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Saturday, 2 February 2013

In Defence of Ashis Nandy : for academic and intellectual freedom

In Defence of Ashis Nandy : for academic and intellectual freedom


2013/2/2 B.P. Gautam <bpgautam99@gmail.com>

भाजपा से ही है भाजपा की जंग
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लोकसभा चुनाव फ़तेह करने की तैयारी में छोटे-बड़े सभी दल जुटे हुए हैं और सत्ता पाने की दिशा में अंदर ही अंदर रणनीति बना रहे हैं, लेकिन भारतीय जनता पार्टी चुनाव बाद सत्ता अपनी मानते हुए चुनाव की तैयारी करने की जगह प्रधानमंत्री चुनने की रणनीति पर काम कर रही है, इसलिए भाजपा की प्रतिद्वंदता खुद से ही है। भाजपा को अगले चुनाव में दलों से नहीं, बल्कि खुद से ही लड़ना है। भाजपा को मात देने की शक्ति किसी दल में नहीं है और न ही देश में इस समय ऐसा कोई नेता हैजो भाजपा के लिए बड़ी चुनौती हो। भाजपा के लिए भाजपा ही चुनौती है। वह खुद से जीत गईतो देश पर शासन करने की दिशा में कोई ऐसी बड़ी बाधा नहीं हैजो उसे रोक सके।
देश का राजनैतिक वातावरण सत्ताधारी कांग्रेस के विरुद्ध नज़र आ रहा है। पिछले दिनों जयपुर में हुए कांग्रेस के चिंतन शिवर में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने भी स्पष्ट माना कि कांग्रेस का जनाधार घट रहा है, इसके बाद हुए एक देशव्यापी सर्वे में भी यह साफ़ हो गया कि कांग्रेस के मुकाबले भाजपा बढ़त ले रही है। भ्रष्टाचार और महंगाई के साथ लचर तन्त्र से आम आदमी बेहद खफा है, लेकिन नेतृत्व के अभाव में आम आदमी आक्रोश का प्रदर्शन नहीं कर पा रहा। आम आदमी के उसी आक्रोश के सहारे अन्ना हजारे और रामदेव भी चर्चित हो चुके हैं। अन्ना और रामदेव के दावे व वादे नेताओं की तरह ही सिद्ध होते दिखे, तो आम आदमी दूर हट गया। आम आदमी सुशासन चाहता है। भयमुक्त वातावरण के साथ उसे सहजता से जीवन यापन के लिए सब चाहिए, जिसे देने का विश्वास अन्ना हजारे और रामदेव आम आदमी में नहीं जगा सके, इसलिए रामदेव और अन्ना हजारे जनता के बीच नहीं टिक पाये। राजनैतिक परिवर्तन कोई राजनैतिक दल ही कर सकता है। सत्ताधारी कांग्रेस के विरुद्ध आम आदमी ऐसा राजनैतिक दल चाहता है, जो कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही यूपीए सरकार से बेहतर शासन दे सके। आम आदमी की भावनाओं के अनुरूप देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी और प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी आम आदमी की नज़र में राजनैतिक विकल्प बनने में अब तक असफल रही है। भाजपा में आपसी प्रतिद्वंता शीर्ष नेताओं के निजी स्वार्थ के चलते सीमा पार कर ईर्ष्या और द्वेष तक पहुँच गई है, जिसके चलते एक अनुभवहीन और पूरी तरह से व्यवसायी सोच के व्यक्ति नितिन गडकरी जैसा प्रांतीय स्तर का नेता राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गया, इससे बड़ी फजीहत की बात और क्या हो सकती है। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा में समकक्ष नेताओं की संख्या इतनी अधिक हो गई है कि सब एक-दूसरे से स्वयं को बेहतर सिद्ध करते हुए बड़ा नेता दिखाने के प्रयास में ही ऊर्जा का क्षय कर रहे हैं और यही वह प्रमुख कारण है, जिससे सब स्वयं को प्रधानमंत्री पद से कम का दावेदार नहीं मानते और इसीलिए अनुशासन तार-तार होता रहता है। यही सब नेता मिल कर पार्टी, देश और समाज हित में ऊर्जा खर्च कर रहे होते, तो चुनाव भाजपा के लिए मात्र औपचारिकता भर होते, पर प्रधानमंत्री पद को लेकर भाजपा में जारी टांग खिंचाई बंद होने का नाम ही नहीं ले रही है, जिससे आम आदमी की नजर में भाजपा की स्थिति कांग्रेस से बेहतर नहीं रह गई है।
आम आदमी अब दावों और वादों पर अधिक विश्वास नहीं करता। आम आदमी की राजनीतिज्ञों के प्रति सोच पूरी तरह बदल गई है। इतना आम आदमी भी जान गया है कि नेता सब एक जैसे ही हैं और सभी को ऐश्वर्य और वैभव सुख के लिए सत्ता चाहिए। आम आदमी की सोच यूं ही नहीं बदली है। आज़ादी से अब तक वह तमाम नेताओं और तमाम दलों पर विश्वास कर देख चुका है। आम आदमी की सोच अनुभव के आधार पर बदली है, इसलिए उसे अब और मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। राम मन्दिर के निर्माण और कश्मीर की समस्या के समाधान का संकल्प लेकर जन्म लेने वाली भाजपा आज इन मुद्दों पर चर्चा तक नहीं करती। भाजपा के पास अन्य दलों से अलग-थलग दिखने के लिए एक मात्र हिन्तुत्व ही बचा था, जिसे लालकृष्ण आडवाणी जिन्ना पर विवादित बयान देकर खत्म कर चुके हैं, इसके बाद पार्टी ऐसे लोगों के हाथों में चली गई, जिनसे आम आदमी का कोई मतलब ही नहीं है। सुषमा स्वराज दिल्ली शहर की नेता हैं। राजधानी में रहने का मतलब राष्ट्रीय नेता नहीं हो सकता, पर आज वह भाजपा की प्रमुख राष्ट्रीय नेता मानी जाती हैं, इसी तरह दिल्ली में ही रहने वाले अरुण जेटली पार्टी के दूसरे प्रमुख राष्ट्रीय नेता कहे जाते हैं। एक लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व कर रहा है और एक राज्यसभा में, जबकि दोनों ही राज्यसभा के सदस्य हैं। भाजपा नेता बार-बार बयान देते हैं कि उनकी पार्टी में प्रधानमंत्री बनने के गुण रखने वाले तमाम नेता हैं, तो क्या भाजपा के पास एक भी लोकसभा सदस्य ऐसा नहीं है, जो लोकसभा में पार्टी का प्रतिनिधित्व कर सके या भाजपा के पास सबसे बुद्धिमान और गुणवान नेता यही दो हैं, ऐसा है, तो भाजपा के पास फिर एक भी कारण ऐसा नहीं है, जिसके आधार पर आम आदमी को उसे वोट देना चाहिए।
आम आदमी का विश्वास जीतने के लिए भाजपा को चुनाव पूर्व प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम घोषित करना ही होगा, क्योंकि जिन व्यक्तियों के दबाव में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम घोषित नहीं हो पा रहा है, चुनाव बाद उन व्यक्तियों के दबाव में ही प्रधानमंत्री नहीं बैठाया जाएगा, इस बात की गारंटी कौन देगा? इसलिए संभावना के अँधेरे में भाजपा समर्थकों में जोश नहीं भर सकती, उसे स्पष्ट करना होगा कि बहुमत मिलने पर प्रधानमंत्री कौन बनाया जाएगा। एक तरह से देखा जाए, तो चुनाव बाद प्रधानमंत्री चुनना लोकतांत्रिक भी नहीं है, क्योंकि बहुमत मिलने पर प्रधानमंत्री थोपा जाएगा, पर भाजपा नेताओं के क्रियाकलापों को देखते हुए फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि वह प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी का नाम भाजपा नेता घोषित कर पायेंगे। लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और राजनाथ सिंह को देश और पार्टी की चिंता होती, तो वह जनभावनाओं की बात कर रहे होते। देश के अधिकाँश राज्यों से नरेंद्र मोदी को प्रत्याशी बनाने की मांग हो रही है। आम कार्यकर्ताओं के साथ पार्टी के बड़े नेता भी मोदी के पक्ष में खुल कर बोल रहे हैं, ऐसे में नेताओं और कार्यकर्ताओं की भावनाओं के अनुसार पार्टी नेताओं को निर्णय लेना चाहिए और अगर, उन उनकी मांग नाजायज है, तो फिर यह भी सोचना चाहिए कि उनकी भावनाओं के विपरीत निर्णय लेकर चुनाव में किसके बल पर उतरेगी?
भाजपा के शीर्ष नेताओं को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि उसके पास ऐसा एक भी मुद्दा नहीं है, जिसके आधार पर आम आदमी उसे कांग्रेस से बेहतर माने। मंहगाई, आतंकवाद, भ्रष्टाचार और लापरवाही कांग्रेस सरकार की विफलता है, जिसे भाजपा की सफलता नहीं माना जा सकता, ऐसे में भाजपा के पास एक मात्र चेहरा नरेंद्र मोदी ही है, जिसके नाम पर देश में भाजपा के पक्ष में लहर आ सकती है। गुजरात में लगातार चुनाव जीत कर मोदी ने खुद को हर तरह सिद्ध भी कर दिया है। वह कट्टर हिंदूवादी नेता होने के साथ कुशल प्रशासक भी हैं। अगर वह अकर्मण्य और सांप्रदायिक हैं, तो इसका निर्णय अब जनता की अदालत में ही होना चाहिए। एक निर्वाचित मुख्यमंत्री को दिल्ली के बंद कमरे में बैठ कर विफल कहना सरासर तर्कहीन है। भाजपा मोदी को प्रत्याशी घोषित करने की जंग जीत गई, तो 2014 का लोकसभा चुनाव उसके लिए औपचारिकता ही होगा, वरना जहाँ है, वहां से और नीचे जाने से उसे कोई नहीं रोक सकता।

बी. पी. गौतम
स्वतंत्र पत्रकार
8979019871
http://gautamsandesh.com/%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%aa%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%b9%e0%a5%80-%e0%a4%b9%e0%a5%88-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%aa%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%9c%e0%a4%82%e0%a4%97/

बंगाल में बिना इलाज मरने को अभिशप्त है नवजात शिशु!थम नहीं रहा मृत्यु जुलूस!


बंगाल में बिना इलाज मरने को अभिशप्त है नवजात शिशु!थम नहीं रहा मृत्यु जुलूस!

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

एक तरफ जहां हमारी सरकार चिकित्सा - पर्यटन को बढ़ावा देने की बात करती  है तो वहीं कवि सुकान्त भट्टाचार्य की कविता बंगाल के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अत्यंत प्रासंगिक है। यह धरती नवजात शिशु के लिए एकदम सुरक्षित नहीं है और न उसे सुरक्षित बनाने की कोई चेष्टा होती है। बंगाल में ३५ साल के वामराज के अवसान के बाद अबभी नवजात शिशु जनमते हैं  बिना इलाज मरने ​​को अभिशप्त। थोक भाव से अस्पतालों में नवजात शिशुओं का मृत्युजुलूस एक ऐसा परिदृश्य है , जो बहुचर्चित परिवर्तन के बाद भी बदला नहीं है। हालत यह है कि राज्य के नंबर एक शिशु चिकित्सालय कोलकाता स्थित विधानचंद्रराय शिशु अस्पताल में आलम यह है कि मरणासन्न शिशु के आपात आपरेशन की तिथि डेढ़ डेढ़ साल बाद तिथि निश्चित होती है। विशेषज्ञ सर्जन या विशेषज्ञ चिकित्सक अस्पाताल में होते ही नहीं है। सत्ता संभालते ही मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अस्पतालों का दौरा करके सुर्खियां बटोरी थीं, पर हालात अभी जस के तस हैं। नवजात शिशु के प्रति व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के दायित्व की अद्बुत अभिव्यक्ति है इस कविता में और इसी उदात्त कार्यभार से मुक्त है सत्ता प्रबंधन।दावा तो यह है कि पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार की जोरदार कोशिशें की जा रही हैं! बंगाल में तृणमूल कांग्रेस सरकार स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने की दिशा में अग्रसर है। कई स्वास्थ्य सेवा से संबद्ध योजनाओं को हरी झंडी दी गयी है।स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक महानगर में पांच मेडिकल कॉलेज व अस्पताल हैं। इनके अलावा बांकुड़ा, मालदा, बर्दवान, दार्जिलिंग, नदिया, उत्तर 24 परगना व पश्चिम मेदिनीपुर में भी मेडिकल कॉलेज व अस्पताल हैं।मेडिकल कॉलेज व अस्पतालों के अलावा राज्य में 15 जिला अस्पताल, 45 सब डिवीजनल अस्पताल व 33 स्टेट जनरल अस्पताल हैं। अन्य अस्पतालों की संख्या भी 33 है, जबकि राज्य में करीब 269 ग्रामीण अस्पताल, 79 ब्लॉक प्राइमरी हेल्थ सेंटर, 909 प्राइमरी हेल्थ सेंटर व 10356 सब सेंटर मौजूद हैं। इसके बावजूद राज्य में स्वास्थ्य के क्षेत्र में कई समस्याएं हैं।जैसे रोगियों की भर्ती के लिए बेड की कमी, नये उपकरणों का अभाव।

पश्चिम बंगाल में शिशु मृत्यु दर बढ़ गयी है।इसके मद्देनजर राज्य की सरकारी अस्पतालों में एसएन केयर यूनिट खोली जा रही है।पहले राज्य के करीब छह सरकारी अस्पतालों में एसएन केयर यूनिट थी।सत्ता परिवर्तन के बाद शिशु मृत्यु की घटनाओं से बचने के लिए करीब 20 अस्पतालों में एसएन केयर यूनिट खोली गयी है। वर्ष 2013 तक 50 अस्पतालों में एसएन केयर यूनिट खोलने का लक्ष्य है।स्वास्थ्य राज्यमंत्री चंद्रिमा भट्टाचार्य ने कहा है कि  राज्य में सत्ता परिवर्तन के बाद यहां के अस्पतालों की स्थिति सुधारने पर जोर दिया गया है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के निर्देश पर स्वास्थ्य विभाग की ओर से अस्पतालों को और संसाधनों से लैस करने की चेष्टा हो रही है। कई अहम परियोजनाओं पर भी विचार किया जा रहा है।पर जमीनी हकीकत कुछ और बयान करती है।

गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल के विभिन्न सरकारी अस्पतालों में पिछले  साल कुछ समय में लगातार हो रही शिशुओं की मौत के मामले पर संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग .एनसीपीसीआर. ने राज्य सरकार से इस बाबत कड़े कदम उठाने की मांग की थी। आयोग ने पश्चिम बंगाल सरकार से राज्य में ऐसे प्रसव जिसमें खतरे की संभावना अधिक हो की सूची तैयार करने. उनके प्रसव के लिए उचित कार्रवाई आंगनवाड़ी में पंजीकृत गर्भवती महिलाओं की सूची तथा मालदा जिले के सरकारी अस्पताल में हुई शिशुओं की मौत आदि संबंधी जानकारी मांगी थी। स्वास्थ्य राज्य मंत्री चंद्रिमा भट्टाचार्य ने बंगाल की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए पूर्व वाम मोरचा सरकार, पूर्व स्वास्थ्य मंत्री और वर्तमान में विपक्ष के नेता डॉ सूर्यकांत मिश्र को जिम्मेदार ठहराया। हालांकि श्रीमती भट्टाचार्य ने दावा किया कि मां, माटी, मानुष की सरकार के सत्ता में आने के बाद राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार आया है।शिशु मृत्यु दर जून से दिसंबर 2010 में 14862 थी, जो जून से दिसंबर 2011 में घट कर 9942 हो गयी। 1000 शिशुओं में अब मात्र 31 की मौत हो रही है, जबकि राष्ट्रीय औसत 47 है। उन्होंने कहा कि राज्य में तीन मेडिकल कॉलेज खोले गये हैं, जबकि वामो सरकार के दौरान मात्र मेदिनीपुर में ही एक मेडिकल कॉलेज खोला गया था। स्वास्थ्य भरती बोर्ड के माध्यम से स्वास्थ्य विभाग में नियुक्ति होगी।

गौरतलब है कि समस्त भारत में जीवित पैदा हुए प्रति एक हजार बच्चो में से औसत 58 बच्चे मौत के मुंह में चले जाते हैं। विकसित देशो में यह संख्या 5 से भी कम है। इस दिशा में राज्यों के मध्य काफी अंतर है। जीवित पैदा हुए प्रति 1000 में से केरल में शिशु मृत्यु दर 12 है जबकि मध्य प्रदेश में 79 है।विकासशील देशों में पैदा होने वाले कम भार वाले बच्चों में से 35 प्रतिशत अकेले भारत में ही पैदा होते हैं। विकासशील देशों में कुपोषण का शिकार हुए बच्चों में से 40 प्रतिशत बच्चे अकेले भारत में हैं।अधिकांश सम्याएं प्रसवपूर्ण अवधि और प्रसव के दौरान तथा जन्म के तुरंत बाद अपर्याप्त देखरेख के कारण पैदा होती हैं।जन्म के समय कम भार होने के तथा कुपोषण के कारण बच्चे के पूर्ण विकास में बाधा उप्पन्न होती है।कुल मौतों में से दो तिहाई मौतें जन्म के पहले सप्ताह में हो जाती हैं और इनमें से दो- तिहाई मौतें जन्म के पहले दो दिन के भीतर हो जाती हैं (भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद आई. सी एम. आर.)।इस प्रकार 45 प्रतिशत नवजात शिशुओं की मृत्यु उनके जन्म से 48 घंटों के भीतर हो जाती है।! सीआईए के आकड़ों के अनुरूप शिशु मृत्यु-दर  सबसे   कम  मोनैको देश में है जहा 1.8 बच्चे ही काल-ग्रसित होते हैं तो वही भारत में स्थिति बिलकुल उल्टी है ! भारत में आज भी एक हजार बच्चो  में से 46 बच्चे काल के शिकार हो  जाते हैं और 40 प्रतिशत से अधिक बच्चे कुपोषण के शिकार हो जाते हैं !

इस पर आगे चर्चा से पहले कवि सुकान्त की कविता जरुर पढ़ लें!

पारपत्र.. / सुकान्त भट्टाचार्य
भूमिष्ठ हुआ जो शिशु आज रात
उसी के मुँह से मिली है ख़बर
कि पास उसके एक पारपत्र
जिसके साथ खड़ा वह विश्व के द्वार
भर कर एक ज़ोर की चीख़
उसने जताया है अपना हक़ जनमते ही ।

नन्हा, निस्सहाय वह
फिर भी मुट्ठियाँ भिंची हुई
लहराती-फ़हराती
न जाने किस अबूझ अंगीकार में ।
अबूझ उसकी भाषा सबके लिए
कोई हँसता, कोई देता मीठी झिड़की ।

मैंने समझी उसकी भाषा मन ही मन
पाई चिट्ठी नई, आने वाले युग की
मैंने पढ़ा वह पहचान-पत्र
भूमिष्ठ शिशु की धुँधली, कुहासे से भरी
आँखों में ।

आया है नवीन शिशु
छोड़ देनी होगी जगह उसके लिए
चले जाना होगा हमें व्यर्थ ही
जीर्ण-धरा पर मृत ध्वंसस्तूप की ओट ।

जाऊँगा, लेकिन जब तक है जान
हटाऊँगा धरती के सब जंजाल
दुनिया को इस शिशु के रहने लायक
बना जाऊँगा
नवजातक के प्रति यह मेरा दृढ़ अंगीकार ।

और अन्त में निबटा कर सारे काम
अपने लहू से नवीन शिशु को दूँगा आशीर्वाद
हो जाऊँगा इतिहास उसके बाद ।

मूल बंगला से अनुवाद : नील कमल

अभी हाल में मालदह से मरणासन्न एक शिशु को विधानचंद्रराय शिशु अस्पताल में इलाज के लिए लाया गया।उसे बचाने के लिए तत्काल शल्य चिकित्सा की आवश्यकता थी। पर सोमवार के दिन भी साम छह बजे के बाद इस शिशु अस्पताल में न तो शिशु विशेषज्ञ होते हैं और शिशु शल्य विशेषज्ञ। आवासीय चिकित्सकों के भरोसे चलता है अस्पताल। मजबूरन बाहर से चिकित्सक लाना पड़ा और  पूरे तीन घंटे बेकार चले गये। मरणासन्न शिशु के लिए तीन घंटे बेकार जाने का मतलब उसके असहाय मां बाप से पूछकर देखें।

यह कोई अनहोनी नहीं है बल्कि इस अस्पताल की रेजमर्रे की वास्तव जिंदगी है, जिसमें नवजात शिशुों का दम घुटता चला जाता है।​​परिस्थिति इतनी भयावह है कि राज्य के एकमात्र सरकारी सुपर स्पेशलिटी अस्पताल की खासियत ही यही है कि यहां टौबीसों गंटों में आपात शल्यक्रिया के लिए एक भी रेजिडेंसियल मेडिकल अफसर नहीं होता। अस्पताल के सुपर भी असहाय हैं। वे कहते हैं कि इस स्थिति में चौबीसों घंटा सेवा जारी रखना हमारे लिए समस्या है। उनके मुताबिक इस सिलसिले में उन्होंने स्वास्थ्य भवन को इत्तला कर दिया है । नतीजा? फिर वही ढाक के तीन पात!मालूम हो कि पेडियट्रिक सर्जरी विबाग के लिए इस अस्पताल में साठ शय्याएं हैं।इस विबाग की जिम्मेवारी चार कंस्लटेंट और एक रेजिडेंसियल मेडिकल अपसर पर है।इतने कम चिकित्सकों के भरोसे हफ्ते में छह दिन आउटडोर इनडोर के अलावा चौबीसों घंटे सेवा जारी रखना नामुमकिन है।यही वजह है कि सोम, बुध और शुक्रवार को शाम छह बजे के बाद अस्पाताल में कोी शिशु शल्य विशेषज्ञ नहीं होते।परिस्थति कितनी संगीन है , इससे सणझिये कि चिकित्साधीन सभी शिशुओं के आपरेशन की तिथि ्भी जनवरी , २०१३ में ही २०१४ में तय कि​ ​ गयी है।वह भी जून जुलाई में । यानी डेढ़ साल तक इंतजार करने के बाद आपरेशन है। जाहिर है कि बहुत मजबूर कमजोर तबके के मां बाप की यह दुर्गति हो रही है , जिनकी कोई सूरत नहीं बनती सरकारी अस्पताल के सिवाय निजी अस्पताल की तरफ मुखातिब होने की।चार आपरेशन थियेटर हैं। इनमें से एक प्लांडड आपरेशन के लिए नियत । बाकी तीन में आपरेशन होते हैं।इतने चिकित्सक नहीं हैं कि इन तीन आपरेशन थिएटरों में भी  प्रतिदिन छह आपरेशन हो सकें।

बंगाल में शिशु चिकित्सा की कुछ इसतरह होती है:

कोलकाता के विधान चंद्र राय शिशु अस्पताल में बीते 48 घंटों में 17 शिशुओं की मौत का मामला सामने आया है। इनमें ज्यादातर नवजात थे जिन्हें बंगाल के विभिन्न इलाकों से वहां इलाज के लिए लाया गया था। इन मौतों से गुस्साए अभिभावकों ने अस्पताल में नारेबाजी करते हुए तोड़फोड़ शुरू कर दी। इसके बाद पुलिस को स्थिति नियंत्रित करने के लिए लाठीचार्ज करना पड़ा। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मामले की जांच के आदेश दिये हैं। स्वास्थ्य विभाग उन्हीं के पास है। पता चला है कि गुरुवार पूर्वाह्न दस बजे तक 15 शिशुओं की मौत थोड़े-थोड़े अंतर पर हुई। इससे नाराज परिजन नारेबाजी करते हुए उग्र हो गए। उन्होंने चिकित्सकों पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए अस्पताल में तोड़फोड़ की और गुजर रही सड़क को जाम कर दिया। इसी दौरान दो और बच्चों की मौत हो जाने से स्थिति और बिगड़ गई। हालात को काबू करने के लिए पुलिस को दो बार लाठीचार्ज करना पड़ा। अस्पताल में बड़ी संख्या में पुलिस बल तैनात कर दिया गया है। बीसी राय शिशु अस्पताल व मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल मृणालकांति चटर्जी ने कहा है कि सभी बच्चों को चिंताजनक हालत में भर्ती कराया गया था। बच्चों में किडनी व लीवर की गड़बड़ी और खून की कमी बीमारियां थीं। डा.चटर्जी ने अधिकतर बच्चों की मौत की वजह उनका अंडर वेट होना भी बताया। ज्यादातर शिशुओं की आयु एक से पांच दिनों की थी। उन्होंने इलाज में किसी लापरवाही से साफ इंकार किया। उल्लेखनीय है कि 2002 में भी महज तीन दिनों के अंदर अस्पताल में भर्ती 32 शिशुओं की मौत हुई थी।

१९ जनवरी , २०१२ को स्वास्थ्य सेवा के स्तर में गिरावट की शिकायत के बीच  कोलकाता से दो सदस्यीय टीम ने मालदा जिला अस्पताल समेत अन्य स्वास्थ्य केंद्रों का दौरा किया। प्रतिनिधिदल ने इस रोज अस्पताल परिसर के प्रत्येक वार्ड का जायजा लिया। इस दौरान मरीजों के परिजनों ने दल को चिकित्सा सेवा को लेकर अपनी शिकायत दर्ज कराई। इसी रोज प्रतिनिधिदल ने जिला स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों के साथ बैठक की। इस बीच बीते 36 घंटे के भीतर मालदा मेडिकल कॉलेज समेत जिला अस्पतालों में मृत शिशु मरीजों की संख्या बढ़कर 17 हो गई। कोलकाता के डा. विधान चंद्र राय शिशु अस्पताल में घटी शिशु मरीजों की मौत की घटना के बाद मालदा मेडिकल कॉलेज में इस हादसे से विचलित राज्य सरकार ने इस प्रतिनिधिदल को हालात का जायजा लेने के लिए भेजा है। जैसे ही प्रतिनिधिदल के सदस्य शिशु वार्ड में दाखिल हुए वैसे ही मरीजों के परिजनों ने शिकायतों की झड़ी लगा दी। उन्होंने चिकित्सा सेवा और अस्पताल की बुनियादी सुविधाओं की कमी बताई। इनका आरोप है कि मेडिकल कॉलेज में पर्याप्त संख्या में चिकित्सक नहीं हैं। बिस्तर का अभाव है। इस वजह से एक बिस्तर पर तीन तीन बच्चों को रखा गया है। कई बच्चों को फर्श पर भी सुलाया गया है। जब अस्पताल प्रबंधन से इसकी शिकायत की जाती है तो उनके साथ स्वास्थ्य कर्मी दु‌र्व्यवहार करते हैं। शिशु वार्ड की कई खिड़कियों के शीशे टूटे हुए हैं। इनसे वार्ड के भीतर ठंडी हवा घुस रही है। इससे बच्चों की बीमारी बढ़ रही है। शिकायत करने से भी कोई लाभ नहीं हो रहा है। दल के अध्यक्ष डा. त्रिदिव बनर्जी ने बताया कि इस संबंध में रिपोर्ट मुख्य सचिव को सौंपी जाएगी। उन्होंने स्वीकार किया कि मेडिकल कॉलेज में चिकित्सक एवं स्वास्थ्य कर्मियों का अभाव है। इस बाबत पड़ताल की जा रही है। बिस्तर की संख्या बढ़ाए जाने की जरूरत है। उन्होंने बताया कि शिशु वार्ड में कई रूम हीटर लगाने के निर्देश दिए गए हैं। प्रतिनिधिदल ने हालांकि चिकित्सा सेवा के बाबत कोई खुलासा नहीं किया।

2011 मेंसाल 40 से अधिक बच्चों की मौत के कारण सुर्खियों में आए बीसी राय शिशु अस्पताल में पिछले 24 घंटे में 5 बच्चों की मौत हुई है। मारे गए सभी बच्चों की उम्र 1 से 5 महीने के बीच थी, उन्हें महानगर के आस पास इलाकों से रेफर किया गया था। इसी बीच मारे गए पांच महीने के शिशु की माता सुनीता हल्दर ने अस्पताल की नर्सो पर दु‌र्व्यवहार का आरोप लगाया। सुनीता ने कहा कि उसके बच्चे को सलाइन चढ़ाया जा रहा था। बच्चे को तकलीफ होने पर नर्स का सूचना दी गई लेकिन वह नहीं आई। नर्सो ने सुनीता के बार बार आवेदन करने पर अपशब्द कहे। इस घटना की खबर मिलते ही अन्य अभिभावक जिनके शिशुओं की मौत हुई थी, उग्र हो गए और उन्होंने अस्पताल के अलावा रास्ते पर प्रदर्शन किया। बाद में फूलबागान थाने की पुलिस ने मौके पर पहुंच कर उग्र लोगों का समझा बुझा कर शांत किया। अस्पताल में प्रदर्शन के दौरान मातम का दृश्य था और महिलाएं जोर जोर से रो रही थीं।वहीं अस्पताल के सुपर डी पाल ने बताया कि सभी मौतें जटिल बीमारियों के कारण हुई हैं। उन्होंने चिकित्सकीय लापरवाही की बातों को खारिज कर दिया।उल्लेखनीय है कि पिछले सप्ताह मालदा जिले में भी शिशु मौतों का सिलसिला शुरू हुआ था। जिले में10 दिन में करीब 20 से अधिक शिशुओं की मौत हो गई है। इसी बीच राज्य की नई तृणमूल सरकार की स्वास्थ्य राज्यमंत्री चंद्रिमा भंट्टाचार्य ने दावा किया है शिशु मृत्यु दर 3 फीसदी तक घट गई है। मालदा के अलावा मुर्शिदाबाद जिला अस्पताल के शिशु विभाग में भी कल 9 नवजातों की मौत हुई थी।

03-10-2007 – एक ही दिन में लगातार पांच बच्चों की हुई पांच बच्चों की मौत की घटना को लेकर विधान चंद्र राय शिशु अस्पताल में तनाव का माहौल है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुये पुलिस ने अस्पताल परिसर की सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी है।

20 मार्च, 2012 को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नबी आजाद ने राज्यसभा में प्रश्नकाल के दौरान बताया कि पश्चिम बंगाल में मुर्शिदाबाद के जिला अस्पताल में जुलाई 2011 में 12 शिशुओं और मालदा मेडिकल कॉलेज में जनवरी 2012 के दौरान 15 शिशुओं की मौत की खबर थी। राज्य सरकार की जांच में पता चला कि ज्यादातर बच्चों को गंभीर स्थिति में इन अस्पतालों में रेफर किया गया था। इनमें से ज्यादातर नवजात थे। इनकी मृत्यु के मुख्य कारण समय से पहले उनका जन्म होना, उनका वजन कम होना, उनका न्यूमोनिया, सेप्टीसेमिया और बर्थ एस्फीक्शिया (जन्मजात श्वांनस अवरोध) से पीडित होना था।आजाद ने बताया कि शिशु मृत्युदर में कमी के लिए तीन साल में कई योजनाएं शुरू की गई है। इनके लिए केंद्र से अलग-अलग धन भी दिया गया। इसी के तहत अस्पतालों में नवजात शिशु देखभाल यूनिट स्थापित किए जा रहे हैं। प्रत्येक यूनिट में चार डॉक्टर और दस प्रशिक्षित नर्स होंगी।

इन दावों के बीच केंद्र में यूपीए सरकार से तृणमूल के अलग हो जाने के ्लावा कोई सिुधार हुआ हो, ऐसा नहीं लगता।क्या मुख्यमंत्री िइस ओर​
​ ध्यान देंगी?

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नबी आजाद ने राज्यसभा में तब  माना था कि देश में शिशु मृत्यु दर दुनिया के विभिन्न देशों की तुलना में बहुत ज्यादा है। जन्म लेने वाले प्रति क हजार शिशुओं में से औसतन 45 की मौत हो जाती है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नबी आजाद ने राज्यसभा में प्रश्नकाल के दौरान बताया कि देश में शिशु मृत्युदर 12.5 लाख शिशु सालाना है। इस मामले में नेपाल, श्रीलंका तथा बांग्लादेश की स्थिति भी भारत से अच्छी है।उन्होंने वैष्णव परीडा के पूरक प्रश्न के उत्तर में कहा कि शिशु मृत्युदर में सुधार के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत कई कदम उठाए गए हैं। उन्होंने हालांकि कहा कि मातृ मृत्युदर में 17 फीसदी की कमी आई है। आजाद ने कहा कि केवल पाकिस्तान एकमात्र ऐसा देश है जिससे भारत अपनी तुलना कर सकता है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री ने बताया कि पश्चि म बंगाल में जन्म लेने वाले प्रति एक हजार शिशुओं में से औसतन 32 बच्चों की मौत हो जाती है। इस प्रकार वहां सालाना शिशु मृत्युदर 47 हजार है।

आजाद ने बताया कि शिशु मृत्युदर में कमी के लिए तीन साल में कई योजनाएं शुरू की गई है। इनके लिए केंद्र से अलग-अलग धन भी दिया गया। इसी के तहत अस्पतालों में नवजात शिशु देखभाल यूनिट स्थापित किए जा रहे हैं। प्रत्येक यूनिट में चार डॉक्टर और दस प्रशिक्षित नर्स होंगी।

उन्होंने बताया कि जननी सुरक्षा योजना के तहत गर्भवती महिलाओं को गांवों के सरकारी अस्पताल में 1400 रुपे और शहर के सरकारी अस्पताल में एक हजार रुपए दिए जाते हैं। कई महिलाओं ने इस योजना का लाभ उठाया। इससे मातृ मृत्युदर घटाने में मदद मिली है।

आजाद के अनुसार, एक और योजना शुरू की जा रही है जिसके तहत गर्भवती महिला के सरकारी अस्पताल में आने के बाद से उसकी देखभाल, प्रसव, दवा और उसके आहार का खर्च सरकार देगी। भाजपा की स्मृति ईरान के पूरक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि स्वास्थ्य का विषय है और केंद्र विभिन्न योजनाओ के लिए धन देता है। उन्होंने बताया कि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत देश भर में कुल 8722 डाक्टरों, 2014 विशेषज्ञों, 14529 पराचिकित्सकों (पैरा मेडिक्स), 33413 स्टाफ नर्स आदि की नियुक्ति की गई है। उन्होंने बताया कि शिशुओं की मौत की घटनाओं के बाद कोलकाता स्थित बी सी राय हॉस्पिटल में 30 बिस्तरों वाला एक विशेष नवजात देखभाल केंद्र बनाने के लिए धन दिया गया। यह केंद्र नवंबर में शुरू हो चुका है। डी. बंदोपाध्याय के पूरक प्रश्न के उत्तर में आजाद ने कहा कि शिशु मृत्यु दर अधिक होने के कई कारण हैं जिनमें अस्पताल अधिक दूर होना, परिवहन की समस्या और डॉक्टरों का अभाव और खास तौर पर हर स्तर पर मानव संसाधन की कमी भी शामिल हैं। उन्होंने कहा कि इस समस्या के हल के लिए बुनियादी ढांचे और दक्षता के उन्नयन की जरूरत है।



सलमान रश्दी और तसलिमा नसरीन के खिलाफ तुरंत कार्रवाई करने वाले लोग, ममता बनर्जी और बुद्धदेव भट्टाचार्य,बंगाली सुशील समाज आशीष नंदी के विस्फोटक मंतव्य पर एकदम खामोश हैं। क्यों?


सलमान रश्दी और तसलिमा नसरीन के खिलाफ तुरंत कार्रवाई करने वाले लोग, ममता बनर्जी और बुद्धदेव भट्टाचार्य,बंगाली सुशील समाज आशीष नंदी के विस्फोटक मंतव्य पर एकदम खामोश हैं। क्यों?

पलाश विश्वास

बंगाल की  मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सलमान रश्दी को बंगाल आने से रोक दिया है, पक्ष विपक्ष में महाभारत शुरु हो गया है। इससे पहले तसलिमा नसरीन को रातोंरात कोलकाता से जयपुर पैक करके भेज दिया गया। तब वामराज के मुख्यमंत्री थे बुद्धदेव भट्टाचार्य।वह बहस अभी जारी है। लेकिन पूरे देश में विख्यात समाज शास्त्री आशीष के बयान पर विवाद के बावजूद पक्ष विपक्ष एकदम खामोश है।सलमान रश्दी और तसलिमा नसरीन के खिलाफ तुरंत कार्रवाई करने वाले लोग, ममता बनर्जी और बुद्धदेव भट्टाचार्य,बंगाली सुशील समाज आशीष नंदी के विस्फोटक मंतव्य पर एकदम खामोश हैं। क्यों? अभी अभी केंद्र सरकार ने दिल्ली बलात्कार कांड के परिप्रेक्ष्य में युवा आक्रोश का सम्मान करते हुए बलात्कार को खत्म करने के लिए वरमा कमीशन की सिफारेशों को दरकिनार करते हुए अध्यादेश लाने का ऐलान किया है। बलात्कार और यौन उत्पीड़न अब एकाकार है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के राष्ट्र के नाम संबोधन से इसका संकेत पहले ही मिल गया था। क्या इस अध्यादेश के आलोक में तसलिमा के उस बयान की भी जांच करायी जायेगी कि उनका ​​यौन शोषण हुआ बंगाल में, बांग्ला ही नहीं भारतीय साहित्य के एक पुरोधा के हाथों?महीनों बीत गये, साहित्य और संसकृति के क्षेत्र में यौन उत्पीड़न के खुलासे के बाद न मीडिया ने इसे तरजीह दी और न सरकार ने इस आरोप का​ ​संज्ञान लिया। पर तसलिमा से सहानुभूति जताने वाले लोग और खास तौर पर उनके उपन्यास लज्जा से हिंदुत्व की राजनीति में उनका उपयोग ​​करने वाले लोग यह जानने की कोशिक करते हुए भी नहीं देखे गये कि आखिर सच क्या है।कोलकाता का नागरिक समाज और सांस्कृतिक आइकन जहां तसलिमा या रस्दी के माले में बेहद संवेदनशील हैं, बाकी देश के बुद्धिजीवियों की ​​तरह वे अनुसूचितों और पिछड़ों के संदर्भ में कोई बात नहीं करते। महाश्वेता दी आदिवासियों के बारे में लंबी लड़ाई करती रही हैं। पर शरणार्थी समस्या या बंगाल में पिछड़ों और अनुसूचितों के हक हकूक के बारे में एक शब्द तक नहीं बोलतीं। कम से कम अपनी खास शैली में इस प्रसंग में बहस की गुंजाइश पैदा करने के लिए वंचितों को आशीष नंदी का आभार मानना चाहिए। उनकी गिरप्तारी की मांग करने के बजाय उनका सम्मान करना चाहिए।ये तमाम आदरणीय उत्तर भारत की मध्ययुगीन गायपट्टी के सामाजिक बदलाव आंदोलन के जरिये जात पांत को मजबूत करने के खिलाफ हैं। सत्ता वर्ग के सभी क्षेत्रों में वर्चस्ववादी एकाधिकार को वे जातिवादी नहीं मानते और न ही उन्हें देश में कहीं मनस्मृति व्यवस्था दीखती हैं।मायावती, लालू, राम विलास पासवान, शरद यादव, करुणानिधि, मुलायम सिंह यादव,उदित राज, शिबू सोरेन जैसे नामों से ही इन्हें सख्त नफरत है। हालांकि वे आर्थिक स्वतंत्रता के प्रगतिवाद के अंतरराष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।आर्थिक सुधारों के खिलाफ भी वे बोलते हैं। पर कारपोरेट राज, हिंदुत्व और वर्चस्ववाद के विरुद्ध पिछड़ों, अनुसूचितों और अल्पसंख्यकों ​​के हक हकूक की हिफाजत में बोलने से उन्हें सखत परहेज है। जलेस के पलटीमार बयानों में भी इसी मानसिकता की चामत्कारिक अभिवयक्ति हुई है।

अगर रश्दी और तसलिमा के लिखे से अल्पसंख्यकों की भावनाएं आहत होती​ हैं तो क्या बंगाल की आठ फीसद शासक जातियों के अलावा बाकी जनता की भावनाओं को आहत होने का अधिकार भी नहीं है। कान्यकुब्ज ब्गाह्मणों के वंशजों के राज में पक्ष विपक्ष बाकी शासित बानब्वे फीसद के हक हकूक की चर्चा तक की इजाजत नहीं है। वाक् स्वतंत्राता के नाम पर कुछ​​ भी कहना संभव है तो कुछ लोगों के खिलाफ कार्रवाई होती है तो बाकी लोगों के खिलाफ क्यों नहीं। बंगाल से चारों वेदों के अध्येता एक उत्तरआधुनिक मीडिया विशेषज्ञ का कहना है कि चूंकि मजबूत किले पर हमला हुआ है, तो बेचैनी है।यह मजबूत किला कहां है? कितना पुराना है? और इस किले के रक्षक कौन हैं? ऐसी किलेबंदी होती तो इस देश के आदिवासी जल जंगल जमीन और आजीविका से निर्विरोध बेदखल नहीं किये जाते। ऐसी घनघोर किलेबंदी​ ​ होती तो केंद्र और राज्यों में अति अल्पसंखक खास जातियों का राज नहीं होता। भ्रष्टाचार के मामलों में गिनाने लायक नाम सिर्फ राजनीतिक संरक्षण से उत्पन्न मलाईदार तबके के चुनिंदा लोग ही नहीं होते। यह सही है कि मीडिया ने पूरी बात का खुलासा नहीं किया और सनसनीखेज टुकड़े पेश​​ किये। हम मायावती या राम विलास पासवान या पिछड़ों, अनुसूचितों और अल्पसंख्यकों के राजनेताओं में से किसी के समर्थक नहीं हैं और न ही​​ हम नंदी को उनके वक्तव्य के लिए सजा दिलाने के पक्षधर हैं। हम नंदी, रश्दी, तसलिमा और उनके साथ ही इरोम शर्मिला, सोनी सोरी, कबीर ​​कला केंद्र, उत्तर प्रदेश के रिहाई मंच, कश्मीर और पूर्वोत्तर के मानवाधिकार आंदोलन के कार्यकर्ताओं और देश भर में अबाध पूजी प्रवाह के विरुद्ध, भूमि सुधार के हक में, परमाणु विध्वंस के खिलाफ लड़ते, बड़े बांधों के खिलाफ आंदोलन कर रहे कार्यकर्ताओं, भोपाल गैस त्रासदी और गुजरात नरसंहार सिखों के नरसंहार का न्याय मांगने वालों की वाक् स्वतंत्रता के भी पक्षधर हैं।

हम तो बाकायदा  आशीष नंदी के कहे पर बहस चलाने की बात कर रहे हैं। पर मीडिया में नंदी की वाक् स्वतंत्रता का महिमामंडन तो है लेकिन ​लोकतांत्रिक समाज में प्रतिपक्ष के विचारों को समान महत्व देने की जो अवधारणा है, उसके मुताबिक हमारी बात कहने की कोई जगह नहीं है। आशीष नंदी की हैसियत से और उनकी बहस शैली में पारंगता से कोई इंकार नहीं है। उन्होंने बहस के लिए गौरतलब मुद्दे उठाये हैं, उनपर चर्चा जरुर होनी​​ चाहिेए। भ्रष्टचार में भी जाति की गिनती जरुर हो , हम तो सिर्फ जाति आधारित जनगणना की बात कर रहे हैं।जो संसद में सर्वदलीय सर्वानुमति के बवजूद हुई नहीं है। अगर जनसंख्या अनुपात न मालूम हो तो गणित के हिसाब से भ्रष्टाचार का बिवादित समीकरण हल कैसे कर लिया जायेगा? उनके जैसे समाजशास्त्री अगर कहते हैं कि बंगाल में पिछले सौ साल ​​से पिछड़ों और अनुसूचितों को सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिली , इसलिए बंगाल में भ्रष्टाचार सबसे कम है, तो इस पर सवाल कैसे उठाये जा सकते हैं इसी फार्मुले को बाकी देश में बी अपनाया जाना चाहिए। बंगाल में तर्क यह है कि जब आर्थिक विकास में बंगाल के अनुसूचित और पिछड़े बाकी देश से आगे हैं तो राजनीतिक हिस्सेदारी की जरुरत ही क्या​ ​ हैय़ हम तो उन्हींके तर्क के आधार पर कहते हैं कि आप जरा सुप्रीम​​ कोर्ट के न्यायाधीश की अध्यक्षता में सच्चर आयोग की तरह एक और आयोग गढ़ दें जो पता करें कि बंगाल में किसकिसका कितना विकास हुआ और किस किस का नहीं हुआ।ऐसे सर्वे से बंगाल में जंगल महल और पहाड़ की असली समस्या के बारे में खुलासा हो जायेगा और हम जैसे ​​लोग मिथ्या भ्रम नहीं फैला पायेंगे। आयोग यह जांच करे कि बंगाल में ओबीसी जातियां कौन कौन सी हैं और उनका कितना विकास हुआ। अनुसूचितों और अल्पसंख्यकों का कितना विकास हुआ और बंगाल में बड़ी संख्या में रह रहे गैर बंगालियों का कितना विकास हुआ। सांच को आंच नहीं। हम सच उजागर होने पर अपना तमाम लिखा वापस ले लेंगे।​


गौरतलब है कि मशहूर लेखक सलमान रश्दी ने अपना कोलकाता दौरा रद करने के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को जिम्मेदार ठहराया है। उन्होंने ट्वीट किया है कि ममता बनर्जी के कारण उन्हें अपना दौरा रद करना पड़ा। मुख्यमंत्री के निर्देश पर पुलिस ने उनसे कहा कि वह उन्हें संपूर्ण सुरक्षा प्रदान नहीं कर पाएगी। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के निर्देश पर ही पुलिस ने उन्हें रोका है। उनसे कहा गया कि कोलकाता आने पर उन्हें अगले ही विमान से वापस भेज दिया जाएगा।

झूठ बोल रहे आयोजक

रश्दी ने कोलकाता पुस्तक मेले के आयोजकों के उन्हें आमंत्रित नहीं करने के दावे को भी झूठा करार दिया। उन्होंने कहा कि उनके पास आमंत्रण के लिए भेजा गया ई-मेल और विमान का टिकट है। लिटररी मीट के आयोजक सच नहीं कह रहे हैं।

उधर बुकसेलर्स एंड पब्लिसर्स गिल्ड के सचिव त्रिदिव चटर्जी ने कहा कि रश्दी को गिल्ड की तरफ से आमंत्रित नहीं किया गया था। लिटररी मीट का आयोजन एक स्वतंत्र संस्था करती है।

महिला अधिकार समूहों ने रेप कानूनों पर केंद्र सरकार के अध्यादेश को खारिज करते हुए कहा है कि इसमें जस्टिस वर्मा आयोग की चुनिंदा सिफारिशों को ही शामिल किया गया है।

उन्होंने एक संयुक्त बयान में कहा कि सरकार ने पूरी तरह से पारदर्शिता की कमी बरती और हम राष्ट्रपति से आग्रह करते हैं कि वह ऐसे अध्यादेश पर हस्ताक्षर नहीं करें। इस समूह में महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली वकील वृंदा ग्रोवर, जागोरी की सुनीता धर, ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वूमेन्स एसोसिएशन की कविता कृष्णन और पार्टनर्स फॉर लॉ एंड डेवलेपमेंट की मधु मेहरा शामिल थीं।

उल्लेखनीय है कि सरकार ने शुक्रवार को महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लिए कानून को सख्त बनाने और संशोधन के लिए अध्यादेश को मंजूरी दे दी, जिसमें बेहद गंभीर मामलों में मौत की सजा तक का प्रावधान किया गया है, लेकिन वैवाहिक बलात्कार और विवादास्पद आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट (एएफएसपीए) पर जस्टिस वर्मा आयोग की सिफारिशों को नजरअंदाज कर दिया है।

अध्यादेश में यौन अपराधों का सामना कर रहे राजनेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने संबंधी वर्मा आयोग की सिफारिश पर भी कुछ नहीं कया गया है। जस्टिस वर्मा आयोग ने सुझाव दिया था कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध माना जाए, जो कि महिला अधिकार कार्यकर्ताओं की प्रमुख मांगों में से एक है।

सरकार ने सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून पर वर्मा समिति की यह सिफारिश नामंजूर कर दी कि यदि सशस्त्र बल के जवान महिला के खिलाफ अपराध के आरोपी पाए जाते हैं, तो किसी मंजूरी की जरूरत नहीं होगी। लेकिन सरकार ने इस कानून को महिलान्मुखी बनाते हुए यह सुझाव दिया है कि यौन अपराध की पीड़ित का बयान केवल महिला पुलिस अधिकारी ही लेगी।

उल्लेखनीय है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए कठोर सिफारिशों को शीघ्र लागू करने के प्रयास के तहत शुक्रवार रात को इस संबंध में एक अध्यादेश को मंजूरी दी। न्यायमूर्ति जे एस वर्मा समिति की सिफारिशों पर आधारित और उससे भी आगे जाकर इस अध्यादेश में 'बलात्कार' शब्द के स्थान पर 'यौन हिंसा' रखने का प्रस्ताव है, ताकि उसके दायरे में महिलाओं के खिलाफ सभी तरह के यौन अपराध शामिल हों।

इसमें महिलाओं का पीछा करने, दर्शनरति, तेजाब फेंकने, शब्दों से अश्लील बातें करने, अनुपयुक्त स्पर्श जैसे महिलाओं के खिलाफ अन्य अपराधों के लिए सजा बढ़ाने का प्रस्ताव है। इसके दायरे में वैवाहिक बलात्कार को भी लाया गया है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने संसद के बजट सत्र से तीन सप्ताह पहले ही विशेष रूप से आयोजित अपनी बैठक में वर्मा समिति की सिफारिशों से आगे बढ़कर उस स्थिति के लिए मृत्युदंड का प्रावधान किया है, जहां बलात्कार की पीड़िता की मौत हो जाती है या वह कोमा में चली जाती है। ऐसे मामलों में न्यूनतम सजा 20 साल की जेल की सजा होगी जिसे उसके प्राकृतिक जीवनावधि तक बढ़ाया जा सकता है या फिर मृत्युदंड दिया जा सकता है। अदालत अपने विवेक के आधार पर निर्णय करेगी।

साहित्यिक और फिल्म समुदाय आज विवादित लेखक सलमान रुश्दी के समर्थन में आ गया और उनका कोलकाता दौरा रद्द होने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार को जिम्मेदार ठहराया।

मैग्सेसे अवॉर्ड से सम्मानित महाश्वेता देवी ने कहा कि यदि एक विश्व प्रसिद्ध लेखक कोलकाता नहीं आ पाता है तो यह वाकई काफी दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने कहा कि कोलकाता हमेशा से हर किसी के लिए एक खुला शहर रहा है। इसने दुनिया भर के लेखकों का स्वागत किया है और उनकी मदद की है। इस तरह से इसमें एक अलग तरह की गहराई है, लेकिन अब जो कुछ भी हो रहा है वह काफी अजीबोगरीब है और मुझे इसमें कोई तर्क नजर नहीं आता।महाश्वेता देवी ने कहा कि राज्य सरकार को रश्दी को पर्याप्त सुरक्षा मुहैया करानी चाहिए थी और शहर में उनके ठहरने का इंतजाम करना चाहिए था।

जाने-माने फिल्मकार मृणाल सेन ने कहा कि यह रश्दी से अन्याय है। जब मैं इस तरह की चीजें सुनता हूं तो काफी बुरा लगता है। दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड से नवाजे जा चुके अभिनेता सौमित्र चटर्जी ने भी इसे 'दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण' करार देते हुए इस घटना की निंदा की।

साल 2007 में कोलकाता से निकाल दी गईं बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन से जब संपर्क किया गया तो उन्होंने कहा कि उस वक्त लोग चुप्पी साधे हुए थे और लेखकों के खिलाफ प्रदर्शन कोलकाता में एक परंपरा का रूप ले चुका है।


जगतविख्यात समाजशास्त्री आशीष नंदी ने जो कहा कि भारत में ओबीसी, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सशक्तीकरण​​ से ही भ्रष्टाचार बढ़ा, उसे लेकर विवाद अभी थमा नहीं। राजनीतिक आरक्षण से सत्ता की मलाई चाट रहे लोग सबसे ज्यादा विरोध कर रहे हैं तो कारपोरेट भ्रष्टाचार और अबाध पूंजी प्रवाह, बायोमेट्रिक नागरिकता और गैरकानूनी डिजिटल आधार ककार्ड योजना के जरिये जल जंगल जमीन से इन लोगों की बोदखली के खिलाफ राजनीतिक संरक्षण के मसीहा खामोश हैं तो सिविल सोसाइटी का आंदोलन सिर्फ इसलिए है कि अश्वमेध की नरसंहार​ संस्कृति के लिए सर्वदलीय सहमति से संविधान, कानून और लोकतंत्र की हत्या के दरम्यान मुद्दों को भटकाने का काम हो। सिविल ​​सोसाइटी का आंदोलन आरक्षण विरोधी है तो कारपोरेट जयपुर साहित्य उत्सव को ही आरक्षण विरोधी मंच में तब्दील कर दिया आशीष​​ बाबू ने और इसे वाक् स्वतंत्रता बताकर सिविल सोसाइटी उनके मलाईदार विरोधियों की तरह ही मैदान में जम गये हैं। राजनीति को सत्ता समीकरण ही नजर आता है और अपने अपने समीकरण के मुताबिक लोग बोल रहे हैं। वाक् स्वतंत्रता तो समर्थ शासक वर्ग को ही है, बाकी लोगों की ​​स्वतंत्रता का नजारा या तो कश्मीर है या फिर मणिपुर और समूचा उत्तर पूर्व भारत , या फिर सलवा जुड़ुम की तरह रंग बिरंगे अभियानों के ​​तहत राष्ट्र के घोषित युद्ध में मारे जा रहे लोगों का युद्धस्थल दंडकारण्य या देश का कोई भी आदिवासी इलाका। वाक् स्वाधीनता का मतलब तो बारह साल से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के विरोध में आमरण अनशन पर बैठी इरोम शर्मिला या पुलिसियाजुल्म के खिलाफ एकदम अकेली लड़ रही सोनी सोरी से पूछा जाना चाहिए।​

सत्तावर्ग के किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति ने अपनी अवधारणा के सबूत बतौर यह सच पहली बार कबूल किया वरना बंगाल में तो जाति उन्मूलन ​​का दावा करने से लोग अघाते ही नहीं है। गायपट्टी अभी मध्ययुग के सामंती व्यवस्था में जी रहा है और वहीं जात पाँत की राजनीति होती है, यही कहा जाता है। राजनीति में सत्ता में हिस्से दारी में जो मुखर हैं, उनके अलावा ओबीसी और अनुसूचित जातियों की बहुसंख्य जनता इस मुद्दे पर ​​खामोश हैं क्योंकि हजारों साल से अस्पृश्यता का दंश झेलने के बाद इस तरह के लांछन से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता और न ही वे किसीतरह के भ्रष्टाचार में लिप्त हैं ज उन्हें अपनी ओर से मलाईदार लोगों की तरह सफाई देने की जरुरत है। वे तो मारे जाने के लिए चुने हुए लोग हैं और उत्तर आधुनिक तकनीकें उनका बखूब सफाया कर रहे हैं। इन समुदायों में देश की ज्यादातर किसान जातियां हैं , जिनकी नैसर्गिक आजीविका खेती का सत्यानाश कर दिया गया, ऊपर से जल जंगल जमीन , नागरिकता और मानवाधिकार से उन्हें वंचित, बेदखल कर दिया जा रहा है। उनके सामने तीन ही​ विकल्प हैं: या तो निहत्था इस महाभारत में मारे जायें, अश्वमेध यज्ञ में परम भक्ति भाव से अपनी बलि चढ़ा दें, या आत्महत्या कर लें​  या अंततः प्रतिरोध करें। ऐसा ही हो रहा है। बंगाल में हमारे लिखे की कड़ी प्रतिक्रिया है रही है। कहा जा रहा है कि बंगाल में ओबीसी और अनुसूचित बाकी देश से आर्थिक रुप से ज्यादा संपन्न हैं तो उन्हें जात पाँत की राजनीति करके सत्ता में हिस्सेदारी क्यों चाहिए। कहा जा रहा है कि​ ​ भारत भर में बंगाली शरणार्थी महज पांच लाख हैं और उनमें से भी साठ फीसद सवर्ण। माध्यमों और आंकड़ों पर उन्हीका वर्चस्व है और कुछ भी कह सकते हैं। पर दबे हुए लोग भी बगावत करते हैं। परिवर्तन के बाद पहाड़ और जंगलमहल में अमन चैन लौटने के बड़े बड़े दावा किये जाते ​​रहे हैं। कल दार्जिलिंग में यह गुब्बारा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के सामने ही फूट गया और लोग गोरखालैंड के नारे लगाने लगे। खतरा तो यह है कि जंगल महल में भी कभी भी ऐसा ही विस्फोट हो सकता है। राजनीतिक शतरंज बिछाकर अपने चहेते चेहरे नेतृत्व में लाकर समस्याओं का निदान नहीं होता।समस्याओं से नजर भले हट जाये, समस्याएं जस की तस बनी रहती हैं।गौरतलब है कि जिन समुदायों के आर्थिक सशक्तीकरण का दावा किया जाता है, समस्याग्रस्त इलाकों में उन्हीकी आबादी ज्यादा है। यह ​​सर्वविदित है कि देशभर में आदिवासियों के पांचवीं अनुसूची और छठीं अनुसूची के तहत दिये जाने वाले अधिकारों से कैसे वंचित किया जाता​ ​ है।

इस सिलसिले में हमारा विनम्र निवेदन है कि जैसे सच्चर कमिटी की रपट से बंगाल में सत्ताइस फीसदी मुसलमानों की दुर्गति का खुलासा​ ​ हुआ और जनांदोलन में चाहे जिनका हाथ हो या चाहे जिनका नेतृत्व हो, इस वोट बैंक के बगावती तेवर के बिना बंगाल में परिवर्तन ​​असंभव था। पहाड़ और जंगल महल में आक्रोश के बिना भी बंगाल में न परिवर्तन होता और न मां माटी मानुष की सरकार बनतीष हम मान लेते हैं कि बंगाल में जाति उन्मूलन हो गया। यह भी मान लेते हैं कि मध्ययुग में जी रहे गायपट्टी की तरह बंगाल में किसी सामाजिक बदलाव की जरुरत ही नहीं रह गयी।सत्ता में भागेदारी के बिना सबका समान विकास हो गया और बाकी देश के मुकाबले बंगाल दूध का धुला है।


दीपा मेहता की फिल्म 'मिडनाइट्स चिल्ड्रन' के प्रमोशन के लिए फेमस लेखक सलमान रश्दी कोलकाता नहीं आएंगे। सुरक्षा कारणों से उनकी यात्रा को रद्द कर दिया गया है।गौरतलब है कि रश्दी भारत की स्वाधीनता और देश विभाजन पर लिखी अपनी किताब 'मिडनाइट चिल्ड्रेन' पर बनी दीपा मेहता की फिल्म के प्रचार के सिलसिले में महानगर आने वाले थे। बुकर पुरस्कार से सम्मानित इस पुस्तक में बंगाल का भी उल्लेख है। फिल्म के प्रचार के लिए रश्दी पिछले कुछ दिनों से बिना किसी बाधा के दिल्ली, बंगलुरु और मुंबई का दौरा कर चुके हैं। कोलकाता में प्रचार का आखिरी चरण था। रश्दी पांच साल पहले कोलकाता आए थे। उस समय उनका कोई विरोध नहीं हुआ था।फिल्मकार दीपा मेहता का कहना है कि कोलकाता लिटरेरी मीट (केएलएम) के आयोजकों ने सलमान रश्दी को कोलकाता आमंत्रित किया था। गौरतलब है कि आखिरी समय पर सुरक्षा से जुड़े मुद्दे के चलते रश्दी को कोलकाता दौरा रद्द करना पड़ा था। भारतीय-कनाडाई फिल्म डायरेक्टर मेहता ने ट्वीट किया, '(रश्दी) वह सरप्राइज गेस्ट होने वाले थे...लिट मीट ने उनके टिकट (मुंबई-कोलकाता फ्लाइट टिकट) के लिए खर्च किया।' मेहता की बात की पुष्टि करते हुए रश्दी ने उनके ट्वीट को दोबारा ट्वीट किया। सलमान रश्दी के पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर उनके कोलकाता दौरे को रुकवाने के आरोपों के बीच तृणमूल कांग्रेस नेता सुल्तान अहमद ने रश्दी के बारे में विवादित टिप्पणी की है। सुल्तान अहमद ने कहा कि सलमान रश्दी सलमान नहीं 'शैतान रश्दी' हैं।इससे पहले रश्दी ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर उनका कोलकाता दौरान रद्द करवाने का आरोप लगाया। रश्दी को उनके उपन्यास 'मिडनाइट्स चिल्ड्रन' पर बनी दीपा मेहता की फिल्म के प्रमोशन के सिलसिले में कोलकाता जाना था, लेकिन आयोजकों के पीछे हटने के कारण उन्हें दौरान रद्द करना पड़ा।रश्दी ने उनको न्योता देकर मुकरने वाले आयोजकों पर भी जमकर भड़ास निकाली। उन्होंने कहा कि कोलकाता लिटरेरी मीट के आयोजक झूठ बोल रहे हैं कि उन्होंने उनको न्योता नहीं भेजा था। रश्दी ने कहा कि उनके पास आयोजकों के भेजे ई-मेल और प्लेन के टिकट मौजूद हैं।

मालूम हो कि कोलकाता के टीपू सुलतान मसजिद के शाही इमाम ने भी दावा किया कि उनके कहने पर ममता ने रश्दी को बंगाल आने से रोक दिया।उन्होंने दावा किया कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उन्हीं के इशारे पर कोलकाता पुलिस को यह आदेश दिया था कि वह विवादित लेखक सलमान रुश्दी को कोलकाता आने से रोके। मुसलमानों की भावनाओं का निश्चय ही आदर किया जाना चाहिए और चुनावी समीकरण जब उनपर निर्भर हैं तो बिना कुछ किये महज उनकी भावनाओं को सहलाने से अगर राज कायम रहता है तो सौदा बुरा भी नहीं है। लेकिन मुसलमान नेता खुद दावा करते हैं कि बंगाल में नब्वे फीसदी मुसलमान ​​ओबीसी हैं। अगर यह सही है तो आशीष नंदी के बयान पर उनकी कोई राय क्यों नहीं है?

टीपू सुल्तान मस्जिद के शाही इमाम सैयद नूर-उर-रहमान ने पीटीआई से कहा, 'मैंने ममता को एक संदेश भिजवाया था कि रुश्दी के दौरे से कोलकाता में सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ेगा और मुसलमानों की भावनाएं आहत होंगी। उन्होंने हमें यकीन दिलाया था कि रुश्दी को शहर में दाखिल होने की इजाजत नहीं दी जाएगी।' ममता के फैसले की तारीफ करते हुए इमाम ने कहा कि रुश्दी को कोलकाता नहीं आने देने का आदेश पुलिस को देकर मुख्यमंत्री ने अच्छा काम किया।

इमाम ने कहा, 'हमारे साथ इस मुद्दे पर चर्चा के बाद उन्होंने पुलिस को आदेश दिया। हमने उनसे कहा कि यदि रुश्दी का दौरा होता है तो कुछ अल्पसंख्यक संगठन इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन करेंगे।' अखिल भारतीय अल्पसंख्यक मंच के अध्यक्ष और तृणमूल कांग्रेस के नेता इदरीस अली ने कहा, 'मुख्यमंत्री राज्य में सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखना चाहती हैं। मैं उन्हें, पुलिस और प्रशासन को शांति कायम करने में उचित फैसले करने के लिए बधाई देता हूं।' बहरहाल, कोलकाता पुलिस और राज्य सरकार के अधिकारियों ने अब तक रश्दी की कोलकाता यात्रा रद्द होने में अपनी भूमिका से इंकार किया है।गृह विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि मंगलवार शाम गृह विभाग को सलमान रश्दी के अगले दिन मुंबई से कोलकाता आने की सूचना मिली। तुरंत मुंबई पुलिस से संपर्क करके सूचित किया गया कि 12 घंटे पहले खबर मिलने पर रश्दी की सुरक्षा की व्यवस्था करना मुश्किल है। कुछ देर बाद मुंबई पुलिस की तरफ से कहा गया कि रश्दी कोलकाता नहीं आएंगे। वैसे रश्दी के लिए दमदम हवाई अड्डे पर सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए गए थे। तय किया गया था कि बुधवार सुबह दस बजे जेट एयरवेज के विमान से कोलकाता पहुंचने के बाद रश्दी को सबकी नजरों से बचाकर सात नंबर गेट से बाहर निकाला जाएगा। फिर वहां गाड़ी बदलकर एक पांच सितारा होटल में ले जाया जाएगा। पुलिस को जो सूचना मिली थी, उसमें रश्दी के शाम सात बजे के बाद कोलकाता पुस्तक मेले में जाने की बात थी जो अंतत: संभव नहीं हो पाई। पिछले साल जयपुर में हुए साहित्य सम्मेलन में भी सुरक्षा कारणों से रश्दी नहीं जा पाए थे।


राज्य सरकार द्वारा सलमान रश्दी के आगमन को प्रतिबंधित कर इस साहित्य-संस्कृति प्रेमी ऐतिहासिक शहर की वैश्विक कलाकारों लेखकों, बुद्धिजीवियों को आमंत्रित करने की लंबी परंपरा पर लगे आघात का असर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की जर्मन मूल की पुत्री अनीता बोस फैफ के मन पर देखा गया। 6 वर्ष के अंतराल के बाद महानगर के दौरे पर अनीता ने इस शहर को आश्चर्य जनक कहा।

दिग्गज अभिनेता व दादासाहब फाल्के पुरस्कार विजेता सौमित्र चटर्जी ने भी घटना की आलोचना की। चटर्जी ने कहा कि यह वास्तव में दुखद घटना है। मैं इसकी आलोचना करता हूं। मुझे लगता है कि किसी को भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में दखल नहीं देना चाहिए।

बृहस्पतिवार को सीआईआई के एक आर्थिक परिचर्चा कार्यक्त्रम के उपरांत अनीता ने संवाददाताओं से औपचारिक बातचीत में कहा कि उनके [सलमान रुश्दी] कोलकाता आगमन को प्रतिबंधित किए जाने को लेकर बहुत क्षुब्ध हूं। यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है। खास कर कोलकाता जैसे शहर के लिए। मैं कल्पना नहीं कर पा रही हूं कि उनके यहां आने का अनुभव कैसा रहता।

समाज में धर्म की आड़ में किसी तरह की असहिष्णुता या चरमपंथ बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए थी। उन्होंने बहरहाल दौरे को रद करने के लिए राज्य सरकार पर प्रत्यक्ष तौर पर कोई टिप्पणी नहीं की लेकिन इशारों में उन्होंने कहा कि बंगाल और कोलकाता में ऐसे असहिष्णु तत्वों को प्रश्रय देना ठीक नहीं है। उल्लेखनीय है कि विख्यात लेखक सलमान रुश्दी का बुधवार कोलकाता दौरा सरकार को मुस्लिम संगठनों के दबाव में आकर रद कराना पड़ा। रुश्दी एक प्रकाशन कंपनी की ओर से आयोजित कार्यक्रम में शिरकत करने वाले थे। इस दौरान उन्हें अपनी रचना मिडनाइट चिल्ड्रेन पर बनी फिल्म की लांचिंग भी करनी थी। जर्मनी के आसबर्ग शहर की पूर्व मेयर और वहां के विवि में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर होने के अलावा एक महान पिता की पुत्री अनीता बोस ने कहा आज देश को और देशवासियों को नेताजी के नेतृत्व से प्रेरणा लेनी चाहिए।

चर्चित लेखक सलमान रश्दी पर भारत में पहली बार इस्लामिक विद्वानों ने नरम रुख दिखाते हुए उन्हें इस्लाम और पैगंबर मोहम्मद की जिंदगी पर डिबेट की चुनौती दी है। मुंबई में एक सेमिनार के दौरान इस्लामिक विद्वानों ने रश्दी के विरोध के बजाय उनसे बहस करने की पहल की। इस ग्रुप में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) के मेंबर भी शामिल हैं। गौरतलब है कि 1980 में विवादित उपन्यास 'सटैनिक वर्सिज़' लिखने के बाद से मुस्लिम संगठन रश्दी की भारत यात्रा तक का विरोध करते रहे हैं।

मुंबई में रविवार को एक सेमिनार अजमत-ए-रसूल (पैगंबर साहब की महानता) में कई इस्लामिक विद्वानों ने शिरकत की। सेमिनार का आयोजन एनजीओ वहादत-ए-इस्लामी हिंद ने किया था। सेमिनार के दौरान AIMPLB के मेंबर और वकील यूसुफ मुचाला ने अपने प्रस्ताव से सभी को चौंका दिया। उन्होंने कहा, 'हमें रश्दी के मुंबई आने का विरोध करने के बजाय यहां आने पर उनसे कुछ सवाल करने चाहिए। अगर उनमें दम है तो वह बताएं कि उन्होंने 'सटैनिक वर्सिज़' जैसी बेतुकी किताब किस आधार पर लिखी।'पर्सनल लॉ बोर्ड के लीगल सेल के प्रमुख मुचाला ने साथ ही मुस्लिमों से अपील की कि वह रश्दी के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शन न करें। गौरतलब है कि रश्दी अपने उपन्यास 'मिडनाइट्स चिल्ड्रन' पर दीपा मेहता द्वारा बनाई गई फिल्म के प्रचार के सिलसिले में मुंबई आने वाले हैं।

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में लॉ के प्रफेसर शकील समदानी ने भी मुचाला का समर्थन किया। उन्होंने कहा, 'रश्दी को मुस्लिमों की भावनाओं को समझना चाहिए। मुस्लिमों को उन्हें जान से मारने की धमकी देने के बजाय डिबेट की चुनौती देनी चाहिए।' गौरतलब है कि रश्दी को लेकर वहादत-ए-इस्लामी के तेवर पिछले साल तक बेहद सख्त थे। संगठन ने रश्दी की भारत यात्रा का विरोध किया था। इसके बाद रश्दी को यात्रा रद्द करनी पड़ी थी।


डा जगदीश्वर चतुर्वेदी, जाने माने मार्क्सवादी साहित्यकार और विचारक हैं. इस समय कोलकाता विश्व विद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं उन्होंने लिखा हैः

`टीवी मीडिया पर ज्ञानीजी कह रहे हैं कि अभिव्यक्ति की आजादी के लिए हमें मर्यादा की सीमा तय करनी चाहिए।

अरे अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा तय नहीं कर सकते। अभिव्यक्ति का क्षितिज किसी सीमा में नहीं बांध सकते। अभिव्यक्ति में मर्यादा की मांग अंततः अभिव्यक्ति में कटौती और नियंत्रण की मांग है। अभिव्यक्ति को यह नैतिक आधार पर देखना होगा। अभिव्यक्ति का मसला मर्यादा या सीमा का मसला नहीं है।

भाषण में किस तरह की भाषा होगी, यह वक्ता तय करेगा। आशीष नंदी के बयान की भाषा को लेकर ज्ञानी लोग टीवी में बैठकर सवाल कर रहे हैं कि वे ऐसे नहीं, ऐसे बोलते तो मामला ठीक रहता। ये लोग भूल रहे हैं कि भाषा पर विवाद नहीं है, विवाद आशीष नंदी के आइडिया के कारण हुआ है। आशीष नंदी अपने विचार को वापस लेने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में पुलिस-कचहरी आदि के बहाने ये तथाकथित हाशिए की राजनीति करने वाले लोग कानूनी आतंकवाद का सहारा ले रहे हैं ।

जजों के एक वर्ग में भी कानूनी आतंकवाद की महत्ता बनी हुई है। जज कैसे तय कर सकते हैं कि किसी वक्ता को क्या कहना चाहिए।

दलित विचारकों का एक वर्ग यह कह रहा है कि उनके विचारों को चुनौती नहीं दी जा सकती। यह धारणा लोकतंत्रविरोधी है। लोकतंत्र में सभी किस्म के विचारों और नीतियों की निंदा-आलोचना हो सकती है। लोकतंत्र विचारों का विश्वविद्यालय है। यह एक वर्ग के विचारों का संरक्षकतंत्र नहीं है। गजब कुतर्क दिए जा रहे हैं कुछ लोग कह रहे हैं कि आशीष नंदी ने गलत बात की है अतः उनको जेल भेजो। इस तरह के लोग मीडिया से लेकर अदालत तक भीड़तंत्र को लोकतंत्र का सिरमौर बनाने में लगे हैं। ये भीड़तंत्र के छोटे हिटलर हैं।

अभिव्यक्ति की आजादी की धारणा के जन्म लेने के बाद विचारकों ने बार-बार अभिव्यक्ति की सीमाओं को तोड़ा है और अभिव्यक्ति के नए दायरे पैदा किए हैं। मर्यादा को मानते तो नए दायरे नहीं पैदा होते। यह काम लेखकों-विचारकों ने पुराने सोच, विचार, मान्यता, मूल्य और न्याय व्यवस्था आदि के बारे में निर्मम विचार संग्राम चलाकर किया है।

ग्राम्शी कहते थे युद्ध में शत्रु के कमजोर हिस्सों पर हमले करो और विचारों की जंग में शत्रु के मजबूत किले पर हमला करो। आशीष नंदी ने मजबूत किले पर हमला बोला है इसीलिए इतनी बेचैनी है।'

आशीष नंदी की गिरफ्तारी पर रोक, पर टिप्पणी की आलोचना

उच्चतम न्यायालय ने जयपुर साहित्य उत्सव में समाजशास्त्री आशीष नंदी की कथित दलित विरोधी टिप्पणियों के सिलसिले में उनकी गिरफ्तारी पर शुक्रवार को रोक लगाते हुए सख्त लहजे में कहा कि उन्हें इस प्रकार की टिप्पणी करने का कोई लाइसेंस नहीं मिला है।

प्रधान न्यायाधीश अलतमस कबीर, न्यायमूर्ति अनिल आर दवे और न्यायमूर्ति विक्रमजीत सेन की खंडपीठ ने यह प्राथमिकी निरस्त करने के लिये दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा कि वह लगातार इस तरह के बयान नहीं दे सकते है। आपकी जो भी मंशा रही हो, लेकिन आप लगातार ऐसे बयान नहीं दे सकते हैं।

न्यायाधीशों ने आशीष नंदी के वकील अमन लेखी से कहा कि अपने मुवक्किल से कह दीजिये कि उन्हें ऐसे बयान देने का लाइसेंस नहीं मिला है। न्यायाधीशों ने अपने आदेश में कहा कि इस दौरान नंदी को 26 जनवरी को जयपुर साहित्य उत्सव में उनके बयान के बाद दर्ज प्राथमिकियों के सिलसिले में गिरफ्तार नहीं किया जायेगा।

न्यायालय ने इसके साथ ही आशीष नंदी की याचिका पर केन्द्र और राजस्थान, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और बिहार सरकार को भी नोटिस जारी किये। जयपुर के अलावा रायपुर, नासिक और पटना जिलों में भी आशीष नंदी की कथित टिप्पणियों को लेकर प्राथमिकी दर्ज हुई हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों को चार सप्ताह के भीतर नोटिस के जवाब देने हैं।

न्यायालय ने आशीष नंदी को गिरफ्तारी से संरक्षण देने के लिये दायर याचिका पर एक वकील की संक्षिप्त आपत्ति के बाद यह आदेश दिया। इस वकील का दावा था कि दलित समुदाय का सदस्य है और वह चाहते थे कि गिरफ्तारी के खिलाफ संरक्षण की नंदी की याचिका पर विचार नहीं किया जाये। न्यायालय ने कहा कि उनकी आपत्ति पर तभी विचार किया जायेगा, जब वह इस बारे में अर्जी दायर करेंगे।

घृणा फैलाने वाला बयान: अकरुद्दीन से हिरासत में पूछताछ शुरू

हैदराबाद। निजामाबाद पुलिस आज एमआईएम विधायक अकबरुद्दीन ओवैसी से पूछताछ कर रही है जो कि गत वर्ष दिसम्बर में दिये अपने कथित 'घृणा फैलाने वाले बयान' के लिए राजद्रोह के आरोपों का सामना कर रहे हैं।

पुलिस ने बताया कि अकबरुद्दीन फिलहाल न्यायिक हिरासत में अदिलाबाद जिला जेल में बंद हैं। अकबरुद्दीन को सुबह निजामाबाद नगर लाया गया तथा सशस्त्र रिजर्व मुख्यालय में जांच अधिकारी उनसे पूछताछ कर रहे हैं।

इससे पहले निजामाबाद की एक अदालत ने अकबरुद्दीन को दो दिन :एक और दो फरवरी: के लिए पुलिस हिरासत में सौंपा था ताकि उनसे निजामाबाद नगर में गत वर्ष आठ दिसम्बर को दिये गए उनके बयान को लेकर पूछताछ की जा सके।

गत वर्ष दिसम्बर में निजामाबाद और निर्मल में एक विशेष समुदाय के खिलाफ कथित रूप से भड़काऊ बयान देने के लिए निर्मल पुलिस और अदिलाबाद एवं निजामाबाद द्वितीय नगर पुलिस ने स्वत: संज्ञान लेते हुए अकबरुद्दीन के खिलाफ मामला दर्ज किया था। इसके अलावा हैदराबाद स्थित ओस्मानिया विश्वविद्यालय पुलिस और आंध्र प्रदेश के अन्य हिस्सों में अकबरुद्दीन के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था।



डीजल के दाम हर महीने 40-50 पैसे प्रति लीटर बढेंगे : मोइली



डीजल के दाम हर महीने 40-50 पैसे प्रति लीटर बढेंगे : 

मोइली

Friday, 01 February 2013 15:53
नयी दिल्ली। डीजल की बिक्री पर सरकारी तेल कंपनियों को हो रहे घाटे की भरपाई के लिए इसकी कीमतें हर माह 40 से 50 पैसे प्रति लीटर बढायी जाएंगी। देश में पेट्रोलियम र्इंधनों में सबसे ज्यादा खपत डीजल की ही होती है। 
पेट्रोलियम मंत्री एम वीरप्पता मोइली ने आज यहां पत्रकारों से कहा, ''आगे किसी अन्य आदेश तक तेल विपणन कंपनियां डीजल के दामों में हर माह 40-50 पैसे प्रति लीटर की बढ़ोतरी कर सकती हैं। ''
उल्लेखनीय है कि सरकार ने डीजल की कीमतों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का निर्णय 17 जनवरी को ही ले लिया था। इस निर्णय के तहत सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों डीजल की कीमतों में तब तक प्रतिमाह थोड़ी थोड़ी वृद्धि करने की छूट दी गयी है जब तक कि उनका घाटा पूरा न हो जाए।  
फिलहाल डीजल पर उन्हें आयात मूल्य के हिसाब से 10.80 रुपए प्रति लीटर का घाटा हो रहा है।  
तेल कंपनियों ने 17 जनवरी को प्रति लीटर डीलर में 45 पैसे की बढ़ोतरी की थी। दिल्ली में इस समय डीजल का भाव 47.65 रुपये प्रति लीटर हो गयी थीं। इसके साथ ही थोक ग्राहकों के लिए मूल्य वृद्धि दस रुपए प्रति लीटर की वृद्धि हो गयी है।
मोइली ने बताया कि डीजल की कीमतों में प्रति माह मामूली बढ़ोतरी करने का निर्णय अगला आदेश जारी होने तक लागू रहेगा। हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि तेल कंपनियां दोबारा कब डीजल की कीमतें बढ़ाएंगी।  
डीजल का दाम बढाने से इस कदम से सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी की करीब 12,907 करोड़ रुपये सालाना की बचत होगी।  पर कुछ थोक ग्राहकों ने पेट्रोल पंपों से खुदरा ग्रहाकों की तरह डीजल खरीदने का निर्णय लिया है।
मोइली ने कहा, कि उन्होंने सुना है कि गुजरात और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने कहा है कि उनके राज्य सड़क परिवहन निगम अब डीजल थोक में खरीदने के बजाय अपनी बसों के लिए तेल स्थानीय पेट्रोलपंपों से खरीदेंगे। फिलहाल ये निगम अपने निजी उपयोग के लिए सीधे तेल कंपनियों से ईंधन खरीदते हैं। 
मोइली ने कहा, ''हमें इस मसले पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है। हमने भी यह बात सुनी है। हम इस पर गौर कर रहे हैं। 
उन्होंने ने बसों को पेट्रोलपंप से डीजल भरवाने के निर्देश देने के बजाय राज्य सरकारों को डीजल पर वैट और सेल्स टैक्स कम करना चाहिए ताकि वह सस्ता हो सके। (भाषा)


आज़ाद करो … कॉमरेड डेविड रवेलो क्रेस्पो को


आज़ाद करो … कॉमरेड डेविड रवेलो क्रेस्पो को



शमशाद इलाही शम्स
 दक्षिण अमेरिकी देश कोलंबिया के कम्युनिस्ट नेता और मानवाधिकार कर्मी डेविड रवेलो क्रेस्पा को राष्ट्रपति जुआन मैनुअल सैंटोस की सरकार ने 14 सितम्बर 2010 से गिरफ्तार कर जेल में डाल रखा है। आनन् फानन में उन पर चलाये गए मुकदमे में हत्या के लिए उकसाने के अपराध लगा कर गत वर्ष उन्हें 18 वर्षो की सजा भी सुनाई जा चुकी है।इस मुकदमे में जिन दो लोगों को सरकारी गवाह बनाया गया वह अर्धसैन्य बल के सदस्य हैं जिनके अत्याचारों को खुद रवेलो ने उजागर किया था और वे जेल गए थे। प्रमुख गवाह मारियो जेम्स मेजिया को इस गवाही के बाद उसकी ४० वर्षो की सश्रम कारावास की सजा को घटा कर मात्र ८ वर्ष कर दिया गया है। सरकार ने इन मुकदमे के दौरान रेवेलो की तरफ से 30 तैयार गवाहों को कोर्ट में पेश ही नहीं होने दिया। जाहिर है सैंटोस सरकार डेविड रवेलो से मुक्ति पाना चाहती थी जिसके लिए उसने फर्जी मुकदमे का सहारा लेकर उन्हें जेल भेज दिया।
कोलंबिया में राजनीतिक दमन सबसे हिंसक है, आतंकवाद से लड़ने के नाम पर अनगिनत लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेजना यहाँ एक साधारण घटना है। मौजूदा राष्ट्रपति के कार्यकाल में कैदियों की सख्यां में 30 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गयी है। यहाँ राजनैतिक कैदियों की संख्या 10 हजार से भी अधिक है। जेलों की स्थिति भयावह है जिसमे पीने के साफ़ पानी सहित, दवाईयाँ, बेहतर भोजन, सेनेटरी, रखरखाव आदि तक का अभाव है।
साढ़े चार करोड़ की आबादी वाले देश में प्राकृतिक संपदा प्रचुर मात्रा में है। तेल, कोयला, निकल, एमेरेल्ड जैसे खनिजों की खदानें यहाँ निजी क्षेत्र में भारी मुनाफ़ा कमाती हैं। स्थानीय लोगों की जमीन हथियाना यहाँ एक बड़ी समस्या बन चुका है जिससे करीब पचास लाख लोग बेघर हो चुके हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी 60 प्रतिशत से अधिक है जिनके 30 प्रतिशत से अधिक बच्चे भयंकर कुपोषण के शिकार हैं। जाहिर है इस समस्याओं पर आवाज उठाने का संघर्ष भी बहुत पुराना है। सरकारें और बड़े औद्योगिक घरानों के विरुद्ध क्रांतिकारी मुक्ति सेना कोलंबिया जिसे फार्क नाम से जाना जाता है। फार्क का सशस्त्र संघर्ष चार दशकों से भी पुराना है। मौजूदा सरकार अपनी पूर्ववर्ती सरकारों की भांति अमेरिका की सहायता से इस आन्दोलन
शमशाद इलाही "शम्स" यूं तो किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के छोटे से कस्बे 'मवाना' में पैदा हुए 'शम्स' ने मेरठ कालिज मेरठ से दर्शनशास्त्र विषय में स्नातकोत्तर किया है। पी०एच०डी० के लिये पंजीकरण तो हुआ पर किन्ही कारणवश पूरी न हो सकी। उनका परिवार भारतीय गंगा-जमुनी सँस्कृति का साक्षात जीवंत उदाहरण है। छात्र जीवन से ही वाम विचारधारा से जुड़े तो यह सिलसिला आगे बढ़ता ही गया।
को कुचलने के लिए जी तोड़ कोशिशे करने के बाद भी उसे परास्त नहीं कर सकी। दुनिया के सबसे पुराने गुरिल्ला युद्ध को अमेरिका सहित कोलंबिया सरकार ने आतंकवादी घोषित किया है। इन पर काबू  पाने के लिए अमेरिका ने हाल में आठ अरब डालर की सैन्य सहायता दी है ताकि सरकार अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाए और अधिक हथियार खरीदे। जिस देश को भोजन, दवा और आवासीय सुविधाओं की आवश्यकता हो उसे अमेरिका अत्याधुनिक जासूसी के उपकरणों के साथ हथियार बेच रहा है। दुनिया भर में मानवाधिकार और जनतंत्र का ढोल पीटने वाला अमेरिका, कोलंबिया जैसे छोटे से देश में सात वायु सेना अड्डों पर नियंत्रण रखता है अमेरिकी कम्पनियां बड़े बड़े भू भागों पर कब्ज़े कर के औद्योगिक पैमाने पर खेती कर के केले पैदा कर रही हैं जिसे अमेरिकी अवाम खाता है।
2009 के अध्ययन के अनुसार कोलंबिया असमान आय के क्षेत्र में दक्षिणी अमेरिकी देशो में सर्वोच्च स्थान पर था। उपरोक्त राजनैतिक आर्थिक और सामाजिक अंतर्विरोधों के चलते देश की अमेरिका  परस्त सरकारों ने जो व्यापक दमन चक्र चलाया जिसके चलते 10000 से अधिक लोग अभी तक गायब हुए हैं अथवा मार दिए गए हैं। डेविड रवेलो ने पिछले 35 सालों में इन्ही मानवाधिकार उल्लंघनो के विरुद्ध लगातार संघर्ष किया है जिसके चलते उनकी ख्याति न केवल लातिन अमेरिका में बल्कि उत्तरी अमेरिका, यूरोप तक पहुँची है। यूरोप और अमेरिकी मानवाधिकारों एंव सयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संघ जैसे संगठनो ने डेविड रवेलो की रिहाई के लिए मांग की है। उत्तरी अमेरिका से नौ सदस्यों के एक दल ने कोलंबिया जाकर उनके परिवार के सदस्यों से भेंट की है जिन्हें लगातार जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं। इसके अतिरिक्त दुनिया भर की कम्युनिस्ट पार्टियां उनकी रिहाई के लिए मांग कर रही हैं। इस सन्दर्भ में आप भी अपना विरोध शीघ्र दर्ज करायें, इस लिंक पर जाकर अपना प्रतिवेदन कोलंबिया के अटोर्नी जनरल को भेज सकते है :-


Investigate murder of Dalit youths, activists urge NHRC

Investigate murder of Dalit youths, activists urge NHRC

Mumbai, Jan 31, 2013, DHNS:
Human rights activists on Thursday urged the National Human Rights Commission (NHRC) to probe the hacking of three Dalit youths belonging to Mehtar community (manual scavenger) at a remote hamlet in Ahmednagar district in Maharashtra in early January.

The NHRC members were in Mumbai briefing about the findings of the atrocities on Dalits in the Vidarbha region when activists apprised them of their findings in the triple murder committed by upper caste people.

Talking to Deccan Herald, advocate Priyadarshi Telang of “Manuski” (a Pune-based organisation fighting for Dalit rights) said the police were dragging their feet in the case and they took into custody five persons only after a furor. “The way murders were carried out indicates that over five persons participated in the killings,” she added.

As per the case, in the first week of January, police recovered mutilated bodies of three youths in their twenties from a septic tank and fields in Nevasa taluka of Ahmednagar. The victims: Sandeep Thanwar, Sachin Gharu and Rahul Kandare, according to case papers, had migrated to Kharwandi, Ganeshwadi in Ahmednagar to work as manual scavengers in a local school.

Post-mortem of the bodies revealed that the youths were probably strangulated and their limbs were chopped off before one of them was dumped in a septic tank and other two in a nearby field.
Though the police, after much hesitation and at the insistence of human rights activists, rounded up five persons on grounds that one of the victims– Sachin Gharu–was reportedly having an affair with a girl belonging to an “upper-caste” family, the investigations have not been able to zero-in on the exact motive behind the gruesome killings.

Talking about the meeting with NHRC members, advocate Telang said: “ We have demanded that more intensive enquiries and investigations need to be done in the case and for putting up the case in a fast-track court apart from an adequate compensation to the family members of the victims.”

Related Story :

The Hindustan Times
Dalit murders a fallout of love affair, say police
BBC News  

Five held for 'honour killings' of Dalit men in Maharashtra


The Hindu

 

Dalit professor beaten up in Dhule

Staff Reporter

The college authorities will write to the Vice-Chancellor of the NMU, asking him to derecognise the Senate members for instigating violence.

A month after the communal riots in Dhule, VHP, Bajrang Dal activists beat up a Dalit professor there on Wednesday for allegedly hurting the religious sentiments of Hindus. The incident took place inside the premises of the Dr. Babasaheb Ambedkar College of Social Work. A few weeks ago a number of students submitted a written complaint against Professor Pramod Bhumbe to the principal of the college for allegedly making derogatory remarks about Lord Ram. While the Hindu organisations called for the professor’s expulsion, the administration asked him to submit a written explanation. “We followed the enquiry process. We, as management of the college, apologised to the students on [the] professor’s behalf. The concerned professor also extended an unconditional apology to the students. We even performed a puja in the village Ram temple and made peace,” Prof. R.S. Mahajan, the principal, told The Hindu.

In spite of the apology, a group came to the college looking for the professor. “Around six to seven activists, in spite of our entreaties went in search of Bhumbe, who was sitting in the library. They dragged him out, beat him up and threw him down from the staircase,” Prof. Mahajan said. According to him, the group was led by Senate members of the North Maharashtra University (NMU).

Following the incident, a complaint was lodged at the Dhule taluka police station. Ram Somwanshi of the station told The Hindu that six people had been arrested and booked under several sections of IPC and under sections of The Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act.

Meanwhile, the college authorities will write to the Vice-Chancellor of the NMU, asking him to derecognise the Senate members for instigating violence.

Express India

 

School kids skip mid-day meal cooked by Dalit woman

http://www.expressindia.com/latest-news/school-kids-skip-midday-meal-cooked-by-dalit-woman/1067830/

Satish Jha


Ahmedabad Schoolchildren of Valiyampura village in Talod taluka of Sabarkantha district have been skipping mid-day meal for the past few weeks, apparently because it is cooked by a Dalit woman who was appointed as a helper in the school only last month.

The woman alleges that students of other castes have refused to eat the food prepared by her as asked by their parents.

The primary school of Valiyampura village has about 176 students. Of the 1,000-odd people living in the village, most are Patels and Thakores. There are around 20 households of Dalits.
According to Bhavna Jasubhai Vankar (42), students have stopped eating the mid-day meal ever since she joined on December 26, 2012.

“The villagers do not want me to touch the vessels I clean because of my caste. After I took the charge as a helper, the students refused to eat. Today, only those students who are from my caste eat,” Vankar said on phone.

When contacted, principal Jayantibhai Patel, who is on leave, said the situation had improved but added that angry villagers had threatened him after Bhavnaben’s appointment and declared they would stop sending their children to the school.

“I sent a report on this to the my senior officials. I also told the villagers that Bhavnaben was just a helper appointed by the mamlatdar. But they did not listen and their children refused eating. But now I have come to know that the situation is better,” he said.

Sabarkantha collector Shah Meena Husain said the incident was being probed. She said a team of senior officials had visited the school and recorded the statement of Bhavnaben. “We are verifying facts. My officials have told me there is no truth to the allegations. She (Bhavna) had been absent from the school for a few days. At present, the school does not have any problem. We will take action against the guilty if we find any truth in the allegations,” she said.

Indian Express

Police not filing FIRs on Dalits' complaints in Maharashtra: NHRC

PTI : Mumbai, Thu Jan 31 2013, 20:47 hrs

National Human Rights Commission (NHRC) today asked Maharashtra government to ensure that FIRs are registered on receipt of complaints of atrocities against Dalits.

NHRC chairperson Justice (retd) K G Balkrishnan told reporters here that during the three-day visit of the commission and public hearings on complaints of violations of the rights of Scheduled Castes members, it came to light that in most such cases, police do not register the First Information Report (after which the probe starts).

"We have told the state Chief Secretary and Director General of Police to ensure that FIRs are registered after receiving complaint and then investigate the case," he said, adding that lapses will not be tolerated.

Balkrishnan also said that NGOs told him that State Human Rights Commission Chairperson's post was vacant and then meeting of the State Vigilance Committee had not taken place for a long time.

"The NGOs also told the commission about the subhuman conditions of slum dwellers in Mumbai. We were told that there was massive corruption in the Slum Rehabilitation Scheme and basic amenities are not provided to the slum-dwellers."

Social activist Medha Patkar asked the commission to make an inquiry into the housing rights of Dalits. An NGO pointed out that 'Dispute-Free Village' scheme (under which the villages where no police complaints are received are rewarded) was prejudicial to the interests of the scheduled castes.

About the molestation of women constables during the Azad Maidan violence in Mumbai last year, Justice Balkrishnan said the commission had not received any complaint in this regard.
He also said no complaints were received regarding recent atrocities against Dalits in Satara and Ahmednagar districts.

Justice Balkrishnan also said that the commission had asked the state government to increase the number of courts for speedy trial of cases of atrocities against the scheduled castes.
"We have also emphasised that citizens should not be denied their basic rights if they do not have the Aadhar unique identification number," he said.

The NHRC chairperson also said that the commission was inquiring into the allegations that police targeted Muslims during the recent riots in Dhule in north Maharashtra. "We have taken cognisance of the allegations and inquiry is on," he added.

The Hindu

 

Move to provide ‘Kumki’ land to farmers opposed

Special Correspondent

‘It should be allotted to Dalits in Udupi and Dakshina Kannada’

The Dalit Sangharsha Samiti (Ambedkar Vaada) has opposed the State government’s decision to provide “Kumki” land to farmers in Udupi and Dakshina Kannada districts. “Kumki” land is situated adjacent to the fields of farmers and is used for grazing cattle and growing grass.

Hovappa Master, convener of the district unit of DSS, told presspersons here on Wednesday that the government had announced that it would provide 6,853 hectares of “Kumki” land to 3.09 lakh farmers in the two districts. But a large majority of these farmers possessed huge tracts of land ranging from 50 to 60 acres and they were from some upper castes. The government move would only benefit the “land sharks”.

Instead, the government should allot land to the Dalits in these two districts under the “Depressed Classes Manna Bhoomi”. This had been a long pending demand of the Dalits. Many Dalits did not own land or houses. They were facing hardships. The British government had conducted a study on the conditions of the depressed classes in the erstwhile South Canara district in Madras Presidency. After witnessing the pathetic condition of these classes, the British government, in 1860, decided to reserve some plots of land in every village for the welfare of the depressed classes. These plots were called “DC manna bhoomi” in Kannada, he said.

The government should allot these plots to the Dalits. Even if the Dalits were provided three to five cents of land, they could build houses. Though a large number of Dalits, agricultural workers, and persons from minority communities had been living on some plots in these districts for decades, the government had not taken any step to give title deeds to them. It was surprising that the Opposition parties were silent on this issue. The DSS would appeal to Governor H.R. Bhardwaj to prevent the government from providing “Kumki” land to farmers. The DSS would move court on this issue, he said.

The other demands of the DSS were stern action against those using false caste certificates, declaration of summer vacation in schools to observe Ambedkar Jayanti on April 14, allocation of funds in the budget for the Dalits on the basis of their population and cancellation of the contract system.

India Today

Supreme Court stays arrest of Ashis Nandy for his alleged anti-Dalit remarks

Eminent scholar Ashis Nandy, facing threat of being arrested for making remarks alleged to be anti-Dalit, on Thursday approached the Supreme Court of India for quashing of FIR against him.

A bench headed by Chief Justice Altamas Kabir agreed to hear his plea and posted the case for tomorrow.

Seeking an urgent hearing, advocate Aman Lekhi, appearing for Nandy, pleaded the apex court to intervene in the matter as there is "serious apprehension" of him being arrested.

"The registration of the FIR is itself an abuse of law and there is imminent danger of the same being compounded as the petitioner is being denied of his fundamental rights under Article 14, 19 and 21 of the Constitution, because of the clamour for his immediate arrest from important political personalities including Mayawati and Chairman SC and ST Commission P L Punia," the petition, filed through advocate Gaurang Kanth, said.

Nandy, in a panel discussion at Jaipur Literature Festival, had allegedly said that people belonging to OBCs and SCs/STs were more corrupt.

Later, a case was registered against him under the SC/ST (Prevention of Atrocities) Act.

Challenging the proceedings, the 76-year-old political psychologist submitted he is facing a serious threat in the surcharged environment against him.

"Because of the surcharged environment against him and the rabid statements made by important political personalities, his physical safety is itself compromised and there is imminent threat of injury to him," the petition said.

"In fact there was no mala fide intent or purpose on the part of the petitioner to make a comment in order to insult or intimidate with intent to humiliate a member of SC or ST in any place within public view," he said.

"The lodging of the said FIR against the petitioner for the alleged offence committed under SC/ST Act is against the basic principles of the fundamental rights which envisages that free speech is the foundation of a democratic society," the petition said.

The Times Of India

 

Provision for women, SC/ ST, local bodies in Bihar budget

By Faizan Ahmad, TNN | Jan 31, 2013, 08.08 PM IST

PATNA: Apart from provision of gender budget like previous years, some new dimensions have been added to the state budget 2013 which will be presented in the legislature on February 23. The allocation for the gender budget in different departments will be made. Also allocation will be made for the Scheduled Castes and Scheduled Tribes and all the departments linked to the agriculture roadmap.

Deputy chief minister Sushil Kumar Modi, who also holds finance portfolio, said the economic survey will be presented on February 19. This year budgetary demands of 17 departments will be presented.

"The new dimensions of the budget will be separate allocation for SC and ST in the plan budget. While the 16% of the total budget will go for SC welfare 1% will be earmarked for the ST," said Modi. He added that separate allocation will also be made for the local bodies including panchayati raj institutions and municipal bodies.

Since the government has given high attention on the agriculture and allied sectors, Modi said separate budgetary allocation will be made to all the departments linked under agriculture roadmap and it will be separately monitored.

Modi said for the first time since Independence, Bihar has spent 60% of the plan size by December end and hopefully the rest of the amount will be spent by the end of the fiscal 2012-13. He was reacting to the reports that many departments have failed to utilize the allocation. "As is practice a good amount is spent by the closure of the financial year as in many case allocations is made available by the end of the fiscal," he said.

Modi has already started pre-budget exercise to seek views of different sections of the society including farmers, professional and economists.


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.Arun Khote
On behalf of
Dalits Media Watch Team
(An initiative of “Peoples Media Advocacy & Resource Centre-PMARC”)