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Sunday, 20 May 2012

उत्तर भारत में रसोई गैस के लिए हाहाकार


उत्तर भारत में रसोई गैस के लिए हाहाकार



रसोई गैस की किल्लत हड़ताल के पहले से भी लगातार बनी हुई है. विश्लेषकों का मानना है कि जिन देशों से पेट्रो पदार्थों को लेकर करार हैं वह डिस्टर्ब हो गए हैं, खासकर अमेरिकी दबाव में ईरान से . अंतरराष्ट्रीय स्तर की समस्या से आम उपभोक्ता परेशान हो रहा है...
धीरू यादव 
तीन दिन से इंडियन ऑयल कंपनी के इंडेन लिक्विड पेट्रोलियम गैस उपभोक्ताओं और एजेंसी होल्डरों के बीच जूतम-पैजार की नौबत है. इसके पीछे एजेंसी मालिकों की दलील को उपभोक्ता मानने को तैयार नहीं है. वे ब्लैक का आरोप लगाकर झगड़ा कर रहे हैं. इस बारे में खोजबीन हुई तो पता चला कि यह दिक्कत इस समय पूरे उत्तर भारत में है. रिफिलिंग प्लांट के लिए वल्क कैप्सूल में आने वाली गैस ट्रांसपोर्ट ड्राइवरों ने हडताल कर दी है. शुक्रवार शाम तक हडताल खत्म नहीं हुई थी.
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बरेली मंडल समेत उत्तर भारत में सबसे ज्यादा रसोई गैस उपभोक्ता इंडेन के ही हैं. अकेले बरेली में ही करीब साढे तीन लाख उपभोक्ता हैं. जिले में रोजाना करीब साढे+ आठ हजार सिलेंडरों की सप्लाई है. ऐसे में तीन दिन तक गैस न मिलने से उपभोक्ताओं की परेशानी को समझा जा सकता है. वह भी तब जबकि भरपूर आपूर्ति पहले ही नहीं है और 25 दिन बाद गैस बुक कराने पर भी सिलेंडर एक-एक महीने बाद मिल रहा हो. 
ऐसे में सप्लाई न आने से उपभोक्ताओं का गुस्सा एजेंसी मालिकों पर फूटना स्वाभाविक है. रसोई गैस डीलर एसोसिएशन की अध्यक्ष रंजना सोलंकी ने बताया कि तीन दिन में मंडल में इंडेन गैस एजेंसियों का करीब पौने दो करोड़ का कारोबार प्रभावित हो चुका है. यही हालत रही तो समस्या काफी विकराल हो जाएगी. 
इंडेन के सीनियर एरिया मैनेजर मिथलेश  सिन्हा सप्लाई न होने के पीछे का कारण बताने से कतराए. मंडल के फील्ड आफीसर पी प्रकाशन ने हडताल की बात स्वीकारी, लेकिन आधिकारिक बयान देने से मना किया. 
शाहजहांपुर स्थित इंडेन गैस रिफिलिंग प्लांट मैनेजर दिलीप सदीजा ने कहा कैप्सूल में वल्क में आने वाली गैस नहीं आ पा रही है. कैप्सूल लाने वाले ट्रांसपोर्ट ड्राइवरों की हड़ताल से पूरे उत्तर भारत में सप्लाई ठप है. हड़ताल की वजह उन्होंने नहीं बताई. 
सूत्रों का कहना है कि पेट्रो-डीजल पदार्थों की मांग को सरकार पूरा नहीं कर पा रही है. इसी वजह से रसोई गैस की किल्लत हड़ताल के पहले से भी लगातार बनी हुई है. विश्लेषकों का मानना है कि जिन देशों से पेट्रो पदार्थों को लेकर करार हैं वह डिस्टर्ब हो गए हैं, खासकर अमेरिकी दबाव में ईरान से . अंतरराष्ट्रीय स्तर की समस्या से आम उपभोक्ता परेशान हो रहा है. 


जारवा को जहान से जोड़ना चाहती है सरकार


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जारवा को जहान से जोड़ना चाहती है सरकार

By visfot news network 1 hour ago
जारवा को जहान से जोड़ना चाहती है सरकार
हाल में कुछ लोगों द्वारा विडियो बनाये जाने के कारण चर्चा में आये जारवा जनजाति को अब सरकार जहान से जोड़ना चाहती है। राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग चाहता है कि अंडमान निकोबार द्वीप समूह पर मौजूद जारवा जनजाति समुदाय के साथ मेल जोल बढ़ाया जाये ताकि इनकी प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो क्योंकि यह समुदाय अस्तित्व के संकट की ओर बढ़ रहा है। आयोग चाहता है कि जारवा समुदाय के इलाके में प्रशासन का दखल बढ़े। इसी उद्येश्य से उनके क्षेत्रों में घुसने की लगातार कोशिश की जा रही है ताकि उन पर भोजन और स्वास्थ्यकर दवाओं जैसी बुनियादी जरूरतें पहुंचे और उन्हें मुख्यधारा में शामिल किया जा सके।
आयोग के अध्यक्ष डाक्टर रामेश्वर उरांव ने कहा 'पहले जारवा समुदाय के क्षेत्र में घुसने पर ये लोग तुरंत तीर चला देते थे और किसी को अपने पास नहीं आने देते थे। लेकिन अब अंडमान प्रशासन धीरे धीरे उनके इलाकों में जा रहा है ताकि उन्हें मूलभूत सुविधाएं दी जाएं और मुख्यधारा से जोड़ा जाए। लेकिन योजनाओं को लागू करना असली चुनौती है।' उरांव ने कहा कि इन आदिवासियों की त्वचा बहुत संवेदनशील है और बाहरी लोगों के अधिक संपर्क में आने से उन्हें खसरा जैसे रोग हो जाते हैं क्योंकि उनकी रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता हमारे मुकाबले बहुत कम है। प्रतिरोधक क्षमता और प्रजनन शक्ति बढ़ाने के लिए उपाय किए जा रहे हैं।
जारवा जाति के लोग नब्बे के दशक के अंत में पहली बार बाहरी दुनिया की संपर्क में आए। 1997 के आसपास इस जनजाति के कुछ लोग जंगल से बाहर आकर आसपास मौजूद बस्तियों में जाने लगे। लेकिन, महीने भर के भीतर ही उनमें खसरा फैल गया। 2006 में भी वहां खसरा फैला। हालांकि किसी की मृत्यु की जानकारी नहीं मिली। सरकार ने पिछले दिनों कहा था कि अंडमान द्वीप समूह में रहने वाले जारवा आदिवासियों की आबादी 2001 की जनगणना के मुताबिक 240 थी जो 2011 में बढ़कर 383 हो गई। जनजातीय मामलों के मंत्री ने कहा था कि बीते दस सालों में जारवा की आबादी 40 फीसदी बढ़ी है।
बहरहाल, आयोग के अध्यक्ष उरांव ने चिंता जताते हुए कहा कि अंडमान निकोबार द्वीप समूह पर मौजूद जनजातियों की संख्या लगातार घटती जा रही है। ताजा आंकड़ों के अनुसार, जारवा समुदाय की संख्या लगभग 383 और एक अन्य जनजाति समुदाय ग्रेट अंडमानी की जनसंख्या केवल 97 रह गई है। हालांकि ये आंकड़े पूरी तरह से विश्वसनीय नहीं हैं क्योंकि यह अनुमान के आधार की गिनती है।


सत्ता में ममता ने पूरा किया साल


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सत्ता में ममता ने पूरा किया साल

By visfot news network 6 hours 25 minutes ago
सत्ता में ममता ने पूरा किया साल
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने सत्ताधीश के बतौर एक साल पूरा कर लिया है। तीन दशकों से पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज वाम मोर्चे की सरकार को हटाकर ममता ने आज ही के दिन एक साल पहले राज्य की कमान संभाली थी।
मां, माटी मानुष के नारे के साथ सत्ता संभालने वाली ममता बनर्जी जब से सत्ताधीश बनी हैं विवादों में बनी हुई हैं। फिर भी इन विवादों के बीच ममता बनर्जी ने कुछ ऐसे काम किये हैं जो पश्चिम बंगाल के हित में रहे हैं। सत्ता में आने के तुरंत बाद 18 जुलाई को त्रिपक्षीय गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासनिक समझौता कराकर ममता ने अपनी धाक जमा ली थी। वहीं सिंगूर जमीन विवाद को सुलझा कर ममता ने अपना एक और वादा निभाया। सत्ता की अपनी पहली सालगिरह के साथ ही अब ममता बनर्जी सरकार सिंगूर जमीन विवाद में प्रभावित सभी किसानों को एक हजार रुपए महीने की तत्काल राहत देगी।
पिछड़ापन, अपराध की बढ़ती घटनाओं के साथ ही राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी ममता सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। निवेश के मामले में भी पश्चिम बंगाल को खास सफलता नहीं मिली है। हालांकि हाल में ही अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने पश्चिम बंगाल में निवेश का आश्वासन दिया था लेकिन उसके लिए ममता बनर्जी को रिटेल में विदेशी निवेश पर समर्थन भी मांग लिया था।
ममता बनर्जी के साल भर के शासन के दौरान बंगाल कितना बदला है इसका अंदाज लगाना अभी मुश्किल है लेकिन बंगाल की राजनीति से वामपंथ को साफ करन के लिए ममता ने कई उपाय किये हैं. एक सुरक्षा अभियान के दौरान किशनजी की हत्या के बाद जहां माओवादी प्रदेश में कमजोर पड़े हैं वहीं बौद्धिक वर्ग से वामपंथी राजनीतिक दलों को कमजोर करने के लिए ममता बनर्जी ने स्कूली पाठ्यक्रमों में व्यापक बदलाव का निर्णय लेकर साफ संकेत दे दिया है कि वे बंगाल में वह बदलना चाहती हैं जो पिछले चार दशक से यहां कायम किया गया है।


माओवाद बहाना है, जल, जंगल हथियाना है


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माओवाद बहाना है, जल, जंगल हथियाना है

By राजीव यादव 19/05/2012 15:14:00
माओवाद बहाना है, जल, जंगल हथियाना है
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नयी आर्थिक नीतियों के लागू होते जाने के साथ कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का अर्थ किस तरह बदलता गया, झारखंड इसका मिसाल बन गया है। एक स्थानीय आदिवासी नेता के शब्दों में कहें तो सरकार अब टाटा और मित्तल को सबसे गरीब और भूमिहीन मानकर मुफ्त में जमीन देने लगी है जबकि आदिवासी अब सरकार की नजर में जमीनदार हो गये हैं जिनसे हर कीमत पर उनकी जमीन का मालिकाना हक छीन कर इन नवभूमिहीनों में बांटना उसकी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी हो गयी है।
समझा जा सकता है कि उदारीकरण के साथ राज्य की भूमिका खत्म नहीं हुयी है जैसा कि अक्सर कहा जाता है। बल्कि सिर्फ उसके पोजीशन में शिफ्टिंग हुयी है। यानी राज्य अब भी कल्याणकारी भूमिका में है, अमीरों के पक्ष में हिंसक होने की हद तक।
मसलन, गढवा जिले के बलिगढ और होमिया गांव जहां दलित और आदिवासी, जिनमें कई लुप्त होती जातियों के लोग भी रहते हैं, को बिना गांवों वालों की जानकारी के सरकारी अफसरों और स्थानिय सामंती तत्वों ने मिलीभगत से लगभग 453 एकड जमीन जिंदल और एस्सार कम्पनी को बेच दिया है। जबकि सरकार ग्रामिणों से भूकर भी लेती रही है। सबसे अहम कि इसमें भूदान की जमीन भी है जिसे कानूनन न तो बेचा जा सकता है ना खरीदा जा सकता है सरकार और कॉर्पोरेट गठजोड से छले गये लोगों में कईयों को तो यह भी नहीं पता कि उनकी जमीन किनको बेची गयी है, वो कहां के हैं और उनकी जमीन पर वो उनकी तरह ही खेती करेंगे या उद्योग लगाएंगे।  
ऐसी ही स्थिति झारखंड के लोकनायक नीलाम्बर और पीताम्बर बंधुओं के पुश्तैनी गांव गढवा जिले के सनया का है। जो कुटकू मंडल बांध परियोजना के डूब क्षेत्र के 45 गांवों में से एक है। प्रभावित ग्रामीणों के मुआवजे का मानदंड दशकों पुराने सर्वे के आधार पर निर्धारित किया गया है, जबकि इस दौरान आबादी कई गुणा बढ गयी है। सबसे दुखद कि सनया उन नीलाम्बर-पीताम्बर बंधुओं का गांव है जिन्होंने अंग्रेजों से भूमि अधिकार के लिये लडते हुए अपनी जान कुर्बान कर दी थी। जिनके नाम पर एक विश्वविद्यालय समेत दजर्नों सरकारी परियोजनाएं चल रही हैं। जबकि नीलाम्बर-पीताम्बर के वंशज 75 वर्षीय हरीश्चंद के पास पहनने के लिये कपडे भी नहीं हैं तो इसी परिवार के एक युवक को यह पता भी नहीं है कि उनके वंशजों के नाम से कोई स्कूल (यूनिवसिर्टी) बन रही है।
नीलाम्बर-पीताम्बर जैसे आदिवासी अस्मिता के प्रतीकों का इस्तेमाल प्रदेश सरकारें अपने कॉर्पोरेट हितों के लेहाज से बहुत रणनीतिक रीके से करती आ रही हैं। इसके पीछे मुख्य मकसद एक तरफ तो बाहरी दुनिया के बीच अपने को आदिवासी हितों की संरक्षक साबित करना होता है तो वहीं दूसरी आंतरिक तौर पर आदिवासीयों के बीच ऐसे बिचैलिये नेताओं की खेप पैदा करना होता है जो इस अस्मिता के नाम पर आदिवासियों से वोट तो ले आएं लेकिन उनके बीच इन लोकनायकों के राजनीतिक दशर्न को कोई ठोस आकार न लेने दें। ठीक वैसे ही जैसे गांधी और लोहिया के नाम पर होता आया है इसीलिये जहां एक ओर पूरे झारखंड में बिरसा मुंडा की मूर्तियां तो खूब देखी जा सकती हैं, जिनके नाम पर वोट भी पाया जाता है लेकिन उस चेतना की राजनीतिक आभिव्यक्ति चुनाववादी राजनीति में कहीं नहीं दिखती। इसीलिये गढवा, पलामू और लातेहार जहां माओवादियों की मजबूत उपस्थिति है वहां नीलाम्बर-पीताम्बर की आदमकद मूर्तियां चारों तरफ दिख जाती हैं जिस पर माल्यापर्ण का एक भी मौका अफसरशाह और राजनेता नहीं चूकते। लेकिन यदि कोई सत्ताविरोधी लेखक नीलाम्बर-पीताम्बर की राजनीतिक जीवनी लिखने की हिमाकत करता है तो उस के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया जाता है।
दरअसल, यदि एक वाक्य में कहा जाए तो आज झारखण्डी आदिवासी समाज अपने इतिहास और उसके बोध से उत्पन्न हुए मूल्यों की रक्षा की लडाई लड रहा है। जिसके केंद्र में उनका जल-जंगल- जमीन है। मसलन, आज वहां सबसे बडा सवाल तो 1908 में बने सीएनटी ऐक्ट की रक्षा का है। जिसे अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लम्बे संघर्ष के बाद उन्होंने प्राप्त किया था। जिसके तहत आदिवासियों की जमीन केवल आदिवासी ही खरीद सकते हैं और वह भी इस शर्त के साथ कि खरीदार भी उसी थाना क्षेत्र का निवासी हो। लेकिन आज विकास के नाम पर काॅर्पोरेट परस्त सरकार और विपक्षी राजनीतिक दल एक आम सहमति से इस कानून में संशोधन पर उतारू हैं। जबकि उच्च न्यायालय तक ने पिछले दिनों इस कानून का सख्ती से पालन करने का आदेश दिया है। ऐसी स्थिति में जब अदालत के निर्देशों तक को काॅर्पोरेट हित में धता बताया जा रहा हो, यदि बिरसा मुंडा और तिलका मांझी के विद्रोहगाथा को गाने-गुनगुनाने
वाला आदिवासी समाज अपने इतिहास की तरफ मुडता है तो इसे राष्ट्द्रोह कहेंगे या अपने संवैधानिक आदर्शों से भटक गए राष्ट् को फिर से पटरी पर लाने के ऐतिहासिक जिम्मेदारी का निर्वहन?
दरअसल, अपने प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए चल रहे आदिवासी संघर्षों जिसमें एक वैकल्पिक विकास के माॅडल समेत अस्पष्ट ही सही एक समतामूलक राष्ट् का खाका भी है,( सरकार के पास तो अब यह कहने के लिये भी नहीं है) जिसे अब शासकवर्ग माओवाद के नाम से प्रचारित करना रणनीतिक तौर पर अपने पक्ष में समझता है, को उसके ऐतिहासिक और नीतिगत संदर्भों से काट कर सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या के बतौर प्रचारित करने का टे्ड भी प्राकृतिक संसाधनों की कॉर्पोरेट लूट के साथ ही शुरू हुआ है। जिसका मुख्य एजेण्डा यदि लातेहार के जंगलों में मिले एक 20 वर्षीय माओवादी कमांडर के शब्दों में कहें तो 'माओवाद तो बहाना है-जल, जंगल, जमीन निशाना है'। क्या आज कोई भी मानसिक रूप से स्वस्थ और जागरूक व्यक्ति माओवादी तौर-तरीकों से असहमति रखते हुये भी, इस नारे की हकीकत से इंकार कर सकता है? क्या वास्तव में सरकारे माओवाद के बहाने से जल जंगल हथियाकर कारपोरेट घरानों को देने की कोशिश में नहीं हैं? क्या दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों को सबसे ज्यादा घरेलू नौकर और वैश्याएं देने वाले इस प्रदेश में देशी-विदेशी कम्पनियों से प्राकृतिक संसाधनों को हस्तांतरित करने के 104 करारनामों के साथ ही 70 हजार सीआरपीएफ के जवानों की तैनाती और देश की जनभावनाओं की अभिव्यक्ति के सबसे बडे लोकतांत्रिक मंच पर पहुंचने के लिये अप्रवासी भारतीयों और प्रदेश से बाहर के धन्नासेठों के लिये चारागाह बन चुके झारखण्ड की हकीकत को यह नारा बयां नहीं करता?
(माओवाद प्रभावित झारखण्ड के गढवा, पलामू और लातेहार से लौटकर)


माया को नहीं भाया यूपी में अखिलेशराज


माया को नहीं भाया यूपी में अखिलेशराज

By visfot news network 9 hours 31 minutes ago
माया को नहीं भाया यूपी में अखिलेशराज
उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने नई दिल्ली में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में शनिवार को कहा कि सपा शासन में उत्तर प्रदेश की हालत दिन पर प्रतिदिन दयनीय होती जा रही है। उन्होंने कहा कि गलत सरकारी नीतियों की वजह से महंगाई बढ़ रही है। संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा कि मेरे खिलाफ लगाए जा रहे आरोप बेबुनियाद हैं और मेरे खिलाफ साजिश रची जा रही है। उन्होंने कहा कि मेरे खिलाफ बेवजह जांच बिठाई जा रही है।
मायावती ने कहा कि बसपा प्रमुख का पद उन्हें विरासत में नहीं मिला है। इसके लिए उन्होंने कार्यकर्ता से अध्यक्ष पद तक सफर किया है। मायावती ने प्रदेश सरकार पर हमला करते कहा कि अखिलेश की सरकार महज कागजी सरकार बन कर रह गई है। उन्होंने कहा कि अखिलेश दलित विरोधी हैं और जानबूझ कर मेरी सरकार के द्वारा बनाई गई जनकल्याण की नीतियों को एक-एक कर खत्म किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि प्रदेश में जानबूझ कर दलित अधिकारियों को निशाना बनाया जा रहा है।
उन्होंने कहा कि सपा सरकार के आते ही प्रदेश की कानून व्यवस्था ध्वस्त हो गई और दिनदहाड़े महिलाओं की आबरू लूटी जा रही है। लोग घरों से बाहर निकलने में डर रहे हैं। प्रदेश में कारोबारी अपने-आप को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। जिससे प्रदेश का विकास बाधित हो रहा है। सपा सरकार में माफिया को खुला संरक्षण मिल रहा है। सारे अपराधिक तत्व जेलों से बाहर आ रहे हैं। जिससे प्रदेश में भय का माहौल व्याप्त हो रहा है। उन्होंने कहा कि पिछले दो माह में ही 293 डकैती, 800 हत्याएं, 256 अपहरण ओर 700 लूट की घटनाएं हो चुकी हैं।
उन्होंने कहा कि प्रदेश में तबादलों का पिछले 60 साल को रिकार्ड टूट गया है। चहेते अफसरों को मनमांगी पोस्टिंग दी जा रही है। एक प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति चुनाव में वे दूसरी पार्टियों के रुख पर नजर रख रही हैं। संप्रग व राजग का उम्मीदवार सामने आने पर ही वह कोई फैसला लेंगी।


सावधान! पत्रकारिता गिरवी रख दी गयी है


http://news.bhadas4media.com/index.php/creation/1419-2012-05-20-10-46-54


Written by नीरज 
कुछ दिनों पहले खबर आयी कि एबी बिरला ग्रुप और टी.वी.टुडे के बीच एक डील हुई. डील के तहत अब टी.वी.टुडे में ए.बी.बिरला ग्रुप का हिस्सा तकरीबन 27% फीसदी का होगा.  मद्देनज़र, एक मोटी रकम टी.वी.टुडे के हिस्से में आयी है. टी.वी.टुडे देश के प्रभावशाली मीडिया संस्थानों में से एक है. पत्रकारिता में भी इसने सराहनीय योगदान दिया. पर पिछले कुछ दिनों से इसकी गिरती साख (न्यूज़ के नाम पर, आज तक और इंडिया टुडे में परोसी जाने वाली सामग्री) और पैसों के लिए कंटेंट में गिरावट पर इसने ज़्यादा जोर लगाया. बात समझने वाली थी. पत्रकारिता पर पैसा भारी पड़ने लगा था.

 

अब लौटते हैं ज़मीनी मुद्दे पर. क्या कोई उद्योगपति घाटा सहकर भी समाज का भला करता है? क्या कोई उद्योगपति अपने व्यवसायिक हितों के खिलाफ खबर दिखाएगा या छापेगा? क्या कोई उद्योगपति, किसानों-मजदूरों-गरीब तबके की बेबाक बातों को सामने आने देगा? क्या कोई उद्योगपति, सरकार से पंगा मोल लेगा? क्या किसी उद्योगपति में इतनी हिम्मत है कि- अपना "कुछ" न्योछावर कर, दूसरों का भला करे? उद्योगपतियों का इतिहास, कभी गरीबों के हितों का साक्षी रहा है? इतिहास गवाह है कि- मुनाफ़ा कम होने को घाटा करार देना उद्योगपतियों की पुरानी आदत है. इतिहास गवाह है कि- मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए कर्मचारियों को एक झटके में निकाल देना, उद्योगपतियों के लिए आम बात है. इतिहास गवाह है कि- उद्योगपति, पत्रकारिता की मूल भावना (सच और ज़मीन से सरोकार) से कोई इत्तेफाक नहीं रखता.  ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है- कि- कोई उद्योगपति, मीडिया संस्थानों में घुसपैठ किस लिए बना रहा है? मीडिया संस्थानों का इस्तेमाल, वो किस तरह से करेगा? लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की गरिमा को किस हद तक कायम रख पायेगा?

लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को गिरवी बना देने का ये प्रयास उत्साहजनक नहीं है. हालांकि देखा जाए तो आज कई नामचीन अखबार उद्योगपति घरानों के हैं. ये अखबार अपने सम्पादकीय और कंटेंट में (निजी हितों को ध्यान में रख) एक पार्टी विशेष के प्रति झुकाव का साफ़ संकेत देते हैं. चुनाव के दिनों में तो कुछ पूछना ही नहीं. पेड न्यूज़ का मामला यहीं से शुरू होता है. पेड न्यूज़ सिर्फ पैसा देकर न्यूज़ छापने को ही नहीं कहते हैं. पेड न्यूज़ की कतार में वो समाचार सामग्री भी शुमार होती हैं जो निजी/ व्यवसायिक हितों को दिमाग में रख कर छापी जाती हैं. देश की तमाम राजनीतिक पार्टियों की विचारधाराओं को अक्सर अलग-अलग- मीडिया संस्थानों में पलते-पोसते देखा जा सकता है. यही नहीं- बल्कि- अब तो उद्योगपतियों के व्यावसायिक हितों की छाप देश के अधिकाँश मीडिया संस्थानों में देखी जा रही है. पर एक बात ध्यान देने की है- कि- अब तक ये सब बंद कमरों में होता था. सरे-आम नहीं. पर ए.बी.बिरला ग्रुप और टी.वी.टुडे के बीच डील, अब इसे सरे-आम बना देगी.

जिस देश में गरीब और ज़मीन से जुड़े आदमी की आवाज़, अनदेखा कर दी जाती है, उस देश में मीडिया की तरफ आम आदमी देखता था. कुछ आवाज़, गाहे-बगाहे सुनी भी जाने लगीं. पर अब क्या होगा? क्या बिरला ग्रुप, अपनी हिस्सेदारी की धौंस से समाचारों/पत्रकारिता की गुणवत्ता को प्रभावित नहीं करेगा? क्या अरुण पुरी, पूरी ज़िम्मेदारी (जैसा की कभी माना जाता था) के साथ पत्रकारिता करेंगे? क्या बड़े पत्रकार (जो थोड़े बहुत बचे हैं), मोटी तनख्वाह का लालच छोड़ कर पत्रकारिता का सच सामने ला पाएंगें. क्या बिरला का "सच", वाकई सच होगा?  मुश्किल है. ये तो शुरूवात है. आगे-आगे देखिये होता है क्या. अरुण पुरी को पत्रकारिता जगत में जो सम्मान हासिल था- वो (पैसों की खातिर) उन्होंने बेच डाला. पत्रकारिता के इतिहास में अरुण पुरी कभी नायक थे, अब खलनायक के तौर पर याद किये जाएंगे. ऐसा खलनायक, जिसने पत्रकारिता को उद्योगपतियों के हाथ, गिरवी रखने की (खुले-आम ) शुरुआत की.  अरुण पुरी को मालूम होना चाहिए कि- पत्रकारिता (आज भी) समाजवाद के नज़दीक है और उद्योग-धंधे पूंजीवाद के करीब. पत्रकारिता (आज भी) हक़ की आवाज़ बनने की (कमज़ोर ही सही) कोशिश करती है, उद्योग-धंधे हक़ को दबाने का हुनर सदियों से पाले हैं. ऐसे में, किस तरह का ताल-मेल, अरुण पुरी ने बैठाने की कोशिश की है- ये आम- आदमी की समझ से परे है (समझने वाले समझ चुके हैं).

आज समाचार जगत में घाटे की तस्वीर अक्सर पेश की जाती है. कंटेंट से समझौता कर, कॉमेडी सर्कस-यू ट्यूब और अजीबो-गरीब कंटेंट (जिनका खालिस पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं) के ज़रिये टी.आर.पी. और सर्कुलेशन बढ़ाया जा रहा है. बावजूद इसके ज़मीन से जुड़े रहने का दबाव इन सब पर बना हुआ था. आम-आदमी की खबर और सच से (थोडा-बहुत ही सही ) सरोकार दिखाना मजबूरी थी. आदिवासियों की ज़मीन-जंगल पर कब्ज़ा ज़माने की उद्योगपतियों की गंदी चालों को बे-नकाब करना (अब तक) पत्रकारिता का (एक छोटा सा ही सही) हिस्सा था. अब? कौन किसका हिस्सा बनेगा? लोकतंत्र के चौथे-स्तम्भ को (घाटा-मुनाफ़ा के तहत चलने वाले)  खुले-आम उद्योग-धंधे की शक्ल में तब्दील करने के सूत्रधार तो आखिरकार वही माने जायेंगे. एक उद्योगपति इस क्षेत्र में घुस कर कितना घाटा सह पायेगा और अपना हक़ मारकर, ज़मीनी हकीक़त को कितना तवज्जों देगा - ये एक आम पत्रकार बखूबी समझ सकता है.  ज़ाहिर है- पत्रकारिता होगी बे-खबर, उद्योगपति बनायेंगे खबर. सावधान.  पत्रकारिता गिरवी रख दी गयी है.

नीरज



बुद्धिजीवियों की राय में ‘निरंकुश’ हैं ममता


Sunday, 20 May 2012 16:07
कोलकाता, 20 मई (एजेंसी) पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी के शासन के एक साल पूरे हो चुके हैं।
पश्चिम बंगाल का बुद्धिजीवी वर्ग कभी ममता बनर्जी का समर्थक था। लेकिन अब जब राज्य में तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष के शासन के एक साल पूरे हो चुके हैं तो बुद्धिजीवियों की राय ममता के बारे में अलग अलग है। 
कुछ को जहां लगता है कि ममता 'निरंकुश' हैं और उन्हें अपनी 'आलोचना बर्दाश्त नहीं होती।' वहीं ज्यादातर की राय है कि तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष को और समय चाहिए।
शिक्षाविद सुनंदा सान्याल, साहित्यकार महाश्वेता देवी, अभिनेता कौशिक सेन, लेखक नाबरूण भट्टाचार्य, बांग्ला कवि संखा घोष ने पिछले कुछ माह के दौरान कई मुद्दों को लेकर मुख्यमंत्री की खूब आलोचना की है।
इस आलोचना का कारण पार्क स्ट्रीट बलात्कार मामले से निपटने का तरीका, सरकारी ग्रंथालयों में चुनिंदा अखबार भेजा जाना, ममता विरोधी कार्टून को लेकर उठा विवाद और दो प्रोफेसरों की गिरफ्तारी जैसे मुद्दे थे।
पिछले माह, ममता का उपहास करने वाले कार्टून को ईमेल से अग्रसारित करने के लिए जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रो अंबिकेश महापात्र की गिरफ्तारी सहित कई मुद्दों के विरोध में बुद्धिजीवियों ने मौन जुलूस निकाला था।
सुनन्दा सान्याल ने प्रेस ट्रस्ट से कहा ''उनके कुछ गुण मुझे निरंकुश जैसे लगते हैं। न तो प्रोफेसरों को गिरफ्तार किया जाना चाहिए और न ही राज्य के ग्रंथालयों में अखबारों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। वह पूर्ववर्ती वाम मोर्चा सरकार के नक्शेकदम पर ही चल रही हैं। निश्चित रूप से यह बदलाव अच्छाई के लिए नहीं है।''
आठवीं कक्षा तक के छात्रों को अपराध करने पर हिरासत में न लेने के मंत्रिमंडल के फैसले को लेकन व्यथित हो कर सुनन्दा सान्याल ने पिछले साल राज्य स्कूल पाठ्यक्रम समिति और उच्च शिक्षा समिति के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था।
मैगसायसाय पुरस्कार से सम्मानित लेखिका महाश्वेता देवी ने रैली निकाले जाने तथा भूख हड़ताल की अनुमति के लिए 'एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन आॅफ डेमोक्रेटिक राइट्स' :एपीडीआर: को पुलिस के इंकार के कारण तृणमूल सरकार को 'फासीवादी' करार दिया है।
तृणमूल कांग्रेस के बागी सांसद, गायक और संगीतकार कबीर सुमन ने कहा ''कभी मैं उनकी अच्छाइयों की तारीफ करते हुए गाने लिखता था। अब मैं और ऐसा नहीं कर सकता। विपक्ष की नेता के तौर पर उनका कद उच्च्ंचा था लेकिन सत्तारूढ़ दल की नेता के तौर पर ऐसा नहीं है।''
ममता के प्रति राय बदलने का कारण बताते हुए सुमन ने कहा ''मामूली सी भी आलोचना से उनके मन में बैर भाव आ जाता है। मैं सोच विचार करने वाला व्यक्ति हूं लेकिन वह अपने आसपास ऐसे लोग चाहती हैं जो केवल उनकी हां में हां मिलाते रहें।''
बहरहाल, प्रख्यात चित्रकार शुवप्रसन्ना ने कहा ''मैं किसी दल से नहीं जुड़ा हूं। लेकिन मैं उनका समर्थन करता हूं क्योंकि उन्होंने राज्य में हर ओर विकास किया है।''
उन्होंने कहा ''सांस्कृतिक और रचनात्मक मोर्चे पर लोग इसलिए उत्साहित हैं क्योंकि उन्होंने हमारे लिए कई कदम उठाए हैं।''