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Sunday, 29 March 2015

बामसेफ और ट्रेड यूनियनों के भरोसे हम मुक्तबाजार के खिलाफ लड़ नहीं सकते क्योंकि नवधनाढ्य कर्मचारी तबका सत्ता वर्ग में शामिल है।

बामसेफ और ट्रेड यूनियनों के भरोसे हम मुक्तबाजार के खिलाफ लड़ नहीं सकते क्योंकि नवधनाढ्य कर्मचारी तबका सत्ता वर्ग में शामिल है।

जनता के बीच गये बिना,जनता की गोलबंंदी के बिना ,पूरे देश को अस्मिताओं के आर पार जोड़े बिना,बिना किसी संस्थागत संगठन के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के इस गैस चैंबर मैं कैद वक्त को रिहा कराने का कोई उपाय नहीं है।

हम जिन्हें प्रभाष जोशी से बेहतर संपादक मानते हैं,वे क्यों अरविंद केजरीवाल का पक्ष लेंगे,इसके लिए मामूली सबएटीटर होकर भी हमने ओम थानवी के खिलाफ सवाल उठाये थे तो आज मेरा सवाल जनपक्षधर सारे लोगों से है कि जनपक्षधरता आपपक्ष क्यों बनती जा रहीं है।

पलाश विश्वास

फोटोःइकोनामिक टाइम्स के सौजन्य से।

अब हम सूचनाओं पर फोकस कम कर रहे हैं क्योंकि सूचनाओं के जानकार होते हुए भी समझ के अभाव में उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं है।इसलिए अबसे सांगठनिक और वैचारिक मुद्दों पर मेरा फोकस रहना है।सूचनाें हम अंग्रेजी में डालेंगे और बांग्ला में भी जरुरी मुद्दो पर ही फोकस करेंगे।

बामसेफ और ट्रेड यूनियनों के भरोसे हम मुक्तबाजार के खिलाफ लड़ नहीं सकते क्योंकि नवधनाढ्य कर्मचारी तबका सत्ता वर्ग में शामिल है।

यह कटु सत्य बामसेफ के विवादित मसीहा वामन मेश्राम से बेहतर शायद कोई नहीं जानता।कमसकम दस सालों तक हमारी बहस उनसे यही होती रही कि बामसेफ को जनांदोलनों की अगुवाई करनी चाहिए और बामसेफ को आर्थिक मुद्दों पर जनजागरणचालाना चाहिए।

अपने खास अंदाज में हमारी दलीलों को खारिज करते हुए वामन मेश्राम हर बार कहते रहे हैं कि कर्मचारी आंदोलन करेंगे नहीं।कर ही नहीं सकते।

वे राष्ट्रव्यापी जनांदोलन की बात बामसेफ के मंच से करते रहे और इस सिलसिले में हमारा भी इस्तेमाल करते रहे लेकिन वे जानते थे कि यह असंभव है।

वे जानते थे कि इस नवधनाढ्य तबके को किसी की फटी में टांग अड़ाने का जोखिम उठाना नहीं है लेकिन वह राष्ट्रव्यापी जनांदोलन के लिए संसाधन झोंकने से पीछे हटेगा नहीं।

दुधारु कर्मचारियों से संसाधन जुटाने में वामन मेश्राम ने कोई गलती नहीं की।ट्रेड यूनियनें और पार्टियां भी विचारधारा के नाम पर वामन मेश्राम का फार्मूला काम में ला रहे हैं।

लाखों रुपये चंदे में बेहिचक देने वालों को हिसाब से लेना देेना नही हैं,यह नवधनाढ्य तबका  सभी देवताओं को इसी तरह खुश रखता है।

न जनांदोलनों से इस सातवें आयोग के वेतनमान का बेसब्री से इंतजार करने वाले,आरक्षण और अस्मिता को जीवन मरण का प्रश्न बनाये रखने वाले मलाईदार तबके को कोई मतलब है,और न बाबासाहेब के मिशन से और न उन ट्रेड यूनियनों की विचारधारा से ,जिनके वे सदस्य हैं।वे राष्ट्रव्यापी हड़ताल कर सकते हैं।सिर्फ और सिर्फ अपने लिए।आम जनता के लिए कतई नहीं।

वे सड़कों पर उतर भी सकते हैं।लाठी गोली खाने से भी वे परहेज नहीं करेंगे।लेकिन सिर्फ बेहतर वेतनमान के लिए,बेहतर भत्तों के लिए।विनिवेश और निजीकरण और संपूर्ण निजीकरण और अपने ही साथियों के वध से उन्हें खास ऐतराज नहीं है जबतक कि वे खुद सड़क पर उतर नहीं आते।

हमने हर सेक्टर के कर्मचारियों को अर्थव्यवस्था के फरेब समझाने की झूठी कवायद में पूरी दशक जाया कर दिया और दूसरे लोगों ने पूरी जिंदगी जाया कर दिया।

अगर कर्मचारी तनिक बाकी जनता और कमसकम अपने साथ के लोगों की परवाह कर रहे होते तो अपनी ताकत और अपने अकूत संसाधनों के हिसाब से वे बखूब इस मुक्तबाजारी तिलिस्म को तोड़ सकते थे।

ऐसा नहीं होना था।हमने इसे समझने में बहुत देर कर दी है और उनके भरोसे जनता के बीच हम अब तक अस्मिताओं के आर पार कोई पहल नहीं कर सके हैं। न आगे हम कुछ करने की हालत में हैं।

जैसे बामसेफ को लेकर बहुजनों को गौतम बुद्ध की क्रांति को दोहराने का दिवास्वप्न उन्हें विकलांग और नपुंसक बनाता रहा है,आप को लेकर आम जनता के एक हिस्से का मोह हूबहू वही सिलिसिला दोहरा रहा है और सबसे खराब बात है कि हमारे प्रबुद्ध जनपक्षधर लोग इसे झांसे से बचे नहीं है।

वे समझ रहे थे कि बिना जनांदोलन की कोई कवायद किये अरविंद केजरीवाल अपने निजी करिश्मे के साथ इस वक्त को बदल देंगे।वे लोकतंत्र बहाल कर देंगे,जिसके वे शुरु से खिलाफ रहे हैं।

दरअसल अरविंद भी हिंदू साम्राज्यवाद के सबसे ईमानदार और सबसे कर्मठ सिपाहसालार है,हमारे सबसे समझदार लोगों ने इस सच को नजरअंदाज किया है और यह बहुत बड़ा अपराध है आम जनता के खिलाफ,इसका अहसास भी हमें नहीं है।

निजी करिश्मा से क्रांति हुई रहती तो कार्ल मार्क्स कर लेते और न माओ,न लेनिन,न स्टालिन और न फिदेल कास्त्रों की संगठनात्मक क्षमता की कोई जरुरत होती।

नेलसन मांडेला जल में रहकर ही रंगभेद मिटा देते और गांधी को कांग्रेस के मंच से देश जोड़ना न पड़ता।

विचार काफी होते तो गुरु गोलवलकर हिंदी राष्ट्र बना चुके थे,संघ परिवार जैसे किसी संस्थागत संगठन  की जरुरत हरगिज न होती।

संगठन जरुरी न होता तो बाबासाहेब अपना एजंडा पूरा किये बिना सिधार न गये होते।

जिस क्रांति का हवाला देकर हम गौतम बुद्ध को ईश्वर बना चुके हैं,उस क्रांति के पीछे कोई गौतम बुद्ध अकेले न थे,वे महज एक कार्यकर्ता थे,जिनने विचारधारा को एक संस्थागत संगठन के जरिए क्रांति के अंजाम तक पहुंचाया और वह संगठन टूट गया धर्मोन्माद में तो प्रतिक्रांति भी हो गयी।

जनता के बीच गये बिना,जनता की गोलबंंदी के बिना ,पूरे देश को अस्मिताओं के आर पार जोड़े बिना,बिना किसी संस्थागत संगठन के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के इस गैस चैंबर मैं कैद वक्त को रिहा कराने का कोई उपाय नहीं है।

अब सबसे पहले सबसे अच्छी खबर।सेहत मेरी जैसी भी रहे,मेरी सामाजिक लेखकीय सक्रियता पर अंकुश कोई लगने नहीं जा रहा है।

हमारे संपादक ओम थानवी का आभार कि उनने मुझे निजी संदेश देकर आश्वस्त कर दिया है कि हमारे मित्र शैलेंद्र की सेवा जारी है।उनने शैलेंद्र से मुझे जानकारी देने को कहा था,पर शैलेंद्र जी ने ऐसा नहीं किया।किया होता तो मैं कोहरे में भटक नहीं रहा होता।

मुझे बहुत खुशी है कि ओम थानवी ने हमारी भावनाओं को समझने की कोशिश की है।जो काम माननीय प्रभाष जोशी कर नहीं सकें,उसे पूरा करने की जिम्मेदारी ओम थानवी उठा नहीं सकते,यह मजबूरी समझने की जरुरत है।

ओम थानवी चाहकर भी कोलकाता में किसीकी पदोन्नति दे नहीं कर सकते।इसलिए उनने शैलेंद्र की सेवा जारी करके आखिरी वक्त हम लोगों को और बेइज्जत होने के खतरे से बचा लिया है और जिस किसी को हमारे मत्थे पर नहीं बैठायेंगे,यह भरोसा दिलाकर हमारी चिंताओं को दूर किया है,इसके लिए उनका आभार कि उनने हमारी और फजीहत होने से हमें बचा लिया। साल भर और अपने मित्र के मातहत काम करने में हममें से किसी को कोई तकलीफ नहीं होगी।

दरअसल जनसत्ता बंद होने की खबरों से खुश होने या चिंतित होने वाले लोगों को पता ही नहीं है,उन लोगों को भी शायद पता नहीं है कि जनसत्ता की सेहत ने किस कदर आखिरी वक्त प्रभाष जोशी को तोड़ दिया था। हमने उस प्रभाष जोशी को देखा है जो हमारे लिए मसीहा न थे लेकिन हमारे सबकुछ थे और जिनकी पुकार पर हम देश भर से आगा पीछा छोड़कर चले आये थे और अपना भूत भविष्यवर्तमान उनके हवाले कर चुके थे।उन प्रभाष जोशी को हमने घुट घुटकर मरते जीते देखा है।

सबसे बड़े अफसोस की बात है कि प्रभाष जोशी का महिमामंडन और कीर्तन करने वाले संप्रदाय को उस जनसत्ता के बारे में तनिक परवाह नहीं है,जिसके लिए प्रभाष जोशी जिये और मरे।
वे क्रिकेट की उत्तेजना को सह नहीं पाये और उनने दम तोड़ा ,सचिन तेंदुलकर ने अपनी सेंचुरी उनके नाम करके यह मिथ मजबूत बनाया है।जबकि सच यह है कि निरंतर दबाव में टूटते हुए जनसत्ता का बोझ वे उठा नहीं पा रहे थे,जिसे उनने पैदा किया और जिसके लिए वे मरे और जिये।

दस साल पहले उनके जीवनकाल में मैं उनके सारस्वत ब्राह्मणवाद का मुखर आलोचक रहा हूं लेकिन जब मैं नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटेर में हिंदी वालों से गुहार लगायी कि जनसत्ता की हत्या हो रही है तो दरअसल वह बयान मेरा प्रभाष जोशी के साथ हिंदीसमाज को खड़ा करने के मकसद से था।वह मेरे औकात से बड़ी कोशिश थी।

आज जो मैं बार बार बार ओम थानवी को प्रभाष जोशी से बेहतर संपादक कह रहा हूं तो संकट की घड़ी में यह मेरा बयान ओम थानवी का हाथ मजबूत करने के मकसद से ही है।

हमें अगर जनसत्ता की फिक्र करनी है तो जो हम चूक गये प्रभाष जोशी के समय से,वह काम हमें करना चाहिए कि हिंदी समाज की इस विरासत को बचाने के लिए उसके संपादक के साथ मजबूती से खड़ा होना चाहिए।

हम सबने प्रभाष जी का वह असहाय चेहरा देखा है जब वे जनसत्ता को रिलांच करना चाहते थे।चंडीगढ़ को माडल सेंटर बनाने के लिए वहां इतवारी से उठाकर ओम थानवी को लाये थे और कोलकाता के जरिये समूचे पूरब और पूर्वोत्तर में नया हिंदी आंदोलन जनसत्ता के मार्फत गढ़ना चाहते थे।

हुआ इसके उलट,सीईओ शेखर गुप्ता तुले हुए थे कि ऐनतेन प्रकारेण जनसत्ता को बंद कर दिया जाये और उनकी योजना मुताबिक यकबयक जनसत्ता चंडीगढ़ और जसत्ता मुंबई के अच्छे खासे एडीशन बंद कर दिये गये।
सीईओ शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी को अपमानित करने और उन्हें हाशिये पर धकेलने की कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी और हिंदीसमाज इसका मजा लेता रहा और महिमामंडन संप्रदाय को कभी खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं हुई।

अनन्या गोयनका नहीं चाहती थीं कि उनके मायके से कोलकाता से जनसत्ता बंद हो जाये तो जोशी जी कोलकाता को बचा सके लेकिन जिन लोगों को वे बतौर टीम लाये थे,एक के बाद एक को वीआरएस देते रहने के सिलसिले को वे रोक न सकें और न जनसत्ता कोलकाता की साथियों की हैसियत वे बदल सकें।खून के आंसू रो रहे थे जोशी और हम देखते रहे।

आखिरी दिनों में जोशी जी कोलकाता आये तो जनसत्ता नहीं आये,ऐसा होता रहा है और यह हमें लहूलुहान करता रहा।

उसीतरह जैसे ओम थानवी जानबूझकर हमारी कोई मदद नहीं कर सकते,यह बेरहम सच,जिससे न ओम थानवी बच सकते हैं और न हम।

समझ बूझ लें कि यह कोई ओम थानवी का निजी संकट नहीं है और न मेरा और मेरे साथियों का यह कोई निजी संकट है।

मैनेजमेंट इस बहस को किस तरह लेगा,इसकी परवाह किये बिना बतौर केसस्टडी हम इसे साझा कर रहे हैं और बता रहे हैं कि हिंदी समाज के तमाम संस्थान किस तरह से मुक्त बाजार के शिकंजे में हैं और हमारे लोग कितने बेपरवाह हैं,कितने गैर जिम्मेदार हैं।

इस पोस्ट से ओम थानवी का कितना नुकसान होगा और मेरा कितना नुकसान,इस पर हमने सोचा नहीं है।न यह सोचा कि इसे पढ़कर थानवी कितने खुश या नाराज होंगे।

प्रधान संपादक से सलाहकार संपादक बना दिये जाने के बाद तो जोशी जी कोलकाता विभिन्न आयोजनों में आते रहे लेकिन वे अपने ही नियुक्त किये साथियों से मुंह चुराते रहे क्योंकि वे उनके लिए कुछ भी कर नहीं सकते थे।उनकी हालत इतनी खराब थी कि एक एक शख्स से निजी संबंध होने के बावजूद मुझ जैसे मुखर साथी का नाम भूलकर वे मुझे मंडलजी कहने लगे थे।

ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में जनसत्ता का तेवर बनाये रखना और हिंदुत्व सुनामी के मुकाबले उसे खड़ा कर पाना ओम थनवी का कृतित्व है चाहे व्यक्ति बतौर उनसे हमारे संबंध अच्छे हों या बुरे,हम उन्हें पसंद करते हों या नहीं,हिंदी को जनपक्षधर जनसत्ता को जारी रखने में रुचि है तो हिंदी समाज को ओम थानवी के साथ मजबूती के साथ खड़ा हानो चाहिए।

इसी सिलसिले में हमने अपने नये पुराने तमाम साथियों से आवेदन  किया हुआ है कि जनसत्ता के लिए बिंदास तब तक लिखें जबतक वहां ओम थानवी हैं।

प्रभाष जोशी का महिमामंडन करने वाले लोगों को इस संकट से लगता है लेना देना नहीं है।हम जो लोग अब भी जनसत्ता में तमाम तूफानों के बावजूद बने हुए हैं,हालात हमारे लिए कमसकम रिटायर होने तक अपनी इज्जत बचाये रखने के लिए इस संकट की घड़ी में ओम थानवी के साथ खड़ा होने की जरुरत है और हम वही कर रहे हैं।

इसका भाई जो मतलब निकाले और जाहिर है कि अब बहुत साफ हो चुका है कि अगर यह चमचई है तो इस चमचई से हमारा कोई भला नहीं होने वाला है।

मजीठिया के मुताबिक कुल जमा डेढ़ साल हमारा ग्रेड और हमारा वेतनमान जो भी हो और भले एरिअर हमें 2011 से दो दो पदोन्नति के मुताबिक मिल रहा हो,आखि कार हमें रिटायर बतौर सबएटीटर होना है।गनीमत यही है कि हम शैलेंद्र के साथ ही रिटायर होंगे।उसके बाद जो होगा,वह मेरा सरदर्द नहीं है।

बहरहाल राहतइस बात की है कि एक्सप्रेस समूह मुझे किसी बंदिश में नहीं जकड़ने जा रहा है और अखबार के मामले में मेरी कोई जिम्मेदारी उतनी ही रहनी है,जितनी आजतक थी।

मेरी ओम थानवी जी से कभी पटी नहीं है।मेरी अमित प्रकाश सिंह से भी कभी पटी नहीं है।हम दोनों बल्कि दोस्त के बजायदुश्मनी का रिश्ता निभाते रहे हैं।जबकि मैंने आजतक चालीस साल के अपनी लेखकीय यात्रा में अमित प्रकाश से बेहतर कोई संपादक देखा नहीं है।उनके साथ मेरी टीम बननी चाहिए थी।यह बहुतसुंदर होता कि ओम थानवी के साथ मैं सीधे संवाद में होता और उनके साथ मैं संपादकीय मैं कुछ योगदान कर पाता।हुआ इसका उलट,ओम थानवी को समझने में मुझे काफी वक्त लग गया और वक्त अब हाथ से निकल गया है।

अब मजीठिया के मुताबिक वेतनमान कुछ भी हो,मैं सब एटीटर बतौर ही रिटायर करने वाला हूं।मेरी हैसियत किसी सूरत में बदलने वाली नहीं है।

ओम थानवी जी का मैं उनके संपादकत्व के घनघोर समर्थक होने के बावजूद मुखर आलोचक हूं।मेरी मनःस्थिति समझकर मुझे उनने अभूतपूर्व दुविधा और संकट से जो निकालने की पहल की है,मैं उसके लिए आभारी हूं।

अब मैं पहले की तरह बिंदास लिख सकता हूं और मेरी दौड़ भी देश के किसी भी कोने में जारी रह सकती है।यह मेरे लिए राहत की बात है कि कारपोरेट पत्रकार बनने की अब मेरी कोई मजबूरी नहीं है।आखिरी साल में भी नहीं।

थानवी जी ने बेहद अपनत्व भरा निजी संदेश दिया है,जिसे मैं सार्वजनिक तो नहीं कर सकता और मैं वास्तव को सही परिप्रेक्ष्य में रखकर मुझे नये सिरे से दिशा बोध कराया है।फिर भी उनके निजी संदेश को मैं साझा नहीं कर सकता।

कर पाता तो आपको भी किसी दूसरे ओम थानवी का दर्शन हो जाता जो उनकी लोकप्रिय छवि के उलट है।

हाल में मैंने थानवी जी की कड़ी आलोचना की थी कि कि वे मुझे अचानक आप के प्रवक्ता दीखने लगे हैं।इस पर उनने कोई प्रतिक्रिया दी नहीं है।

आप के अंदरुनी संकट को जैसे देश का संकटबतौर पेश किया जा रहा है मीडिया और सोशल मीडिया में भी,वह हैरतअंगेज है।

अमलेंदु से मेरी रोज बातें होती हैं।लेकिन कल जैसे अमलेंदु ने सारे मुद्दे किनारे करते हुए मेरे रोजनामचे के सिवाय पूरा फोकस आप पर किया है,वह मेरे लिए बहुत दुखद है।आप संघ परिवार का बाप है।इसे नये सिरे से साबित करने की जरूरी नहीं है।

मेधा पाटकर और कंचन भट्टाचार्य,प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव और तमाम जनआंदोलनवाले ,समाजवादी कुनबे के लोग किस समझ के साथ आप में रहे हैं,यह मेरी समझ से बाहर है।जो आंतरिक लोकतंत्र पर बहस हो रही है,उसका की क्या प्रासंगिकता है,वह भी मेरी समझ से बाहर है।क्या अब हम संघ परिवार के आंतरिक लोकतंत्र पर भी बहस करेंगे?
सत्तावर्ग का लोकतंत्र और आंतरिक लोकतंत्र फिर वही तिलिस्म है या फरेब है।

जैसे मैं आजादी के खातिर जनसत्ता और एक्सप्रेस समूह में मेरे साथ हुए अन्याय की कोई परवाह नहीं करता और न रंगभेदी भेदभाव की शिकायत कर रहा हूं और जैसे मैं मुझे कारपोरेट बनने के लिए मजबूर न करने के लिए ओम थानवी जी का आभार व्यक्त कर रहा हूं।

प्रभाष जोशी जी के जमाने में मैं अनुभव और विचारों से उतना परिपक्व था नहीं और उस जमाने में मेरी पत्रकारिता में महात्वाकांक्षाएं भी बची हुई थीं।इसलिए प्रभाष जी ने मेरे भीतर की आग सुलगाने का जो काम किया है,उसे मैं सिरे से नजरअंदाज करता रहा हूं।

आज निजी अवस्थान,अपने स्टेटस के मुकाबले हमारे लिए अहम सवाल है कि हम अपने वक्त को कितना संबोधित कर पा रहे हैं और उसके लिए हम सत्तावर्ग से कितना अलहदा होकर जनपक्षधर मोर्चे के साथ खड़ा होने का दम साधते हैं।इस मुताबिक ही ओम थानवी जी का संदेश मेरे लिए बेहद महत्वपूर्ण है।

उसी तरह आप प्रसंग में कोई बहस वाद विवाद इस बेहद संगीन वक्त के असली मुद्दों को डायल्यूट करने का सबसे बड़ा चक्रव्यूह है और हमारी समझ से हमारे मोर्चे के लोगों को उस चक्रव्यूह में दाखिल होना भी नहीं चाहिए।

हमारा अखबार अब भी जनआकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है।हमारा संपादकीय बेहद साफ है।भाषा शैली और सूचनाओं की सीमाबद्धता के बावजूद और इसीलिए मैं प्रभाष जोशी के महिमामंडन के बजाय अपने संपादक के साथ खड़ा होना पसंद करुंगा चाहे इसके लिए मुझे जो और जैसा समझा जाये।

उस संपादक के आप के साथ खड़ा देखकर जो कोफ्त हुई,हस्तक्षेप को आप के रंग में रंगा दीखकर वही कोफ्त हो रही है।

अरविंद केजरीवाल सत्ता वर्ग,नवधनाढ्यवर्ग का रहनुमा है।

इस वर्ग को न फासीवाद से कुछ लेना देना है और न जनता के जीवन मरण के मुद्दों से।न इस तबके को किसी जनपक्षधर मोर्चे की जरुरत है और न दिग्विजयी अश्वमेधी मुक्त बाजार की नरसंहार संस्कृति से इस तबके की सेहत पतली होने जा रही है।

यूथ फार इक्वेलियी के नेता बतौर देश को मंडलकमंडल दंगों की चपेट में डालने वाले संप्रदाय के सबसे बड़े प्रतिनिधि जो समता,सामाजिक न्याय और लोकतंत्रक के सिरे से विरोधी है,उसे पहचानने में अगर हमारे सबसे बेहतरीन ,सबसे प्रतिबद्ध साथी चूक जाते हैं और उनके विचलन को ही आज का सबसे बड़ा मुद्दा मानकर असल मुद्दों को दरकिनार कर देते हैं,तो मेरे लिए यह घनघोर निराशा की बात है।

हम जिन्हें प्रभाष जोशी से बेहतर संपादक मानते हैं,वे क्यों अरविंद केजरीवाल का पक्ष लेंगे,इसके लिए मामूली सबएटीटर होकर भी हमने ओम थानवी के खिलाफ सवाल उठाये थे तो आज मेरा सवाल जनपक्षधर सारे लोगों से है कि जनपक्षधरता आपपक्ष क्यों बनती जा रहीं है।

Thursday, 19 March 2015

संपूर्ण निजीकरण के लिए बहुत बड़ा विनिवेश लक्ष्य

संपूर्ण निजीकरण के लिए बहुत बड़ा विनिवेश लक्ष्य
सेबी ने नयी कंपनियों को जनता की जेब से पैसे निकालने की दे दी छूट
आर्थिक प्रबंधन का कार्यभार तेजी से रिजर्व बैंक के हाथों से छीनकर सेबी को हस्तांतरित करने की तैयारी
भारत के धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के वाहक हिंदू साम्राज्यवाद और इजराइल का यह नायाब गठबंधन अब भारतीयमहादेश ही नहीं,पूरी दुनिया के लिए बेहद खतरनाक होने लगा है।अमेरिका भी डरने लगा है कि जो भस्मासुर उसने पैदा कर दिया है, कहीं वहीं अमेरिकी वर्चस्व का अंत न कर दें।

पलाश विश्वास

संपूर्ण निजीकरण के एजंडे को अंजाम देने के लिए अगले वित्त वर्ष में बहुत बड़ा विनिवेश लक्ष्य तय किया गया है।

एक तरफ सेबी ने नयी कंपनियों को जनता की जेब से पैसे निकालने की दे दी छूट और नयी कंपनियों को आम जनता से शेयरों के मार्फत पूंजी वसूलने के लिए शेयर बाजार में पंजीकरण के नियमों में ढील दे रही हैं तो दूसरी तरफ बाजार नियामक सेबी अपनी बढी जिम्मेदारियों के तहत और अधिक खुदरा निवेशकों को पूंजी बाजार में आकर्षित करने, गतिशील बांड बाजार विकसित करने तथा सभी व्युत्पन्न खंडों के लिए समान नियामकीय प्रणाली बनाने के लिए एक नये खाके पर काम कर रहा है।

किस्सा यह है कि ई-कॉमर्स कंपनियां शेयर बाजार से पैसा जुटाने के लिए सेबी से आईपीओ के नियमों में ढ़ील देने की मांग कर रही हैं। कहा जा रहा है कि  सेबी अभी इन कंपनियों को आईपीओ में कोई ढील देने के लिए तैयार नहीं है। सेबी का कहना है कि वह निवेशकों के हितों के रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। कंपनियों को शेयर बाजार से पैसा जुटाने के लिए विस्तृत जानकारी देना जरूरी है साथ ही इसमें वही कंपनियां शामिल हो सकती हैं जिनकी वित्तीय स्थिति मजबूत है।दूसरी ओर,लिस्टिंग के नियमों में ढील भी दी जा रही है।

बाजार नियामक का यह कदम इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सरकार अगले वित्त वर्ष में घोषित लक्ष्य के मुकाबले बहुत ही ज्यादा करीब 10 अरब डालर का विनिवेश लक्ष्य तय किया है।कहने को  इसके तहत सार्वजनिक कंपनियों के शेयरों का और बडा हिस्सा आम निवेशकों को दिलवाने पर जोर होगा।दरअसल ये सरकारी उपक्रमों को औने पौने दाम पर देशी विदेशी निजी कंपनियों को बेचने की साजिश है और सत्ता में बैठे तमाम कारपोरेट दलाल इस एजंडे को अंजाम देने लगे हैं।

नया रोडमैप सरकार तथा अन्य भागीदारों से विचार विमर्श से तैयार किया जा रहा है।नये बगुला पैनल का गठन विनिवेश के अधूरे एजंडे के तेजी से अमल के मकसद से किया गया है,जाहिर है।

तिलिस्म इतना घना है

मुक्तबाजारी तिलिस्म इतना घना है और सुचनाओं पर जंजीरें इतनी जकड़ी हुई है कि भारतीय जनगण को भारत बांग्लादेश मैच में रोहित शर्मा के मैच के अलावा आज कुछ दूसरा दीखेगा नहीं।सुबह अखबारों को पढ़ते हुए और टीवी चैनलों को देखते हुए क्रिकेट कार्निवाल की चकाचौंध रौशनी में भारत के भविष्य पर मंडराती काली छाया कहीं नजर नहीं आयी।इस पर तुर्रा यह कि रणबीर कपूर, अनुष्का शर्मा और करण जौहर की फिल्म 'बॉम्बे वेलवेट' का ट्रेलर सामने आ गया है। अनुराग कश्यप ने अपने ट्विटर अकाउंट पर इस फिल्म का ट्रेलर लॉन्च किया है। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने इस फिल्म को भारत-बांग्लादेश के वर्ल्ड कप मैच के दौरान लॉन्च किया है। फिल्म में रणबीर एक स्ट्रीट फाइटर जॉनी बलराज का रोल कर रहे हैं, जबकि अनुष्का एक जैज सिंगर बनी हैं जिसका नाम रोजी है।

हेल्थ हब में लाचार हम

मैं अब बेहतर हूं।न स्वाइन फ्लू है और न मलेरिया है औरजान को खतरा नहीं है।महीने भर सुस्त रहने के बाद,दस दिनों तक कड़ाएंटीबायोटिक लेने के बाद सोलह सौ रुपये के ब्लड टेस्ट से पता चला कि बीमारी की वजह लीवर में बैक्ट्रीयल इंफेक्शन है और इसी वजह से रक्तचाप गिरा है,बुखार हो रहा है और डीहाइड्रेशन हो रहा है।दस दिनों के इलाज में पांच छह हजार फूंक चुके है और सिलसिला जारी है।

हमारा यह ब्यौरा भोगा हुआ यथार्थ है।

अभी रिटायर होने में एक साल है और महंगा इलाज संभव है।अगले साल इसी वक्त बीमार रहूंगा तो इलाज कराने की औकात नहीं है।

देश को हेल्थ हब बनाने के लिए पूंजी को खुल्ला खेल फर्ऱूखाबादी बना दने से आम जनता की बीमारियों के इलाज का कोई रास्ता बचा नहीं है।स्वास्थ बीमा के नाम पर डकैती का सिलिसिला बीमा बिल पास होने से और तेज जरुर हो गया है।

स्वाइन फ्लू को लेकर हंगामा है।कोलकाता में माकपा के बड़े नेता गौतम देब के स्वाइन फ्लू से अस्पताल में भर्ती हो जाने पर मास्क 270 के भाव थोक बिक रहे हैं।देश भर में एक लाख लोग भी स्वाइन फ्लू से बीमार नहीं है।आंकड़ों में जितने लोग बीमार हैं उससे दस गुणा लोग इस बीमार की चपेट में आकर बिना इलाज के ठीक भी हो चुके हैं।

हू की महामारी चेतावनी कुल मिलाकर मल्टीनेशनल दवा कंपनियों की मुनाफावसूली है।स्वाइन फ्लू ,हेपेटाइटस भी और एड्स के कहीं ज्यादा लोग पेट की तमाम बीमारियों से,मधुमेह से,टीबी से और कैंसर से मर रहे हैं।वैक्सीन का कारोबार फल फूल रहा है।ब्रांडेड दवाओं के कीमती वक्त में जीवन रक्षक दवाइयां नदारद हैं।

दिशाएं पूरी तरह गायब
इस लाचार समय में सामाजिक यथार्थ बीहड़ हैं और दिशाएं पूरी तरह गायब हैं।हम सारे लोग अंधेरे में चौराहे पर दिशाएं टटोल रहे हैं और दिशाएं कहीं मिल नहीं रही हैं।

ऐसा पहली बार हो रहा है कि अस्मिताओं के ठेकेदार तमाम क्षत्रप आर्थिक सुधारों की नैय्या पार लगा रहे हैं और भारत की संसद कारपोरेट लाबिइंग और कारपोरेट फंडिंग के तहत कारपोरेट रणनीति के तहत कारपोरेट एजंडे के मुताबिक चल रही है।

इस पर किस्सा यह है कि बजट सत्र के दौरान अहम बिलों पर चर्चा की वजह से देर शाम तक सदन की कार्यवाही चलती है। जिस वहज से संसद में मच्छरों का प्रकोप बढ़ जाता है। इस बाबत जया बच्चन ने कल बजट सत्र के दौरान चर्चा के समय इस बात की शिकायत भी की।

यानी इनके जीवन यापन में मच्छरों का हस्तक्षेप होताइच नहीं है और आम जनता की तकलीफों के बजाय इन मिलियनर बिलियनर सांसदों को संसद को मच्छर मुक्त करने की वैसी ही चिंता है,जितनी अपने वेतन,भत्तों,मुप्त विदेशयात्राओं और दूसरी सहूलियतों की।

भारतीय राजनीति को बिजली पानी और शहरी जनता की सहूलियतों तक सीमाबद्द कर देने वाले नये ईमानदार राजनीतिक विकल्प की ईमानदारी का फंडा भी फूटने लगा है।

चुनाव आयोग ने आम आदमी पार्टी समेत छह अन्य दलों को मान्यता खत्म करने का नोटिस जारी किया है।आयोग ने सभी दलों को यह नोटिस पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान खर्च का ब्यौरा नहीं देने पर जारी‍ किया है। इन दलों को कड़ी चेतावनी जारी करते हुए आयोग ने इनके खिलाफ चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) नियम की धारा 16 (ए) लगाई है। गौरतलब है कि आयोग को नियमों का उल्लंघन करने वाले किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल की मान्यता रद्द करने या समाप्त करने का अधिकार है।

बहरहाल, आयोग ने इन दलों को आदेश का अनुपालन करने के लिए 20 दिनों का अंतिम समय दिया है।

सबसे भयंकर राजनय के भगवे करण और विदेश नीति के हिंदुत्व पर खामोशी
भारत की संसद विदेश नीति और राजनय पर खामोश है और राष्ट्रहित के खिलाफ विदेश नीति और राजनय  में हिंदुत्व कार्ड खेल रहे हैं मोदी।

सार्क शिखर सम्मेलन से लेकर मारीशस यात्रा तक यह सिलसिला जारी है और भारत के महान जनप्रतिनिधियों ने भारत की विदेश नीति और राजनय के भगवेकरण पर चूं तक नहीं किया है और अब तो हद हो गयी है।

सबसे भयंकर तो यह है कि स्वतंत्र फिलीस्तीन राष्ट्र कभी न बनने देने के वायद के साथ चौथी बार इजराइल के  प्रधानमंत्री बन रहे कट्टरपंथी नितान्याहु के समर्थन में मजबूती से खड़े हैं भारत के प्रधानमंत्री।जबकि इस जीत पर अमेरिका तक में सन्नाटा है और अमेरिका में बसे यहूदी भी नितान्याहु को अमेरिकी संसद को संबोधित करने की इजाजत देना नहीं चाहते।

खास बात यह है कि नितान्याहु के लिए पलक पांवड़े बिछाये संघ परिवार और ग्लोबल हिंदुत्व के विपरीत उनके आका अमेरिका ने इजरायल के संसदीय चुनाव में प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की जीत के बाद चुनावी अभियान के दौरान अरब-इजरायल समुदाय के मतदाताओं के लिए दिए गए बयान की निंदा की है।

समाचार एजेंसी सिन्हुआ की रिपोर्ट के अनुसार, व्हाइट हाउस के प्रेस सचिव जोश अर्नेस्ट ने बुधवार को संवाददाताओं से कहा, ''अमेरिका उस टिप्पणी से चिंतित है, जिससे अरब-इजरायली नागरिकों को हाशिए पर रखने की बात परिलक्षित होती है।'' उन्होंने कहा, ''यह मूल्यों और लोकतांत्रिक आदर्शो की अवहेलना करता है, जो हमारे लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण रहा है और अमेरिका तथा इजरायल दोनों को जोड़ने के लिए महत्वपूर्ण है।''

नितान्याहू ने मंगलवार को मतदान के दिन अपने फेसबुक पर एक वीडियो पोस्ट किया था, जिसमें उन्होंने अपने समर्थकों से कहा था कि अरब मतदाता बड़ी संख्या में मतदान के लिए निकल रहे हैं। दक्षिणपंथी सत्ता को बचाने का एकमात्र रास्ता मतदान केंद्रों पर जाना और लिकुड पार्टी तथा जियोनिस्ट युनियन के बीच की खाई को कम करना है।

जियोनिस्ट युनियन की सांसद शेली याचिमोविच ने नितन्याहू के बयान को नस्लीय करार देते हुए उनकी निंदा की। अर्नेस्ट एकबार फिर इजरायल-फिलिस्तीन मतभेद के द्वि-राष्ट्र समाधान पर अमेरिकी समर्थन को दोहराया। अर्नेस्ट ने कहा, ''अमेरिका की लंबे वक्त से यह नीति रही है और यह राष्ट्रपति का नजरिया रहा है कि द्वि-राष्ट्र समाधान जारी तनाव और अस्थायित्व को समाप्त करने का बेहतर तरीका है।''

भारत के प्रधानमंत्री भारत को इजराइल का अमेरिका से बड़ा पार्टनर बनाने पर तुला हुआ है और इसका सीधा मतलब है कि भारत में आने वाले दिनों में गैरहिंदुओं,दलितों की ,स्त्रियों की शरणार्थियों की और आदिवासियों की शामत आने वाली है।

असम में नागरिकता की समीक्षा हो रही है,जिससे मुसलमानों को साथ साथ हिंदू बंगालियों की नागरिकता खतरे में पड़ने वाली है तो दंगो के नया सिलिसला शुरु करने का इंतजाम अलग से हैं।

भारत के धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के वाहक हिंदू साम्राज्यवाद और इजराइल का यह नायाब गठबंधन अब भारतीयमहादेश ही नहीं,पूरी दुनिया के लिए बेहद खतरनाक होने लगा है।अमेरिका भी डरने लगा है कि जो भस्मासुर उसने पैदा कर दिया है, कहीं वहीं अमेरिकी वर्चस्व का अंत न कर दें।

बुनियादी जरुरतें,खाद्य सामग्रियां, बुनियादी सेवाएं,बिजली पानी ईंधन से लेकर शिक्षा चिकत्सा सबकुछ महंगी
दूसरी ओर,अर्थव्यवस्था का हाल यह है कि आंकड़ों में विकास दर बल्ल बल्ले।मुद्रास्फीति  शून्य है और उत्पादन के आंकड़े भी बेहतर हैं।

मजा देखिये कि मुद्रास्फीति शून्य है और बुनियादी जरुरतें,खाद्य सामग्रियां,बुनियादी सेवाएं,बिजली पानी ईंधन से लेकर शिक्षा चिकत्सा सबकुछ महंगी है।

मुक्तबाजार में दाने दाने को मोहताज है बहुसंख्य जनगण।

आजीविका रोजगार खत्म है।

शिक्षा, चिकित्सा, पेयजल, ईंधन,परिवहन जैसी बनियादी सेवाें दिनोंदिन बाजार के हवाले हैं।

फिरभी आप चाहे तो मोदी से भी बेशकीमती सूट और परिधान किश्तों पर खरीद सकते है।उपभोक्ता बाजार बल्ले बल्ले।

ईटेलिंग के अलावा अब ई फैशन भी उफान पर है तो रंगभेदी सौंदर्य उद्योग की क्या कहें।

न किसी को बच्चों के कुपोषण की चिंता है और न असहाय लोगों की बेरोजगारी और भुखमरी की,न आपदाओं की,न चौपट होती खेती की,लेकिन शौचालय अभियान जारी है।

स्त्री उत्पीड़न रोकने के बजाय स्त्री को बाजार में खड़ा करने का कारोबर जोरों पर है और शौचालय उनका सुरक्षा कवच बताया जा रहा है।

कितनी आसानी से बहल जाते हैं हम।

किसी भी पोपुलर हथकंडे से बुनियादी मुद्दों को भूल जाते हैं हम।

टिकट पांच का,प्लेटफार्म टिकट लेकिन दस रुपये का
अर्थव्यवस्था का प्रबंधन ऐसा है कि न्यूनतम रेलवे टिकट पांच रुपये का है और प्लेटफारम टिकट दस रुपये का।

आम जनता खबरों को आत्मसात करने से पहले निजी दिनचर्या के अनुभवों को सच की कसौटी बना लें तो भी यह तिलिस्म टूट सकता है।लेकिन कार्निवाल संस्कृति के बीच सामाजिक यथार्थ सिरे से लापता है।

पहली बार ऐसा हुआ है कि अमेरिकी फेड बैंक के ब्याज दरों में वृद्धि की आशंका से भारत की अर्थव्यवस्था थरथरा रही है और निवेशकों की आस्था डगमगा गयी।

भारत की अर्थव्यवस्था अब कुल मिलाकर निवेशकों की आस्था है,जिसे बहाल रखने के लिए नरसंहाक की निरम्मता से भी बाज नहीं आ रहा है राष्ट्र।

इसीलिए सैन्य राष्ट्र तेजी से रेडियोएक्टिव होता जा रहा है।

बहरहाल अमेरिका की केंद्रीय बैंकिंग प्रणाली फेड रिजर्व ने ब्याज दरें बढ़ाने से इन्कार कर दिया है। फेड रिजर्व के बैठक में यह निर्णय लिया गया कि फिलहाल महंगाई का दबाव बना हुआ है, इसलिए ब्याज दरों को बढ़ाने का उचित वक्त नहीं है।

गौरतलब है कि भारत में मौद्रिक नीति तय करने की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की है, जिस पर ब्याज दरें घटाने का लगातार दबाव बना हुआ है। वहीं, अमेरिकी फेडरल रिजर्व भी बड़ी सावधानी से फैसले ले रहा है।

गौरतलब है कि  अमेरिकी इकोनॉमी की स्थिति हालांकि धीरे-धीरे सुधर रही है, मगर महंगाई का दबाव बना हुआ है। कच्चे तेल की कीमतों में कमी के कारण महंगाई नियंत्रण में है लेकिन ये स्थाई नहीं है।

फेड के चेयरमैन जेनेट येलेन का कहना है कि महंगाई 2 फीसदी के लक्ष्य पर आने के बाद ही दरें बढ़ाई जाएंगी। यही नहीं, यूएस फेड ने अपने स्टेटमेंट से संयम शब्द को भी हटा दिया है।

बहरहाल अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने जून में दरें नही बढ़ने के संकेत दिए हैं। इसके साथ ही फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरें बढ़ाने के समय पर भी कोई फैसला नहीं लिया है। अगली कुछ एफओएमसी बैठकों में ब्याज दरें बढ़ने की संभावना नहीं है। आर्थिक आंकड़ों को देखकर दरें बढ़ाने पर फैसला लिया जाएगा।

इसके बावजूद डालर वर्चस्व का आलम यह है कि  फेड रिजर्व के इस फैसले से भारत जैसे उभरती अर्थवयवस्था में तेजी तो आएगी,जैसा नयेसिरे से आज भारतीयशेयर बाजार में बुलरन फिर चालू हो जाने से साबित है, लेकिन यह तेजी मूलतः लिक्विडिटी पर आधारित होगी।

क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था कुल मिलाकर अब निवेशकों की आस्था है।

क्योंकि वहां के निवेशक एफआईआई के माध्यम से शेयर बाजार में निवेश करेंगे। क्योंकि  थोड़ी सी भी हानि की आशंका में वे भारतीय अर्थव्यवस्था को मंझधार में फंसाकर अपने पैसे को निकाल कर चलते बनेंगे।

इससे शेयर मार्केट के तेजी से गिरने की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता। इसलिए अर्थव्यवस्था में सुधार के बिना ज्यादा निवेश आना अच्छा संकेत नहीं है।

लेकिन अर्थव्यवस्था में बुनियादी सुधार या मृत उत्पादन प्रणाली में प्राण फूंकने का कोई प्रयास डाउ कैमिकल्स और मनसेंटो की बिजनेस फ्रेंडली सरकार करना नहीं चाहती,जिसका सारा जोर अबाध विदेशी पूंजी प्रवाह और एफडीआई राज पर है।

लेकिन सारा जोर दूसरे चरण के आर्थिक सुधार लगाकर मेकिंग इन अमेरिका के पीपीपी माडल विकास पर है।

वित्तीय नीति की जगह अब धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद ने ले ली है।
उसी तरह विदेशनीति की जगह भी  धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद ने ले ली है।
इसी के साथ साथ भारत में आर्थिक प्रबंधन का कार्यभार तेजी से रिजर्व बैंक के हाथों से छीनकर सेबी को हस्तांतरित करने की तैयारी है।मसलन सरकार आरबीआई की सरकारी बॉन्ड्स को रेग्युलेट करने की पावर उससे छीनकर सेबी को देने की तैयारी कर रही है।

माना जा रहा है कि सरकार के इस कदम से आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन और सरकार के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो सकती है। मुद्रा बाजार से संबंधित अन्य पावर्स आरबीआई के पास ही रहेंगी।

सरकारी सूत्रों के मुताबिक अरूण जेटली रिटेल निवेशकों को आकर्षित कर बॉन्ड मार्केट को फैलाने और मौद्रिक नीति के हस्तांतरण में सुधार करना चाहते हैं। उम्मीद की जा रही है कि दिल्ली में इस रविवार को होने जा रही पॉलिसी मीटिंग में इस बारे में कोई निर्णय लिया जाएगा।

इस बीच विनिवेश के रोज नये तरीके निकाले जा रहे हैं।मसलन वैश्विक रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने आज कहा कि सरकार की सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में चुनिंदा आधार पर पूंजी डालने की पहल स्वागत योग्य कदम है लेकिन इस प्रक्रिया में पीछे छूट जाने वाले छोटे बैंकों की वृद्धि प्रभावित हो सकती है। स्टैंडर्ड एंड पुअर्स की वरिष्ठ निदेशक गीता चुघ ने एक कॉन्फ्रेंस कॉल में कहा 'हमारे विचार से दक्षता को प्रोत्साहन देना दीर्घकालिक स्तर पर अच्छी रणनीति है, लेकिन अल्पकाल में इससे सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ बैंकों में पूंजी का दबाव बढ़ सकता है।'

इसी के मध्य सेबी ने नयी कंपनियों को जनता की जेबों से पैसे निकालने की छूट देदी है।इस सिलसिले में इकोनामिक टाइम्स ने लिखा हैः
Regulator may ease norm mandating cos to use IPO proceeds to build tangible assets
Market regulator Sebi could ease rules that govern the public listing of shares by startups in India, a move that will remove one of the biggest hurdles cited by new-economy entrepreneurs who now look overseas while planning an initial public offer.
The Securities & Exchange Board of India could scrap norms that require companies to use proceeds from a public listing to build tangible assets or buy plant and machinery, according to a Reuters report, and the regulator is preparing to unveil a consultation paper later this month on listing norms for micro, small and medium enterprises, sources in the department of micro, small and medium enterprises told ET.
इकानामिक टाइम्स का यह बजट भी बेहद मौजूं है,जिसमें खुलासा किया गया है कि डाउ कैमिकल्स और मनसैंटो की हुकूमत में आखिर इस मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था से फायदा किसे हो रहा हैः

Mar 19 2015 : The Economic Times (Kolkata)
Bull-ied By The Budget



Investors betting on a post-Budget market surge have mostly made money . This year has been an exception with the Sensex falling 3.1% from the closing levels of February 28 even though the market broadly welcomed the Budget. Some analysts say the rate cut soon after the Budget dried up the supply of positive news or triggers, as another cut in the near future was ruled out. Indian markets had surged in the past year because of expectations that economic growth would pick up because of measures introduced by the Modi government. Expectations may have been ahead of reality and investors are now focussing on US Fed's interest rate policy and March quarter results, reports Rajesh Mascarenhas.

Wednesday, 11 March 2015

Making in  Sovereignty under US surveillance

Making in  Sovereignty under US surveillance!
Digital Desh means Ameriki Upanivesh!

That is why we protest Digital, Biometric, Robotic cloning of citizens in US interest for free flow of foreign capital.
That is why UID must be discarded
Palash Biswas
We have been protesting UID since beginning.I am not only writing against this self destruction but I have been speaking against it on public forums countrywide.

Because it is originally a NATO plan against humanity and Nature which already has been discard by European countries.

In India, it has become the best tool of ethnic cleansing and made the private IT companies richer which means what Modi makes in.
Making in  Sovereignty under US surveillance!

It is making in a complete US peripherry!
Just see this:
Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg
http://youtu.be/WvoSLuqYvQs

Digital Desh means Ameriki Upanivesh!
Sovereignty under US surveillance!

That is why we protest Digital, Biometric, Robotic cloning of citizens in US interest for free flow of foreign capital.

The  anti national, anti people billionaire millionaire Desh Becho Brigade has nothing to do with either the Sovereignty of the nation or the Sovereignty of individual citizen.

Just because it is rooted in United States of America and it is handing over the Nation,national security,sovereignty and national resources to United States of America.

Bull Run is being explained as GDP.
Economy is all about SENSEX and Nifty.
Production System devastated.

Agrarian Communities must die for PPP Model development ,for Builder Mafia Promoter Infra desi videshi companies.
Defence is handed over to FDI.

Railway is handed over to Foreign capital.

Retailers must die because Retail converted to etailing!FDI no FDI makes no difference as Alibaba and Chalees Chor have taken over the streets.

Rural India has to give way for Smart and super Smart  digital WI FI mega cities,suburbans and cemented Jungle killing the Green.

India has opted for Nuclear Energy and closed US Reactor industry resumes production to make our Hawa Pani Jivn Yapan Dharm Karma radio Active without wahtsover liability because Dow Chamicals as well as Monsanto manage Indian Economy and Indin Politics with high voltage Hindutva.

Financial Hubs making way to make the black money white and inject it in Indian Economy to deprive the masses of everything they have.

Budget is meant for the Haves and Have NOTs have to melt away.

Public sector banks have to become holding companies while RBI and all its departments have representation from private capital and companies.

Land Acquisition is all about PPP model without hearing,without compensation, without job ,without security of life and property.

Insurance is unit linked.The premium has not to return and the insurance coverage is the blooming business for the US based private companies.

PF,Pension,Gratuity and Bank deposit have to go to market as the digital database makes it so easy and inclusive Jan Dhan ,the opening of hundreds of Millions of Bank Accounts lined with Demat account makes every citizen scapegoats of market players.

The Revenue paid by the public and the individual property of Indian citizens as well has to make in a capitalist world of cent percent Hindutva.

Free Market Economy for US weapon industry and the Indian Republic reduced to the biggest emerging market has the greatest stakes for US Imperialism which makes India a DRONE country under massive US mass surveillance of Indian citizens and the Hegemony makes India Degital amd Biometric to serve the cause. It is all about the smarasata katha,the inclusive AAdhar Niradhar saga.

The hindutva is the opium which blinds the masses and they fail to see how security and internal security have been handed over to NASA, Pentagon, Nato,NSA,CBI and MOSSAD.

Indian state has been made essentially a Military State ruled by the Billionaire  Millionaire corporate hegemony funded and run by the corporate,for the corporate and of the corporate.

The ruling hegemony has nothing to do with religion,say Hindutva,it is just using the Hindu Imperialism against the majority agrarian communities, the small and medium business and small and medium industry making in the bullet super speed industrial corridor to kill the aborigin indigenous black and non Aryan demography.

The ruling hegemony is engaged in AFSPA rule and Salwa Judum in every part of the nation in its active business friendly governance making citizenship biometric,digital and robotic.

It is cloning of elite kulin citizenship ejecting out the odd majority.

Ironically,in Indian Parliament,no political Party has opposed this most lethal weapon of mass destruction.

Neither the Government of India or the Parliamentary Politics of India has ever lodged its protest against the DRONE flying over our sky,against the guided bullet named after every citizen and the massive US mass surveillance programme of Indian citizens.

Our mailing is deactivated,Our browsing is limited.Internet is meant for etailing and entertainment and no flow of information is allowed in any form despite the free flow of hate campaign round the clock,despide the multidimensional SEX Business.

Even the latest version of Politics claimed to be the alternative to corrupt Corporate Indian Politics,Ex Youth for Equality in AAP Avtar has to do nothing against PPP model, privatisation, disinvestment, FDI,displacement and UID.

AAP ensured landslide mandate in Delhi and no one may get a ration card without Aadhar in Delhi.
Supreme court has ordered against any linking of Aadhar to primary basic services and banned the suspension of civic rights making mandatory the Aadhar.

Cash Subsidy to kill the subsidy is linked to Aadhar and it is contempt of Supreme court.

No one is speaking out.

Voter Identity is being linked to Aadhar and voter cards without Aadhar Number have to discarded to snatch citizenship of India citizens and ironically,it is cent percent Hindutva.

It is again blatant contempt of Supreme court.
No one is speaking.

Those speaking,writing against foreign interest,those trying to communicate information are under mass US surveillance not only in India,but all over the free market made globe including United States of America.

Nobody cared to react or notice till this date as I am blocked and deactivated since AAP victory In Delhi.
Now, Anand Patwardhan`s site is also being blocked.

How genuine is the threat?

Wikimedia Foundation, the nonprofit organization that runs free online encyclopedia Wikipedia, will file a lawsuit against the National Security Agency and the US Department of Justice, challenging the government’s mass surveillance programme.The NSA and the DoJ were not immediately available for comment outside regular US business hours. Reuters

Reuters:The lawsuit, to be filed on Tuesday, alleges that the NSA’s mass surveillance of Internet traffic in the United States — often called Upstream surveillance — violates the US Constitution’s First Amendment, which protects freedom of speech and association, and the Fourth Amendment, which protects against unreasonable search and seizure.

The NSA’s Upstream surveillance programme captures communications with “non-US persons” in order to acquire foreign intelligence information.

“By tapping the backbone of the internet, the NSA is straining the backbone of democracy,” Lila Tretikov, executive director of the Wikimedia Foundation wrote in a blog post on its website.

“Wikipedia is founded on the freedoms of expression, inquiry, and information. By violating our users’ privacy, the NSA is threatening the intellectual freedom that is central to people’s ability to create and understand knowledge.”

The NSA’s current practices exceed the authority granted by the Foreign Intelligence Surveillance Act that Congress amended in 2008, Wikimedia said.

“We are asking the court to order an end to the NSA’s dragnet surveillance of Internet traffic,” Wikipedia founder Jimmy Wales wrote in an opinion piece in the New York Times.

Wikimedia and eight other organizations filing the lawsuit, including the Human Rights Watch and Amnesty International USA, will be represented by the American Civil Liberties Union.
Major US technology companies suffering from the fallout of NSA’s mass surveillance programs are uniting to shore up their defenses against government intrusion.