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Wednesday, 27 June 2012

Documentary on Hindu Rashtra






राष्ट्रपति चुनाव या 2014 का 'सेमीफाईनल'



-तनवीर जाफरी-

राष्ट्रपति चुनाव या 2014 का 'सेमीफाईनल'


 

देश में होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव पद के प्रत्याशी को लेकर तस्वीर साफ हो चुकी है। परंतु पिछले कुछ दिनों के दौरान जिस प्रकार विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा इस पद के उम्मीदवार को लेकर राजनैतिक चालें चली गईं उन्हें देखकर ऐसा महसूस हुआ कि गोया यह चुनाव देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद हेतु निर्वाचित किए जाने वाले राष्ट्रपति का चुनाव न होकर 2014 में होने वाले लोकसभा चुनावों का सेमीफाईनल हो रहा हो। विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा भविष्य के अपने-अपने राजनैतिक हितों को साधने वाली चालें चली गईं। ज़ाहिर है इन चालों में किसी नेता को जहां अपनी राजनैतिक अपरिपक्वता के चलते मात हुई वहीं राजनीति के कई मंझे हुए खिलाड़ी राष्ट्रपति चुनाव की इस बिसात पर शह देने में कामयाब रहे। देश के सबसे पुराने राजनैतिक दल कांग्रेस ने जहां प्रणव मुखर्जी के रूप में अपना प्रत्याशी घोषित कर बड़े ही सुनियोजित ढंग से का$फी देर से अपने पत्ते खोले वहीं यूपीए के सहयोगी नेता ममता बैनर्जी व मुलायम सिंह यादव ने बहुत ही जल्दबाज़ी दिखाते हुए कांग्रेस पार्टी को तीन नामों का सुझाव दे डाला। इनमें पहला नाम डा. एपीजे अब्दुल कलाम का था, दूसरा प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का व तीसरा नाम सोमनाथ चैटर्जी का। इन नामों की घोषणा करते समय मुलायम सिंह यादव व ममता बैनर्जी साथ-साथ बैठकर एक ही सुर में बोलते दिखाई दे रहे थे। परंतु इन नामों के सार्वजनिक होने के बाद मात्र 24 घटों के भीतर जैसे ही कांग्रेस पार्टी द्वारा इन तीनों नामों को खारिज किया गया वैसे ही मुलायम सिंह यादव कांग्रेस के साथ खड़े नज़र आने लगे तथा ममता बैनर्जी अपने जि़द्दी स्वभाव के अनुरूप काफी देर तक अपने सुझाए गए नामों विशेषकर डा० कलाम की उम्मीदवारी पर अड़ी रहीं।

डा. कलाम के नाम को लेकर ममता या मुलायम सिंह यादव का रुख पूरी तरह राजनीति से प्रेरित माना जा रहा है। क्योंकि डा. कलाम शुरु से ही चुनाव लडऩे की मुद्रा में नज़र नहीं आ रहे थे। न ही उन्होंने इन नेताओं को कभी ऐसा संकेत दिया था कि वे उनकी उम्मीदवारी को लेकर विभिन्न राजनैतिक दलों में सहमति बनाने की कोशिश करें। वास्तव में डा .कलाम के नाम का इस्तेमाल मुलायम व ममता द्वारा केवल इसलिए किया जा रहा था ताकि वे 2014 के लोकसभा चुनावों में देश में डा. कलाम के समर्थकों विशेषकर मुस्लिम मतदाताओं को यह बता सकें कि उन्होंने तो अपनी ओर से पूरा प्रयास किया था कि डा, कलाम ही एक बार पुन: देश के राष्ट्रपति बनें। परंतु कांग्रेस पार्टी ने ही उनका यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। उधर ममता बैनर्जी की आए दिन की घुड़कियों, धमकियों व ब्लैकमेलिंग से परेशान कांग्रेस पार्टी ने भी मानो इस बार ममता बैनर्जी को सब$क सिखाने की ठान ली थी। और कांग्रेस ने न केवल ममता द्वारा सुझ़्ए गए तीनों नाम ख़ारिज कर दिए बल्कि अपनी तुरुप की चाल चलते हुए पश्चिम बंगाल से ही संबद्ध पार्टी के प्रणव मुखर्जी रूपी एक ऐसा कद्दावर नेता को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाया जिनका विरोध करने का साहस संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन तो क्या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन भी पूरी तरह नहीं कर सका। अपने स्वभाव के अनुरूप ममता बैनर्जी कांग्रेस की इस तुरुप की चाल से तिलमिलाई तो ज़रूर परंतु इसके बावजूद काफी देर तक वे डा. कलाम के नाम की ही रट लगाती रहीं। आखिरकार डा. कलाम ने ही इस अनिश्चितता के वातावरण को स्वयं समाप्त करते हुए ममता बैनर्जी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने ममता बैनर्जी व अपने अन्य शुभचिंतकों द्वारा उनका नाम प्रस्तावति किए जाने हेतु धन्यवाद किया तथा अपने चुनाव न लडऩे की भी घोषणा की।

कांग्रेस ने प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति पद हेतु यूपीए का उम्मीदवार बनाकर पश्चिम बंगाल में अपने आधार को मज़बूत करने की न केवल कोशिश की बल्कि कांग्रेस की इस चाल से वामपंथी दलों का एक बड़ा धड़ा भी प्रणव मुखर्जी को समर्थन देने को तैयार हो गया। यही नहीं बल्कि प्रणव मुखर्जी जैसे कद्दावर व वरिष्ठ कांग्रेस नेता को प्रत्याशी बनने पर राजग में भी बड़े पैमाने पर फूट पड़ती दिखाई दी। इस चुनाव में शिवसेना जैसे भाजपा के पुराने सहयोगी ने तो प्रणव मुखर्जी के समर्थन में आकर राजग का साथ छोड़ा ही जनता दल युनाईटेड जैसे बिहार के भाजपा के सत्ता सहयोगी ने भी प्रणव मुखर्जी के पक्ष में मतदान करने की घोषणा कर प्रणव मुखर्जी की जीत को सुनिश्चित करने का काम किया। ज़ाहिर है इन राजनैतिक दलों की इन चालों के बीच भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के पास एक -दूसरे का मुंह देखने के सिवाए कोई चारा नहीं था। भाजपा प्रणव मुखर्जी के मुकाबले में कोई दूसरा ऐसा $कद्दावर नेता नहीं तलाश कर सकी जो प्रणव मुखर्जी को टक्कर दे सके तथा उसके नाम पर राजग के अन्य सहयोगी सदस्य एकजुट व एकमत हो सकें। और आख़िरकार मजबूरी वश भाजपा ने पी ए सांगमा जैसे उस उम्मीदवार को समर्थन देने का फैसला किया जिसे कि उसकी अपनी पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस स्वयं चुनाव लड़ाना नहीं चाह रही थी। हां तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता व उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ज़रूर संगमा को चुनाव लड़ाने के पक्ष में खड़े दिखाई दिए।

गौरतलब है कि भारतीय जनता पार्टी भी संगमा को दिए जा रहे समर्थन को लेकर एकमत नहीं दिखाई दी। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदिउरप्पा तो खुलकर प्रणव मुखर्जी को सांगमा के मुकाबले अच्छा प्रत्याशी बता चुके हैं। और भी कई भाजपा नेता प्रणव मुखर्जी की वकालत व तारीफ करते देखे जा रहे हैं। इसके बावजूद भाजपा का संगमा को समर्थन देने का अर्थ भी 2014 के लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र ही माना जा रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि संागमा पूर्वोत्तर क्षेत्र के कद्दावर नेताओं में सबसे बड़े नेता हैं। इसके अतिरिक्त वे आदिवासी समुदाय से भी संबंध रखते हैं। बावजूद इसके कि उनके नाम का प्रस्ताव भाजपा द्वारा नहीं किया गया है फिर भी भाजपा उन्हें अपना समर्थन देकर न केवल पूर्वोत्तर क्षेत्र में 2014 के चुनावों में अपनी घुसपैठ करना चाह रही है बल्कि देश के आदिवासी समुदाय को भी अपने साथ जोडऩे का प्रयास कर रही है। सांगमा ने भी जब यह देखा कि उन्हीं की अपनी पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस उन्हें अपनी पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार नहीं बना रही है तो उन्होंने भी आनन-फ़ानन में पार्टी से त्यागपत्र दे डाला और स्वयं को आदिवासी उम्मीदवार बताते हुए चुनाव मैदान में कूद पड़े। सांगमा भी इस बात से बाखबर हैं कि राष्ट्रपति चुनाव की अंकगणित उनके पक्ष में नहीं है। परंतु उनका भी यही प्रयास है कि वे यह चुनाव लडक़र स्वयं को देश के सबसे बड़े कद्दावर आदिवासी नेता के रूप में स्थापित कर सकें और इस चुनाव का लाभ 2014 के चुनाव में उठा सकें।
उधर राजग के प्रमुख घटक दल शिवसेना व युनाईटेड जनता दल ने प्रणव मुखर्जी को समर्थन देकर यह संदेश देने की कोशिश की है कि वे राष्ट्रपति पद जैसे देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद के चुनाव में ज़ोर-आज़माईश की राजनीति करने के बजाए सर्वसम्मत प्रत्याशी के पक्षधर हैं। इसीलिए वे इस पद हेतु चुनावी संघर्ष की भूमिका में जाने के बजाए सर्वसम्मत निर्वाचन के पक्ष में जाना अधिक बेहतर समझते हैं। इसके अतिरिक्त यह दोनों ही दल प्रणव मुखर्जी के ऊंचे राजनैतिक $कद के भी $कायल हैं। लिहाज़ा इन दोनों राजग सहयोगी दलों ने भी राष्ट्रपति चुनाव में अपनी सकारात्मक भूमिका निभाकर अपने-अपने क्षेत्र की जनता को बेहतर संदेश देने की कोशिश की है। और 2014 में अपने इस सकारात्मक निर्णय का लाभ यह दल भी उठाना चाहेंगे। कुल मिलाकर इस समय सबसे असहज स्थिति भारतीय जनता पार्टी की ही बनती दिखाई दे रही है जो न तो अपना कोई उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी के मुकाबले में लाकर खड़ा कर सकी न ही सांगमा को समर्थन देकर वह उन्हें जिता पाने की स्थिति में है। बजाए इसके कांग्रेस प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी के शब्दों में भारतीय जनता पार्टी 'उधार के उम्मीदवार को अपना समर्थन दे रही है और यह उम्मीदवार भाजपा का नहीं है। परंतु चूंकि भाजपा मुख्य विपक्षी दल है तथा इस चुनाव में वह कांग्रेस को वाकओवर नहीं देना चाहती इसलिए सांगमा को समर्थन देना उसकी मजबूरी या लाचारी कुछ भी समझा जा सकता है।

कुल मिलाकर उपरोक्त सभी हालात अफसोसनाक व चिंताजनक हैं। दरअसल होना तो यही चाहिए था कि इस सर्वोच्च पद के लिए सभी राजनैतिक दलों द्वारा कोई सर्वसम्मत उम्मीदवार बनाया जाता। परंतु ऐसा करने के बजाए राष्ट्रपति चुनाव को भी 2014 के लोकसभा चुनावों पर निशाना साधने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया है। डा.कलाम को राष्ट्रपति बनाए जाने के पक्षधर दिखाई देने वाले नेता दरअसल डा. कलाम के उतने हितैषी नहीं थे जितने कि वे दिखाई दे रहे थे। यदि वास्तव में उन्हें डा.कलम की योग्यता का इस्तेमाल देशहित में करने की ज़रूरत महसूस हो रही है तो उन्हें डा. कलाम को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में अपने-अपने दलों की ओर से प्रस्तावति कर 2014 के लोकसभा चुनाव लडऩे चाहिए। परंतु यकीनन यह राजनैतिक दल ऐसा हरगिज़ नहीं करेंगे क्योंकि इनकी निगाहें तो स्वयं प्रधानमंत्री के पद पर लगी होती हैं। और इसी कारण राष्ट्रपति पद के लिए होने जा रहा चुनाव भी इन राजनैतिक दलों द्वारा 2014 के चुनावों के मद्देनज़र लड़ा जा रहा है इसलिए कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति पद का यह चुनाव 2014 का सेमीफाईनल भी है।
तनवीर जाफरी
Last Updated (Monday, 25 June 2012 18:04)


मुसीबत बन गया मातृ संगठन



मुसीबत बन गया मातृ संगठन

By आलोक कुमार 7 hours 55 minutes ago
मुसीबत बन गया मातृ संगठन
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भारतीय जनता पार्टी के लिए अब उसका मातृ संगठन यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही मुसीबत बनता जा रहा है। कभी राजनीति से दूर रहनेवाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अति राजनीतिक सक्रियता भाजपा को भटकाने लगी है। एनडीए का मजबूत गठजोड़ करके भाजपा को सत्ता और खुद को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी के निष्क्रिय होने के बाद खुद भाजपा तो दिशाहीन है ही, आरएसएस भी भाजपा की कमाई पर कब्जा जमाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है. इसका परिणाम यह हो रहा है कि भाजपा के राजनीतिक साथी भाजपा को आंख दिखाने लगे हैं। आलोक कुमार का आंकलन-
बीते दशक की शुरूआत में ही राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के अंदर उसे लेकर घटते आकर्षण पर चिंतन शुरू हो गया था। संघ का ''संस्कार'' भरने के लिए लगने वाली शाखा कम हो गई थी। शाखाओं में आने वालों की तादाद में कमी को दूर करने के उपायों पर चर्चा हुई थी। हालात में सुधार के लिए दो तात्कालिक प्रयास करने की बात सामने आई थी। पहला, गणवेश में बदलाव के जरिए आकर्षण बढाया जाए। संघ का गणवेश यानी खाकी निक्कर को बदलकर पहचान के लिए नया रुप रंग आजमाने पर बल दिया गया। दूसरी बात संघ की शाखाओं और उसमें शामिल होने वालों की संख्या में आ रही कमी को सुधारने के लिए उपायों पर सार्वजनिक चर्चा हुई। चर्चा से निकले नतीजे सार्वजनिक नहीं हुई। खोजखबर लेने पर पता लगा कि बदलाव की कोई हिम्मत नहीं कर पाया। इसलिए बदलाव के विचार को रोक दिया गया।
संघ से जुडी इन बातों का व्यापक महत्व है। खासकर, देश की मुख्य प्रतिपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की मातृ संगठन के नाते आम भारतीयों के लिए यह समझना जरूरी है कि संघ के अंदर कोई बदलाव आने में आखिर इतना वक्त क्यों लगता है? या, बदलाव की जो बात होती है वह जड़ता का शिकार क्यों हो जाती है?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के "गोल्डेन वर्ड" के प्रकरण ने संघ से जुडे सवाल को और महत्वपूर्ण बना दिया है। यह समझना जरूरी है कि 1996 से संघ की बैसाखी के सहारे बढे चले आ रहे नीतिश कुमार की टोली को सोलह साल के बाद भी ऐसा क्यों लगा कि प्रधानमंत्री पर संघ की पसंद को नहीं चलने दी जाए। 'एलायंस विद डिफरेंस' का मुखौटा बने नीतिश कुमार ने राष्ट्रपति चुनाव के वक्त प्रधानमंत्री की पसंद बताकर रोचक राजनीतिक स्थिति पैदा कर दी। नीतिश कुमार के मुताबिक प्रधनमंत्री की कुर्सी पर कोई धर्मनिरपेक्ष आदमी हीं बैठना चाहिए।
बिन मौसम बरसात की तर्ज पर आया यह सवाल और एऩडीए की दरार को चौड़ी कर गया, और नीतिश कुमार को फायदा दे गया। यूनाइटेड जनता दल के लिए गठबंधन धर्म से मुक्त होकर राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस नेता प्रणव मुखर्जी के पक्ष मतदान करने का रास्ता खोल गया। जबकि बीजेपी की पसंद बने पूर्णों संगमा नीतिश कुमार की धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा में प्रणव मुखर्जी की तुलना में ज्यादा धर्मनिरपेक्ष हैं। पंडित प्रणब मुखोपाध्याय हर दशहरा अपने गांव में रहकर दुर्गा पूजा करने के आदी हैं। जबकि पूर्णों संगमा आदिवासी हैं और ईसाई होने के नाते धार्मिक अल्पसंख्यकों में शामिल हैं। पर नीतिश कुमार से ये बात कौन कहे। राजनीति की चौरस पर नीतिश की यह दूर की चाल है। जिसने दो साल बाद प्रधानमंत्री के चुनाव के वक्त हो सकने वाले राजनीति का बोध करा दिया।
होशियार मुख्यमंत्री ने हिंदुत्ववादी को प्रधानमंत्री मंजूर नहीं करने को इतना बडा मसला बना दिया कि गठबंधन धर्म से हटकर उनके दल का राष्ट्रपति चुनाव में अलग राह थाम लेने का मुद्दा गौण पड गया। बीजेपी में थोडी चीख चिल्लाहट हुई और फिर सब शांत हो गया। हिंदुत्ववादी को प्रधानमंत्री बनाने पर संघ प्रमुख मोहन भागवत का सवाल भरे बयान और संघ की पत्रिका के जरिए इसे तुल देने की कोशिश को फिलहाल बीजेपी का कोई बड़ा नेता ने तरजीह देने की मूड नहीं दिख रहा।
राजनीति की क्षितिज पर लुंजपुंज नजर आ रहे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और आपसी कलह की वजह से नेतृत्वहीन हुई बीजेपी को देखकर यह कहने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि राष्ट्रपति चुनाव के वक्त एनडीए की फूट ने कांग्रेस के लिए 2014 में यूपीए-3 की सरकार बना लेने की उम्मीद पैदा कर दी है। कांग्रेस के लिए अबतक दुरूह रहे रास्ते को आसान करते हुए शिवसेना ने जता दिया है कि एनसीपी के नाज नखरे से झेलने में अगर दिक्कत महसूस हो रही हो, तो चौरस पर वह शिवसेना को साथ लेने का चाल चल सकती है। जनता दल (यू) ने राष्ट्रपति चुनाव में अलग दाव लगाकर वेगा बाउंड वाले दलों को मिलाकर तीसरा मोर्चा बनने की उम्मीद पैदा कर दी है।
संघ की बैसाखी थामकर आगे बढने और दौडने की ताकत हासिल करते ही बैसाखी नचाकर फेंकने की चाहत रखने वाले नीतिश कुमार अकेले नहीं है। बल्कि एनडीए की प्रयोगधर्मिता की शुरुआत से ऐन वक्त पर बीजेपी को आइना दिखाने वालों की लंबी फेहरिस्त है। जिसकी वजह से एनडीए का सबसे बडा पार्टनर होने के बावजूद बीजेपी मौके बेमौके बौना नजर आता है। यह बीजेपी के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की कमजोरी को भी दर्शाता है। यह साबित करता है कि लंबे समय तक सोहबत में रखने के बावजूद संघ परिवार अतिथि दलों के आचार विचार को प्रभावित करने की कूव्वत नहीं रखता है। गोल्डेन वर्ड के सहारे दूर की चाल चलने वाले नीतिश कुमार अपने समाजवादी साथी नवीन पटनायक के नक्शेकदम पर हैं। उडीसा में नौकरशाह से राजनीतिज्ञ बने प्यारे मोहन महापात्र की सलाह पर नवीन पटनायक ने छह साल पहले जो किया नीतिश बीजेपी नेतृत्व को वही कर देने की लगातार भभकी दे रहे हैं।
नवीन पटनायक और नीतिश कुमार ही नहीं दोनों राज्यों के बीच नए बने झारखंड में गठबंधन की राजनीति ने बीजेपी का बुरा हाल कर रखा है। राज्य में कहने को बीजेपी का मुख्यमंत्री है पर सबसे ज्यादा काम सहयोगी दल के दो उप मुख्यमंत्रियों के दफ्तर से चल रहा है। एक सहयोगी झारखंड मुक्ति मोर्चा से राज्य और केंद्र की राजनीति में दो अलग अलग रिश्ते बने हुए हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बीजेपी जिस कोयला घोटाले की आंच पर जलाने की कोशिश कर रही है वह घोटाला उसी झामुमो के नेता शिबु सोरेन के कार्यकाल में हुआ है, जिसकी मदद से झारखंड में बीजेपी नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार चल रही है। झारखंड के पडोस पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के उदय में एनडीए का अहम योगदान है। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की मनमर्जी वाली मंत्री ममता ने बडी होशियारी से पश्चिम बंगाल में बीजेपी के पूरे वोट बैंक को अपने झोले में बंद कर लिया। पश्चिम बंगाल के पडोसी असम में बीजेपी संघ नेताओं के गठबंधन नहीं करने के स्पष्ट राय के बावजूद असम गण परिषद से गठबंधन करके कांग्रेस के लिए लगातार सत्ता में बने रहने का कारण बनती रही है।
दिल्ली प्रदेश की राजनीति में बीजेपी का शायद इसलिए बोलबाला है कि वो लाख जिद के बावजूद एनडीए के दलों को साझेदार नहीं बना रही है। पडोस के हरियाणा में बीजेपी कभी चौटाला, कभी बंसीलाल तो अब कुलदीप बिश्नोई की पार्टी की तरफ अपने वोटों को शिफ्ट करने का सौदा करती रही है। संघ के सिपाही पंजाब में अकाली दल को बडा पार्टनर जैसे तैसे अपनी साख बचाए हुए हैं। हिमाचल में बीजेपी के अंतरकलह से तीसरा मोर्चा अस्तित्व में आता दिख रहा है। आने वाले चुनाव में संघ नेताओं के आगे दुविधा है कि वह प्रेमकुमार धूमल के परिवारवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ खडे हुए नेताओं का समर्थन करे या फिर खुद को बीजेपी की डोर से बांधे रखे।
जम्मू कश्मीर की अंदरूनी सच्चाई है कि राजनीतिक कारणों से अक्सर संघ को बीजेपी के बजाए कांग्रेस का साथ निभाना पडता है। जम्मू से बीजेपी की तुलना में कांग्रेस का उम्मीद्वार ज्यादा हिंदुत्ववादी नजर आता है। दक्षिण के राज्य में आंध्र प्रदेश में बीजेपी चंद्रबाबू नायडू को साथ रखने की कीमत आजतक अदा कर रही है। जयललिता चाहकर भी बीजेपी के पाले में नहीं आ सकती इसलिए उसने बीजेपी के बडे नेताओं को ही अपनी पार्टी में शामिल करके संघ समर्थित मतों को अपने पाले में गिरने का रास्ता बना लिया है। केरल में संघ का मजबूत आधार के बावजूद कमजोर बीजेपी खडी नहीं हो पाई है। गोवा में बीजेपी के बजाय मनोहर पनिक्कर के व्यक्तिगत मेहनत की वजह से मौजूदा सरकार बनी है। गुजरात में नरेंद्र मोदी के आगे लिपलिपी बीजेपी का क्या होगा यह आने वाले चुनाव में साफ होना है। छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश में बीजेपी की बेहतर हालत के पीछे राज्य के कांग्रेस नेताओं का दोनों राज्यों के बीजेपी मुख्यमंत्रियों पर खास कृपा को माना जाता है।
संघ और बीजेपी के आपसी रिश्तों में दुविधा के बीच इस सच को समझना भी जरूरी है कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की विचारधारा में चुम्बकीय ताकत नहीं है। ऐसे ताकत जिससे एकबार संसर्ग में आने वाले दल या राजनीतिक व्यक्तित्व उसमें सदा चिपके रहे। संघ को बाकी सब छोड छाडकर अपनी इस कमी को दूर करना चाहिए। वरना अब वह वक्त दूर नही दिख रहा जब जड़ता की शिकार लग रहे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की न केवल राजनीतिक महत्वाकांक्षा अधूरी रह जाएगी बल्कि खुद उसका राजनीतिक महत्व पूरी तरह से खत्म हो जाएगा।


कश्मीर में खिली उम्मीद की कली


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कश्मीर में खिली उम्मीद की कली

कश्मीर में खिली उम्मीद की कली
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लगता है कि कश्मीर घाटी में सामान्य जनजीवन पटरी पर लौट रहा है। जम्मू कश्मीर में आतंकी गतिविधियों में बीते कुछ महीनों के दौरान खासी कमी आई है। वर्ष 2010 में अलगाववादियों के बहकावे में आकर पत्थरबाजी पर उतारू होने के बाद लहुलुहान हुई घाटी में यह बदलाव सबको महसूस हो रहा है। इस बार गर्मियों के मौसम में पर्यटकों की संख्या में हुआ इजाफा इस का मुंहबोलता प्रमाण है। ताजा खबर यह है कि बरसों से पर्यटकों से वंचित श्रीनगर का पुराना शहर, जिसे कि शहरे-खास भी कहा जाता है, भी अब सैलानियों के स्वागत कर रहा है। भारतीय सेना और केंद्र सरकार इस नई बयार पर सुकून महसूस कर रहे हैं तो अलगाव के अलाव पर रोटी सेंकने वालों के पांवों तले से जमीन खिसक रही है।
यूं भी कहा जा सकता है कि धरातल पर आए इस बदलाव को विभिन्न पक्षों के लोग अपने अपने नजरिए से देख  और नाप-तोल रहे हैं। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। मसलन, मुख्यमंत्री उमर अब्दुला माहौल में आए बदलाव को आधार बनाकर राज्य के कुछ हिस्सों से सुरक्षा बल विशेष शक्तियां अधिनियम यानि अफस्पा हटाने की रट लगाए हुए हैं। उन्हें शायद यह भी लगता होगा कि उनका सुशासन हालात में सुधार के लिए उत्तरदायी है। जम्मू कश्मीर में 11 महीने तक यहां वहां-भटकने के बाद पूर्वनिर्धारित तर्ज पर देशघाती रिपोर्ट लिखने वाले वार्ताकार समूह का नजरिया कुछ और ही है। अलगाववादियों और भारतद्रोहियों की शब्दावली  में भारत के लिए घाटे का घाटी-राग अलाप कर जम्मू कश्मीर के सवाल को उलझाने की आरोपी यह तिकड़ी भी आत्मविमोह से ग्रस्त है। इन्हें लगता है कि राज्य के हालात में सुधार की जमीन तो इनकी यात्राओं और वार्ताओं ने ही तैयार की है। दिलीप पड़गांवकर और उनकी जुंडली ने जिस निर्लज्जता के साथ अपनी रपट में राज्य के शांति की ओर बढ़ते कदमों के लिए अपनी पीठ थपथपाई है,उस पर सिर्फ हंसा ही जा सकता है।
जम्मू कश्मीर के घटनाचक्र पर पैनी निगाह रखने वालों की राय इस तिकड़ी से मेल नहीं खाती। इसमें संदेह नहीं कि घाटी में हिंसक घटनाओं की संख्या उत्तरोत्तर घटी है। आंकडे़ और घाटी का माहौल दोनों इसकी गवाही देते हैं। मगर इस सुकूनदायी नजारे के एक से अधिक कारण हो सकते हैं। इनमें सबसे अहम कारण है सरहद पार से आयात होने वाले आंतक पर लगा अंकुश। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि सौ साल तक भी कश्मीर के लिए हिंदुस्थान से जंग लड़ने की बात करने वाले हमारे नापाक पड़ौसी को एकाएक सदबुद्धि आ गई है। पाकिस्तानी फौज और आई.एस.आई. की नीति और नीयत में इस प्रकार की तब्दीली की अपेक्षा करना ख्याली पुलाव से अधिक कुछ नहीं हो सकता। मगर जमीनी स्थिति यह है कि जम्मू कश्मीर में घुसपैठ में खासी कमी आई है। इसका श्रेय भारतीय सेना व सुरक्षा बलों की चौकसी को जाता है। सीमा पर लगाई गई कांटेदार तार की बाड़ ने इसमें अहम भूमिका अदा की है। दूसरी ओर सेना ने स्थानीय लोगों का विश्वास जीतने के लिए जो बहुआयामी प्रयास किए हैं, उनके भी सकारात्मक परिणाम निकले हैं।
सरहद पार से कश्मीरी जेहादियों को मिल रही प्राणवायु का रास्ता सेना ने प्रभावी ढंग से रोका है। इससे आतंकी और जेहादी तत्व कितने बेचैन हैं, यह तो हिजबुल मुजाहिदीन के मुखिया सैयद सलाहुद्दीन बिना पूछे बता रहे हैं। चंद रोज पहले आंतक के इस सौदागर और मुत्ताहिदा जेहाद कौंसिल के प्रमुख ने अरब न्यूज को एक साक्षात्कार दिया। इसमें उसकी बौखलाहट साफ दिखी। उसने कहा कि जम्मू कश्मीर में हिजबुल मुजाहिदीन और दूसरे जेहादी तत्व वस्तुतः पाकिस्तान के हिस्से की जंग लड़ रहे हैं। उसका कहना है कि हम अर्थात जेहादी घाटी में पाकिस्तान के लिए लड़ रहे हैं और अगर पाकिस्तान ने हमारी मदद करना बंद किया तो हम यह लड़ाई पाकिस्तान की धरती पर और उसके खिलाफ लडेंगे। यह आतंकी सरगना आज भी बंदूक के दम पर घाटी से भारत को बेदखल करने के दावे करता नहीं थकता।
दरअसल,सलाहुद्दीन और उसके दोस्तों को कहीं यह अंदेशा होने लगा है कि उनका आका पाकिस्तान किसी वजह से उनको दिए जाने वाली मदद से हाथ खींच रहा है। हमारा मानना है कि जम्मू कश्मीर पर पाकिस्तानी रुख में कोई बदलाव नहीं आया है। बदली है तो जमीनी परिस्थितियां जिनके चलते पाकिस्तान के लिए अपने जेहादी गुर्गों को मदद पंहुचाना अब उतना सरल नहीं रह गया है। अलगाववादी हुर्रियत कांफ्रेंस के स्वनामधन्य उदार खेमे के नेता मीरवायज उमर फारूक ने सलाहुद्दीन के बयान के तुरंत बाद पाकिस्तान के आधिकारिक प्रवक्ता की तरह सार्वजनिक रूप से कहा कि कश्मीरियों की लड़ाई का समर्थन पाकिस्तान की कोई सरकार कम या बंद नहीं कर सकती चूंकि यह पाकिस्तान की घोषित राष्टीय नीति है। मीरवायज के इस बयान में दम है और दिल्ली को ऐसे किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि इस्लामाबाद का रुख बदल रहा है।
पांच साल दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायुक्त रहे शाहिद मलिक इस माह दिल्ली से इस्लामाद के लिए रवाना होने से पहले इस बारे में पुरानी पाकिस्तानी तोतारटंत दोहराना नहीं भूले। भारत के उदार प्रजातांत्रिक शासन की भलमानसाहत का नाजायज फायदा उठाकर आए दिन हमारी सेना और सरकार को कोसने वाले मीरवायज को शाहिद मलिक ने चलते चलते फोन लगाया। मलिक ने मीरवायज को हौंसला देते हुए कहा कि जम्मू कश्मीर पर पाकिस्तान के परपंरागत स्टैंड में कहीं कोई बदलाव नहीं आया है।
इस बीच घाटी के अलगाववादी नेतृत्व में व्याप्त बेचैनी का प्रमाण हुर्रियत के दूसरे खेमे के मुखिया सैयद अली शाही गीलानी के बयानों में भी देखने को मिलता है। पाकिस्तानी खुराक में कमी का परिणाम गीलानी को परेशान किए हुए हैं। स्थानीय युवकों में जिस छोटे से तबके पर अपनी विषाक्त पकड़ के सहारे वह भारत विरोधी कारोबार चला रहा था, वह भी उसके हाथ से खिसकने लगा है। खबर है कि बीते दिनों गीलानी के बंद के आवाहन का उनके प्रभाव वाले मोहल्लों में ही निहायत सीमित असर हुआ। ऐसे में खंभा नौचती खिसियानी बिल्ली की तरह गीलानी को फिर गर्रियाते सुना गया कि भारत कश्मीरियों की मांगे माने वरना युवक हथियार उठाने की सोच रहे है। यह वस्तुतः गीलानी की दूकान में सिमटते सामान से उपजी झल्लाहट से अधिक कुछ नहीं।


अलविदा प्रणव दा


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अलविदा प्रणव दा

By visfot news network 8 hours 37 minutes ago
अलविदा प्रणव दा

देश के वित्त मंत्री के रूप में प्रणब मुखर्जी का आज आखिरी दिन है. कल वे अपने पद से इस्तीफ़ा दे देंगे और दो दिन बाद राष्ट्रपति पद के लिये चार सेटों में अपना नामांकन दाखिल करेंगे. साथ ही साथ वे कांग्रेस को भी अलविदा कह देंगे. कांग्रेस के संकटमोचक कहे जानेवाले दादा के दर छोड़ देने के बाद एकसाथ इतनी कुर्सियां काली नजर आने लगेंगी जिसे कम से कम कांग्रेस के लिए भर पाना मुश्किल होगा.
कांग्रेस के लिए एकसाथ वे कई मोर्चों पर काम कर रहे थे. राजनीतिक गलियारों में उन्हें शैडो पीएम भी कहा जाता था. सरकार या पार्टी पर जब कभी राजनीतिक या प्रशासनिक संकट आया तो प्रणव मुखर्जी ही संकटमोचक बनकर सामने आये. सरकार में वे ग्रुप आफ मिनिस्टर्स के अध्यक्ष थे और लोकसभा में सत्तापक्ष के नेता. आमतौर पर ये पद प्रधानमंत्री के पास रहते हैं लेकिन यह प्रणव मुखर्जी की पहुंच और काबिलियत थी कि वे प्रधानमंत्री न रहते हुए भी प्रधानमंत्री से ज्यादा ताकतवर थे.
यह रोचक है और संवैधानिक राजनीति का दिलचस्प पहलू भी कि जिस कांग्रेस में रहकर उन्होंने अपना कद इतना बड़ा किया कि देश के सर्वोच्च पद तक पहुँच सकें और जो कांग्रेस उन्हें जिताने के लिए पूरी ताकत लगाये हुए है, दादा उससे भी अपना सम्बन्ध तोड़ लेंगे. जाहिर है कि वह क्षण उनके लिए भावपूर्ण होगा और उनके सहयोगियों के लिए भी.
लेकिन यह आखिरी दिन उनके लिए महत्वपूर्ण है. अंतिम पलों में वे ऐसा कुछ कर जाना चाहते हैं जिससे कि एक वित्तमंत्री के रूप में लोग उनको याद करते रहें. वे अर्थव्यवस्था में अपने नामो-निशान छोड़ जाना चाहते हैं. कभी दुनिया के शीर्ष वित्तमंत्रियों में शुमार रहे प्रणव दा जो अब तक नहीं कर पाए वे एक दिन में क्या कर लेंगे. साथ में जैसे हालत हैं और राजनीतिक मजबूरियां हैं उनमें वे शायद ही कुछ ऐसा कर सकें जिससे लोग उन्हें सालों-साल याद करते रहें. फिर भी वे अपनी अंतिम कोशिश जरूर करना चाहते हैं.
ऐसी सम्भावना जताई जा रही है कि अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए और सूखे पत्ते की तरह गिर रहे रूपये को पतंग की आसमानी उंचाई देने के लिए वे कुछ महत्वपूर्ण आर्थिक घोषणाएं कर सकते हैं. इन घोषणाओं में व्यर्थ के खर्चों में कटौती और विदेशी मुद्रा की आवक को बढ़ाने के लिए अनिवासी भारतीयों की जमा राशि पर ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी की घोषणा की संभावनाएं शामिल मानी जा रही हैं. इसके आलावा रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया दामों कटौती की भी घोषणा कर सकता है. अब क्या क्या घोषणाएं की जाएँगी, वह तो जल्द ही, आज ही पता चल जायेगा.
बहरहाल, कौन नहीं चाहेगा कि वित्त मंत्रालय से विदाई लेने जा रहे प्रणब मुखर्जी वित्तमंत्री के रूप में एक दिन में ही सही, कुछ ऐसा चमत्कार कर जाएं कि वित्त मंत्रालय में उनका नाम अमर हो जाय और देश की जनता को कुछ राहत मिल जाय.


‘जनता के दोस्त थे तरुण शेहरावत’



'जनता के दोस्त थे तरुण शेहरावत'



तरुण ने यहां पर अपने कैमरे से जो तस्वीरें खींची थीं, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके दिल में उत्पीड़ित व शोषित जनता के लिए खास जगह है.
तरुण की मौत पर माओवादी पार्टी का बयान
tarunsherawatदेश की प्रतिष्ठित पत्रिका 'तहलका' के युवा फोटो-पत्रकार तरुण शेहरावत की दुखद मौत पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी गहरा शोक प्रकट करती है. मार्च 2012 में जब तीन हजार अर्धसैनिक व पुलिस बलों ने माड़ इलाके में घुसकर 'आपरेशन हाका' और 'आपरेशन विजय' के नाम से एक बहुत भारी दमन अभियान चलाया था, जिसमें जनता को भारी हिंसा और आतंक का शिकार बनाया गया था, उस समय 'तहलका' की ओर से सचाई को जानने और उसे उजागर करने के बुलंद इरादों के साथ तुषा मित्तल और तरुण शेहरावत माड़ क्षेत्र में आए थे. इस दूरस्थ इलाके में पहुंचने के लिए इन दोनों को कई दिक्कतों और मुश्किलों का सामना करना पड़ा. काफी जोखिम उठाया था इन दोनों ने. जनता के हितों के प्रति प्रतिबद्धता ने ही इन दोनों को राजधानी दिल्ली से देश के अत्यंत पिछड़े इलाकों में से एक माने जाने वाले माड़ में ले आया था. अतः माड़ क्षेत्र की जनता और उनकी क्रांतिकारी जनताना सरकार ने इन दोनों का तहेदिल से स्वागत किया था और सरकारी हिंसा का शिकार गांवों में उन्हें ले जाकर पीड़ितों से मिलवाया भी था. इस क्षेत्र की जनता ने इन दोनों को अपना दोस्त माना. तरुण ने यहां पर अपने कैमरे से जो तस्वीरें खींची थीं, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके दिल में उत्पीड़ित व शोषित जनता के लिए खास जगह है.

यह सुनकर कि यहां से वापस जाने के बाद ये दोनों नौजवान पत्रकार बीमार पड़े थे और आखिरकार तरुण की दुखद मृत्यु हो चुकी है, हमारा संगठन और यहां की समूची जनता, खासकर माड़ इलाके की जनता बेहद दुखी हैं. हो सकता है तुषा और तरुण हमारी पार्टी की विचारधारा और कार्य-पद्धति से सहमत नहीं हों, लेकिन इन दोनों ने जनता पर जारी सरकार के अन्यायपूर्ण युद्ध के सम्बन्ध में जमीनी स्तर से सचाइयों को जुटाने के लिए जिस ढंग से कठोर परिश्रम, साहस और प्रतिबद्धता का प्रदर्शन किया, वह प्रशंसनीय व प्रेरणास्पद है. हम इस दुखद अनुभव को एक कड़वे सबक के तौर पर लेते हैं और आने वाले दिनों में हमारे क्षेत्रों में दौरे पर आने वाले तमाम लोगों की ठीक से देखभाल करने और उन्हें आवश्यक सावधानियों से अवगत करवाने की हम पूरी कोशिश करेंगे. हमारी स्पेशल जोनल कमेटी दण्डकारण्य की समूची शोषित जनता की ओर से तरुण शेहरावत के शोक संतप्त परिवार, दोस्तों और समूचे 'तहलका' परिवार के प्रति गहरी संवेदना प्रकट करती है. हम आशा करते हैं कि तुषा मित्तल की तबियत जल्द ठीक हो जाए.

(गुड्सा उसेण्डी)
प्रवक्ता,
दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)


CONFIRMED: US CIA Arming Terrorists in Syria


CONFIRMED: US CIA Arming Terrorists in Syria

By Tony Cartalucci

Global Research, June 22, 2012
landdestroyer.blogspot.com

URL of this article: www.globalresearch.ca/index.php?context=va&aid=31537

As West berates Syria for "killing civilians" Western weapons flow into terrorist hands from NATO.

The New York Times in their article, "C.I.A. Said to Aid in Steering Arms to Syrian Opposition," confirms what many have already long known - that the West, led by the US and its Gulf State proxies, have been arming terrorists, particularly the Muslim Brotherhood, while berating the Syrian government for "violating" a UN mandated ceasefire and for "failing to protect" its population.

The Muslim Brotherhood has been combated by nations across the Arab World to stem the tide of their sectarian extremism, violence, and their targeted erosion of secular nation-states. Ironically, the US which has claimed to have been fighting the forces of sectarian extremism and "terrorism" for over a decade now, have been revealed as the primary enabler of the most violent and extreme terrorist organizations in the world. These include, in addition to the Muslim Brotherhood, the Libyan Islamic Fighting Group (LIFG) in Libya, Baluch terrorists in Pakistan, and the Mujahideen-e-Khalq (MEK) currently based in Iraq and being used as proxies against Iran.







Video: Professor Michel Chossudovsky of Global Research gives perhaps the most comprehensive back-story on Syria's conflict to-date.
       VIDEO: US-NATO "Humanitarian Intervention" in Syria: Towards a Regional War?
Latest report now available on GRTV
- by Michel Chossudovsky, Nile Bowie - 2012-06-08
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The New York Times claims that, "the C.I.A. officers have been in southern Turkey for several weeks, in part to help keep weapons out of the hands of fighters allied with Al Qaeda or other terrorist groups, one senior American official said," a unsubstantiated claim that was similarly made in Libya before Al Qaeda flags were run up poles in Benghazi by rebels flush with NATO cash and arms used to collapse the government of Muammar Qaddafi. In fact, it is confirmed that Libyan LIFG rebels, led by Al Qaeda commander Abdul Hakim Belhaj, have now made their way by the hundreds to Syria (and here).

Despite months of the US claiming the "international community" sought to end the violence and protect the population of Syria, the New York Times now admits that the US is engaged in supporting a "military campaign" against the Syrian government aimed at increasing "pressure" on Syrian President Bashar al-Assad. Efforts to impose an arms embargo on Syria is now revealed to be one-sided, aimed at giving rebels an advantage in the prolonged bloodbath with the intent on tipping the balance in favor of Western proxy-forces - not end the violence as soon as possible as claimed by the UN, and in particular, Kofi Annan.

The Times also reported that Turkey has been directly delivering weapons to terrorists operating in Syria - Turkey being a NATO member and implicating NATO as now being directly involved in perpetuating bloodshed in the Middle Eastern nation. For months, Turkey has been allowing terrorists to use its border region as a refuge from which to stage attacks against Syria.

Despite this, however, the so-called "Free Syrian Army," according to the New York Times, consists of only 100 or so small formations made up of  "a handful of fighters to a couple of hundred combatants," betraying the narrative that the Syrian government faces a large popular uprising, and revealing that the "Free Syrian Army" is in fact a small collection of mercenaries, foreign fighters, and sectarian extremists, armed, funded, and directed by foreign interests solely to wreak havoc within Syria. It should be noted that these terrorist proxies were organized as early as 2007 by the US, Israel, and Saudi Arabia, specifically to enact regime change and transform Syria into a Western client regime.

As the West's propaganda campaign imploded after a torrent of unsubstantiated claims of "massacres" and "atrocities," all unverified, some in fact being revealed as the work of the West's sectarian proxies themselves,  it appears that sidelining Syria in headlines while pursuing a clandestine proxy war is now the tactic of choice for the time being.

For the United States to claim Syria has "failed" to protect it population while simultaneously fueling the very armed conflict it claims it is seeking to end is not only hypocrisy of the highest order, but a crime against world peace - punishable under the Nuremberg precedent.