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Wednesday, 27 February 2013

Why Is the Homophobic Catholic Church Filled With Closeted Gay Priests?

Why Is the Homophobic Catholic Church Filled With Closeted Gay Priests?

A gay Catholic asks an important question about the institution.
Photo Credit: AFP
 
I approached a director at Channel 4 back in 2000 with a proposal for a documentary on homosexuality and the Roman Catholic church. I had a simple pitch. "I want to show why my church is so anti-gay."
"And why is your church so anti-gay?," came back the obvious question. "Because it is so gay," I replied.
A furrowed brow invited further exposition. I then spelt out the logic. We interviewed clerics and ex-seminarians in the UK, US and Rome and uncovered a huge irony: the very institution that teaches that the homosexual orientation is "intrinsically disordered" attracts gay candidates for the priesthood in numbers way in excess of what one would expect, based on numbers in society at large. One seminary rector based on his own experience told me the number was at least 50%.
Gay Catholics like me will appreciate another irony with the news of Cardinal Keith O'Brien's resignation: that the very man whose trenchant rhetoric on the subjects of gay adoption and marriage has been brought down by accusations of improper same-sex behaviour from no less than four men who crossed his path in the 1980s, either as a seminary rector or as archbishop of Edinburgh. His decision not to participate in the papal conclave is not to be taken as an admission of guilt and he contests the accusations made against him. Nevertheless, it does raise some general questions about a possible relationship between the tone of anti-gay rhetoric and the identities of those who engage in such high-octane language on same sex attraction.
For our programme,  Queer and Catholic, we interviewed two men from the English College in Rome who had fallen in love while training for the priesthood. In seminary they had tried to have open and frank discussions about homosexuality but were told by staff and many fellow students alike that this was not the done thing.
In the TV interview, one of them reported on the fact that it was frequently the very men who were out and about in Rome engaging in casual sexual acquaintances in the Monte Capitolino, a nearby park, who were often the most vehemently homophobic in the seminars on sexual ethics.
Building on this, the lesbian writer on queer theology,  Elizabeth Stuart, in a fascinating deconstruction of "liturgy queens", made the observation that in her experience it was more often than not the very closeted clergy who deployed an almost neurotic obsession with the size and length of the altar cloth and ecclesiastical protocol as "their own way of dealing with their demons". We have to be careful of a simplistic reductio ad absurdum here. Love of aesthetics in liturgy does not automatically prove anything about one's sexual orientation. But I think Stuart had a point.
Of course, "inverted homophobia" as it has come to be known, doesn't only occur inside the Church of Rome. Colorado evangelical preacher Ted Haggard, married and father of five children, spent years assuring that LGBT individuals would be getting their fair share of hellfire and brimstone before his (male) lover spilled the beans. Republican Senator Richard Curtis, an opponent of gay rights legislation, had the misfortune to be caught with a young man on camera inside an erotic video store. Then there was  George Rekers, Baptist minister and leading light of the Family Research Council, who had sloped off on a not-so-secret European holiday with a younger man.
The knee-jerk reaction is to scream "hypocrite", but I take a more measured view. The coming to light of these tales is a positive development. "Methinks the lady doth protest" is a well worn cliche, but from here on in, those who seek to cover their own guilty tracks by the uncharitable nature of their words know that a watching public is getting wiser to some of the unfortunate mind games that have been played out over the decades.
 http://www.alternet.org/belief/why-homophobic-catholic-church-filled-closeted-gay-priests#.US2wwbWOxSY.facebook

रिहाई मंच ने शिंदे से पूछे सात सवाल

रिहाई मंच ने शिंदे से पूछे सात सवाल


कहा  इंडियन मुजाहिद्दीन गृहमंत्रालय का कागजी संगठन 
संघ परिवार को क्लीन चिट देने की यूपीए सरकार की रणनीति की तस्दीक इससे भी हो जाती है कि घटना के ठीक बाद हिंदुत्वादी संगठनों ने हैदराबाद बंद का आह्वान किया तो दूसरी तरफ भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवी को पाकिस्तान से आतंकी संगठनों के धमकी भरे कथित फोन भी आने लगे...

लखनऊ.रिहाई मंच ने हैदराबाद धमाकों में पूछताछ के नाम पर मुस्लिम युवकों की अवैध गिरफतारियों और उपीड़न को यूपीए सरकार की मुस्लिम विरोधी और साम्प्रदायिक हिंदु वोटों के लिये की जा रही राजनीतिक कवायद करार दिया है. मंच ने शिंदे को नया हिंदु हृदय सम्राट कहा है. संगठन के मुताबिक शिंदे का यह कहना कि हैदराबाद में हुये विस्फोट अफजल गुरू और कसाब की फांसी की प्रतिक्रिया थी, संदेह पैदा होता है.
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हैदराबाद धमाकों के बाद मुस्लिम युवकों के उत्पीड़न पर लखनऊ स्थित कार्यालय पर आयोजित बैठक के बाद जारी प्रेस विज्ञप्ति में मंच के महासचिव पूर्व पुलिस महानीरिक्षक एस आर दारापुरी ने कहा कि हैदराबाद धमाकों के ठीक पहले जिस तरह शिंदे हिन्दुत्वादी संगठनों की आतंकवाद में संलिप्तता के अपने बयान से पीछे हटे और भाजपा नेताओं के साथ बैठक की, उससे संदेह होता है कि ये धमाके भाजपा और संघ परिवार को खुश करने के लिये गृह मंत्री और उनके मंत्रालय के अधीन खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों द्वारा करवाया गया.

पूर्व पुलिस महानिरीक्षक ने कहा कि आतंकवाद के आरोपों में घिरे संघ परिवार को क्लीन चिट देने की यूपीए सरकार की इस रणनीति की तस्दीक इससे भी हो जाती है कि घटना के ठीक बाद हिंदुत्वादी संगठनों ने हैदराबाद बंद का आह्वान किया तो दूसरी तरफ भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवी को पाकिस्तान से आतंकी संगठनों के धमकी भरे कथित फोन भी आने लगे ताकि भाजपा और संघ की भूमिका पर शक न किया जाए.

रिहाई मंच के अध्यक्ष एडवोकेट मो शुऐब ने कहा कि इससे साफ हो जाता है कि इंडियन मुजाहिदीन गृह मंत्रालय का ही कागजी संगठन है, जिसका नाम उछाल कर सरकार बार-बार अपने राजनीतिक संकट हल करती है. उन्होंने शक जाहिर किया कि जिस तरह भटकल और आजमगढ़ के कुछ युवकों का नाम उछाला जा रहा है, जिन्हें संगठन मानता है कि खुफिया एजेंसियों के पास ही हैं, को बाटला हाऊस की तरह किसी फर्जी मुठभेड़ में मार कर हैदराबाद विस्फोट की गुथ्थी सुलझा लेने का दावा किया जाए.

रिहाई मंच ने हैदराबाद विस्फोटों की जांच को गृह मंत्रालय और खुफिया एजेंसियों द्वारा भटकाने का आरोप लगाते हुये शिंदे से 7 सवाल पूछे हैं.

1- धमाकों के ठीक बाद दिल्ली स्पेशल सेल द्वारा चार कथित आईएम सदस्यों की कथित इंट्रोगेशन रिपोर्ट मीडिया को क्यों और कैसे लीक कर दी गयी. क्या ऐसा कर के जांच को एक खास दिशा में मोड़ने की कोशिश की गयी?

2- हिंदुत्ववादी संगठनों को जांच के दायरे से क्यों बाहर रखा गया. जबकि हैदराबाद समेत देश के कई हिस्सों में हुये आतंकी विस्फोटों में उसकी भूमिका उजागर हुयी है?

3- क्या ऐसा गृह मंत्री द्वारा भाजपा और संघ परिवार के दबाव में किया जा रहा है? या गृह मंत्री स्वेक्षा से संघ परिवार के कथन- सभी मुसलमान आतंकी नहीं होते लेकिन सभी आतंकी मुसलमान होते हैं- को मानते हुए सिर्फ मुसलमानों को आरोपी बना रहे हैं?

4- कथित आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिदीन को इस घटना में संलिप्त बताने का आधार विस्फोट का मोडस आॅपरेंडी- आईईडी, डेटोनेटर, जिलेटिन की छड़ो का इस्तेमाल बताया जा रहा है. जबकि जिन आतंकी विस्फोटों में हिंदुत्ववादी संगठनों की संलिप्तता उजागर हुयी है उनमें भी इन्हीं विस्फोटक तत्वों का इस्तेमाल हुआ है. ऐसे में जांच एजेंसियों द्वारा केवल मॉडस ऑपरेंडी के तर्क के से सिर्फ कथित मुस्लिम संगठनों को ही इसके लिये जिम्मेदार ठहराने को जांच एजेंसियों के साम्प्रदायिक जेहनियत का नजीर क्यों न माना जाए?

5- मक्का मस्जिद धमाकों में कोर्ट से बरी और राज्य सरकार द्वारा मुआवजा और आतंकवाद में संलिप्त न होने का प्रमाणपत्र पाए मुस्लिम युवकों को जांच एजेंसियों द्वारा क्यों पूछताछ के नाम पर उठाया जा रहा है? क्या केंद्र सरकार इन मुस्लिम युवकों को निर्दोष बताने वाली अदालत के फैसले से सहमती नहीं रखती?

6- अगर सीसीटीवी कैमरे काम नहीं कर रहे थे तब जांच एजेंसियों द्वारा एक दाढ़ी वाले व्यक्ति को साइकिल बम रखने का फुटेज प्राप्त होने का दावा किस आधार पर किया जा रहा है?

7- नवम्बर 21, 2002 को हैदराबाद में हुये कथित आतंकी विस्फोट के नाम पर 22 नवम्बर को उप्पल, हैदराबाद के मो आजम को और 23 नवम्बर को करीमनगर के अब्दुल अजीज नाम के युवक को उनके घरों से उठा कर फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया. वहीं 12 अक्टूबर 2005 को हैदराबाद के एसटीएफ आफिस में हुये कथित हमले के आरोप में यजदानी नामक हैदराबादी युवक को 2006 में दिल्ली में फर्जी मुठभेड़ में पुलिस ने हत्या कर दी. सरकार इन फर्जी मुठभेड़ों पर अपनी स्थिति स्पष्ट करे?

एक मामूली ‘गालिब’ की कहानी, जो असदउल्‍ला खां नहीं है

♦ सोपोर से लौटकर विश्‍वदीपक
क वो गालिब था. एक ये गालिब है…कितना फर्क है. वक्त खामोशी से हमें अपने इशारे पर नचाता जाता है और हमें पता भी नहीं चलता. 2006 में मासूम सा दिखने वाला बच्चा अब किशोकपन की राह से गुजर कर जवानी की दहलीज पर खड़ा है. जिन आंखों में पहले एक मासूमियत थी वहां अब एक खिंची हुई उत्सुकता है. हां, चेहरे पर विस्मय का भाव अब भी वही है जो उस वक्त था जब वो अपनी मां और दादी के साथ राष्ट्रपति भवन गया था, बाप के जीवनदान के लिए दया याचिका दाखिल करने. चश्मा लगाने वाली वो दादी, जो उस दिन स्लेटी रंग के चितकबरे कपड़े में थी, कुछ महीने पहले ही गुजर चुकी हैं. और बाप भी भारत की “सामूहिक चेतना” की बलि चढ़ चुका है. एक तरह से अब वो यतीम हो गया है. नाम है गालिब. उम्र होगी यही कोई 13-14 साल. उसकी पहचान कुछ और भी हो सकती थी लेकिन फिलहाल वो संसद हमले में गुनहगार करार दिए गए और तदनुरूप फांसी पर चढ़ाए गए अफजल गुरु का बेटा है. भारत के नजरिए से कहें तो एक “देशद्रही” का बेटा.
उम्र इतनी छोटी है कि उसे शायद ही न्याय, अन्याय और मानवाधिकार जैसे जुमलों का फर्क पता होगा. पर उसे इतना अहसास हो चुका है कि उसका बाप कुछ “खास” था. श्रीनगर से करीब 120 किलोमीटर दूर उसके गांव, सीर जागीर में मैं उससे मिलने गया था. सोपोर जिले में पड़ने वाला सीर जागीर खूबसूरत वादियों और भारतीय सेना के जवानों से घिरा है. इस गांव में घुसते ही एक आक्रामक बेचैनी, असुरक्षा, डर और अनिश्चिंतता के मिले जुले भाव का अहसास होता है.
घर के ऊपरी तल्ले पर बने बैठकखाने में मैं जब उसका इंतजार कर रहा था तो मुझे अल्लामा इकबाल की एक लाइन याद आ रही थी. यह लाइन गांव के मुहाने पर बनाए गए आर्मी चेक पोस्ट की दीवारों पर बड़े-बड़े अक्षरों में हरे रंग से पोती गई है. “हम बुलबुले हैं इसकी, ये गुलिस्तां हमारा”.
बहरहाल, मेरा इंतजार खत्म हुआ और वो आया. वो वैसे ही आया जैसे कोई दूसरा लड़का आता है. मैंने कहा, “हेलो”और हाथ आगे बढ़ाया. हाथ मिलाते वक्त मुझे अहसास हो गया कि उसकी उंगलियां लंबी है. शरीर रचना विज्ञान कहता है कि जिसकी उगलियां लंबी होती है, वो कलाकार बनता है. तो क्या वो आगे चलकर गालिब जैसा ही बनता? कम से कम अफजल चाहता तो यही था. जाहिर है, उसने बच्चे का नाम भी बहुत सोच समझकर रखा था.
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गालिब से मैंने पूछा, “शौक क्या हैं आपके?” उसने कहा, किताबें पढ़ना. मैंने कहा, “कुछ लिखते भी हैं”. उसने छोटा सा जवाब दिया, “नहीं.” मैंने पूछा, “एक गालिब और थे. उनके बारे में जानते हैं आप? उसने कहा, “हां वो शायर थे. और दिल्ली में रहते थे.” जव वो ये सब बातें कर रहा था तो अच्छी तरह से जानता था कि मैं उसके बहाने उसके पिता तक पहुंचना चाहता हूं. लोगों को अफजल नाम के आंतकवादी के इस पहलू के बारे में शायद ही पता होगा कि वो बेहद पढ़ाकू था. किताबों में उसकी जबरदस्त दिलचस्पी थी. 13 वीं शताब्दी के फारसी कवि रूमी उसकी पहली पसंद थे. रूमी को प्रेम का कवि भी कहा जाता है. तिहाड़ जेल में ही उसने सैमुअल हैंटिंगटन की मशहूर किताब “सभ्यता का संघर्ष (क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन)” पढ़ी थी. अफजल के चचेरे भाई यसीन/यासीन बताते हैं, “ अफजल पढ़ने लिखने में काफी होशियार था. दूसरों से अलग सोचता था. जब हम जेल में उससे मिलने जाते थे वो हमें किताबों की लिस्ट दिया करता था. हमेशा कहता था कि तुम्हे ये किताबें पढ़नी चाहिए.”
8वीं में पढ़ने वाले गालिब से जब मैंने उसके स्कूल और माध्यम के बारे में जानना चाहा तो उसने थोड़ा जोर देकर कहा,“स्कूल का नाम वेलकिन मेमोरियल ट्रस्ट है. मीडियम इंग्लिश है.” अफजल इस बात से वाकिफ था का भविष्य ऊर्दू में नहीं अंग्रेजी में है. अफजल खुद अच्छी अंग्रेजी जानता था. विचार और दर्शन की दुनिया में क्या चल रहा है, उसे पता था. लोग कहते हैं कि वो सैमुअल हैटिंगटन के “सभ्यता का संघर्ष” सिद्धांत में यकीन भी रखता था.
गालिब का यकीन किस बात पर है ये पूछने की हिम्मत नहीं हुई. मैं जानना चाहता था क्या वो अपने बाप के “आजादी” के रास्ते पर यकीन करता है. पर सवाल कुछ इस शक्ल में सामने आया, “आगे चलकर क्या बनना चाहते हैं”? उसने कहा, “डॉक्टर”. गालिब के जवाब से जाहिर है उसने जानबूझकर बाप का पेशा चुना है. अफजल ने भी डॉक्टरी की पढ़ाई की थी. उसने कुछ इस अंदाज में जवाब दिया देखना जो मेरा बाप नहीं कर सका वो मैं करके दिखाऊंगा! थोड़ी देर की गपशप के बाद वो वापस नीचे लगा गया. अब मैं खिड़की के बाहर देख रहा था. अफजल का गालिब किस रास्ते पर जाएगा—आजादी या मरीजों की सेवा, इसका लेखा जोखा भविष्य के कोख में दर्ज है. घर की सीढ़ियां उतरते वक्त एक बार नजरें फिर उससे टकराईं. देखा उसके बाल सधे हुए हैं. चेहरे पर चिकनाई भी है. शायद मां, तबस्सुम की सोच रही होगी कि बाहरवालों (प्रेस वालों से) मिलते वक्त ढंग का दिखना चाहिए. मैंने देखा दूर खड़ी पहाड़ की बर्फीली चोटी सुनहरी हो चली थी. शाम गहरा रही थी. मैंने देखा एक ‘गालिब’ कैसे मरता है!
Vishwadeepak copy(विश्‍वदीपक। तीक्ष्‍ण युवा पत्रकार। आजतक और डॉयचे वेले से जुड़े रहे हैं। रीवा के रहने वाले विश्‍वदीपक ने पत्रकारिता की औपचारिक पढ़ाई आईआईएमसी से की। विश्‍व हिंदू परिषद के डॉन गिरिराज किशोर से लिया गया उनका इंटरव्‍यू बेहद चर्चा में रहा। उनसे vishwa_dpk@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

Tuesday, 26 February 2013

Release Aparna Marandi!

Release Aparna Marandi!









पेंशन बिल यानी कामगारों की तबाही

पेंशन बिल यानी कामगारों की तबाही

पीयूष पंत

पेंशन बिल

ऐसा लगता है कि मनमोहन सिंह सरकार या तो दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ना नहीं चाहती या फिर उसने सचाई से जान-बूझ कर अपनी आंखें मूंद रखी हैं. हम यह भी कह सकते हैं कि उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को लूटने पर आमादा बहुराष्ट्रीय निगमों के एजेंट के रूप में अपनी भूमिका को सीमित कर लिया है. ऐसा नहीं होता तो फिर आखिर क्यों भारत सरकार लगातार भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाज़े इतने निर्मम तरीके से विदेशी पूंजी के लिए खोलती चली जाती जबकि यह साबित हो चुका है कि आवारा पूंजी ने किस तरह अमरीका और यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं को तबाह कर दिया है.

नीतिगत गतिरोध के खिलाफ अपनी बढ़ती आलोचना से खुद को बचाने के लिए और यह साबित करने के लिए कि इसने आर्थिक सुधारों की राह अब तक नहीं छोड़ी है, मनमोहन सिंह सरकार अब इन सुधारों को आगे ले जाने की राह पर बढ़ रही है. यह जानते हुए भी कि गिरती आर्थिक वृद्धि और बढ़ते वित्तीय घाटे को पाटने का ये सुधार कोई रामबाण नहीं हैं.

यह बात सर्वविदित है कि ऐसे ही सुधारों ने पिछली सदी में पहले लातिन अमरीका और बाद में पूर्वी एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था में कैसी तबाही मचाई थी. कहना न होगा कि नब्बे के दशक में कैसे कई लातिन अमरीकी देशों ने चिली की नकल करते हुए अपने यहां की पेंशन प्रणाली में सुधार लागू किए थे, जिससे वहां पूर्ण या आंशिक तौर पर अनुदानित अनिवार्य निजी पेंशन खातों की प्रणाली आ गई थी.

यह बात अलग है कि वहां पेंशन का निजीकरण इसके समर्थकों और प्रणेताओं के वादों और दावों पर खरा नहीं उतरा है. माना गया था कि इससे इसमें शामिल होने वाले मजदूरों का दायरा और उन्हें मिलने वाले लाभों में इजाफा होगा और कुछ पीढ़ियों की बचत के बाद बाज़ार को प्रोत्साहन मिल सकेगा. यह दोनों ही मोर्चों पर विफल रहा. यहां तक कि 90 के दशक में निजीकरण की राह चुनने के हामी देशों के वैचारिक और वित्तीय समर्थक विश्व बैंक ने भी अपनी समझ में संशोधन करते हुए इस नाकाम विकल्प को तिलांजलि देने का संकेत दे डाला.

कामगारों की बचत और पेंशन को वित्तीय बाज़ारों के हाथ में देने के बजाय मनमोहन सिंह सरकार को यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि जिन देशों ने अपने यहां आर्थिक सुधार लागू किए थे, वे नए सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य में इन सुधारों को सुधारने के काम में लग गए हैं.

अकसर पेंशन सुधार के मामले में इसके प्रणेता चिली को कामयाब मॉडल के रूप में उद्धृत करते हैं जबकि चिली ने भी हाल में 65 साल से नीचे के निम्न आय वर्ग के नागरिकों के लिए एक प्राथमिक पेंशन की व्यवस्था कर दी हैं जो कि निजीकृत तंत्र में कभी रिटायर नहीं होते. यह नाकामी इकट्ठा किए गए अपर्याप्त फंड के कारण थी या फिर सिर्फ इसलिए कि लोगों को पेंशन कोष में योगदान नहीं दिया था क्योंकि कई लोगों को अनौपचारिक अर्थतंत्र में कम आय पर जीने की मजबूरी थी.

इसी तरह अर्जेंटीना में राष्ट्रपति क्रिस्टीना किर्शनर ने 30 अरब डॉलर के निजी पेंशन फंड को राष्ट्रीयकृत करने की सरकार की मंशा का एलान किया है ताकि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संकट के कारण गिरती शेयरों और बॉन्ड की कीमतों से अवकाश प्राप्त नागरिकों पर कोई प्रभाव न पड़ने पाए.

वास्तव में लातिन अमरीका का अनुभव यह रहा है कि उसने राज्य संचालित एक प्रणाली के ऊपर निजी निवेश के ‘लाभों’ को तरजीह दी और इस तरह जो नई सामाजिक सुरक्षा प्रणाली बनी, वह पूरी तरह विफल हो गई.

अंतरराष्ट्रीय संगठन सोशल वॉच कहता है, ‘‘कामगारों को प्रतिष्ठाजनक पेंशन की गारंटी देना तो दूर, निजीकरण ने एक ऐसी व्यवस्था बना दी है जिसमें बचतकर्ता का अपनी बचत पर कोई नियंत्रण नहीं होता या फिर बहुत कम रहता है. इस तरह नई सचाई यह है कि आर्थिक सुधारों को लागू करने के वक्त किये गये ज्यादा कामगारों के शामिल होने और ज्यादा पारदर्शिता व अवकाश प्राप्ति के बाद होने वाली ज्यादा आय के दावे नाकाम हो चुके हैं.’’

बोलीविया का उदाहरण लें. सोशल वॉच द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट कहती है- ‘‘बोलीविया में पेंशन सुधार को एक सामाजिक अनिवार्यता के तौर पर पेश किया गया था. कई दशक से चली आ रही पारंपरिक पेंशन प्रणाली की निष्क्रियता के कारण इसे सही ठहराने की एक दलील भी मौजूद थी- हालांकि इसकी मंशा निजी निवेश को मुनाफा पहुंचाने का एक स्रोत निमित करना था.’’

आर्थिक सुधारों के प्रमुख प्रणेताओं में एक पेना रूयदा (1996) के मुताबिक ‘‘पे ऐज़ यू गो’’ (पेजी) नामक सामाजिक सुरक्षा प्रणाली को हटाने के लिए उसकी दिवालिया हालत को दर्शाते कुछ आंकड़े दिए गए, जो निम्न थेः

• सक्रिय कामगारों और पेंशनधारकों का अनुपात 3:1 का है जो कि इस प्रणाली को बनाए रखने के लिए अपर्याप्त है और आदर्श अनुपात से कहीं कम है (10ः1).
• प्रणाली की कवरेज बेहद सीमित थी जिसमें आर्थिक रूप से सक्रिय 26 करोड़ की आबादी के बीच सिर्फ 314,47 नागरिक योगदान दे रहे थे.
• यह प्रणाली मुद्रास्फीति के प्रति अरक्षित थी और इस पर रोजगार व पलायन में होने वाले उतार-चढ़ावों का भी असर पड़ता था.
इसीलिए एक नई प्रणाली लागू की गई, जो राज्य को पुरानी दिवालिया व्यवस्था के वित्तीय बोझ को कम करने और अंततः खत्म करने में समर्थ बनाएगी और सक्रिय वित्तीय जीवन से सेवानिवृत्ति के बाद नागरिकों को एक प्रतिष्ठित जीवन जीने के लिए पर्याप्त लाभ मुहैया कराएगी. 

इस नई प्रणाली में जो लक्षण मौजूद रहने की मंशा जाहिर की गई थी, वे थे- व्यापक पहुंच जिसमें पहले से बाहर रही आबादी और तबके भी आ जाएंगे खासकर वे कामगार जो अवैतनिक हों; स्ववित्तपोषण की क्षमता; निवेश के प्रबंधन में पारदर्शिता; शेयर बाजार को मजबूत बनाने की क्षमता; आर्थिक संकट में के दौर में इसकी निरंतरता का बने रहना; पेंशन के मूल्य को टिकाए रखने के लिए एक प्रणाली निर्मित करने की क्षमता; रिटारमेंट की उम्र के बाद बोलिविया के लोगों की आय को बढ़ाने की क्षमता.

बोलीविया में पेंशन सुधार लागू होने के पांच साल से ज्यादा समय के बाद पाया गया कि यदि दोनों सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की तुलना आर्थिक रूप से सक्रिय आबादी के अनुपात में उनके तुलनात्मक आकार को संज्ञान में लेते हुए की जाए, तो सुधार लागू होने के बाद से परिस्थिति में बहुत फर्क नहीं आया है. 

वहां के राष्ट्रीय रोजगार सर्वेक्षण 1996 के मुताबिक आर्थिक रूप से सक्रिय लोगों की आबादी 2001 की जनगणना और 2002 के अनुमान के मुकाबले कहीं ज्यादा थी. इससे भी बुरी बात यह है कि अगर हम सुधारों के लिए जिम्मेदार सरकारी अफसरों के आंकड़े को देखें (1996 में 26 लाख आर्थिक रूप से सक्रिय आबादी) तो पाते हैं कि पिछली प्रणाली की कवरेज नई प्रणाली से ज्यादा रही, जिसमें फंड में योगदान देने वाले कामगार पूरी आबादी का 12 फीसदी थे. इस सुधार को तैयार करने वालों और लागू करने वालों के लिए ज्यादा चिंता की बात यह रही कि कामगारों की संबद्धता से जुड़े अलग-अलग आंकड़े यह भी नहीं दिखा पाते कि नई प्रणाली अवैतनिक कामगारों या स्वतंत्र कामगारों की श्रेणी तक अपनी पहुंच बना पाई, जैसा कि शुरू में दावा किया गया था. पेंशन फंड एडमिनिस्ट्रेटर्स की सूचना के मुताबिक जून 2003 तक पेंशन कोष से संबद्ध स्वतंत्र कामगारों की संख्या कुल संबद्ध लोगों की सिर्फ 4.3 फीसदी थी.

याद रखा जाना चाहिए कि बोलीविया में सामाजिक सुरक्षा सुधारों के प्रवर्तकों ने प्रतिष्ठित पेंशन का वादा किया था, जो पिछली पेजी प्रणाली के मुकाबले बेहतर सामाजिक नतीजे देने में सक्षम होगी. सुधार लागू करने वालों ने इसी दलील को जनता के सामने प्रमुखता से रखा था. हालांकि नतीजों का आकलन दिखाता है कि हालात बिगड़े हैं और इस पूर्वस्थापना को दोबारा पुष्ट करता है कि इस सुधार के असली उद्देश्यों का कामगार आबादी की बेहतर जीवन स्थितियां निर्मित करने से मामूली संबंध भी नहीं था.

अव्वल तो पेंशन व्यवस्था में बदलाव करने से लाभार्थियों की संख्या नहीं सुधरी है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि नई प्रणाली ने सामाजिक सुरक्षा लाभों से, बाहर पड़े सामाजिक समूहों को समाविष्ट करने का काम किया है. दूसरे, बढ़ी हुइ आय का दावा भी विफल साबित हुआ है. 

नई योजना को इस तरीके से बनाया गया था कि पेंशन का सीधा संबंध लंबी अवधि तक सेवा में रहने से हो गया और इसके अलावा वह सभी कामगारों के लिए एक प्रतिष्ठाजनक पेंशन की भी गारंटी नहीं दे पायी. पेंशन कानून में एक विशिष्ट श्रेणी का प्रावधान है- न्यूनतम अहर्ता. यह 65 साल के हो चुके उस कामगार पर लागू होता है, जिसने पेंशन में पर्याप्त योगदान नहीं दिया हो. यह राशि न्यूनतम राष्ट्रीय वेतन का 70 फीसदी होती है. उसे तब तक इस दर के बराबर सालाना पेंशन या आय मिलती रहेगी ‘‘जब तक कि संचित कोष पूरी तरह से समाप्त नहीं हो जाता’’ और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह पेंशन रिटारमेंट के बाद बाकी पूरी जिंदगी को कवर करती है या नहीं. 

संक्षेप में कहें तो कुछ ऐसे कामगार होंगे जिन्हें सेवानिवृत्ति के बाद अनिवार्यतः पूरी जिंदगी पेंशन नहीं मिलेगी और जो मिलेगी भी वह बहुत कम राशि होगी क्योंकि मौजूदा न्यूनतम वेतन सिर्फ 58 डॉलर महीने की है. 

बोलीविया का उदाहरण साफ करता है कि दोनों सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों को निर्देशित करने वाले परिप्रेक्ष्य अलहदा हैं. पिछली पेजी प्रणाली किसी कामगार के सक्रिय आर्थिक जीवन के बाद पूरी जिंदगी उसे मिलने वाली सामाजिक सुरक्षा को राज्य की ऐसी बाध्यता बनाता था जिससे राज्य बच नहीं सकता था, जबकि नयी प्रणाली राज्य को इस बाध्यता से मुक्त करती है और आर्थिक रूप से निष्क्रिय आबादी की सामाजिक सुरक्षा को बाजार की ‘‘सुघड़ता’’ पर छोड़ देती है. 

अब असली सवाल यह उठता है कि आखिर भारत सरकार पेंशन क्षेत्र को निजी हाथों में सौंप देने को इतनी बेताब क्यों है? याद कीजिए कि वित्त मंत्री के तौर पर जब प्रणब मुखर्जी वॉशिंगटन गए थे तो उन्होंने अमरीकी राजकोष सचिव को आश्वस्त किया था कि भारत सरकार पेंशन के निजीकरण, बैंकिंग क्षेत्र सुधार और बीमा क्षेत्र में ज्यादा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लागू करने में जल्दी करेगी. यह बात अलग है कि सरकार लगातार यह बहाना बनाती रहती है कि भारत के राजकोष में इतना पैसा नहीं है कि वह विस्तृत होते पेंशन क्षेत्र को अनुदानित करता रह सके.
यह बात सही है कि सन् 2000 की वृद्धावस्था सामाजिक और आय सुरक्षा (ओएसिस) रिपोर्ट के मुताबिक सरकार कहती है कि भारत में बुजुर्गों की संख्या कुल आबादी के मुकाबले तेजी से बढ़ रही है (1.8 फीसदी के मुकाले 3.8 फीसदी सालाना), लिहाजा 2030 तक साठ पार के लोगों की संख्या मौजूदा आठ करोड़ से बढ़कर 20 करोड़ हो जाएगी. इससे हर परिवार में निर्भर लोगों की संख्या भी बढ़ जाएगी.

मौजूदा पेंशन प्रणाली में इस बदलाव से निपटने का कोई प्रावधान नहीं है. इसके बावजूद असली उद्देश्य तो पेंशन क्षेत्र का निजीकरण करना ही है. पेंशन कोष नियमन और विकास प्राधिकार(पीएफआरडीए) विधेयक के माध्यम से पूंजीपति दरअसल भारत की विशाल कामगार आबादी के बचाए हुए पैसे का इस्तेमाल करना चाहते हैं, जो कि अब तक राज्य के नियंत्रण में था.

कहा जा रहा है कि मौजूदा विधेयक पेंशन फंड की कवरेज को बढ़ाने और एकाधिकारी पूंजीवादी उद्यमों के लिए वित्तपोषण के स्रोत में उसे बदलने के लिए है. यह बिल पूंजीपतियों को पैसे का एक सस्ता स्रोत मुहैया कराने के लिए है और यह काम रिटायर हो जाने के बाद कामगार तबके का सुनिश्चित की गई रकम और उसकी सुरक्षा की कीमत पर किया जा रहा है.

इस नई प्रणाली की सराहना में कहा जा रहा है कि इससे करोड़ों लोग इसके दायरे में आ जाएंगे जो फिलहाल पेंशन योजना का हिस्सा नहीं हैं, लेकिन असली मंशा तो पूंजीवादी नियोक्ताओं को कर्मचारियों के फंड में आर्थिक योगदान देने की बाध्यता से उन्हें मुक्त करना है. यह नियमित और अनुबंध पर रखे गए दोनों तरह के कर्मचारियों पर लागू होगा. इसका मतलब यह हुआ कि नई योजना के तहत कर्मचारी को जो कुछ सेवानिवृत्ति के बाद मिलेगा, वह सब उसका अपना योगदान होगा. किसी अन्य स्रोत से, राज्य या केंद्र सरकार से भी कोई योगदान नहीं किया जाएगा.

निश्चित है कि शुरुआत से ही नई योजना का बरबाद होना लिखा है क्योंकि ऐसे में कर्मचारी अपनी बचत को लंबी अवधि वाले फिक्स डिपॉजिट या सोना या किसी अन्य माध्यम में निवेशित कर देगा, बजाय किसी ऐसी योजना में डालने के जिसका वित्तपोषण भी उसी के जिम्मे हो और जो उसकी कुल बचत को शेयर बाजार में जुए के हवाले छोड़ देती हो.

यदि हम प्रस्तावित बिल के प्रावधानों पर एक निगाह डालें तो पेंशन विधेयक का कर्मचारी विरोधी चेहरा बिल्कुल साफ हो जाता है. विधेयक के अहम बिंदु इस प्रकार हैं-

1. किसी कर्मचारी की पेंशन उसके द्वारा सक्रिय आर्थिक जीवन में किए गए वित्तीय योगदान और सेवानिवृत्ति के वक्त कुल योगदान के मूल्य पर निर्भर करेगी जो कि शेयर बाजार के उतार-चढ़ावों के अधीन होगा. दूसरे शब्दों में, कर्मचारी की बचत सुरक्षित नहीं होगी और रिटायरमेंट के वक्त मिलने वाली राशि का कोई निश्चित अनुपात या पहले से तय मात्रा नहीं होगी.

2. सरकार अब कर्मचारियों की बचत की सुरक्षा का काम नहीं करेगी. इसके बजाय यह काम वह वित्तीय पूंजी से संचालित विभन्न संस्थानों को सौंप देगी जिनमें सरकारी, निजी, भारतीय और विदेशी सब होंगे.

3. कर्मचारी के फंड में योगदान का एक हिस्सा शेयर बाजार में लगाया जाएगा और हर कर्मचारी को उसकी बचत के आवंटन के घटकों को चुनने की छूट होगी कि उसकी बचत को वह सरकारी निधि, निजी कंपनियों के शेयरों या अन्य वित्तीय औज़ारों में किसमें निवेश किया जाए.

इस तरह नई पेंशन योजना को चुनने वाले कर्मचारी को सेवानिवृत्ति के बाद निम्न जोखिमों का सामना करना पड़ेगा-
1. योजना के मुताबिक कर्मचारी को अपना निवेश पोर्टफोलियो (यानी पैसा कहां लगाया जाए) चुनने की छूट होगी. चूंकि सरकारी कर्मचारी आम तौर से वित्त और निवेश संबंधी मामलों को लेकर उतने जागरूक नहीं होते, इसलिए गलत निर्णय लेने का खतरा बना रहेगा जिसका नतीजा यह हो सकता है कि उसकी लगाई रकम रिटायरमेंट के वक्त पेंशन के तौर पर उसे ना मिल पाए.

2. यदि शेयर बाजार में भारी गिरावट आई, तो वह एन्युटी खरीदने के लायक नहीं रह जाएगा और अपना पहले से लगाया गया सारा पैसा वह गंवा देगा.

3. चूंकि एन्युटी (बीमा संबंधी सौदा) की लागत तय नहीं की जा सकती, इसलिए उसका वास्तविक मूल्य कम हो सकता है जो कि मुद्रास्फीति में होने वाले बदलावों पर निर्भर करेगा.

4. एक कर्मचारी को निवेश प्रबंधकों के शुल्क का भुगतान भी मजबूरन करना पड़ेगा, जिनकी प्राथमिकता हमेशा शेयर बाजार में पेंशन फंड के लगे पैसे से मुनाफा बनाने की रहती है.

इन प्रावधानों से पर्याप्त स्पष्ट है कि सभी कामगारों तक पेंशन योजना का दायरा बढ़ाने के नाम पर सरकार किसी तरह कर्मचारियों के पेंशन के अधिकार को पूंजीपतियों के फायदे के लिए खत्म करने की कवायद कर रही है. पेंशन का अधिकार कोई स्वयं सिद्ध अधिकार नहीं बल्कि इसे सुप्रीम कोर्ट समेत कई और फैसलों के माध्यम से वैधता प्राप्त है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था, ‘‘पेंशन किसी की सदिच्छा या सरकार की मर्जी से दी जाने वाली बख्शीश नहीं है... पेंशन एक सरकारी कर्मचारी का अमूल्य अधिकार है.’’ चौंथे वेतन आयोग की रिपोर्ट भी साफ तौर पर कहती है, ‘‘..पेंशन कोई धर्मार्थ राशि नहीं है या मुआवजा नहीं है, या फिर विशुद्ध सामाजिक कल्याण का कोई उपाय नहीं है, बल्कि यह कायदे से एक ‘अधिकार’ है जिसे लागू करने के लिए कानून मौजूद हैं.’’

22.02.2013, 13.50 (GMT+05:30) पर प्रकाशित

Hanging of Conscience: Case of Afzal Guru

Hanging of Conscience: Case of Afzal Guru

Ram Puniyani

The semi secretive hanging of Afzal Guru (Feb 2013) has come as a shock to some and as a feeling of triumphalism for many. Afzal Guru was hanged in early hours of morning and was buried in the prison yard. His mercy petition, which was pending with the President for long was finally rejected and even before the family of Afzal Guru could get a chance to appeal against the turning down of plea for clemency, Guru was hanged. While the ethical questions pertaining to death penalty are heavy on the conscience of many in the society, this is not regarded as the part of ‘collective conscience’ which has guided the judgment of Supreme Court and later the President turning down his petition for clemency. The section of society which thought that Guru’s sentence itself needs to be questioned also does not seem to form the’ conscience’ of the nation!
 Kashmir valley was totally insulated from the news and TV channels gagged. The restive mood of the people led to the death of some. In the absence of the proper information, rumours are doing rounds and what disastrous consequences it can have needs a serious thought from the rulers in the corridors of power.
 Many a questions have been raised due to this hanging. Why hanging and why at this time?  Guru was one of the accused in the case of assault on the Parliament on 13 December 2001, in which, eight security personnel and one gardener were killed. Guru was not found to be part of any terrorist outfit, nor did he play any direct role in this attack. Supreme Court noted that there is no direct evidence of Guru’s involvement. The evidence was mainly circumstantial. All three courts including Supreme Court had acquitted him of the charges under POTA of belonging to either a terrorist organization or a terrorist gang. Court also noted that the evidence was fabricated.
At worst Guru was facilitator in the crime and not a part of directly perpetrating the crime, and the evidence against him was mere circumstantial and that the police lied about the time and place of arrest, fabricated evidence including arrest memos and extracted false confessions. Court noted that Guru was not a member of any banned organization, Court ruled "The conviction under section 3 (2) of POTA is set aside. The conviction under section 3 (5) of POTA is also set aside because there is no evidence that he is a member of a terrorist organization, once the confessional statement is excluded. Incidentally, we may mention that even going by confessional statement, it is doubtful whether the membership of a terrorist gang or organization is established." Further that since "The incident, which resulted in heavy casualties, had shaken the entire nation and the collective conscience of the society will only be satisfied if capital punishment is awarded to the offender." So does it mean that the punishment is being given to assuage the collective national conscience? One must add what is presented as this conscience is the consciousness of the section of dominant sections of society, the assertive social-political groups in particular. The conscience manufactured by the likes of VHP, Bajrang Dal and company, have come to be labelled and accepted as national ‘collective conscience’ by many, It is these groups who are who are celebrating the death of Guru, exhibiting their triumphalism.
In their petition to the President of India, many social activists and academics point out “The fact that the Court appointed as amicus curiae (friend of the court) a lawyer in whom Afzal had expressed no faith; the fact that he went legally unrepresented from the time of his arrest till his so-called confession, the fact that the court asked him to either accept the lawyer appointed by the Court or cross examine the witness himself should surely have concerned you while considering his mercy petition.”
His personal history of being a surrendered militant, victim of harassment and torture at the hands of STF, as well as his statement in open court that he had indeed helped Mohammad, one of the attackers on the Parliament, find a house and obtain a car, the same car used in the attack, but at the orders of his STF handlers, should have spurred a full-scale investigation into the allegations. The citizens of this country do not know if one was ordered at all.”

 The base on which Supreme Court gave the judgment was built by the police with methods which are questionable, which have also been reprimanded by the court in this case. The argument on the other side was that if Guru is not hanged it will be an insult to those who have laid their lives for defending the parliament

While Supreme Court deserves all the respect, one has to see that the primary investigation done by the police, with all its flaws formed the base of the judgment. When that investigation itself had holes in it, should it be accepted as it is presented? When the primary culprits are either dead are some of them absconding, can 'the whole truth be out'? Or is it that somebody has anyway to be punished to quench the thirst for revenge, and who better than the one who has a Muslim name and happens to be from Kashmir. The whole trial of Afzal needed to be relooked; the flaws of the investigation, the weakness of and deliberate violation of norms by police authorities in particular.

The question which comes is why the other assassins, the one’s of Rajiv Gandhi and the Punjab Chief Minister Beant Singh are being given a different treatment? The assemblies of Punjab and Tamil Nadu have passed resolutions against death penalties for these people, who were directly involved with the acts of assassination. The whole issue boils down to as to how Indian state has treated the Kashmir issue and how terrorism and Muslims have been associated in the popular thinking. This thinking has been deliberately promoted by the communal forces in the country. A section of media has played a very negative role in promoting the divisive thinking in the society. Section of media has acted as spokespersons for the police versions of investigation. So the ‘collective conscience’ is the common sense asserted by communal forces and imbibed by the others. It does reflect the state of our democracy overall. Can we call ourselves as a democracy and indulge in minority bashing; being high handed in matters of justice and citizenship rights in cases of the vulnerable minorities.

Kashmir had been limping towards better situation during last few years. While alienation amongst large section of Kashmiris remains deep set, there have been indications that people may reconcile to new situation, if democratization process in Kashmir is strengthened by and by. This hanging of Afzal Guru reminds one of the hanging of Maqbul Butt in 1984, which set the trail for a phase of enhanced militancy. One hopes that such an adverse thing should not happen this time. But still we need to take the issue of protest in Kashmir in a more balanced way. Congress should not join the game of aggressive jingoism launched by BJP and its affiliates. Such cases of yielding to the religious nationalism, promoted by BJP and company will surely be a recipe for disaster for the process of normalization and democratization in Kashmir. The communal mind set should not be allowed to rule the roost.  
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Issues in Secular Politics
IV February 2013
response only to ram.puniyani@gmail.com

जमीन अधिग्रहण खत्म हो

जमीन अधिग्रहण खत्म हो

मेधा पाटकर

जमीन अधिग्रहण

देश भर में चल रहे आंदोलनों में सबसे ज्यादा जनशक्ति अगर किसी मुद्दे पर उभरी है, तो वह हैं ‘प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार’ का मुद्दा. भले वह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के जैसे रास्ते पर उतरी हुई, शहरों में न दिखाई देती हो, मीडिया में छाई हुई नहीं दिखती हो, लेकिन वर्षों और दशकों तक बनी रही है बल्कि बढ़ती गई है. प्राकृतिक संसाधनों में जमीन भी शामिल होते हुए, ग्रामीण भूमि, खेती संबंधित संघर्षों के अलावा, शहर की भूमि और आवास भूमि के लिए चल रही लड़ाई भी इसमें शरीक समझना चाहिए.

ये संसाधन, जमीन, जल, जंगल, भूतल के जल और खनिज या नदी और सागर की जल संपदा.. सब कुछ जीने और जीविका के आधार हैं. इसीलिए इन संघर्षों की बुनियाद में है- संवैधानिक अधिकार, जीने का अधिकार, शुद्ध पर्यावरण का अधिकार; साथ ही जीविका इन्हीं पर निर्भर होने से, तमाम बुनियादी जरूरतों की पूर्ति का अधिकार भी है.

देश के लाखों गांवों में आज हाहाकार है क्योंकि ये पीढ़ियों से वहीं रहे हैंऔर उपयोग में लाये गये संसाधन शासन कब जबरन छीनना चाहेगा, पता भी नहीं चलता है. ‘सार्वजनिक हित’ के नाम पर किसी भी प्रकार की योजना, राजधानी में बैठकर बनती है तो अपने सार्वभौम अधिकार के साथ, शासन-राज्य या केंद्र की-उन्हें निजी परिवार को कोई किसान, आदिवासी या दलित भी, शासन को दे दे, यह मानकर, 1894 का अंग्रेजों के जमाने का कानून चलाया गया है. भूअर्जन कानून की एक नोटिस, मानो उस जमीनधारी को ‘कैंसरग्रस्त’ बना देती है.

यह निश्चित है कि उस कानून में ब्रिटिशों ने भी शासन के निर्णय पर किसी को आपत्ति उठाने का, सुनवाई का मौका नहीं अधिकार, हर संपदा के मालिक को दिया और आपत्ति के कारणों में, वर्षों तक विविध न्यायालयों से उभरे मुद्दे रहे, ‘सार्वजनिक हित’ नहीं होना, गलत उद्देश्य से जरूरत से ज्यादा जमीन का अर्जन तथा सांस्कृतिक व सुंदर स्थलों का विनाश आदि. इनमें से किसी भी कारण के आधार पर, भूअर्जन पर ही आपत्ति उठाई जा सकती है किंतु अंग्रेजों के बाद, आजाद भारत में भी कोई निर्णायक सुनवाई न होने से, यह अधिकार नाम मात्र का या प्रतीकात्मक ही रह गया है.

नतीजा यही है कि नोटिस (पहली-धारा 4) के तहत आने से ही संसाधन हाथ से जाते महसूस कर इसका मालिक या तो हताश या उद्विग्न और संतप्त होकर, लड़ने के लिए मजबूर होता है. विरोध के स्वर इसलिए भी प्रखर होते गये हैं क्योंकि शासन न केवल शासकीय, बल्कि निजी हितों-निजी कंपनियों के लिए भी जबरिया भूअर्जन शुरू करती गई है. वैश्वीकरण-उदारीकरणवादी आर्थिक नीतियों के देश में लागू होने पर तो अब कंपनियों द्वारा जल, विद्युत, इन्फ्रास्ट्रक्चर (उच्च पथ) या उद्योगों-कारखानों की हजारों परियोजनाओं के लिए यह ‘जबरन अर्जन’ का तरीका, लाखों-करोड़ों की जायदाद पर ही नहीं लोगों की जीविका पर आघात कर रहा है.

ऐसे संसाधनों का मूल्य बाजार मूल्य की तुलना में सबसे कम आंका जाता है. फिर इससे विस्थापित होने वालों को वैकल्पिक आजीविका या पुनर्वास का प्रबंध नहीं किया जाता है. विभागवार कुछ आधे-अधूरे प्रावधान और कुछ राज्यों में (जैसे महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक आदि) कानून होने के बावजूद जमीन देने वाली की आजीविका या पुनर्वास की व्यवस्था नहीं हो पाती है.

उम्र भर बेरोजगार, बेघर होकर करोड़ों विस्थापित भटक रहे हैं. अगर इनमें से कुछ लोग पुनर्वासित हो जाएं तो भी जमीन से उखड़ने की पीड़ा और जीवन स्तर में गिरावट, इस सबके प्रत्यक्ष असर और उदाहरण हैं. इन्हीं परिप्रेक्ष्यों में बढ़ते विरोधों व गतिरोधों के चलते परियोजनाएं रोकी जाती रही हैं. किसान-मजदूर-मछुआरों ने पुनर्वास की भीख मांगना, आदिवासी अंचलों या शहर की गरीब बस्तियों में रहने वाले लोगों ने छोड़ दिया है.

शासन को कंपनियों की आपत्तियों के चलते भी, भूअर्जन के सिद्धांत एवं विस्थापितों की समस्या पर गंभीरता से सोचना पड़ा. 1998 से ही राष्ट्रीय पुनर्वास नीति की बात शुरू हुई. हम जैसे गिने-चुने सामाजिक कार्यकर्ताओं को निमंत्रित करके ग्रामीण विकास मंत्रालय में चर्चा हुई. ‘विकास’ और ‘सार्वजनिक हित’ की संकल्पना पर विचार के साथ-साथ, भूअर्जन की ‘सार्वभौम राज्य’ के आधार पर हो रही जबरदस्ती को लेकर प्रखर सवाल उठाए गए. अंत में सर्व सहमति से पारित इस राष्ट्रीय पुनर्वास नीति के मसौदे पर भी कोई अमल नहीं हुआ. फिर संघर्ष जारी ही नहीं, बढ़ते भी गए.

सशस्त्र संघर्षों की व्यापकता बढ़ी तो अहिंसक संघर्षों से भी यह बात पूर्ण रूप से उभर सामने आई कि विकास नियोजन में, भूमि और प्राकृतिक संसाधनों का जबरिया अर्जन न तो किसानों और न ही मजदूरों; किसी को भी मंजूर नहीं है. यह बात पूर्ण रूप से उभर आई.

नए कानून का मसौदा राष्ट्रीय स्तर पर भूअर्जन कानून को खारिज करके बना है. इस मसौदे पर तीन ग्रामीण विकास मंत्रियों से बातचीत और 14वीं तथा इस 15वीं लोक सभा की ग्रामीण विकास स्थायी समितियों के सामने विविध पक्षकारों की- जैसे जन आंदोलन, कंपनियों और उनकी संस्थाएं तथा विविध राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों की पेशी हो चुकी है. हालांकि अब इसे एक निश्चित रूप में लोक सभा के समक्ष लाया जाने वाला प्रस्ताव, जनआंदोलनों के कुछ मुद्दे को स्वीकारने पर भी आधा-अधूरा ही है. कुछ बुनियादी कमजोरियों के कारण इस प्रस्ताव से भी विवादों का निपटारा संभव नहीं दिखाई देता है.

पहला मुद्दा है, विकास नियोजन में इकाई, संसाधनों पर अधिकार तथा नियोजन में जनतंत्र का. गांव या शहरी बस्ती जनतंत्र की प्राथमिक इकाई मानी जानी चाहिए, इसे कोई भी स्वीकारेगा. संविधान में स्थानीय संस्थाओं की व्यवस्था और इससे भी अधिक, 243 वीं धारा (संविधान में 73वां, 74वां संशोधन) से संवैधानिक नजरिया ही ‘प्रत्यक्ष जनतंत्र’ लाने की ओर, इन बुनियादी इकाइयों के ही अधिकारों की मान्यता है. लेकिन गांव-गांव की भूमि, जिसके साथ सार्वजनिक/सामाजिक संपदा, जैसे चरागाह हो या पेड़-पौधे, खनिज आदि विकास में ‘पूंजी’ होते हुए, उन्हें स्थानीय लोग, जनप्रतिनिधि आदि किसी से न पूछते हुए या उन्हें बताकर, पहले से ही मिला हुआ मानकर नियोजन में लेना और वह भी जबरन छीनकर यह कितना अ-जनतांत्रिक है!

निजी हितों के लिए संसाधनों का (भूमि के अर्जन में, भूमि के साथ मकान सहित सभी संसाधन, अंग्रेजों के समय से ही सम्मिलित चले आ रहे हैं.) अर्जन तो अंग्रेजों ने भी न सही माना, न ही किया, लेकिन आज तक हो रहा है. नए मसौदे में, इनमें बदलाव लाने की बात मानी गई है. वह भी हमसे बहस करते हुए लेकिन कंपनियों के लिए भू-अर्जन रद्द करना चाहिए; संसदीय स्थायी समिति की यह सिफारिश मंत्रियों का समूह नहीं मान रहा है.

मात्र 80 प्रतिशत विस्थापित/भूमिधारकों की सहमति को भूमि अर्जन की अनिवार्य शर्त के रूप में स्वीकार की गई है. शासकीय परियोजनाओं के लिए तो यह शर्त भी नहीं रखी गई है. ऐसा क्यों? ग्राम सभा और बस्ती सभा की सहमति के बिना वहां के संसाधनों पर कोई विकास नहीं होना चाहिए. हमारी ओर से यही संवैधानिक मांग की जा रही है. पूर्ति होने तक यह जारी रहेगी.

दूसरी बात, कानून में सूखी खेती और सिंचित खेती में से सिंचित बहुफसली खेती वाली जमीन का अधिग्रहण एक जिले में पांच प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए. यह मांग भी पहली बार की जा रही है. पांच एकड़ जमीन से कम वाले 75 प्रतिशत किसान खेती के लिए वर्षा जल पर निर्भर हैं. उनमें अधिकतर आदिवासी, दलित सीमांत व छोटे किसान शामिल रहेंगे तब चंद किसानों को ही भू-अधिग्रहण से बचाने की बात कैसे सही कही जाएगी व वह कैसे न्यायपूर्ण होगी? 10 सालों में 180 हेक्टयर्स खेती की जमीन गैर खेती कायरे के लिए हस्तांतरित कर दी गई है.

ऐसे में देश में ‘अन्न सुरक्षा’ की दृष्टि से तथा जीविका बचाने के लिए जरूरी है कि हर राज्यों में हजारों-हजारों हेक्टेयर्स की परती पड़ी जमीन को पहले उपयोग में लाना जरूरी है. अन्यथा हर गांव में खेती की जमीन ही अर्जित करना निश्चित ही व्यावहारिक नहीं है. उसकी कोई योजना बनेगी कैसे? स्थायी समिति की सिफारिश इसमें भी ठुकराई गई है.

तीसरा महत्त्वपूर्ण मुद्दा है, कानून के दायरे का. इसमें पुनर्वास की बात है और अब ‘बिना पुनर्वास विस्थापन नहीं’ का दावा किया है. किंतु पहले तो यह कानून मसौदा ही देश के मौजूदा उन 16 कानूनों को अपने दायरे में नहीं लाता है, जिनके आधार पर भू-अर्जन किया जा रहा है. यह क्यों? खदानें, इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि की परियोजनाओं के लिए भू-अधिग्रहण राज्यवार बने कुछ कानूनों के तहत होगा और वह भी पिछले 65 सालों के जैसे ही. केवल तीन कानून, जिसमें सेस कानून भी हैं, इसके तहत आएंगे. साथ ही ‘पुनर्वास’ वह भी इंसानों का, समाजों का किया जाना चाहिए.

इसका मतलब यह कि केवल मुआवजे की बढ़ाई राशि या नौकरी दी तो भी मुआवजे का विकल्प कायम रखना है. आज वैकल्पिक भूमि तथा जीविका पाना बेहद मुश्किल होते हुए भी पुश्तैनी जीविका के साधन से हटाये जाने वाले, केवल मुआवजे के पैसे लेकर बस नहीं सकते, यही अनुभव है. यही समय है कि देश के संसाधनों में हो रहे भूमि-हस्तांतरण भूमिहीनों की दिशा में नहीं बल्कि कंपनी/पूंजीपतियों की तरफ मोड़ने की जरूरत है. संवैधानिक दायरे में, गांव/बस्ती की बुनियादी इकाई को विकास नियोजन में शामिल करने का.

भ्रष्टाचार अत्याचार व अन्याय भी रोकना है, जिसके लिए पहले ही बहुत देर हो चुकी है. अभी अगर मसौदे में रही त्रुटियां दूर करके, सर्वदलीय संसदीय समिति की सिफारिशें स्वीकारी नहीं गई तो हम राष्ट्रीय परिवर्तन का विशेष मौका खो देंगे.

10.12.2012, 00.30 (GMT+05:30) पर प्रकाशित