भी सही लगता है कि इस घटना से प्रजातंत्र की दलीय प्रणाली की सीमा स्पष्ट होती है कि राजनीतिक प्रतिस्पर्धा कानूनी निर्णयों को भी प्रभावित कर सकती है और उनके पास उसे सही ठहराने के लिए उपयुक्त तर्क गढ़ने का भी समय नहीं है। जिस देश का प्रधानमंत्री फांसी लगने वाले व्यक्ति के परिवार को संचार माध्यमों के इस युग में सूचना सही समय पर न मिल पाने के लिए माफी मांग कर अपना कर्तव्य पूरा होना समझ रहा हो, उस देश के भविष्य के लिए चिंता की जानी चाहिए। सवाल यह नहीं है कि फांसी देना सही है या नहीं, सवाल यह भी नहीं है कि अफजल गुरु को फांसी देना सही था या नहीं, सवाल यह है कि फांसी देने की प्रक्रिया सही है या नहीं, सवाल यह भी है कि राजनीतिक नेतृत्व इस घटना के न्यायपूर्ण होने को लेकर कितना आश्वस्त है। अगर आम जनता में यह संदेश पहुंचा है कि फांसी का संबंध आने वाले चुनाव से है तो प्रजातंत्र के पुरोधाओं को इसकी चिंता करनी चाहिए। समस्या है कि यह अपने आप में अकेली घटना नहीं है, जिसमें कहावत चरितार्थ होती है कि 'भारत का प्रजातंत्र ठेलने से चलता है' या फिर यहां 'अंधेर नगरी चौपट राजा' है। दिल्ली में चलती बस में बलात्कार की घटना भी एक सामान्य घटना मान ली जाती, अगर बहुत-से लोग इंडिया गेट पर जमा होकर आवाज बुलंद नहीं करते। इस घटना के बाद बहुत-से लोग पूछने लगे हैं कि क्या हर ऐसी घटना के बाद विरोध की इसी प्रक्रिया को दुहराना पड़ेगा। और उन लोगों का क्या, जो आए दिन जातीय हिंसा के शिकार होते हैं या फिर राज्य की हिंसा से निरंतर प्रताड़ित हैं। उन लड़कियों का क्या, जिनका बलात्कार इसलिए आम बात है कि वे दलित हैं। अब राज्य को शायद यह आदत होती जा रही है कि शोर मचने पर ही न्याय की बात की जाए। और शोर जितना ज्यादा हो, न्याय उतनी जल्दी हो पाएगा। दिल्ली की मुख्यमंत्री का यह कहना कि उनकी बेटियां भी देर होने पर बाहर जाने में घबराती हैं शायद सही न हो, क्योंकि उनकी सुरक्षा का पूरा इंतजाम रहता है। लेकिन इससे आम आदमी को इतना संदेश तो जरूर मिलता है कि राज्य से न्याय और सुरक्षा के भरोसे की उम्मीद करना संभव नहीं है। अब तो हालत यह है कि घोटाले और बलात्कार की खबरों पर लोगों की नजर भी नहीं टिकती है। घोटालों की संख्या और मात्रा का अंकगणित लोगों की समझ से परे जाने लगा है। सामूहिक बलात्कार की घटनाएं इतनी ज्यादा हो रही हैं कि खबर तभी खबर कहलाएगी जब एकल बलात्कार हो। पहले लोग किसानों की आत्महत्याओं की बात करते थे और उनकी संख्या सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते थे। अब तो भारत का नंबर दूसरी आत्महत्याओं में भी अव्वल आने लगा है। जब कभी किसी बड़े नेता का वक्तव्य इन विषयों पर आता है तो जनता के चेहरे पर अविश्वास का भाव रहता है। यहां तक कि प्रधानमंत्री के वक्तव्य पर भी लोग आश्वस्त नहीं हो पाते हैं। आम लोगों को लगता है कि उनके साथ धोखा हो रहा है। परमाणु ऊर्जा को सही ठहराया जा रहा है, वालमार्ट को गरीब किसानों के लिए लाभदायक बताया जा रहा है, बीटी बैंगन को स्वास्थ्यवर्धक साबित किया जा रहा है। अब वे कह रहे हैं कि देश के युवाओं को विश्वस्तरीय शिक्षा दी जाएगी। इस सब में फायदा किसका हो रहा है, समझना मुश्किल नहीं है। तो ऐसे राज्य पर क्या भरोसा हो सकता है। राज्य के प्रति जनता में इतना अविश्वास पहले कभी नहीं देखा गया था। इस बढ़ते अविश्वास का समाज पर क्या असर होगा यह समझना मुश्किल नहीं है। लोगों में गहरा अविश्वास और भय घर करता जा रहा है। किसी भी तरह से अपने भविष्य को सुरक्षित रखने की होड़ मची है। किसी भी तरह से धन कमा कर बाजार में अपनी जगह बनाए रखना ही जीवन का एकमात्र उद््देश्य हो गया है। नैतिक मूल्यों का अब कोई मतलब ही नहीं रह गया है। समाज में संघर्ष की स्थिति बनती जा रही है। ऐसे में अस्मिता की खोज में मनुष्य छद्म अस्मिताओं को वास्तविक मान लेता है और उनके लिए मरने-मारने को तैयार हो जाता है। मनुष्य के स्वभाव में दस तत्त्व होते हैं- चार पुरुषार्थ (अर्थ, काम, धर्म, मोक्ष) और छह विकार (ईर्ष्या, काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह)। पहले चार तत्त्व मनुष्य को मानव-सुलभ गुण देते हैं। जबकि दूसरे छह तत्त्व उसे इस गरिमा से परे ले जाते हैं और उसके स्वभाव में विकृति पैदा करते हैं। किसी देश और काल में मनुष्य के स्वभाव में किन तत्त्वों की प्रधानता रहेगी यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी सामाजिक परिस्थिति क्या है। राज्य पर उठते भरोसे की वजह से मनुष्य के स्वभाव की विकृतियां ज्यादा प्रभावकारी हो जाती हैं। पूंजीवाद में मनुष्य इन दसों तत्त्वों को बाजार के लिए प्रयोग में लाता है। अगर राज्य अंकुश न रखे तो बाजार मनुष्य के विकारों को उकसा कर भी लाभ कमाने से नहीं चूकता। नवउदारवाद में राज्य की बदलती भूमिका ने न केवल बाजार को निरंकुश होने दिया है बल्कि अपनी सामान्य जिम्मेदारियों को निभाने में भी राज्य रुचि नहीं ले रहा है। आश्चर्य यह है कि राजनीतिक राज्य की विफलताओं से कोई सबक लेने के बजाय उन परदा डालने के तर्क गढ़ते रहते हैं। उन्हें लगता है कि जनता इतनी नादान है कि वे अपनी मंशा को इन दलीलों से छिपा सकते हैं। गौर करने की बात है कि अगर मनुष्य के स्वभाव की विकृतियां भी स्वाभाविक हैं, तो उनकी मर्यादित मात्रा में उपस्थिति ही उसे बहुआयामी और रोचक व्यक्तित्व प्रदान करती है। लेकिन अगर विकृतियां ही आदर्श बन जाएं तो समाज को चिंतित होना चाहिए। जैसे सिनेमा में खलनायक की महत्त्वपूर्ण भूमिका तो होती है, लेकिन जब खलनायक ही पूजनीय हो जाए तो समझना चाहिए कि संकट आसन्न है। नवउदारवादी नीतियां भारतीय समाज को इसी दिशा में धकेल रही हैं। छिछली आधुनिकता और पूंजीवाद के इस चरम उत्कर्ष पर भारतीय जनमानस खुद को ठगा-सा महसूस कर रहा है। ऐसे में अगर कोई फासीवादी नेतृत्व उभरता है तो उसे इसी परिस्थिति की उपज मानना होगा। उसके लिए इन नीतियों के पुरोधा जिम्मेवार होंगे। नवउदारवादी ताकतों ने फासीवाद का डर दिखा कर बहुत दिनों तक समाजवादियों और वामपंथियों को अपने साथ रखा ताकि उनकी ताकत कमजोर हो जाए। और अब आहिस्ता-आहिस्ता नवउदारवादी ताकतों का असली चेहरा नजर आने लगा है। भारतीय राज्य के मजबूत होने की जो दुहाई दी जा रही है वह वास्तव में प्रजातंत्र और पंूजीवाद के बिखरते रिश्तों की तरफ संकेत कर रही है। यह स्पष्ट होता जा रहा है कि पूंजीवाद वक्त आने पर फासीवाद का भी सहारा ले सकता है। प्रजातंत्र के प्रति उसका मोह तब तक ही है जब तक प्राकृतिक संपदाओं का दोहन शांतिपूर्वक संभव हो। यह समझना जरूरी है कि भारतीय लोकतंत्र को यहां तक लाने के लिए कौन जिम्मेदार है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/41482-2013-03-29-05-10-41 |
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चेन्नई । योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने कहा है कि निवेश संबंधी मंत्रिमंडलीय समिति :सीसीआई: दो तीन सप्ताह में कुछ बड़ी परियोजनाओं को मंजूरी दे सकती है। इस समिति का गठन गत जनवरी में किया गया था। इसका उद्देश्य बड़ी बुनियादी परियोजनाओं पर मंजूरी की प्रक्रिया में शीघ्रता लाना है।
गांधीनगर, वाशिंगटन । अमेरिकी कांग्रेस के तीन सदस्यों द्वारा हाल में की गई गुजरात की यात्रा के लिए धन मुहैया कराने का आरोप है। जिसमें कांग्रेस सदस्यों के यात्रा की वैधता पर सवाल उठाए गए है। अमेरिकी कांग्रेस के इन सदस्यों ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अमेरिका यात्रा के लिए वीजा दिलाने का प्रयास करने की बात कही थी।