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Monday 22 April 2013

बंगाल की आर्थिक बदहाली के पीछे चिटफंड कंपनियों का भारी योगदान!



बंगाल की आर्थिक बदहाली के पीछे चिटफंड कंपनियों का भारी योगदान!

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​

बंगाल की आर्थिक बदहाली के पीछे चिटफंड कंपनियों का भारी योगदान है। दशकों से यह सिलसिला सत्तावर्ग के खुले संरक्षण से चल रहा है। मंत्री एमएलए  एमपी नगरपालिका प्रधान पंचायत प्रधान नगरनिगम प्रशासन सारे लोग इस गोरखधंधे में शामिल रहे हैं। वे बेनकाब भी होते रहे तो इससे उनके राजनीतिक जीवन  पर कोई असर हुआ हो, ऐसा कोई उदाहरण नहीं है।मीडिया, खेल और मनोरंजन जगत में तो चिटफंड का बोलबाला है ही। प्रोमोटर​​ बिल्डर जो निरंकुश हुए , उसके पीछे भी चिटफंड का बेहिसाब पैसा है। राज्य सरकारों की भूमिका तो कटघरे में है ही, पर गैरबैंकिंग संस्थाओं में निवेश के नियमन में फेल देश के वित्त प्रबंधन को भी इसके लिए कम जिम्मेवार नहीं माना जा सकता। पहली पहली बार जब संचयनी का कारोबार बंद हुआ, उस वक्त वह अव्वल नंबर की चिटफंड कंपनी थी। लेकिन संचयनी के बदले दूसरी और बड़ी कंपनियां आम लोगों की जमा पूंजी बेखटके लूट रही है, भारतीय रिजर्व बैंक और सेबी के दिशा निर्धेशों की धज्जियाँ उड़ाते हुए और तमाम लोग पांचसितारा जीवनशैली में चांदी काट रहे हैं, चप्पे चप्पे में फैले आयकर विभाग के तंत्र को भी यह मालूम नहीं पड़ा। अब श्रद्धा जिसे सारडा और शारदा भी कहा जा रहा है, की बारी है। इंतजार कीजिये दूसरी और बड़े ठग और बारी कंपनी की। रिरफ्तारी और कुर्की से आखिर कुछ नहीं होना, लाखों करोड़ हड़पने के बाद अभियुक्त सीधे खाता बही निकलाकर दिखा देंगे कि उनकी संपत्ति तो बमुश्किल पांच​​ करोड़ ही है।आम लोग इस हकीकत से वाकिफ है और राज्यभर में गुस्सा फट पड़ा है। सुरक्षा बंदोबस्त चाकचौबंद करने से इस बवाल को रोकना असंभव है। बंगाल कभी देश भर में अल्पसंचय के मामले में पहले नंबर पर था। अब हालत यह है कि केन्द्रीय सूत्रों ने बताया कि पश्चिम बंगाल में अल्पबचत योजनाओं में पिछले दो सालों में काफी कमी आई है और इसी के चलते पश्चिम बंगाल की क्रेडिट लिमिट भी 160 करोड़ से कम हो गई है।यदि हालात यही रहे तो कोई भी नेशनल या इंटरनेशनल ऐजेंसी पश्चिम बंगाल को विकास कार्यों के लिए लोन तक नहीं देगी। इसीके साथ साथ ग्रामीण बैंकिंग पर चिटफंड के वर्चस्व के चलते इसका भारी असर हुआ है। कारोबार चलाना ही मुश्किल है।

राज्य बचत 2010 बचत 2011
आंध्रप्रदेश 5747 11267
बिहार 8398 7728
दिल्ली 9591 5566
गुजरात 16412 12701
कर्नाटक 8623 6234
महाराष्ट 20113 14198
पंजाब 9361 7340
राजस्थान 9677 7425
तमिलनाडु 11433 8789
उत्तर प्रदेश 20009 16808
पश्चिम बंगाल 28554 19540
कुल 202482 154945
(नोट : बचत करोड़ रूपए में, आंकड़े जनवरी 2011 व जनवरी 2012 तक)

यह सिलसिला वर्षों से चला आ रहा है। अभियुक्त पूरी राजनीतिक जमात है। केंद्र और राज्य सरकारों को पूरी रपट मिलती रही है। पर आंखें होते हुए जो अंधे बने रहे, उनका क्या इलाज कीजिये। ममता बनर्जी सरकार ने उस विधेयक को पास कराने के लिए कसरत शुरू कर दी है जो 2010 में पामपं​थी सरकार द्वारा तय किया गया था परंतु राष्ट्रपति के यहां मंजूरी के लिए पेंडिंग पड़ा हुआ है। बनर्जी सरकार के आते ही यह विधेयक ठंडे बस्ते में चला गया था।ममता बनर्जी इस विधेयक की मंजूरी के लिए सुदीप्त की तलाश और पीड़ितों की आत्महत्याओं, गुमशुदगी , बढ़ते हुए जनाक्रोश के मध्य फिर राष्ट्रपतिसे अपील की है कि विदेयक को कानून बना दें। पर कानून कोई जादू की छड़ी नहीं है कि फौरन हालाते बदल जायेंगे। कानून सख्त करने के बाद देश भर में बलात्कारकांडों की बाढ़ के बाद नये कानून से क्या उम्मीद की जासकती है। फिर जो प्रभावशाली बड़े लोग, मंत्री सांसद और दूसरे लोग इस पूरे खेल में है एक सुदीप्त और कुछ दूसरे लोगो की बलि लेकर साफ बच निकलते हैं तो कानून बन जाने के बाद फिर वे नया खेल शुरु कर देगें। मसलन अब तो बिना किसी नियमन, देखरेख और फैकल्टी​​ के गली गली गांव गांव रोजगार दिलाने के कारोबार में जो लाखों करोड़ हड़पे जाते हैं, जो कोचिंग गोरखधंधा है, उसकी स्थिति चिटफंड से कम भयावह नहीं है।

माकपा नेता निरुपम सेन ने कहा कि राज्य सरकार बेरोजगारों को रोजगार दिलाने की बड़ी बड़ी बातें कर रही थे। जो सिर्फ घोषणाओं में ही सिमट कर रह गयी है। चिटफंड व्यवसाय के नाम पर लोगों से वसूली गयी करोड़ों रुपयों का घोटाले में राज्य सरकार को जिम्मेदारी लेनी होगी।चिटफंड में हुए करोड़ों रुपये के घोटाले की जिम्मेवार राज्य सरकार है। कंपनी के लोगों ने राज्य सरकार के मंत्री, नेताओं का फोटो छापकर करोड़ों रुपये घोटाले किया है। राज्य सरकार के लोग चिटफंड कंपनियों के कार्य में सक्रिय रुप से भाग लेते आए हैं। अब सरकार को ही लोगों के रुपये वापस दिलाने की व्यवस्था करनी होगी।

पश्चिम बंगाल में सरकार पर लगातार आरोप लग रहे हैं कि वह फर्जी चिटफंड कंपनियों को संरक्षण दे रही है। इसी के चलते अल्पबचत के विकास अधिकारियों की ऐसोसिएशन ने भी सरकार के खिलाफ आवाज उठाते हुए चिटफंड कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है।एसोसिएशन के अध्यक्ष नबकुमार दास ने पिछले २८ जनवरी को कहा कि राज्य सरकार को चाहिए कि वो फर्जी चिटफंड कंपनियों की सूची अखबारों में प्रकाशित कराएं, ताकि लोगों में जागरुकता आए। उन्होंने कहा कि इन चिटफंड कंपनियों के कारण अल्प बचत योजनाएं बुरी तरह से प्रभावित हुईं हैं और लोगों का रुझान अल्प बचत योजनाओं की तरफ नहीं रह गया है।उन्होंने बताया कि एक फाइनेंस ऐजेंसी ने भी अपने सभी जिला स्तर के अधिकारियों को यहां चिटफंड कंपनियों की सूची तैयार करने के निर्देश दिए है।

अल्प बचत परियोजनाओं में बुनियादी फेरबदल हो जाने से आम लोगों को वहा निवेश से कुच मिलता नहीं दिकाता। इसी वजह से अल्पवधि में दस गुणा तक वृद्धि की लालच में फंस जाना उनके लिए आसान है। न राज्य  सरकार और न केंद्र सरकार ने बदलते हालात को मुताबिक अल्प संचय प्रणाली को बदलने और समयोपगी बनाने की कोई पहल की। इसके उलट पूरी राजनीतिक व्यवस्था अल्प संचय की कामत पर चिटफंड को बढ़ावा देने में लग गयी। सत्ता परिवर्तन के बाद भी नीति निर्धारण और वित्त प्रबंधन में कोई बुनियादी अंतर नहीं आया। इसीलिए आम लोगों की दुर्गति की निरंतरता बनी हुई है।राष्ट्रीय अल्प बचत प्रणाली अब उस रूप में नहीं रह गई है जिसमें उसकी स्थापना की गई थी। इसका मकसद था उन लोगों की वित्तीय बचत को आकर्षित करना जो बाजार अर्थव्यवस्था के हाशिए पर थे और उस बचत को केंद्र और राज्य सरकारों को ऋण के रूप में देना। इसमें ग्रामीण बचत का बड़ा हिस्सा पहले भी और अब भी डाक घरों के जरिए नियंत्रित होता है। इसकी पहुंच उन स्थानों और लोगों तक है जहां व्यावसायिक बैंक नहीं पहुंच पाते हैं। लेकिन बैंकों के राष्ट्रीयकरण, शाखाओं के विस्तार, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के उद्भव और सार्वजनिक भविष्य निधि तथा राष्ट्रीय बचत पत्र जैसी कर बचत योजनाओं ने ग्रामीण बचत और डाक घर दोनों की भूमिका को सीमित कर दिया है। इसके अलावा वित्त आयोगों द्वारा लगातार संसाधन संबंधी राज्यों की समस्या निपटाए जाने से अल्प बचत आधारित ऋणों पर उनकी निर्भरता कम हो गई है। कोष के भविष्य को अधिक व्यवहार्य और सार्थक बनाने की राह तलाशने के लिए बनाई गई समिति ने अपनी रिपोर्ट में कई अनुशंसाएं की हैं लेकिन उसने कोष के अस्तित्व की सार्थकता पर कोई सवाल नहीं उठाया है।  रिपोर्ट में अनुशंसा की गई है कि इस कोष के एक हिस्से को आधारभूत संरचना क्षेत्र की संस्थाओं को ऋण के रूप में दिया जाना चाहिए। ये संस्थाएं कोष के लिए ऐसी प्रतिभूतियां जारी कर सकती हैं जो मौजूदा 10 वर्षीय सरकारी प्रतिभूति के द्वितीयक प्रतिफल के इर्दगिर्द हों।



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