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Tuesday, 21 April 2015

बुरांश खिले पहाड़ जंगल दहक रहा दावानल कि पक रही है मिट्टी भूमिगत आग अब फोड़ देगी जमीन जलकर खाक होगी लुटेरों की यह नकली दुनिया पलाश विश्वास बुरांश खिले पहाड़ जंगल कि पलाश खिले पहाड़ जंगल कि जंगल में हो मंगल कि जारी रहे संसदीय दंगल दहक रहा दावानल कि पक रही है मिट्टी भूमिगत आग अब फोड़ देगी जमीन जलकर खाक होगी लुटेरों की यह नकली दुनिया

बुरांश खिले पहाड़ जंगल
दहक रहा दावानल कि
पक रही है मिट्टी
भूमिगत आग अब
फोड़ देगी जमीन
जलकर खाक होगी
लुटेरों की यह
नकली दुनिया

पलाश विश्वास
बुरांश खिले पहाड़ जंगल
कि पलाश खिले पहाड़ जंगल
कि जंगल में हो मंगल
कि जारी रहे संसदीय दंगल
दहक रहा दावानल कि
पक रही है मिट्टी
भूमिगत आग अब
फोड़ देगी जमीन
जलकर खाक होगी
लुटेरों की यह
नकली दुनिया

जब लघु पत्रिका आंदोलन का जलवा था सत्तर के दशक में,जब मथुरा से सव्यसाची उत्तरार्द्ध के साथ साथ जन जागरण के लिए सिलसिलेवार ढंग से जनता का साहित्य- सूचनाओं और जानकारियों का साहित्य रच रहे थे,उत्कट साहित्यिक महत्वाकांक्षाओं और अभिव्यक्ति के दहकते हुए ज्वालामुखी के मुहाने पर था हमारा कैशोर्य।

तभी आनंद स्वरुप वर्मा वैकल्पिक मीडिया के बारे में सोचने लगे थे।

तब कामरेड कारत,येचुरी और सुनीत चोपड़ा भी जवान थे।जेएनयू परिसर लाल था।हालांकि वहां न कभी बुरांश खिले और न ही पलाश।न वहां कोई दावानल महका हो कभी।गोरख पांडे को वहां खुदकशी करनी पड़ी और डीपीटी जैसों का कायाकल्प होता रहा।

जब पहाड़ों में जंगल जंगल खिले बुरांश की आग दावानल बनकर प्रकृति और पर्यावरण के रक्षाकवच रच रही थी,मध्य भारत में खिल रहे ते पलाश और पहाड़ के चप्पे चप्पे में चिपको आंदोलन की गूंज थी,तभी से आनंद स्वरुप वर्मा हमारे बड़े भाई हैं।

वे हमारी टीम में ठीक उतने ही महत्वपूर्ण रहे हैं जितने वीरेनदा, पंकजदाज्यू, देवेन मेवाड़ी,शमशेर सिंह बिष्ट,गिरदा,शेखर पाठक या राजीव लोचन शाह ,या पवन राकेश और हरुआ दाढ़ी ।

संजोग से आनंद स्वरुप वर्मा आज भी हमारे बड़े भाई हैं।

संजोग से अब हमारी कोई उत्कट साहित्यिक आकांक्षा नहीं हैं।कैरीयर बनाने की हम तो गिरदा की सोहबत में सोचे ही नहीं कभी।

संजोग से छात्र जीवन से जो वैकल्पिक मीडिया की लड़ाई का रास्ता हमने आनंद दादा की दृष्टि से चुन लिया,आज वही हमारा एकमात्र विकल्प है।इस गैस चैंबर की खिड़कियों को तोड़कर बचाव का आखिरी रास्ता है इस कयामती घनघोर नस्ली कारपोरेट समय में।

संजोग से अस्सी के दशक से अब तक लगातार पेशेवर पत्रकारिता में सक्रिय होने के बावजूद हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता आम जनता तक अनिवार्य जानकारी देने की है,जिसका पहला सबक हमने आपातकाल के अंधेरे में मथुरा के एक प्रोफेसर की आजीवन सक्रियता के माध्यम से पढ़ा था।तब हमारे साथ लघुपत्रिका वाले कामरेड भी थे।जिनमें से ज्यादातर अब कामरेड केसरिया हैं।

न अब कहीं लघु पत्रिका आंदोलन है और न कहीं देशव्यापी गूंज पैदा करने वाला कोई जनांदोलन है।आपातकाल से भी भयानक अंधेरे का यह चकाचौंध तेज रोशनियों का मुक्तबाजारी कार्निवाल है और सव्यसाची जैसे प्रतिबद्ध लोग कहीं किसी कोने में जनता का साहित्य प्रसारित करने के लिए निरंतर सक्रिय हैं या नहीं,हमें जानकारी नहीं हैं।दुःसमय।घनघोर दुःसमय।

संजोगवश आज भी आनंद स्वरुप वर्मा न केवल सक्रिय हैं बल्कि आज भी वे हमारे प्रधान सेनापति हैं।

अभी हाल में पौड़ी में वे उमेश डोबाल की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में शामिल होकर पहाड़ होकर आये।

फिर पता लगा कि रामनगर में उत्तराखंड सरकार ने जो कहर ढाया,उसके प्रतिरोध में वे वहां भी पहुंच गये।उस कांड की रपट अभिषेक श्रीवास्तव ने लिखी है।

परसो तरसो हमने आनंद भाईसाहब को फोन लगाया तो वे बोले सोनभद्र जा रहे हैं।कनहर नदी में बहती अपने स्वजनों की रक्तधारा में कातिलों का सुराग निकालने।

हमने उन्हें फोन वैकल्पिक मीडिया पर बहस और तेज करने का अनुरोध करने के लिए किया था,लेकिन उनने मुझसे तराई में बसे थारुओं और बुक्सों के उजाड़ के बारे में कुछ लिखा या नहीं, पूछा।

दादा को हमने बताया कि मुझे जो कुछ मालूम है,वह तो हमने कब तक सहती रहेगी तराई में 1978-79 में लिखा दिया था कि तराई में जो सिडकुल साम्राज्य बसा हुआ है,वह दरअसल बुक्साड़ और थरुवट की बसावट थी। तराई के जंगल में मलेरिया, प्लेग,बाढ़ और तमाम तरह की जानलेवा बीमारियों,सुल्ताना डाकू जैसे लुटेरों और बाहरी हमलों से लड़ते हुए सन सैंतालिस तक पूरी तराई उनकी थी।

जो देश आजाद होते न होते बंगाली और सिख पंजाबी शरणारिथियों की पुनर्वास कालोनियां बसने से पहले देश के बड़े कारोबारी घरानों, उद्योपतियों, फिल्म स्चारों,आर्मी और प्रशासन के अफसरों और राजनेताओं ने 1952 तक खाम सुपरिन्डेंट राज कौड़ियों के मोल धकल करते हुए हजारों हजार एकड़ के फार्म नैनीताल, बरेली, रामपुर, पीलीभीत और मुरादाबाद जिलों में बना लिये।

यह पहली बाड़ाबंदी थी तो सिडकुल के जरिये मुक्तबाजारी कारपोरेट बाड़ाबंदी अब खुल्ला जमीन हड़पो बेचो अभियान विकास के नाम है जो मोदी मत्र का अखंड जाप भी है हिंदुत्व उन्माद के मध्य।

तराई का वह किस्सा हमने नैनीताल समाचार से लेकर दिनमान तक में सत्तर के दशक में ही लिख दिया था।अब सिर्फ उल्लेख कर रहा हूं।आनंद स्वरुप वर्मा संपादित नैनीताल समाचार की स्वर्ण जयंती विशेषांक में तराई कथा है,राजीव दाज्यू को पोन करके या लिखकर इच्छुक पाठक मंगा लें।

सिडकुल रुद्रपुर इलाके में अटवारी मंदिर को घेरे बुक्साड़ से लेकर काशीपुर तक बुक्से गांव ही थे तो सितारगंज से लेकर खटीमा तक के सिडकुल आखेटगाह में थारुओं की बस्तियां शुरु होती थीं,जो नेपाल तक विस्तृत थीं।

हम तब जनमे भी न थे।जब तराई में बसे सैकड़ों थारु बुक्सा गांव बुलडोजर से उजाड़ दिये गये।उनके हक हकूक की बात लिखने के जुर्म में तराई के पहले पत्रकार जगन्नाथ जोशी को सरेबाजार गोलियों से उड़ा दिया गया।जगन्नाथ जी के भाई समाजवादी नेता चंद्रशेखर जी ने हमें बताया कि वे तब वे ऐसे ही किसी बुलडोजर के ज्राइवर थे ,जनके जरिये पेडो़ं को जड़ों समेत उखाड़ने के साथ साथ बुक्सा थारुओं के गांव भी उखाड़ दिया गये।

फिर सन 1978 में पंतनगर गोलीकांड पर नैनीताल से लेकर दिनमान तक हमने,शेखर पाठक और गिरदा ने मिलकर तराई को बसाने के नाम पर तराई को उजाड़ने की जो कथा लिखी,उसके लिए नैनीताल से नजीबाबाद रेडियो स्टेशन में अपने कुमांउनी गीतों की रिकार्डिंग के लिए जा रहे गिरदा को रूद्रपुर में बस से उतारकर धुन दिया गया और खून से लथपपथ वे नैनीताल समाचार लौटे।

कब तक सहती रहेगी तराई सिलसिलेवार नैनीताल में छपने की वजह से तराई में खटीमा से लेकर काशी ढल जो अमर उजाला के लिए तराई से पत्रकारिता करते थे,उनके साथ सितारगंज से साप्ताहिक लघु भारत निकालते वक्त भी हालत यह थी कि हमें बाल एक दम छोटे रखने पड़ते थे और हमारी लंबी दाढ़ी कटवानी पड़ी।ताकि महनले की हालत में कोई हामरा बाल यादाढ़ी पकड़कर पटक न दें।

तराई में तब भी जंगल बचे हुए थे।तराई में तब भी आदमखोर बाघ थे।

अब सारी तराई सीमेंट के जंगल में तब्दील है।सिडकुल की दीवारे दौड़ रही हैं दसों दिशाओं में और तराई में नये सिरे से हजारों हजार एकड़ों वाले बड़े फार्मों में किसानों के बंधुआ मजदूर में तब्दील होते रहने के सिलसिले के मध्य नये सिरे से बाड़ाबंदी हो रही हैं।वे दीवारें अब बसंतीपुर को भी घेरे हुए हैं।

अब तराई ही नहीं, सारा देश सीमेंट के जंगल में तब्दील हैं।

चप्पे चप्पे पर आदमखोर कारपोरेट केसरिया बाघ हमर मेहनतकश आदमी और औरत का हाड़मांस चबा रहे हैं,खून पी रहे हैं शीतल पेय की तरह और सारी नदियां खून की नदियों में तब्दील हैं।

वे खून की नदियां बेदखल पहाड़ों से होकर हिमालय के उत्तुंग शिखरों और ग्लेशियरों,घाटियों,झीलों और झरनों को लहूलुहान कर रही हैं।

तो वे खून की नदियां मरुस्थल और रण में भी निकलती हुी देख रही है जैसे कि लापता सरस्वती फिर मोहंजोदोड़ो और हड़प्पा की नगरियों के बीच विदेशी हमलावरों की तलवारों की धार पर खून से लथपथ पंजाब से लेकर राजस्थान और गुजरात और सीमापार सिंध तलक तमाम नदियां खून से लबालब लापता सरस्वती नदी बन गयी है और नये सिरे से वैदिकी वध संस्कृति के सेनापति इंद्र चारों तरफ अनार्यों के वध के लिए कारपोरेट केसरिया घोड़े और सांढ़ दौड़ा रहे हैं।

रथयात्राएं जारी हैं।जारी रहेंगी।
वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।
कारपोरेट हिंसा हिंसा न भवति।

बुरांश खिलने का यही मौसम है।
जलवायु बदल गया है।
प्रकृति बदलने लगी है।

तो क्या,खिलेंग ही बुरांश
और खिलेंगे पलाश भी
दावानल कतो फिर दावानल है
आग कहीं भी हो,
आग तो निकलनी चाहिए
दावानल फिर दावानल है

बेमौसम आपदाओं की केसरिया कारपोरेट सुनामी से दसों दिशाओं से हम घेर लिये गये हैं और हर आम भारतीय किसी न किसी चक्रव्यूह में महारथियों के हाथों अकेला वध होने को नियतिबद्ध है इस मुक्तबाजारी महाभारत में कि हर सीने के लिए रिजर्व है कोई नकोई गाइडेड बुलेट या फिर मिसाइल उसकी हैसियत के मुताबिक।ड्रोन की तेज बत्ती वाली नजर से बच भी निकले तो आपकी पुतलियों की तस्वीरें और आपकी उंगलियों की छाप उनके डाटा बैंक में दर्ज है,बचोगे नहीं बच्चू।

देश भर के आदिवासी हमारे मोहनजोदोड़ो हड़प्पा विरासत के वंशधर हैं और उनके घर घर में कालचक्र से उस समय की रक्तधारा को स्पर्श किया जा सकता है अभी।

माननीय  इस मिथ्या लोकतंत्र के निवासियों,आपको बता दें कि भूमि अधिग्रहण के लिए किसी कानून की परवाह कोई नहीं करता।

कानून हो या नहीं, बेदखली हरिकथा अनंत है।आदिगंत अनंत हरिकथा,वैदिकी हिंसा।

बेदखली का सिलसिला हड़प्पा मोहनजोदोड़ो समय से निरंतर जारी है।

सिर्फ सत्ता हस्तातंरण हुआ है।लोकतंत्र इस देश में कभी नहीं आया।

राहुल गांधी के संसदीय उद्गार के जवाब में बिजनेस फ्रेंडली गोडसे सावरकर गोलवलकर की फासिस्ट सरकार जो हीराकुड बांध के शिलान्यास के वक्त दिये गयेभाषण को उद्धृत कर रही है और इंदिरा गाधी के विकास के एजंडे का बाबासाहेब के महिमामंडन की तर्ज पर स्मरण किया जा रहा है,उसका मतलब समझ लें।

हाल में एक जनपक्षधर टीवी चैनल पर हमारे इंडियन एक्सप्रेस के पुराने सीईओ  शेखर गुप्ता के साथ साथ महान  दलित लेखक चंद्रभान प्रसाद दलित उद्यम का विमर्श पेश करते हुए दलित उद्योगपतियों के अरबों डालर के टर्नओवर दिखाते हुए जमशेदपुर के टाटा कारखाना इलाके में खड़े होकर बता रहे थे कि वहां पूरा इलाका सिंहभूम का घनघोर जंगल था जिसे टाटा ने इस्पात कारखाने में तब्दील करके झारखंड के आदिवासियों और दलितों को रोजगार दिये।

यही तर्क कल्कि अवतार का है कि तुम हमें जमीन दो,हम तुम्हें रोजगार देंगे। अबाध भूमि अधिग्रहण का यह आधार है।

सत्ता वर्ग को आम जनता में यह खुशफहमी बनाये रखने की चिंता ज्यादा है कि देश में लोकतंत्र है और लोकतंत्र में कानून का राज है और कानून के राज में हर किसी के साथ न्याय होगा।

सही मायने में न कानून का राज है।
सही मायने में न लोकतंत्र कहीं है।
सही मायने में न न्याय की कोई उम्मीद कहीं है।

तराई के बारे में भी यही कहा जाता है कि वहां घनघोर जंगल था।जैसे कि टाटानगर के बारे में कहा जा रहा है कि वहां कोई आबादी नहीं थी और घनघोर जंगल बीच मंगलकाव्य का सृजन कर दिया टाटा ने।जबकि टाटा नगर सैकड़ों आदिवासियों के गांवों पर बसाया गया और उन आदिवासियों को आजतक न मुआवजा मिला है ,न पुनर्वास और न ही रोजगार।

संविधान की पांचवीं और छठीं अनुसूचियों,वनाधिकार अधिनियम,समुद्रतट सुरक्षा अधिनियम,जीवन चक्र संरक्षण अंतरराष्ट्रीय कानून, पेसा,स्वायत्त इकाई अधिनियम,पर्यावरण कानून,खनन अधिनियम और न जाने कितने कितने कानून हैं,जिन्हें ताक पर रखर खनिज संपदा से समृद्ध आदिवासी सोेने की चिड़िया भारत की रोज रोज हत्या हो रही है।

नेहरु समय में विकास के जो भव्य राममंदिर बने देशभर में, भिलाई, बोकारो, हीराकुड,  डीवीसी से लेकर भाखड़ा नांगल तक,उसके लिए जो बस्तियां उजाड़ी गयीं, उन्हें न आज तक पुनर्वास मिला और न रोजगार।

नया रायपुर बसाने के लिए परखौती के आस पास जो सैकड़ों आदिवासी गांव उखाड़े गये, समूचे मध्य भारत में सलवा जुड़ुम के तहत कारपोरेट परियोजनाओं के तहत कारपोरेट हितों के लिए आम करदाताओं के पैसे से जो चप्पे चप्पे पर सैन्य राष्ट्र की मौजूदगी में हर पल हर छिन बेदखली अभियान जारी है,उसके लिए किसी भूमि अधिग्रहण कानून की जरुरत नहीं है।

बंगाल की शेरनी भूमि अधिग्रहण के सख्त खिलाफ हैं।हावड़ा,हुगली,उत्तर और दक्षिण चौबीस परगना जिलो के जो हजारों हजार गांव उजाड़ दिये जाते रहे हैं और सुंदरवन से लेकर दार्जिलिग तक जो प्रोमोटर बिल्डर माफिया राजकाज है, अबाध जो भूमि डकैती है,उसके लिए किसी कानून की जरुर त नहीं पड़ी।

नई दिल्ली की बहुमंजिली कालोनियों की नींव में जो हजारोंहजार गांव दफन है,उनके वाशिंदे अब कहां है,कितनों को मुआवजा मिला,कितनों को नहीं,इसका कोई हिसाब किताब हो तो बांग्लादेश में जैसे शहरियार कबीर ने अल्पसंख्यक उत्पीड़न का एनसाइक्लोपीडिया छाप दिया,वैसा ही कुछ करें कोई,तो पानी का पानी ,दूध का दूध हो जाये।

नई मुंबई और पनवेल के बेदखल गांवो के मुखातिब होता रहा हूं बार बार ,जिन्हें न मुआवजा मिला है और न रोजगार प्राइम प्रापर्टी हाचप्रापर्टी के उस कारपोरेट अभयारणय में।

घूम घूमकर झूम खेती करने की वजह से हजारों सेल से आदिवासी गांवों की बसावटें बदलती रही हैं।जिस वजह से आदिवासी गावों को राजस्व गांवों की मान्यता बहुत मुश्किल से मिलती है।उन गांवों का कोई रिकार्ड होता नहीं है कहीं।वे हैं तो वे नहीं भी हैं।एकबार वे गांव छोड़ दें तो वे दोबारा गांव लौट नहीं सकते।

सलवा जुड़ुम का महाभारत आदिवासियों को अपना गांव छोड़ने के लिए मजबूर करने का आईपीएल है।एकबार आदिवासी किसी भी वजह से गांव छोड़ दें तो उन्हें दोबारा वहां बसने की इजाजत नहीं मिल सकती और न वे अपनी जल जंगल जमीन और आजीविका का दावा किसी न्यायलय में ठोंक सकते हैं।कानून के राज में उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई।न भविष्य में होगी।

इस देश में कहीं भी,यहां तक की हिमालय की तराई और नेपाल में बसे निरंतर बेदखल बुक्सा थारुओं की भी कहीं सुनवाई नहीं होती।

इस देश में जमीन आदिवासियों की जरुर होती है और कानूनन इस जमीन का ह्तांतरण भी नहीं हो सकता।लेकिन उस जमीन पर सर्वत्र गैर आदिवासी लोग ही ज्यादातर काबिज हैं।

भूमि अधिग्रहण कानून पास कराने का नाटक आम जनता,खासकर किसानों और आदिवासियों को यह भरोसा दिलाने के लिए अनिवार्य है कि वे इस गलत फहमी हरहे कि कानून के मुताबिक ही उनको हलाल या झटके से मार दिया जायेगा।गैर कानूनी कुछ भी नहीं होगा।

यह तिलिस्म जब टूटेगा तो मंजर वही होगाः

बुरांश खिले पहाड़ जंगल
कि पलाश खिले पहाड़ जंगल
कि जंगल में हो मंगल
कि जारी रहे संसदीय दंगल
दहक रहा दावानल कि
पक रही है मिट्टी
भूमिगत आग अब
फोड़ देगी जमीन
जलकर खाक होगी
लुटेरों की यह
नकली दुनिया

Sunday, 19 April 2015

Welcome new comrade General Secretary Sitaram Yechuri to lead Indian masses in Resistance against Fascist Free Market Mass Destruction and Kill Golden Bird missionary RSS Hindu Imperialism

Welcome new comrade General Secretary Sitaram Yechuri to lead Indian masses in Resistance against Fascist Free Market Mass Destruction and Kill Golden Bird missionary RSS Hindu Imperialism!
Palash Biswas

CPI (M) on Twitter

“Comrade Sitaram Yechury has been elected by the Central Committee as the new General Secretary of the #CPIM.”

TWITTER.COM

Welcome new comrade General Secretary Sitaram Yechuri to lead Indian masses in Resistance agaisnt Fascist Free Market Mass Destruction and Kill Golden Bird RSS Hindu Imperialism!

Comrade Sitaram Yechury has been elected by the Central Committee as the new General Secretary of the CPI(M). At the meeting of the new Central Committee, Prakash Karat suggested the name of Sitaram Yechury, and S. Ramachandran Pillai seconded. The proposal was approved unanimously by the Central Committee

Comrade Yechuri is the first General Secretary after Comrade PC Joshi,who despite belonging to Andhra,may speak Hindi very fluently.I dare to speak that CPIM has been missing the opportunity to address thee masses because every GS chose English to communicate.The huge communication gap should be wiped,we should hope for the better.

Comrade Yechury knows the ground reality better than us as he has been in the Party Polit Bureau for long and should have the constant flow of grass root level feedback.

It is better for Bengal as the new comrade GS represented Bengal in Rajya Sabha.

It is not the Party,comrade GS,as a Nation,we the people face the challenges of survival as a free,sovereign and democratic country.Since 1991,the monopolistic aggression against Indian Nation is continued and ethnic cleansing hegemony has taken over the helms of the nation which is reduced to a joint periphery of US imperialism and Zionist Israel while the entire economy of India has been converted into a casino captured by Capitalism aligned with Hindu Imperialism.

We have to fight against the fascist Hindu Imperialism which has declared a timeline to make India free from Islam and Christianty within 2021 and launched an unprecedented Ghar Wapasi Campaign to extend the Hindutva Hell losing!

The rural agrarian  India faces a unprecedented displacement drive while FDI Raj has declared the agenda of total privatization,total disinvestment,total deregulation,total decontrol turning into selected depopulation agenda meaning ethnic cleansing which is all about this Hindu Imperialism.

Let us,we the People of India celebrate May Day united rock solid to revive the killed production system,the killed democracy,the killed freedom,the killed constitution,the killed Golden Bird ie the aborigin mineral India abundant of natural resources,the killed environment,killed citizenship,killed civic and human rights.
हम फिर मई दिवस मनाने की अपील कर रहे हैं।

मेहनतकश तबके के हक हकूक की लड़ाई तेज करके ही चूंकि देश बेचो फासिस्ट फरेबी बजरंगियों से देश को बचाने की चुनौती है

पलाश विश्वास
हम फिर सड़कों,खेतों और बाजारों,कालेजों और विश्वविद्यालयों में मई दिवस मनाने की अपील कर रहे हैं।इस केसरिया कयामती मंजर में मिलियन बिलियनर सत्ता वर्ग से बाहर हर इंसान ,हर औरत की जिंदगी अब वंचित मेहनतकश की जिंदगी है।जितनीजल्दी हम मेहनतकश तबके के साथ अपनी अपनी पहचान खूंटी पर टांगकर लामबंद हो सकेंगे, उतनी ही तेजी से टूटेगा मुक्तबाजारी फासिस्ट जायनी जनसंहारी यह केसरिया हिंदू साम्राज्यवादी तिलिस्म।

मेहनतकश तबके के हक हकूक की लड़ाई तेज करके ही चूंकि देश बेचो फासिस्ट फरेबी बजरंगियों से देश को बचाने की चुनौती है।

हमारे साथ मीडिया नहीं है तो हमें खुद जिंदा मीडिया बनकर जन जागरण का तूफान खड़ा करना होगा।

नगर महानगर कस्बे गांव से परचे निकालकर बुलेटिन छापकर देश भर में मेहनतकश तबके को सच से वाकिफ करना होगा,उनके बीच पहुंचना होगा और उन्हें संगठित करके देशव्यापी आंदोलन शुरु करना होगा।

शुरुआत के लिए दुनियाभर की मेहनतकश तबके के खून से रंगे मई दिवस के अलावा कोई और बेहतर दिन रक्तनदियों के इस देश में हो नहीं सकता।

जो भी पढ़ रहें हों हमारी यह अपील और हमसे सहमते हों तो न केवल हमारी यह अपील वे दसों दिशाओं में प्रसारित  करें बल्कि अपनी अपनी भाषा में स्थानीय हाल हकीकत और मुद्दे जोड़कर अपनी अपील अपना परचा,अपना बुलेटिन छापकर करें तो इस देश में बदलाव का बवंडर मई दिवस से ही उठेगा यकीनन।

जिन बाबासाहेब को हिंदुत्व में समाहित करके भारत की अर्थव्यवस्था से नब्वे फीसद जनता को बहिस्कृत करके मुक्तबाजार के हिसाब से गैरजरुरी जनसंख्या,खासतौर पर विधर्मियों और गैर नस्ली लोगों के नरसंहार का आयोजन हैं,भारत में ब्रिटिश राज के वक्त श्रममंत्री बतौर मेहनतकश तबके के सारे हकहकूक उन्हीं बाबासाहेब के दिये हुए हैं।

श्रमिक संगठनों को वैध बनाया बाबासाहेब ने तो काम के घंटे भी उनने तय किये और महिलाओं को मातृत्व अवकाश से लेकर स्थाई नौकरी के कायदे कानून भी उन बाबासाहेब ने बनाये।

बाबासाहेब को केसरिया रंग से पोतकर उन्हें नाथूराम गोडसे बनाने का खेल जो संघ परिवार कर रहा हैै,उसकी बिजनेस फ्रेंडली सरकार ने तमाम श्रम कानूनों को अबाध विदेशी पूंजी निवेश के तहत हजारों हजार ईस्ट कंपनियों के मुनाफे के लिए मेहनतकश तबके को बंधुआ मजदूर बनाने,संपूर्ण निजीकरण और रोजगार के मौकों से वंचित करने और भूखों मारने के लिए सिरे से खत्म कर दिया है।

मिलियनरों बिलियनरों की संसद में श्रम कानूनों  को खत्म करने का कोई विरोध,किसी किस्म का विरोध नहीं हुआ तो मेहनतकश तबके के स्वयंभू रहनुमा लाल झंडे के दावेदारों और बाबासाहेब के अनुयायी होने का दावा करने वाले नीले झंडे के पहरुओं के लिए कम से कम मई दिवस से कोई बेहतर दिन नहीं हो सकता कि मेहनतकश तबके के हक हकूक की आवाज नये सिरे से देश भर में एक साथ उठायी जाये।

अभी अभी अमाजेन, फ्लिप कर्ट,स्नैप डील,और अलीबाबा के खुदरा कारोबार दखल कर लेने के बाद ओला कंपनी ने चार अरब डालर की पूंजी देशी विदेशी निवेशकों से बटोरी है कि भारत के खुदरा बाजार से इस देश के कारोबारियों को बेदखल कर दिया जाये।थोक दरों पर किसानों की आत्महत्या खेती और देहात को मेहनतकश तबके में शामिल होकर रोज कुंआ खोदो रोज पानी पिओ की हैसियत में लाकर पटका है।

रोजगार के लिए अब अति दक्ष अति कुशल चुनिंदे लोगों के अलावा हमारे बच्चों के लिए संपूर्ण निजीकरण ,संपूर्ण विनिवेश,संपूर्ण विनियंत्रण,संपूर्ण विनियमन और संपूर्ण अबाध विदेशी पूंजी के कारपोरेटएफडीआई राज में बिना आरक्षण मुक्तबाजार के संपूर्ण पीपीपी माडल परमाणु विध्वंस बुलेट विकास में मेकिंग इन में कोई जगह नहीं है।

लिहाजा किसानों और मजदूरोें के अलावा इस देश के बच्चों,छात्रों,महिलाओं का भविष्य भी यही बेहिसाब तेजी से बढ़ती वंचित मेहनतकश दुनिया है।जिसमें ग्रामीण भारत का महाश्मशान,बेदखल जल जंगल जमीन पहाड़ मरुस्थल रण,खुदरा बाजार,विस्थापितों और शरणार्थियों की गंदी बस्तियों से लेकर मध्यवर्ग के बसेरे तक को हिंदुत्व के इस फासीवादी मुक्तबाजारी विध्वंसक दावानल ने चारों तरफ से घेर लिए।सारा देश अब जलती हुई बुलेट ट्रेन है और इसमें से बच निकलने की सारी खिड़कियां और तमाम दरवाजे बंद हैं।

इस दुनिया को अब हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़ा ही होना है और मेहनतकश तबके की लड़ाई ,जल जंगल जमीन की लड़ाई से कतई अलहदा नहीं है।हमारी सारी लड़ाई अब विदेशी अबाध पूंजी के ईस्ट इंडिया कंपनी कारपोरेट केसरिया राज और मुक्तबाजारी नस्ली वर्णवर्चस्वी हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ है।

अब पूरे देश को जोड़कर हिंदू साम्राज्यवादी  कारपोरेट केसरिया के खिलाफ तमाम रंगों के इंद्रधनुष बनाकर लड़ने के सिवाय इस मृत्यु उपत्यका से बच निकलने का कोई रास्ता बचा नहीं है।

आपको याद होगा कि हमने पिछले 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाने  की अपील की थी।तब देशभर में हमारे साथियों ने संविधान दिवस मनाया।महाराष्ट्र और दूसरे राज्यों में गैर अंबेडकर अनुयायी भी हर साल संविधान दिवस मनाते हैं।

महाराष्ट्र सरकार ने इसे राजकीय उत्सव बना डाला तो वहां बहुजनों के संगठित होने का मौका हाथ से निकल गया।

संविधान की मसविदा कमेटी के अध्यक्ष बाबासाहेब अंबेडकर हैं और इसलिए देश भर में बहुजन उनकी जयंती,उनके परानिर्वाण दिवस और उनकी दीक्षा तिथि मनाने की रस्म अदायगी की तरह सालों से संविधान दिवसे मनाते रहे हैं।

संविधान और संप्रभुता,स्वतंत्रता और लोकतंत्र का कोई किस्सा इस भावावेग में होता नहीं है।अंबेडकरी आंदोलन केसरिया सुनामी की तरह ही अब तक भावनाओं का कारोबार रहा है और देश के आम लोगों,वंचित, बहुजनों, स्त्रियों, बच्चों, किसानों, कर्मचारियों, छात्रों,युवाओं मजदूरों और समूचे मेहनतकश वर्ग के लिए वंचितों के साथ साथ बाबासाहेब की जो आजीवन सक्रियता रही है,उसकी कोई निरंतरता इसीलिए नहीं है।

अंबेडकर के नाम भावनाओं पर आधारित पहचान की राजनीति से न सिर्फ बाबासाहेब के जाति उन्मूलन के एजंडे के विपरीत मनुस्मृति शासन एक तहत बहुजनों का संहार कार्निवाल बन गया है यह केसरिया कारपोरेट मुक्तबाजारी समय,बल्कि इसी आत्मघाती विचलन की वजह से हिंदुत्व सुनामी में समाहित हैं अंबेडकरी आंदोलन और स्वयं अंबेडकर भी।

हमने हस्तक्षेप पर संघ परिवार के झूठे दावों के खिलाफ बहुजनों और मुसलमानों से खासतौर पर लिखने का खुला न्यौता दिया हुआ है।

मुसलमानों को इसलिए कि उनके खिलाफ बाबासाहेब के हवाले से इस्लाम मुक्त भारत के संघी एजंडा के तहत अभूतपूर्व घृणा अभियान छेड़ दिया गया है और बहुजनों से इसलिए कि वे बाबासाहेब के आंदोलन और विरासत के  वे सबसे बड़े दावेदार है।

अभी तक इन तबकों से कोई प्रतिक्रिया भी नहीं मिली है।

जैसे कि बहुजन पलक पांवड़े बिछाये हिदुत्व के बव्य राममंदिर में बाबासाहेब की हत्या के बाद बाबासाहेब की स्वर्ण प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा का इंतजार ही नहीं कर रह कर रहे हैं,बल्कि कतारबद्ध हैं विष्णु भगवान के नये बाबासाहेब अंबेडकर गोडसे सावरकर गोलवलकर अवतार समरस  की शास्त्रसम्मत पूजा अर्चना के लिए।

हम फिर मई दिवस मनाने की अपील कर रहे हैं।मेहनतकश तबके के हक हकूक की लड़ाई तेज करके ही चूंकि देश बेचो फासिस्ट फरेबी बजरंगियों से देश को बचाने की चुनौती है।
http://ambedkaractions.blogspot.in/2015/04/blog-post_37.html

CPI (M) on Twitter

“Comrade Sitaram Yechury has been elected by the Central Committee as the new General Secretary of the #CPIM.”

TWITTER.COM

Tuesday, 14 April 2015

He hated fascist Barbed Wire,he loved Kolkata and Sundar Bans and he is no more!

He hated fascist Barbed Wire,he loved Kolkata and Sundar Bans and he is no more!
Günter Grass, the Nobel Prize-winning German novelist!
I always pointed out that without raising voice to protect the nature and natural resources,you may not stand with the suffering and toiling masses.Grass exactly did it and addressed the social realism in Bengal as much as true that the Bengali intelligentsia never dared to.

For me Grass is more a Bengali writer than any Bengali writer.

Palash Biswas

He hated fascist Barbed Wire,he loved Kolkata and Sundar Bans and he is no more!
Günter Grass, the Nobel Prize-winning German novelist!

I would never forget Gross with the goddess Kali tongue!Not only the world lost the most daredevil writer with concentration camp nostalgia,not only Germany lost an Icon enviable,Kolkata and and the most neglected Mangroves lost a very specific lover.The depressed class Have NOT demography of Slum Kolkata and 24 parganas lost their spokesman global.

Celebrating the Original warrior for the depressed classes in Asia and beyond,Babasaheb Dr.Ambedkar,the most misinterpreted,most misunderstood,most misused personality of Indian History,we the depressed class people in Bengal must mourn for the Man who spoke and wrote for the Mangroves.

Yes,it is very very important to know Grass in reference to Mangroves which could sustain entire Indian Subcontinent and remained most endangered thanks to making in PPP Model development and continuous destruction of the nature and nature associated people to sell of the Golden Bird,the aborigin India.

I always pointed out that without raising voice to protect the nature and natural resources,you may not stand with the suffering and toiling masses.Grass exactly did it and addressed the social realism in Bengal as much as true that the Bengali intelligentsia never dared to.

For me Grass is more a Bengali writer than any Bengali writer.

Gunter Grass And Kolkata: A Four Decade of Love-Hate Tale

NDTV‎ - 12 hours ago

Kolkata: From a dark depiction of the "omnipresent stench", the people dwelling in concrete ...

Gunter Grass held up a mirror to Kolkata

Times of India‎ - 10 hours ago

Gunter Grass and Kolkata - a four decade of love-hate tale - Yahoo News India

Yahoo India News‎ - 13 hours ago

The Telegraph - Calcutta

www.telegraphindia.com/

Gunter Grass, the German author and social critic who gave voice to the generation that came of age during the horrors of the Nazi era, died on Monday morning ...

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Gunter Grass held up a mirror to Kolkata - The Times of India

timesofindia.indiatimes.com › City

10 hours ago - KOLKATA: Kolkata occupied a special place in Gunter Grass' heart, his consciousness and in his works. It was a bitter-sweet relationship that ...

Gunter Grass` Love-hate Relationship With Calcutta ...

articles.chicagotribune.com/.../8902030281_1_gunter-grass-grass-book-...

May 21, 1989 - Show Your TongueBy Gunter GrassTranslated by John E. WoodsHarcourt Brace Jovanovich, 314 pages, $29.95Calcutta is one of those names ...

CALCUTTA IS THE MEASURE OF ALL THINGS - NYTimes ...

www.nytimes.com/1989/05/.../calcutta-is-the-measure-of-all-things.html

May 21, 1989 - In the fall and winter of 1987-88, Gunter Grass and his wife, Ute, settled in Calcutta for the Bengali-language staging of his 1966 play, ''The ...

Show Your Tongue by Günter Grass — Reviews, Discussion ...

www.goodreads.com/book/show/436030.Show_Your_Tongue

Rating: 3.3 - ‎20 votes

Robert said: Gunter Grass, Show Your Tongue (1989, Harcourt Brace ... A record of the author's stay in Calcutta from August 1987 to January 1988. A stunning ...

Günter Grass - Wikipedia, the free encyclopedia

en.wikipedia.org/wiki/Günter_Grass

Günter Grass (German: [ˈɡʏntɐ ˈɡʀas]; 16 October 1927 – 13 April 2015) was .... In the 1980s, he became active in the peace movement and visited Calcutta ...

Gunter Grass and Kolkata - a four decade of love-hate tale ...

www.nerve.in/news:2535002459006

12 hours ago - Kolkata, April 13 From a dark depiction of the omnipresent stench, the people dwelling in concrete pipes and damning criticism of the city's ...

Blades Of Grass | Soutik Biswas - Outlook

www.outlookindia.com/article/Blades-Of-Grass/208222

Calcutta is intensely close to Gunter Grass. It brings out the layers of complexity which constitute the Nobel laureate's sensibilities.

Gunter Grass and Kolkata – a four decade of love-hate tale ...

danilnews.com/.../gunter-grass-and-kolkata-a-four-decade-of-lovehate-ta...

10 hours ago - The versatile German Nobel Laureate, who effortlessly […]The postGunter Grass and Kolkata – a four decade of love-hate tale appeared first ...

Gunter Grass, Nobel Laureate and Germany's voice of memory, dies at 87
In 1987, Grass and his wife came to Calcutta for the staging of one of his plays, The Plebeians Rehearse The Uprising. He made fast friends among the city's writers
Nilanjana S Roy  

April 14, 2015 Last Updated at 00:04 IST

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When I heard that Günter Grass had died at 87, peacefully in the town of Lübeck, I thought of what he had been at 17 and 18. He was still a boy, despite what he'd seen in World War II, weighing only 110 pounds in his Waffen SS uniform after the 850-calorie diet in a US Army-run camp he reached after his surrender.

The boy, sensitive, already a storyteller by nature, was slow to understand the word "capitulation" meant "final, incontrovertible". The conquering US soldiers' ability to chew gum was impressive; so were their silent rubber soles, in contrast to his army's jackboots. The Third Reich was over, but even when the American education officer showed them the pictures of Bergen-Belsen, the corpses, the ovens, he couldn't believe it. He wrote in Peeling The Onion, the 2007 memoir that came out eight years after he won the Nobel Prize for Literature:

"You mean Germans did that?" We kept asking.

"Germans could never have done that."

"Germans don't do that."

But they did, they had, and for the rest of his life, he would be burdened. "One word evokes the other: Schulden, Schuld," he wrote. "Debts, guilt".

Grass at 19, 20, away from home in Dusseldorf; he filled out, put muscle back on when he found work as a sculptor. His job was to chisel tombstones, and change the names. The inscriptions - "such as: 'Death is the Gate To Life'" - were recyclable. In his twenties he tried to write his first novel, The Kashubians, but didn't get very far. He managed to kill off all his characters by the end of the first few chapters, so, there were no more chapters to write.

But he had been writing all his life anyway, sketching, making notes. His hands were restless, they never stopped. At the Bittweg tram stop, waiting to go home, he would see a line of stonecutting establishments, including the firm of Moog; he put it in The Tin Drum, his most famous novel, as C Schmoog, sandstone and basalt specialists. When they were not working on tombstones, he and his fellow apprentices restored the arms and wings of park statues that had been maimed in the bombing.

In the 1950s, Grass travelled to Paris. He was close to 30 years old and was smoking Parisiennes, deep in conversation with friends and family, when a three-year-old boy came into the room. The boy had a toy drum, a tin toy, that he struck with wooden sticks; he refused to leave or to stop, and circled the table, drumming determinedly. Then the child left, but his image stayed with Grass: "It would be a long time before the bolt slid open, the flood of images was released and with the images, words I had been saving since childhood."

He wrote poems and plays (Mister, Mister; The Flood), and then The Tin Drum came out in 1959.The New York Times reviewer recognised its genius, calling it remarkable, and calling Grass "probably the most authentic literary talent to appear in Germany in 25 years". But, Orville Prescott added in his 1963 review, "It is very German and in many episodes, very repulsive… It is gross, grotesque, gruesome and horrible throughout." Grass wrote many other striking and memorable works - From The Diary of a Snail, The Flounder, The Rat, My Century, Crabwalks - but it was The Tin Drum that readers remembered most and that made the most powerful impact.

In 1987, Grass and his wife came to Calcutta for the staging of one of his plays, The Plebeians Rehearse The Uprising. He made fast friends there among the city's writers, notably Sunil Gangopadhyay. He caught up with some of them, including painter Shuvaprasanna, when he went back for a visit in 2005. The city made a striking impression on him. For a while, Grass said, he could not write at all - he set down drawings until the words came back. His account of his time in Calcutta and Bangladesh was called Show Your Tongue, in a reference to Ma Kali:

"Kali Puja announced, I saw Calcutta descend on us. Three thousand slums, usually rapt in themselves, crouched low by walls or sewer water, now all ran out, rampant, beneath the new moon, the night and the goddess on their side. Saw, in the holes of uncountable mouths, the lacquered tongue of black Kali flutter red. Heard her smack her lips: I, numberless, from all the gutters and drowned cellars. I, set free, sickle-sharp I. I show my tongue, I cross banks, I abolish borders. I make an end."

Grass's reputation was severely tarnished, mostly outside Germany, in the 2000s when the revelations about his Nazi past came to light; Grass said in an interview that he should have written his memoir sooner. The shame had silenced him but in 2007, he spoke eloquently enough in Sweden at the Nobel banquet: "I come from a land of book-burning." Writers, he said, were such a threat to churches, the politburo and the mass media because they saw truth in the plural, they were unable to leave the past in peace, they cast doubt on the victors of history by giving the losers a voice.